गृहेऽपि पज्चेन्द्रियनिग्रहः तपः ॥१३०॥
भावार्थ :
घर में रहकर पाँचों इन्द्रियों को वशमें रखना तप है।
यह श्लोक बताता है कि घर में रहकर पाँचों इन्द्रियों को वश में रखना भी एक प्रकार का तप है। यहाँ पाँच इन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, जीभ, और त्वचा) का संकेत है और इन्हें नियंत्रित करने का महत्त्व समझाया गया है।
गृहेऽपि पज्चेन्द्रियनिग्रहः तपः:
- गृहेऽपि (घर में): यह बताता है कि व्यक्ति को अपने दैनिक जीवन में, विशेष रूप से अपने घर में रहते हुए भी संयम और अनुशासन बनाए रखना चाहिए।
- पज्चेन्द्रियनिग्रहः (पाँच इन्द्रियों का निग्रह): यहाँ पाँच इन्द्रियों (दृष्टि, श्रवण, गंध, स्वाद, और स्पर्श) को नियंत्रित करने की बात की गई है।
- तपः (तपस्या): यह तपस्या का एक रूप है, जिसमें व्यक्ति अपनी इच्छाओं और भावनाओं पर नियंत्रण पाता है।
इस श्लोक का भावार्थ है कि सच्चा तप वही है जो व्यक्ति अपने घर म
क्या समूह में अध्ययन करना सही है?
एकाकिना तपो द्वाभ्यां पठनं गायनं त्रिभिः।
चतुर्भिगमन क्षेत्रं पञ्चभिर्बहुभि रणम् ॥५७॥
भावार्थ :
तप अकेले में करना उचित होता है, पढ़ने में दो, गाने मे तीन, यात्रा के समय चार, खेत में पांच व्यक्ति तथा युद्ध में अनेक व्यक्ति होना चाहिए ।
यह श्लोक जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझाता है और उनके लिए एक नेतृत्वपूर्ण मार्ग प्रस्तुत करता है। यहाँ एक साधक के जीवन के विभिन्न पहलुओं की चर्चा की गई है:
1. एकाकिना तपो: ध्यान और तपस्या को अकेले में करने का उल्लेख किया गया है।
2. द्वाभ्यां पठनं: ज्ञान और विचार को दो लोगों के साथ साझा करने का उल्लेख है।
3. गायनं: संगीत या मनोरंजन को तीन लोगों के साथ साझा करने का उल्लेख है।
4. चतुर्भिगमन: यात्रा या भ्रमण को चार व्यक्तियों के साथ करने का उल्लेख है।
5. पञ्चभिर्बहुभि रणम्: सामरिक युद्ध में पांचों दिशाओं से आगम
दीयमानं हि नापैति भूय एवाभिवर्तते ॥१२९॥
भावार्थ :
जो दिया जाता है वह कम नहीं होता बल्कि बढता है ।
"दीयमानं हि न पैति भूय एवाभिवर्तते" श्लोक का अर्थ है कि जो दिया जाता है, वह कम नहीं होता, बल्कि वह बढ़ता ही जाता है। यह श्लोक दान के महत्व को विवेचना करता है और बताता है कि जिस प्रकार दिया गया धान्य अपरिमित फल देता है, वैसे ही दान किया गया धन भी अधिकतम फल प्रदान करता है। यह श्लोक दान की महत्वपूर्णता को समझाता है और बताता है कि दान का फल हमेशा समृद्धि, समृद्धि और उत्तमता के रूप में वापस आता है।
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हस्तस्य भूषणं दानम् ॥१२८॥
भावार्थ :
दान हाथ का भूषण है ।
यहाँ "हस्त" यानी हाथ का उपयोग किया गया है जो किसी के लिए काम करता है, और दान को हाथ की भूषण के रूप में उजागर किया गया है। इस श्लोक में दान के महत्त्व को समझाया गया है कि यह किसी की भलाई और समृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। दान करने से व्यक्ति की आत्मा की शुद्धि होती है और समाज में समर्थता और एकता का भाव विकसित होता है।
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दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति ॥१२७॥
भावार्थ :
इस श्लोक के माध्यम से संदेश दिया जाता है कि हमें अपने कर्मों के परिणामों के लिए जिम्मेदार बनना चाहिए, न कि सब कुछ दैव को ही ठहराना चाहिए। हमें स्वयं कार्य करने और अपने जीवन को समर्पित करने की जरूरत है, और दैव को सब कुछ देने का कार्य उसे हमारे परिश्रम और उद्यम से भी सही रास्ते पर ले जाने का भागीदार बनाता है।
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किसका साथ आपको सुकून दे सकता है?
