19/04/2024
कर्म दृष्टि और ज्ञान दृष्टि
मेरे गुरु जी श्री संत खप्ति महाराज ने 113 वर्ष की उम्र होने के बाद देह त्याग कर दिया। मुझे केवल 12 वर्ष उनके साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। महाराज ने उनका उत्तराधिकारी घोषित कर मुझे उनका कार्य आगे बढ़ाने की आज्ञा दी थी। मुझे महाराज ने अनेकों शिष्यों में से एक ही को उत्तराधिकारी इस लिए बनाया था क्यों की महाराज ने मुझे जीवित रहते हुए उन का सब कुछ तत्व और कार्य मुझ अकेले को ही समझा दिया था। और दूसरे किसी शिष्य को नही। हमारे हिंदू धर्म में युगों युगों से परंपराएं गुरु-शिष्य की ही बनती आई है। ना की गुरु और गुरु के पुत्र की। महाराज स्वयं तत्वदर्शी और ब्रह्मनिष्ट संत थे तथा अपने शिष्यों को भी उनके गुरु से प्राप्त जो ज्ञान की जो बातें थी, वो समझाते थे। तत्वदर्शी संत वो होते है जिन्होंने परमात्मा का उपनिषद - प्रणित तत्वज्ञान आत्मसात किया हो तथा जो शिष्यों को भी ज्ञान दे कर आत्मसाक्षात्कार करा देते हो। ब्रह्मनिष्ट वो है जो स्वयं को भुला कर सर्वत्र परमात्मा ही ओतप्रोत भरा हुआ देखते है।
महाराज मुझे कहते थे की मनुष्य जीवन को दो दृष्टि से देखा जाता है। एक सामान्य जनों की चर्म दृष्टि तथा दूसरी ज्ञानियों की ज्ञान दृष्टि। महाराज तो कर्म दृष्टि को ही चर्म दृष्टि बोलते थे और यह उनका कहना सही भी था। बचपन से ही हम जो भी आंखों से देखते, समझते तथा हमारे पंच ज्ञानेंद्रियों पर जो संस्कार होते हैं वैसे ही हमारा व्यक्तित्व बनते जाता है और वैसेही हम सर्वत्र देखते भी है। हम सर्वत्र हर एक मनुष्य, प्राणी या निर्जीव वस्तू को पृथक पृथक कर देखते है। सर्वत्र भिन्नता देखने की जो भेद दृष्टी हैं, वही चर्म दृष्टी यानि द्वैत या भेद दृष्टि है। यह भेद दृष्टि तो हमे जन्म से ही प्राप्त है। हम अवश्य ही मनुष्य - मनुष्य में तथा मनुष्य और सृष्टि की अन्य सजीव निर्जीव वस्तुओं मे में भेद देखते है। सर्वत्र भेद देखने से ही सृष्टि के व्यवहार भी चलते है, यह हम जानते भी है। किंतु हम ये नही जानते की ओर किसी दूसरे प्रकार से भी इस जगत को और इस जगत के व्यवहार को जाना जाता है।
जगत को दुसरे प्रकार से यानि चर्म दृष्टि से ना देखकर ज्ञान दृष्टिसे देखने वाले सत्पुरुष ही होते है जिन्होंने अपना जीवन कृतकृत्य कर लिया होता है। ज्ञानदृष्टि दान से प्राप्त होती है, अपने ग्रंथ पढ़ने से, पूजापाठ, जप तप और कोई कर्म या योग से बिलकुल ही नही। इस ज्ञान दृष्टि के दान दाता केवल सदगुरु ही होते है। इस ज्ञान दृष्टि के दान का अधिकार तो कोई देवता को भी नही। बस केवल इसी लिये ज्ञानदाता ज्ञानी सदगुरु का महत्व सभी वेद, पुराण, ऋषि, मुनि, बड़े बड़े सिद्ध संत और विद्वान गाते नही रुकते। ज्ञान दृष्टि क्या होती है यह शब्दों में समझाना तो कठिन है फिर भी यह ज्ञान दृष्टि अनुभव सिद्ध है। सर्वत्र एक दृष्टि या समत्व दृष्टि ही ज्ञान दृष्टि है।
क्या मनुष्य, प्राणी, पक्षी, पौधा इन सब को एक मानना एकत्व है? हां हां, एकत्व ही है!
