19/11/2023
हमारे बुजुर्गों से ही हमारी पहचान होती हैं।
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Here, we embark on a transformative journey into the realm of ancient wisdom and spiritual enlightenment. Our page is dedicated to exploring the profound teachings of Sanskrit Shlokas and their timeless values, offering insights and guidance for a meaningful and fulfilling life. Join us as we delve into the depths of Sanskrit literature, uncovering the hidden gems of wisdom contained within the Sh
lokas. We bring you a rich tapestry of Shlokas from revered texts such as Chanakya Niti, Vidur Niti, Raja Bharthari's Shatak, Rigveda, and other Vedic scriptures. Through our curated content, we strive to make this ancient wisdom accessible, relevant, and applicable to our modern lives. Here, you will find a treasure trove of Sanskrit Shlokas and their meanings in Hindi. We go beyond mere translations, diving deep into the essence of each Shloka to extract its profound teachings. Our aim is to bridge the gap between ancient wisdom and contemporary living, empowering you to integrate these teachings into your daily life and experience positive transformations. Explore our posts, videos, and articles that unravel the deeper meanings, practical applications, and spiritual significance of the Shlokas. We provide historical context, insightful commentaries, and practical guidance, helping you connect with the wisdom of the ages and apply it to various aspects of your life, including personal growth, relationships, success, ethics, and spirituality.
हमारे बुजुर्गों से ही हमारी पहचान होती हैं।
गायत्री महामंत्र वेदों का एक महत्त्वपूर्ण मंत्र है जिसकी महत्ता ॐ के लगभग बराबर मानी जाती है। यह यजुर्वेद के मन्त्र 'ॐ भूर्भुवः स्वः' और ऋग्वेद के छन्द 3.62.10 के मेल से बना है।
इस मंत्र में सवितृ देव की उपासना है इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र के उच्चारण और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। इसे श्री गायत्री देवी के स्त्री रूप में भी पूजा जाता है। (source: wikipedia)
इस वीडियो को नियमित रूप से सुनने के लाभ में से कुछ शामिल हैं: आत्मिक शक्ति, शांति और सुख की प्राप्ति बुद्धि, ज्ञान और संवेदनशीलता की वृद्धि मानसिक चंचलता को नियंत्रित करना और मन को शांत करना सत्य, ज्ञान और ब्रह्मचर्य के गुणों का विकास करना आध्यात्मिक संयम, ध्यान और स्वयं को पुरुषार्थ के माध्यम से उन्नत करना गायत्री मंत्र एक प्राचीन और प्रभावशाली मंत्र है जिसे नियमित रूप से सुनने और जप करने से हम आत्मिक और मानसिक विकास को प्राप्त कर सकते हैं।
यह मंत्र हमारे जीवन को सुख, शांति, ब्रह्मचर्य और आध्यात्मिकता की ओर ले जाता है। यदि आप आध्यात्मिक उन्नति और आत्म-साक्षात्कार की इच्छा रखते हैं, तो गायत्री मंत्र को सुनना और जप करना आपके लिए उपयोगी हो सकता है। इस वीडियो को देखें और गायत्री मंत्र की ध्वनि के साथ अपने मन को शांत करें और आध्यात्मिक ऊर्जा को प्राप्त करें।
song credit: Yoga Vidya Gurukul
जीवन के १० उपयोगी ज्ञानवर्धक श्लोक:
नमस्ते दोस्तों! आज हम आपके साथ वेदांती श्लोकों के माध्यम से 10 महत्वपूर्ण जीवन सिखों को साझा कर रहे हैं। ये श्लोक हमें जीवन के अनमोल मूल्यों की पहचान करने में मदद करते हैं।
श्लोक 1: नास्ति बुद्धिमतां शत्रुः
इस श्लोक से हम सीखते हैं कि बुद्धिमान व्यक्ति का कोई भी शत्रु नहीं हो सकता। बुद्धिमान व्यक्ति विवेकपूर्ण निर्णय लेने में समर्थ होता है और उसकी सोच विकल्पों से परे होती है।
श्लोक 2: विद्या परमं बलम
विद्या ही हमारा सबसे महत्वपूर्ण संसाधन है। यह हमें शक्तिशाली बनाती है, समझदारी देती है, और सफलता की ओर आगे बढ़ने में मदद करती है।
श्लोक 3: सक्ष्मात् सर्वेषों कार्यसिद्धिभर्वति
इस श्लोक से हम जानते हैं कि यदि हम अपने कामों में समर्पित हों और सक्षमता से काम करें, तो हमारी मेहनत से हमेशा सफलता मिलेगी।
श्लोक 4: न संसार भयं ज्ञानवताम्
ज्ञानवान व्यक्ति कभी भी भयभीत नहीं होता, क्योंकि वह सच्चाई की ओर आगे बढ़ता है और जानता है कि भय केवल अज्ञान से होता है।
श्लोक 5: वृद्धसेवया विज्ञानत्
यह श्लोक हमें शिक्षा और बुद्धिमता की महत्वपूर्णता बताता है। वृद्धा सेवा करके हम उनके अनुभव से सीख सकते हैं और विज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
श्लोक 6: सहायः समसुखदुःखः
जीवन में सहयोगी होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। सुख-दुखों में एक-दूसरे का साथ देने से जीवन के संघर्षों को सहने में आसानी होती है।
श्लोक 7: आपत्सु स्नेहसंयुक्तं मित्रम्
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि वास्तविक मित्रता तब दिखती है जब हमारे दोस्त हमारे साथ दुर्घटनाओं के समय में खड़े होते हैं।
श्लोक 8: मित्रसंग्रहेण बलं सम्पद्यते
इस श्लोक से हम यह सिखते हैं कि अच्छे दोस्तों के संग्रहण से हमारी शक्ति और संपत्ति में वृद्धि होती है।
श्लोक 9: सत्यमेव जयते
सत्य कभी हार नहीं सकता। इस श्लोक से हम यह सिखते हैं कि सत्य की विजय हमेशा होती है और असली सफलता सत्य में ही होती है।
श्लोक 10: विज्ञान दीपेन संसार भयं निवर्तते
विज्ञान की प्रकाशित दीप से हम संसार में भय को दूर कर सकते हैं। ज्ञान के माध्यम से हम जान सकते हैं कि आखिरी रूप में सब कुछ अच्छे के लिए ही होता है।
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जीवन के १० उपयोगी ज्ञानवर्धक श्लोक:नमस्ते दोस्तों! आज हम आपके साथ वेदांती श्लोकों के माध्यम से 10 महत्वपूर्ण जीवन स....