संसारातपदग्धानां त्रयो विश्रान्तिहेतवः।
अपत्यं च कलत्रं च सतां संगतिरेव च ॥५६॥
भावार्थ :
सांसारिक ताप से जलते हुए लोगों को तीन ही चीजें आराम दे सकती हैं – सन्तान, पत्नी तथा सज्जनों की संगति |
यह श्लोक समझाता है कि जीवन में साथी, परिवार, और सज्जनों का साथ अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। जब हम अपने परिवार और सम्बंधित व्यक्तियों के साथ होते हैं, तो हमें आत्मिक और भावनात्मक समृद्धि मिलती है, जो हमें सांसारिक चुनौतियों से लड़ने में मदद करती है।
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दुःखेनासाद्यते पात्रम् ॥१२६॥
भावार्थ :
श्लोक में व्यक्त किया गया है कि सत्पात्र (उपयुक्त व्यक्ति) को खोजना या पाना मुश्किल होता है। यह श्लोक समझाता है कि ऐसे लोग जो गुणवान और योग्य होते हैं, जो उपयुक्त और उत्तम गुणों से युक्त होते हैं, वे कम होते हैं। इसलिए, एक व्यक्ति को सत्पात्र के रूप में पाना या उसे खोजना अथाह प्रयास की जरूरत होती है। यह भी दिखाता है कि उच्च गुणवान और समर्पित व्यक्ति की कीमत बहुत होती है और ऐसे व्यक्ति को पाने के लिए कठिनाईयाँ आती हैं।
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कैसे व्यक्ति से सभी प्रेम करते हैं?
यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं न पौरुषेणापि विकत्थतेऽन्त्यान् ।
न मूर्च्छितः कटुकान्याह किञ्चित् प्रियंसदा तं कुरुते जनो हि ॥५५॥
भावार्थ :
जो व्यक्ति शैतानों जैसा वेश नहीं बनाता, वीर होने पर भी अपनी वीरता की बड़ाई नही करता, क्रोध् से विचलित होने पर भी कड़वा नहीं बोलता, उससे सभी प्रेम करते हैं ।
इस श्लोक में एक साधुपुरुष की गुणवत्ता और सभी के प्रति प्रेम की महत्वपूर्ण बातें दिखाई जा रही हैं। जो व्यक्ति दृढ़ निश्चय, नीति, और सच्चाई के साथ रहता है, उसका वेश शैतानों की भांति नहीं होता है। वह अपनी वीरता को शोभायमान करने के लिए नहीं करता, बल्कि वह नीतिपरायण होकर अपने मूल्यों को बनाए रखता है। उसका व्यवहार दुर्बलता और क्रोध से परिपूर्ण नहीं होता है, बल्कि उसमें मृदुता और सत्य की भावना होती है। इससे उसे सभी लोगों का प्रिय बना देता है, क्य
कैसे पुत्र का कोई लाभ नहीं है?
