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13/01/2025
* टुसु परब *: *अन्नशक्ति स्वरूपा धान की आराधना का विशिष्ठ जनजातीय आयोजन*
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आदि सभ्यता के जनक "राढ़-संस्कृति" का सर्वकालीन महान सांस्कृतिक परब 'टुसु परब' झारखण्ड, बंगाल और उड़ीसा के कुड़मालि संस्कृति के जनजातीय समुदायों- कोल-कुड़मि-भूमिज- संथाल -हो तथा संगत जातियों द्वारा मनाया जाने वाला एक मुख्य त्यौहार है। पूस माह के दौरान होने के कारण इसे 'पूस परब' भी कहा जाता है और मकर-संक्रांति के महत्व हेतु इसे 'मकर परब' कहा जाता है। परन्तु, इस परब का मुख्य आधार है 'डिनि-टुसुमनि', इसलिए इसे 'टुसु परब' भी कहते हैं।
*झारखंड का महापर्व है टुसु* :-
एक-माह-व्यापी टुसू परब का आयोजन मकर संक्रांति के दिन समाप्त होता है। इस दिन बच्चे बुढ़े महिलाएं सभी पास के नदी टुसु-चौड़ल लेकर जाते है। वहां टुसु को विदाई दी जाती है।
आदि काल से चले आ रहे टुसु के बारे में वर्तमान समय के लोगों की आधारभूत सटीक जानकारी नही रहने के कारण कई भ्रांतियां फैल गई है। कोई कहते है कि टुसु काशीपुर के राजा की पुत्री थी, तो कोई टुसु को किसी कुड़मी जमींदार की साहसी कन्या के रुप मे चित्रित करते हैं तो कोई इसे किसी की प्रयसी का रूप दे देते है। परंतु काशीपुर राजघराने के रिकार्ड या मानभूम गजेटियर मे ऐसी किसी कन्या का कोई जिक्र तक नही है तथा किसी अंजाने जमींदार की कन्या का भी झारखंड-बंगाल के इतिहास गाथाओं में जिक्र तक नही पाया गया है। अंग्रेज काल की गजेटियरों मे भी टुसु के बारे में अत्यल्प जानकारी ही पायी जा सकती है। इसका मुख्य कारण है राढ़-सभ्यता के जनक जनजातीय संस्कृति के प्रति कथित सभ्य समाज की उदासीनता।
*तो टुसु है क्या?*
वास्तव मे अलिखित इतिहास की झारखंडी सभ्यता संस्कृति के अनेक अमूल्य धरोहर कालक्रम में मिटते चले गये है, पर जो अभी भी बचे है, वो इसलिए कि उन्हें पर्व के रुप मे जनजीवन का अंग बनाकर रखा गया है। दरअसल, सदियों से चौतरफा साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमणों की मार से असली झारखंडी संस्कृतियां लगभग पुर्णतया मिट गई या उनका कायांतरण हो गया है। इससे इन त्योहारों का मूल भाव को समझना काफी कठिन हो गया है। फिर भी शोध करते-करते कई तथ्यों के मूलभाव स्पष्ट होने चले है।
इसी संदर्भ मे 'टुसु' के बारे मे यह स्पष्ट किया जा सका है, कि टुसु न तो कोई राजकन्या थी और न जमींदार की बेटी। यह दरअसल आदिकालीन कृषि सभ्यता के जनक रहे राढ़ संस्कृति के वाहक यहाँ की जनजाति के कृषिजनित जनमानस की अन्नरुपी "मातृशक्ति" थी, जिसे 'डिनि-टुसुमनि' कहा जाता है।