कोई किसी का मित्र या शत्रु क्यों बनता है ? चाणक्य नीति श्लोक १।
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४९. सत्यसंगति क्या करती है? दर्शनध्यानसंस्पर्शैर्मत्स्यी कूर्मी च पक्षिणि । शिशु पालयते नित्यं तथा सज्जनसंगतिः॥४९॥ भावार्थ : जैसे मछली, मादा, कछुवा और चिड़ियां अपने बच्चों का पालन क्रमशः देखकर, ध्यान देकर तथा स्पर्श से करती हैं, उसी प्रकार सत्यसंगति भी हर स्थिति में मनुष्यों का पालन करती है । इस श्लोक में कहा जा रहा है कि जैसे कि मछली, मादा, कछुआ और पक्षी अपने छोटे बच्चों का देखभाल करने के लिए ध्यान, दृष्टि, और स्पर्श करते हैं, वैसे ही सत्यसंगति भी सज्जनों के साथ संगति करने का आदान-प्रदान करती है। इस श्लोक से हमें यह सिखने को मिलता है कि सज्जनों के साथ संगति करना और उनका सत्कार करना हमें उनकी सत्यसंगति को प्राप्त करने में मदद करता है। सत्यसंगति एक ऐसी शक्ति है जो हमें सज्जनों के साथ शिक्षा, प्रेरणा, और आदर्शों का सामर्थ्य प्रदान करती है। यह हमें अच्छे गुणों और मू
बलवन्तो हि अनियमाः नियमा दुर्बलीयसाम् ॥११९॥ भावार्थ : बलवान को कोई नियम नहीं होते, नियम तो दुर्बल को होते हैं । इस श्लोक में कहा जा रहा है कि जो व्यक्ति शक्तिशाली होता है, उसे किसी प्रकार के नियमों की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि उसकी अपनी शक्ति ही उसे सब कुछ करने में सक्षम बना देती है। वह अपनी इच्छाशक्ति और सामर्थ्य के बल पर कार्रवाई कर सकता है। इसके उल्लेख से यह भी साबित होता है कि जो व्यक्ति दुर्बल होता है, उसे सामाजिक या आधिकारिक नियमों की आवश्यकता होती है, क्योंकि उसका स्वयं में इतना सामर्थ्य नहीं होता कि वह अपनी मर्जी से सभी कार्रवाई कर सके। इस श्लोक से हमें यह सिखने को मिलता है कि शक्तिशाली और स्वायत्तता से भरपूर व्यक्ति नियमों के परे जा सकता है, जबकि दुर्बल व्यक्ति को नियमों की आवश्यकता होती है। Please feel free to comment to share your views. #dailyinspiration #Sanskrit #hinduism #Sansthan #vedicwisdom #vedicshlokas
कौन से गुण मनुष्य को ख्याति देते हैं? अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च । पराक्रमश्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥४९॥ भावार्थ : बुद्धि, उच्च कुल, इंद्रियों पर काबू, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, कम बोलना, यथाशक्ति दान देना तथा कृतज्ञता - ये आठ गुण मनुष्य की ख्याति बढ़ाते हैं । इस श्लोक में आठ गुणों के महत्वपूर्ण आदर्श बताए जा रहे हैं, जो एक व्यक्ति को ख्याति प्रदान करते हैं: 1. प्रज्ञा (बुद्धि): एक व्यक्ति को बुद्धिमान बनाती है, जिससे वह अपने जीवन में सही निर्णय ले सकता है। 2. कौल्य (उच्च कुल): उच्च कुल में जन्म लेना एक व्यक्ति की स्थिति को महत्वपूर्ण बनाता है। 3. दम (इंद्रियों पर काबू): इंद्रियों को नियंत्रित करने की क्षमता, व्यक्ति को आत्मनिग्रह में मदद करती है। 4. श्रुतं (शास्त्रज्ञान): विद्या और शिक्षा के माध्यम से प्राप्त ज्ञान व्यक्ति को
यदभावि न तदभावी भावि चेन्न तदन्यथा ॥११८॥ भावार्थ : जो नहीं होना है वो नहीं होगा, जो होना है उसे कोई टाल नहीं सकता । इस श्लोक में कहा जा रहा है कि जो कुछ होने वाला है, वह होगा ही, और जो कुछ होने वाला नहीं है, वह कभी भी नहीं हो सकता। इससे एक प्रकार से यह सिद्ध होता है कि जीवन के नियमों और कारण-कारणों के अनुसार हमारा भविष्य निर्मित होता है, और हम उसे बदल नहीं सकते। इसमें जीवन की अनिश्चितता और प्राकृतिक नियमों का मूल्यांकन है। हमारा कुछ विषयों पर प्रभाव हो सकता है, लेकिन बहुत सारी घटनाएं हमारे नियंत्रण में नहीं होतीं और हमें उनसे गुजरना पड़ता है। इस भावार्थ से हमें स्वीकार करना पड़ता है कि जीवन में अनिश्चितता है, और हमें इसे स्वीकार करके उसके साथ सामंजस्य बनाए रखना चाहिए। Please feel free to comment to share your views. #dailyinspiration #Sanskrit #hinduism #Sansthan #vedicwisdom #vedicshlokas