किं तया क्रियते धेन्वा या न दोग्ध्रो न गर्भिणी ।
कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान्न भक्तिमान् ॥५५॥
भावार्थ :
उस गाय से क्या करना, जो न दूध देती है और न गाभिन होती है । इसी तरह उस पुत्र के जन्म लेने से क्या लाभ, जो न विद्वान हो और न ईश्वर का भक्त हो ।
इस श्लोक में एक गाय की उपमहाद्वारा एक महत्वपूर्ण सिख दी जा रही है। गाय जो न तो दूध देती है और न ही गर्भवती होती है, उससे किसी को कोई लाभ नहीं होता। इसी रूप में, एक पुत्र का जन्म लेना जिसने न तो विद्वान है और न ही ईश्वर के प्रति भक्ति रखता है, वह जीवन में सही मार्ग पर चलने की क्षमता नहीं रखता। इस श्लोक से हमें यह सिखने को मिलता है कि हमें अपने जीवन को मूल्यवान बनाने के लिए ज्ञान और धर्म के मार्ग पर चलना चाहिए। बिना उच्च ज्ञान और आध्यात्मिक विकास के, हमारा जीवन अधूरा रहता है और हम अपने असली उद्देश्य
विनयाद् याति पात्रताम् ॥१२५॥
भावार्थ :
विनम्रता से व्यक्ति योग्य बनता है।
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि विनय और सभी को सम्मान देने की भावना के माध्यम से व्यक्ति योग्यता और पात्रता प्राप्त कर सकता है। विनीत, सभी को समझने वाला, और समर्पित व्यक्ति को लोग सदैव उपयुक्त मानते हैं। विनय व्यक्ति को प्रशिक्षित, सजीव, और परिस्थितिकियों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने में मदद कर सकता है। इस श्लोक से हमें यह सिखने को मिलता है कि विनीतता और समर्पण से ही व्यक्ति आगे बढ़ सकता है और समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
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संसार में कीर्ति किसको प्राप्त होती है?
न योऽभ्यसुयत्यनुकम्पते च न दुर्बलः प्रातिभाव्यं करोति ।
नात्याह किञ्चित् क्षमते विवादं सर्वत्र तादृग् लभते प्रशांसाम् ॥५४॥
भावार्थ :
जो व्यक्ति किसी की बुराई नही करता, सब पर दया करता है, दुर्बल का भी विरोध नही करता, बढ-चढकर नही बोलता, विवाद को सह लेता है, वह संसार मे कीर्ति पाता है ।
इस श्लोक के माध्यम से हमें यह सिखने को मिलता है कि एक व्यक्ति को जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण गुणों का पालन करना चाहिए।
1. न योऽभ्यसुयति (किसी की ईर्ष्या नहीं करता): यह गुण एक व्यक्ति को अन्यों की सफलता या भलाइयों के लिए जलन नहीं करने की क्षमता दिखाता है।
2. नुकम्पते च (और न किसी पर दया करता है): यह दिखाता है कि एक सहानुभूतिशील व्यक्ति दूसरों के प्रति दया भाव रखता है और उनकी मुश्किलें समझता है।
3. न दुर्बलः प्रातिभाव्यं करोति (दु
व्यक्ति कब बिना आग के ही जलता है?
कुग्रामवासः कुलहीन सेवा कुभोजन क्रोधमुखी च भार्या ।
पुत्रश्च मूर्खो विधवा च कन्या विनाग्निमेते प्रदहन्ति कायम् ॥५४॥
भावार्थ :
दुष्टों के गांव में रहना, कुलहीन की सेवा, कुभोजन, कर्कशा पत्नी, मुर्ख पुत्र तथा विधवा पुत्री ये सब व्यक्ति को बिना आग के जला डालते हैं ।
इस श्लोक में विभिन्न प्रकार की दुर्दशाओं का वर्णन है, जो एक व्यक्ति को आग से जला डालती हैं। इन दुष्ट प्रवृत्तियों को बचने के लिए यह शिक्षा दी जा रही है:
1. कुग्रामवासः (दुष्टों के गावं में रहना): एक व्यक्ति को दुष्ट साथीयों के साथ रहना नुकसानकारी हो सकता है।
2. कुलहीन सेवा (कुलहीन की सेवा): अपने कुल या परिवार का सम्मान नहीं करना भी व्यक्ति को नुकसान पहुंचा सकता है।
3. कुभोजन (दुष्ट आहार): अशुद्ध और दुष्ट आहार का सेवन करना व्यक्ति की सेहत को क्षति पहुंचा सकता है।
4. क्रोधमुखी च भा