इस पर एक बात मेरे गुरु श्री संत खप्ति महाराज की याद आई। यह बात महाराष्ट्र के यवतमाल जिले की है। सन 2000 में मैं ने यवतमाल के गिरिजा नगर में महाराज के लिए एक मकान खरीद लिया था। इस मकान में मैं और मेरे गुरु संत खप्ति महाराज दोनो ही करीब 1 साल तक रहे। महाराज को गाय पर बहुत प्रेम था और महाराज मुझे हमेशा गाय खरीद कर देने के लिए आग्रह से बोलते थे। जहां हमारा गिरजानगर में घर था उसके आंगन में सात आठ गाएं बंधे हुए रहती थी। मेरे गुरु जी मेरे से गाय की भी बहुत सेवा करा ली थी। एक दिन दोपहर अचानक बारिश होने लगी तब महाराज ने मुझे बताया की बाहर जो गाय के बछड़े हैं उन सबको घर के अंदर लेकर आओ। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ की घर के अंदर गाय के बछड़े कैसे रह सकेंगे ? पैर को बारिश का कीचड़ लगे वो बछड़े तो पूरा घर गंदा कर देंगे। किंतु महाराज की आज्ञा थी तो मैं ने सब गाय के बछड़ों को घर के अंदर लिया। तब बारिश बहुत बढ़ गई थी। फिर भी भीगते हुए मैंने बिना कुछ सवाल किए महाराज की आज्ञा का पालन किया। किंतु यह सब करने कि मेरी कतई इच्छा नहीं थी। सब बछड़े घर के अंदर लेने के बाद सभी कमरे में वह बछड़े घूमने लगे और उनके पैर को लगी गंदगी फैलाने लगे। मैं महाराज के पास जाकर बैठ गया। मेरी नाराजी महाराज ने जान ली और मुझे कहा, "क्या तुमको बारिश लगती है और इन बछड़ों को बारिश नहीं लगती क्या?" इस प्रश्न का जवाब मैं समझ गया की महाराज के लिए इंसान और प्राणियों के बछड़े में कुछ भी भेद नहीं था।
यह अभेद वाली बात महाराष्ट्र के एक महान सत्पुरुष संत तुकाराम महाराज ने लिखी है। "दया करणे पुत्राशी तेच दास आणि दासी" । अर्थ यह की जो भी प्रेम अपनापन तुम्हें अपने स्वयं के बच्चों से लगता है वहीं प्रेम घर में काम करने वाले नौकर नौकरानी से भी लगना चाहिए।
यह एकत्व दृष्टि यानि ज्ञान दृष्टि का लाभ श्री गुरु की समर्पण भाव से की हुई सेवा से ही होता है। फिर श्री गुरु की कृपा से ही हमे आत्म और अनात्म का विवेक होता है। यह विवेक होने के पश्चात हमे वेदौं के महावाक्यों का ज्ञान तुरंत हो जाता है। 1. अहम् ब्रह्मास्मि 2. तत्त्वमसि 3. प्रज्ञानम् ब्रह्म 4. अयमात्मा ब्रह्म 5. आनन्दो ब्रह्मेति
आदि वेदों के महावाक्य है। इन का अर्थ ज्ञात हो जानें से हमारी चर्म दृष्टि ज्ञान दृष्टि में बदल जाती है।
किंतु इन महावाक्यों का केवल अर्थ जान लेने से कुछ नही होता। वो तो ग्रंथ पढ़ कर भी कोई बुद्धिमान पुरुष समझ सकता है।
महावाक्यों के तत्वोंको स्वयं के जीवन में ढाल कर शनै शनै साधक की भेदबुद्धि पूर्ण रूपसे नष्ट हो जाती है। सृष्टि का स्वप्नवत या आभासत्मक स्वरूप उसे जब स्पष्ट दिखाई देता है तब उसे परमात्मा के विना कुछ भी दिखाई नही देता। अपनी पत्नि, अपना पुत्र, अपना पालतू कुत्ता और गाय ही नही अपितु आईने में देखने पर भी उसे परमात्मा ही दिखता है। उस के लिए परमात्मा ही जब सबकुछ हो जाता है तब उसे ज्ञान दृष्टि का लाभ होता है। फिर तो सब के लिए प्रेम ही बचता है। हमारे व्यक्तित्वसे द्वेष और घृणा ही नही बल्कि सभी कामक्रोधादि षड् रिपु पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते है।
यही अंतर है कर्म या चर्म दृष्टि में और ज्ञान दृष्टि में।
स्वामी अनिल
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