कौनसी चीज़ें गर्भ से ही तय हो जाती हैं? आयुः कर्म वित्तञ्च विद्या निधनमेव च । पञ्चैतानि हि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः॥४७॥ भावार्थ : आयु, कर्म, वित्त, विद्या, निधन ये पांचों चीजें प्राणी के भाग्य में तभी लिख दी जाती हैं, जब वह गर्भ में ही होते है । इस श्लोक में कहा जा रहा है कि जब कोई व्यक्ति गर्भ में होता है, तब उसके आयु, कर्म, वित्त, विद्या, और निधन इन पाँचों चीजों का निर्धारण हो जाता है। इन तत्वों का सम्बंध उस व्यक्ति के भविष्य के साथ होता है। 1. आयु (Age): यह बताता है कि व्यक्ति की जीवनकाल की अवधि क्या होगी। 2. कर्म (Action): यह दिखाता है कि व्यक्ति के जीवन में किस प्रकार के कर्म होंगे और उन्हें कैसे निभाया जाएगा। 3. वित्त (Wealth): यह बताता है कि व्यक्ति कितना धन एकत्र करेगा और उसका वित्तीय स्थिति क्या होगा। 4. विद्या (Knowledge): यह बताता है कि व्यक्ति कितना ज्ञान प्राप्त करेगा और किस क्षेत
सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता ॥११७॥ भावार्थ : जैसा हमारा भविष्य होगा, वैसे ही सहायता हमें मिलती है। इस श्लोक में यह कहा गया है कि सहायता उसी रूप में मिलती है जैसा कि भवितव्यता होती है। इसका मतलब है कि जैसा हमारा भविष्य होगा, वैसे ही सहायता हमें मिलती है। यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि हमें अपने लक्ष्यों और भवितव्यता को ध्यान में रखकर ही सहायता प्राप्त होती है। जीवन में हम अनेक स्थितियों का सामना करते हैं, और जब हमारी सोच और क्रियाएं सही दिशा में होती हैं, तो हमें सही सहायता मिलती है। इससे हमें यह भी सिखने को मिलता है कि अगर हम अच्छे और सकारात्मक भविष्य का निर्माण करते हैं, तो जीवन हमारे लिए सहायक हो सकता है। यह एक सामाजिक और मानवीय सत्य है कि अगर हम अच्छे होते हैं, तो समाज और दुनिया भी हमें सहायता करती है। Please feel free to comment to share your views. #dailyinspiration #Sanskrit #hinduism #Sansthan #vedicwisdom #vedicshlokas
कैसे लोग सदा दुःखी रहते हैं? ईर्ष्यी घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः। परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःखिताः ॥४८॥ भावार्थ : ईर्ष्यालु, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संदेह करने वाला तथा दूसरों के भाग्य पर जीवन बिताने वाला- ये छह तरह के लोग संसार में सदा दुःखी रहते हैं । इस श्लोक में विभिन्न गुणों और आचरणों के माध्यम से दुःखी जीवन बिताने वाले व्यक्तियों का वर्णन किया गया है। 1. ईर्ष्यालु (ईर्ष्या रखने वाला): जो दूसरों के सफलता और समृद्धि से ईर्ष्या करता है, उसे सदैव दुःख ही मिलता है। 2. घृणा करने वाला: जो अन्यों की असफलता या दुर्भाग्य पर घृणा करता है, वह भी सुखी नहीं रह सकता। 3. असंतोषी: जो हमेशा अपने स्थिति से असंतुष्ट रहता है, उसे निरंतर दुःख ही अनुभव होता है। 4. क्रोधी: जो सदा क्रोधित रहता है, उसे सुख-शांति का अनुभव नहीं हो सकता। 5. संदेही: जो हमेशा शंका में रहता
माँ लक्ष्मी का निवास कहाँ होता है? मूर्खाः यत्र न पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसंचितम् । दाम्पत्योः कलहो नास्ति तत्र श्री स्वयमागता ॥४६॥ भावार्थ : जहां मूर्खों का सम्मान नहीं होता, अन्न का भण्डार भरा रहता है और पति-पत्नी में कलह नहीं हो, वहां लक्ष्मी स्वयं आती है । यह श्लोक बताता है कि जहां मूर्खों को सम्मान नहीं मिलता है, वहां धन की सुगंधि बनी रहती है। वहां भूख की कमी नहीं होती, और धन सुसंचित रहता है। इसके अलावा, जहां पति-पत्नी के बीच कोई कलह नहीं होता, वहां लक्ष्मी स्वयं ही पहुंचती है। इसमें सामाजिक और परिवारिक समरसता की महत्वपूर्णता को बताया गया है, जो एक सुखी और समृद्धि भरे जीवन के लिए आवश्यक हैं। Please feel free to comment to share your views. #chanakyaindailylife #chanakyaniti #dailyinspiration #vedicshlokas #vedicwisdom #lifelessons
चराति चरतो भगः ॥११६॥ भावार्थ : चलेनेवाले का भाग्य चलता है । यह श्लोक यह सुझाव देता है कि जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए हमें सकारात्मक क्रियाओं में लगना और सक्रिय रूप से चलना होता है। भाग्य उस व्यक्ति के साथ है जो सकारात्मक दृष्टिकोण रखता है, अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कठिनाईयों का सामना करता है, और सही दिशा में प्रगट होने के लिए प्रयासरत रहता है। यह भी दिखाता है कि सफलता का मूल मुख्यत: हमारे क्रियाओं, परिश्रम, और सकारात्मक दृष्टिकोण में है, जो हमें अग्रणी बनाता है और हमें जीवन में आगे बढ़ने में मदद करता है। Please feel free to comment to share your views. #dailyinspiration #Sanskrit #hinduism #Sansthan #vedicwisdom #vedicshlokas
भाग्यं फ़लति सर्वत्र न विद्या न च पौरुषम् ॥११५॥ भावार्थ : भाग्य ही फ़ल देता है, विद्या या पौरुष नहीं । इस श्लोक में बताया गया है कि जीवन में सफलता भाग्य पर निर्भर करती है और यह विद्या या पौरुष से नहीं। अब यहाँ "भाग्य" का अर्थ है व्यक्ति के जीवन में आने वाली घटनाओं या परिस्थितियों का प्रभाव जिन पर व्यक्ति का कोई नियंत्रण नहीं होता। इसका तात्पर्य है कि जीवन की कई घटनाएं हमारे नियंत्रण में नहीं होतीं और इनमें हमारी विद्या या पौरुष का कोई सीधा संबंध नहीं होता। यह एक युक्ति है जो कहती है कि जीवन के कई पहलुओं में हमें कुछ बातें नियंत्रित करने का अधिकार नहीं होता और इसमें भाग्य का महत्व होता है। विद्या और पौरुष भी महत्वपूर्ण हैं, लेकिन ये सामान्यत: उन क्षेत्रों में काम करते हैं जो हमारे नियंत्रण में हैं। Please feel free to comment to share your views. #dailyinspiration #Sanskrit #hinduism #Sansthan #vedicwisdom #vedicshlokas
सांसारिक सुख कैसे मिलता है? आरोग्यमानृण्यमविप्रवासः सद्भिर्मनुष्यैस्सह संप्रयोगः। स्वप्रत्यया वृत्तिरभीतवासः षट् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥४७॥ भावार्थ : स्वस्थ रहना, उऋण रहना, परदेश में न रहना, सज्जनों के साथ मेल-जोल, स्वव्यवसाय द्वारा आजीविका चलाना तथा भययुक्त जीवनयापन - ये छह बातें सांसारिक सुख प्रदान करती हैं । इस श्लोक में बताया गया है कि जीवन को सुखमय बनाए रखने के लिए व्यक्ति को निम्नलिखित बातों का पालन करना चाहिए: 1. आरोग्य: स्वस्थ रहना जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। 2. अनृण्यता: किसी से ऋण लेना और देना से बचना चाहिए। 3. अविप्रवास: परदेश में न रहकर अपने देश में रहना चाहिए। 4. सज्जनों के साथ संप्रयोग: अच्छे और सज्जन लोगों के साथ मिल-जोल रहना चाहिए। 5. स्वप्रत्यया वृत्ति: अपने कार्यों के लिए स्वयं का निर्णय करना चाहिए। 6. अभीतवास: भयमुक्त रहना और संतुलित जीव
कौन सिर्फ मरने के लिए पैदा हुआ है? धर्मार्थकाममोश्रेषु यस्यैकोऽपि न विद्यते । जन्म जन्मानि मर्त्येषु मरणं तस्य केवलम् ॥४५॥ भावार्थ : जिस मनुष्य को धर्म, काम-भोग, मोक्ष में से एक भी वस्तु नहीं मिल पाती, उसका जन्म केवल मरने के लिए ही होता है । इस श्लोक में कहा गया है कि जो व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष - इन चारों पुरुषार्थों में से किसी एक को भी प्राप्त नहीं कर पाता, उसका जीवन सिर्फ मरने के लिए ही होता है। उसे संसार में संघर्ष करने का कोई मकसद नहीं मिलता, और उसका जीवन केवल जन्म और मरण के बीच ही सीमित रह जाता है। इस श्लोक से यह सिखने को मिलता है कि मनुष्य को अपने जीवन में उच्च आदर्शों की प्राप्ति के लिए समर्पित रहना चाहिए ताकि उसे अपने जीवन का सार्थक और सफल दिशा मिले। Please feel free to comment to share your views. #chanakyaindailylife #chanakyaniti #dailyinspiration #vedicshlokas #vedicwisdom #lifelessons
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ॥११४॥ भावार्थ : मन ही मानव के बंधन और मोक्ष का कारण है । यह श्लोक मानव जीवन के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को समझाता है, और यह कहता है कि मन ही हमारे बंधन और मोक्ष का कारण है। मन एव मनुष्याणां कारणं: "मन ही" - यहां मन को सीधे रूप से कारण कहा गया है। बन्धमोक्षयोः: "बंध और मोक्ष का" - यह दोनों परम दुविधा जीवन में होने वाली स्थितियों को दर्शाता है, जिनमें बंधन जीवन की उबाऊता और मोक्ष स्वतंत्रता और मुक्ति की स्थिति को प्रतिनिधित्व करता है। इस श्लोक के माध्यम से बताया जा रहा है कि हमारे विचार और भावनाएं, जो मन के माध्यम से उत्पन्न होती हैं, हमें बंधन में रख सकती हैं या हमें मोक्ष की दिशा में ले जा सकती हैं। इसमें असली शक्ति हमारे मन में है, और हमें अपने मन की निगरानी रखनी चाहिए ताकि हम अच्छे और सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ सकें। Please feel free to comment to share your views. #
किस समय भाग जाना उचित होता है? उपसर्गेऽन्यच्रके च दुर्भिक्षे च भयावहे । असाधुजनसम्पर्के पलायति स जीवति ॥४४॥ भावार्थ : उपद्रव या लड़ाई हो जाने पर, भयंकर आकाल पड़ जाने पर और दुष्टों का साथ मिलने पर भाग जाने वाला व्यक्ति ही जीता है । यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि जीवन में कभी-कभी हमें बुरी स्थितियों का सामना करना पड़ता है, और इस समय अगर हम उचित निर्णय नहीं लेते हैं तो हमारा जीवन कठिनाईयों में फंस सकता है। इसलिए, यदि आपको ऐसी परिस्थितियों से बचना है, तो उपसर्ग (जैसे कि विघ्न, रोग, अशांति) से, अधिक दुर्भिक्ष (आकाल, अत्यंत अशांति की स्थिति) से और असाधुजनों के सम्पर्क से पलायन करना उचित होता है। इससे हमारा जीवन सुरक्षित रहता है और हम आत्म-समर्पण से अधिक सकारात्मक स्थितियों की ओर बढ़ सकते हैं। Please feel free to comment to share your views. #chanakyaindailylife #chanakyaniti #dailyinspiration #vedicshlokas #vedicwisdom #lifelessons
मनः शीघ्रतरं बातात् ॥११३॥ भावार्थ : मन वायु से भी अधिक गतिशील है । इस श्लोक के माध्यम से यह सिखने को मिलता है कि मन अत्यंत चंचल है और बहुतेतर विचारों को बड़ी तेजी से बदल सकता है, इसे शीघ्रता से बात करना चाहिए। Please feel free to comment to share your views. #dailyinspiration #Sanskrit #hinduism #Sansthan #vedicwisdom #vedicshlokas
सभी संकटों का मूल क्या है? लोभमूलानि पापानि संकटानि तथैव च । लोभात्प्रवर्तते वैरं अतिलोभात्विनश्यति ॥४१॥ भावार्थ : लोभ पाप और सभी संकटों का मूल कारण है, लोभ शत्रुता में वृद्धि करता है, अधिक लोभ करने वाला विनाश को प्राप्त होता है । यह श्लोक स्पष्ट रूप से बताता है कि लोभ सभी पापों और संकटों का मूल है। यहां लोभ के प्रभाव का विवरण किया गया है: 1. लोभमूलानि पापानि (लोभ के कारण ही पाप होते हैं): लोभ व्यक्ति को अनैतिक और दुराचारी कार्यों की ओर प्रवृत्ति करने में प्रेरित करता है, जिससे पाप होते हैं। 2. संकटानि तथैव च (और सभी संकट भी): लोभ न केवल व्यक्ति को पापों में डालता है, बल्कि समाज में भी उन्हें संकट में डाल देता है। 3. लोभात्प्रवर्तते वैरं (लोभ से शत्रुता उत्पन्न होती है): अधिक लोभ व्यक्ति को अन्य लोगों के साथ शत्रुता का सृष्टि करता है। 4. अतिलोभात्विनश्यति (अधिक लोभ से व्यक
कैसे गुणों को कभी नहीं छोड़ना? षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन । सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः ॥४५॥ भावार्थ : व्यक्ति को कभी भी सच्चाई, दानशीलता, निरालस्य, द्वेषहीनता, क्षमाशीलता और धैर्य - इन छह गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए । इस श्लोक में सिखने को मिलता है कि इन षडेव गुणों का त्याग कभी भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये गुण व्यक्ति की आचारशृंगार को सुधारने में मदद करते हैं: 1. सत्य (सच्चाई): सच्चाई कहना और सच्चाई के मार्ग पर चलना महत्त्वपूर्ण है। 2. दान (दानशीलता): दान करना और अपना साझा करना भी उच्च मूल्यों का पालन करना है। 3. अनालस्य (निरालस्य): निरालस्य रखना, यानी अलसी नहीं होना, सकारात्मक और सकारात्मक रूप से काम करने में मदद करता है। 4. मनसूया (द्वेषहीनता): दूसरों के प्रति द्वेष नहीं रखना, इससे समाज में मेलजोल बना रहता है। 5. क्षमा (क्षमाशीलता): क्षमा करना, गुनाहो
बच्चों की परवरिश कैसे होनी चाहिए? लालयेत् पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत् । प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत् ॥४३॥ भावार्थ : पुत्र का पांच वर्ष तक लालन करे । दस वर्ष तक ताड़न करे । सोलहवां वर्ष लग जाने पर उसके साथ मित्र के समान व्यवहार करना चाहिए । इस श्लोक के माध्यम से सिख मिलती है कि पुत्र के पालन-पोषण में विभिन्न चरण होते हैं जो माता-पिता को अपनाने चाहिए: 1. लालन (पांच वर्ष): पांच वर्ष तक बच्चे को आदरपूर्वक लालन करना चाहिए। इस समय में उसे सुरक्षित और स्वस्थ रखना महत्त्वपूर्ण है। 2. ताड़न (दस वर्ष): दस वर्ष तक बच्चे को नियमित शिक्षा, आदतें, और सीखें सिखाना चाहिए। उसके आत्मविकास को सहारा देना चाहिए। 3. मित्रवदाचरण (षोडश वर्ष): सोलहवें वर्ष के बाद, बच्चे के साथ मित्रता भाव बनाए रखना चाहिए। उसकी भावनाओं को समझना और उसे समाज में अच्छे से मिलनसर बनाए रखना चाहिए। य
गुरुणामेव सर्वेषां माता गुरुतरा स्मृता ॥११२॥ भावार्थ : सब गुरु में माता को सर्वश्रेष्ठ गुरु माना गया है । इस श्लोक में यह बताया गया है कि सभी गुरुओं में माता को सबसे श्रेष्ठ गुरु माना जाता है। गुरु का स्थान बहुत उच्च माना जाता है, क्योंकि वह शिष्य को ज्ञान और मार्गदर्शन में मदद करता है। इसमें माता को सबसे श्रेष्ठ गुरु मानने से यह सिखने को मिलता है कि मातृभाव और आदर्श शिक्षिका में अद्भुत शक्ति होती है। इसका मतलब है कि शिक्षा में माता का महत्त्व अत्यंत बड़ा है और वह सिखाने में सबसे प्रमुख होती है। Please feel free to comment to share your views. #dailyinspiration #Sanskrit #hinduism #Sansthan #vedicwisdom #vedicshlokas
कौन से गुण अच्छे और बुरे है? क्रोधो वैवस्वतो राजा तॄष्णा वैतरणी नदी । विद्या कामदुघा धेनुः सन्तोषो नन्दनं वनम् ॥४०॥ भावार्थ : क्रोध यमराज के समान है, और प्यास नरक की “वैतरणी” नदी के समान। विद्या सभी इच्छाओं को पूरी करने वाली कामधेनु है, और संतोष स्वर्ग का “नंदन” वन है । इस श्लोक में अलग-अलग तत्त्वों की उपमेयता की गई है: 1. क्रोधो वैवस्वतो राजा (क्रोध यमराज के समान है): क्रोध को यमराज, मृत्यु के अधिपति के समान बताया गया है, जिससे सुझाव मिलता है कि क्रोध अत्यंत अहांकारी और उग्र हो सकता है, जिससे हानि हो सकती है। 2. तॄष्णा वैतरणी नदी (तृष्णा प्यास की वैतरणी नदी के समान है): यहां तृष्णा को एक अत्यधिक प्यास की नदी के समान बताया गया है, जिससे सुझाव मिलता है कि अधीरता और अपनी लालसा में रहना दुख का कारण हो सकता है। 3. विद्या कामदुघा धेनुः (विद्या सभी इच्छाओं को पूरी करने वाली कामधे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥१११॥ भावार्थ : पुत्र कुपुत्र होता है लेकिन माता कभी कुमाता नहीं होती । इस श्लोक के माध्यम से यह बताया जा रहा है कि पुत्र हो सकता है कुपुत्र, यानी दुष्ट पुत्र, लेकिन माता कभी कुमाता नहीं होती। माता का प्रेम और स्नेह कभी भी शाश्वत नहीं बदलता है, चाहे बेटा कितना भी कुपुत्र क्यों न हो। इस श्लोक से पुत्र-माता के बीच अज्ञात और अद्वितीय बंधन की महत्ता और स्थायिता को बयान किया जा रहा है। Please feel free to comment to share your views. #dailyinspiration #Sanskrit #hinduism #Sansthan #vedicwisdom #vedicshlokas
एक परिवार में कितने पुत्र पर्याप्त हैं? किं जातैर्बहुभिः पुत्रैः शोकसन्तापकारकैः। वरमेकः कुलावल्भबो यत्र विश्राम्यते कुलम् ॥४२॥ भावार्थ : दुःख और शोक उत्पन्न करने वाले अनेक पुत्रों के पैदा होने से क्या लाभ। कुल को सहारा देनेवाले एक ही पुत्र श्रेष्ठ है, जिसके सहारे सारा कुल विश्राम करता है । इस श्लोक में बताया गया है कि अनेक पुत्रों की अपेक्षा में एक ही श्रेष्ठ पुत्र, जिससे कुल को सहारा मिले, अधिक लाभकारी है। अनेक पुत्रों के होने से शोक और संताप होता है, जो कुल को उच्च स्थान पर पहुँचाने में मदद नहीं करता। यह श्लोक परिवारिक समृद्धि और समर्थन के महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित करता है। एक समृद्धि योग्य और साहसी पुत्र का होना कुल के लिए वास्तविक सार्थक है जो समृद्धि और सुख-शांति की ओर पहुँचने में मदद कर सकता है। Please feel free to comment to share your views. #chanakyaindailylife #chanakyaniti #dailyinspir
न मातुः परदैवतम् ॥११०॥ भावार्थ : माँ से बढकर कोई देव नहीं है । इस श्लोक का भावार्थ है कि माता का स्थान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है और उसे अन्य किसी देवता से तुलना करना संभावनहीन है। मातृभावना और मातृसेवा में समर्पित रहना व्यक्ति को संतुष्टि, प्रेम, और समृद्धि की ऊँचाइयों तक पहुँचा सकता है। मातृत्व का महत्त्व शिक्षा, संस्कार, और प्रेम के साथ आता है, जिससे व्यक्ति को जीवन में सही दिशा और उदारता मिलती है। इस श्लोक ने मातृभावना की महत्त्वपूर्णता को उजागर किया है और यह सिद्ध कराता है कि माँ का स्थान अद्भुत और अत्यंत पवित्र है। Please feel free to comment to share your views. #dailyinspiration #Sanskrit #hinduism #Sansthan #vedicwisdom #vedicshlokas
वृद्धजनों की सेवा क्यों करनी चाहिए? अभिवादनशीलस्य नित्यं वॄद्धोपसेविनः । चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ॥३९॥ भावार्थ : जो नित्य विनम्रता से वृद्धजनों की सेवा करता है, उसके चार गुणों का विकास होता है - आयु, विद्या, यश और बल। इस श्लोक का अर्थ है कि जो व्यक्ति हमेशा वृद्ध व्यक्तियों की सेवा करने के लिए सदैव विनम्रता से आग्रहीत है, उसे यह चार गुण प्राप्त होते हैं - आयु, विद्या, यश, और बल। 1. आयु (Longevity): इस व्यक्ति की आयु बढ़ती है, क्योंकि वह नित्य वृद्धों की सेवा करके संतुष्ट और स्वस्थ जीवन जीता है। 2. विद्या (Knowledge): ऐसे व्यक्ति को विद्या की प्राप्ति होती है, क्योंकि वह वृद्ध व्यक्तियों के साथ समय बिताकर उनके अनुभव और ज्ञान का आदान-प्रदान करता है। 3. यश (Fame): व्यक्ति का यश बढ़ता है, क्योंकि उसकी नित्य सेवा भावना और विनम्रता उसे समाज में लोकप्रिय बनाती है। 4. बल (Strength): इस
किन व्यक्तियों को त्याग देना चाहिए? षडिमान् पुरुषो जह्यात् भिन्नं नावमिवार्णवे अप्रवक्तारं आचार्यं अनध्यायिनम् ऋत्विजम् । आरक्षितारं राजानं भार्यां चाऽप्रियवादिनीं ग्रामकामं च गोपालं वनकामं च नापितम् ॥४३॥ यह श्लोक विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों को त्यागने की सिद्धांत को सुझाता है। इसमें छः प्रकार के व्यक्तियों का वर्णन किया गया है जिन्हें त्याग देना चाहिए। 1. अप्रवक्तारं आचार्यं (चुप रहने वाले आचार्य): जो आचार्य हैं, लेकिन जो शिष्यों के सामने उपदेश नहीं देते हैं और चुप रहते हैं, उन्हें त्याग देना चाहिए। 2. अनध्यायिनम् (मंत्र न बोलने वाले पंडित): जो पंडित हैं, लेकिन जो वेद आदि के शिक्षा नहीं करते हैं और अध्ययन नहीं करते हैं, उन्हें त्याग देना चाहिए। 3. आरक्षितारं राजानं (रक्षा में असमर्थ राजा): जो राजा हैं, लेकिन जो अपने राज्य की रक्षा करने में असमर्थ हैं, उन
एक विद्वान पुत्र क्या कर सकता है? एकेनापि सुपुत्रेण विद्यायुक्ते च साधुना । आह्लादितं कुलं सर्वं यथा चन्द्रेण शर्वरी ॥४१॥ भावार्थ : जिस प्रकार अकेला चन्द्रमा रात की शोभा बढ़ा देता है, ठीक उसी प्रकार एक ही विद्वान -सज्जन पुत्र कुल को आह्लादित करता है । यह श्लोक एक सज्जन और विद्वान पुत्र की महत्ता को सुंदरता से वर्णित करता है। इसमें कहा गया है कि एक ही अच्छे गुणवत्ता से युक्त सुपुत्र का परिवार कुल में बड़ा आनंदित होता है, जैसे कि चंद्रमा रात की शोभा को बढ़ा देता है। विद्वान और साधु पुत्र, जब विद्या और धर्म की प्राप्ति में लगे रहते हैं, तो उनका परिवार आनंदमय होता है। इसका तात्पर्य है कि ऐसा पुत्र, जो समझदार, ईमानदार, और धर्मात्मा है, कुल को समृद्धि, सुख, और समृद्धि की ओर ले जाता है। चंद्रमा की तरह जिस प्रकार रात को आकाश को सुंदर बनाता है, ठीक उसी प्रकार विद्वान पुत्र भ
जीवन में भाग्य कितना महत्त्वपूर्ण है? यह श्लोक जीवन में भाग्य और पुरुषार्थ के बीच संतुलन को बताता है। इसका मतलब है कि जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए भाग्य और पुरुषार्थ, या कर्मशीलता, दोनों का सही संतुलन होना चाहिए। भाग्य का महत्त्व: जीवन में कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो हमारे नियंत्रण में नहीं होतीं, जैसे जन्म, मृत्यु, आपातकालीन परिस्थितियाँ, इत्यादि। इन घटनाओं को हम अपने भाग्य में स्वीकार करते हैं। भाग्य से मिलने वाली सुख-दुःख की घटनाओं का हम परिणाम स्वीकार करते हैं और इसे अपने कर्मों के फल के रूप में देखते हैं। पुरुषार्थ का महत्त्व: पुरुषार्थ से तात्पर्य है कार्यों में सजगता, कुशलता, और समर्पण से साकारात्मक प्रयास। इस श्लोक से यह सिखने को मिलता है कि हमें अपने कर्मों में समर्पित रहना चाहिए, और सही दिशा में सतत प्रयास करना चाहिए। संबंध: भाग्य और पुरुषार्
जितेंद्रिय कौन होता है? षण्णामात्मनि नित्यानामैश्वर्यं योऽधिगच्छति । न स पापैः कुतोऽनथैर्युज्यते विजितेन्द्रियः ॥४२॥ भावार्थ : जो व्यक्ति मन में घर बनाकर रहने वाले काम, क्रोध, लोभ , मोह , मद (अहंकार) तथा मात्सर्य (ईष्या) नामक छह शत्रुओं को जीत लेता है, वह जितेंद्रिय हो जाता है । ऐसा व्यक्ति दोषपूर्ण कार्यों , पाप-कर्मों में लिप्त नहीं होता । वह अनर्थों से बचा रहता है । इस श्लोक में सार्थकता है कि व्यक्ति जो नित्य रूप से अपने आत्मा के शासक बना रहता है और ईश्वरीय सामर्थ्य को प्राप्त करता है, वह सभी पापों से परे होता है और विजितेन्द्रिय, अर्थात अपने इंद्रियों को नियंत्रित करने वाला बनता है। - व्यक्ति जो सदैव आत्मा के परमेश्वर स्वरूप को ध्यान में रखता है, उसे ईश्वरीय सामर्थ्य प्राप्त होता है। यहां आत्मा को ईश्वर के साथ मेल कराने का भाव है। - जो व्यक्ति अपने मन, वचन, और
सर्वे मित्राणि समृध्दिकाले ॥१०९॥ भावार्थ : समृद्धि काल में सब मित्र बनते हैं । यह श्लोक दर्शाता है कि समृद्धि के समय सभी लोग मित्र बनने के लिए आपके पास होते हैं। जब आपके पास संपत्ति, सफलता और सुख होता है, तो लोग आपसी सम्बंध बनाए रखना चाहते हैं। इसमें एक सामाजिक तात्कालिकता हो सकती है, जहां लोग आपके साथ होने का आनंद लेते हैं, ताकि वे भी आपकी सफलता का हिस्सा बन सकें और अपने लाभ को बढ़ा सकें। Please feel free to comment to share your views. #dailyinspiration #Sanskrit #hinduism #Sansthan #vedicwisdom #vedicshlokas
कुलं शीलेन रक्ष्यते ॥१०८॥ भावार्थ : शील से कुल की रक्षा होती है । इस श्लोक का अर्थ है कि किसी भी समय और स्थिति में, कुल की रक्षा करने के लिए शीलता का पालन करना महत्वपूर्ण है। शीलता से मतलब यह है कि व्यक्ति या परिवार को नैतिकता, ईमानदारी, और सजगता के साथ आचरण करना चाहिए। इससे न केवल व्यक्ति का व्यक्तिगत विकास होता है, बल्कि पूरे कुल का भी समृद्धि होता है। शीलता के माध्यम से, व्यक्ति और परिवार समाज में आदर्श बनते हैं और उनका कुल समृद्धि, सम्मान, और सामाजिक समर्थन प्राप्त करता है। इस शीलता का पालन करना समाज में एक सकारात्मक प्रभाव डालता है और उच्चतम मूल्यों की प्रतिष्ठा करता है। इसके रूप में, व्यक्ति और परिवार समृद्धि की ओर बढ़ते हैं, जिससे कुल की उन्नति होती है। इस श्लोक से साफ होता है कि कुल का सर्वोत्तम रक्षा शीलता के माध्यम से ही संभव है, और शीलता का पालन करना हर स्
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