आदिकाल से जब हमारे पुरखोंं ने अन्न उगाकर जीवनयापन करना आरंभ किया, तभी से उन्होने यह महसूस किया कि जन्मदायिनी माँ का दुध तो हम लगभग दो साल तक ही पीते है परंतु धरती माता की छाती का दुध जीवनपर्यंत पीते-खाते है। अतः जिस धरती माता के कोख से उत्पन्न अन्न के द्वारा हमारी जीवन की सृष्टि व यापन का स्वतः संचालन होता आ रहा है तथा मानव जीवन पुष्पित-पल्लवित हो रहा है. उस प्रकृति की मातृशक्ति की आराधना करके ही मानव आगे भी अपनी संतति की रक्षा कर सकता है।
इसी के तहत अथक मेहनत करके उपजाए गये खेतों से अन्नमाता (धान) के घर लाने और इससे जीवनयापन संपन्न होने का प्रतीक स्वरुप "डिनि-टुसुमनि" की आराधना एक माह पर्यंत करने का विधान है। यह अनुष्ठान मकर संक्रांति से ठीक एक माह पहले यानी अगहन संक्रांति जिसे "डिनि-सांकराइत" कहा जाता है, के दिन खेत से सांयकाल डिनि-माता को किसान दंपति द्वारा विधि-विधान स्वरूप खलिहान लाने और तत्पश्चात कृषक बालाओं द्वारा अन्न के दानों लेकर रात में टुसु-थापन करने की परंपरा के साथ आरंभ होता है। इस एक माहव्यापी अवधि में कृषक-बालाएं टुसु को अपनी संगी-सहेली मानती है, जिसे एक माह पर्यंत गीतों से प्रतिदिन सांयकाल आराधना करते हुए और प्रति आठवें दिन आठकलइआ का भोग समर्पित करके तथा नित नये फुल देकर सेंउरन करके जीवंत बंधुता स्थापित कर पुस संक्राति अर्थात मकर संक्रांति के दिन पास के नदी-तालाबों में ले जाकर पुनः अगले वर्ष आने को कहते हुए जलरुपी ससुराल की ओर विदा कर दिया जाता है। विदाई की वेला अत्यंत भावप्रवण और दुखद होता है। कृषक बालाएं अत्यंत भावुकता भरें गीतों से टुसु-घाटों के चट्टानों को भी मानो पिघला डालती है। रंगबिरंगें चौड़लों पर सवार डिनी-टुसुमनि की भव्य शोभायात्रा में बच्चे बुढे सभी भाग लेते है। टुसु-घाट जाने के दौरान विभिन्न टुसु-दहँगियों द्वारा रास्ते भर तर्क-वितर्कों के टुसु-गित भी गाने की परंपरा हैजिसमे अपने टुसु को दुसरो से अच्छा जताने की होड़ भी दिखाई पड़ती है जिसे गीतों के माध्यम से ही जताया जाता है।
इस मौके पर "चासा" यानि कृषि-संस्कृति के जनजातीय समुदायों मे खासकर कोल, कुड़मि, संथाल, भूमिज आदि में "आँउड़ि, चाँउड़ि, बाँउड़ि, मकर और आखाइन" नाम से पाँच दिवसीय विशेष उल्लासमय परब आयोजित होते है। प्रतिदिन सुबह नहाकर ही चावल से बने विशेष प्रकार के पिठा जिसे "उँधि-पिठा" कहते है, खाने का रिवाज है। परंतु यह पिठा बनने के बड़े कठिन नियम भी है। वर्ष भर अगर पुरे गुसटि के घर में किसी की मृत्यु नही हुआ हो अथवा सुरजाहि पुजा आदि नही हुआ हो तभी आप इस पिठा को बना व सेवन कर सकते है। इसलिए इसे "गुसटिक पिठा" भी कहा जाता है। बाँउड़ि के दिन मुर्गा-लड़ाई का विशेष प्रचलन है। पुरे वर्ष भर में इसी दिन रसिक लोग मुर्गा अखाड़ा जरूर जाते है तथा एक से बढ़कर एक शानदार मुर्गों की लड़ाई में क्षेत्र के गणमान्य लोग भी उपस्थित रहते है।
ग्रामीण क्षेत्रों मे बाँउड़ि के दिन धान/चावल का बिटा/कुचड़ि बांधने की भी परंपरा रही है।
*बेझा-बिंधा :*
मकर संक्रांति के दिन जनजाति युवक समुदाय "बेझा-बिंधा" नामक प्रतियोगिता के आयोजन में भाग लेते है जिसमें विजयी प्रतिभागी को खेत/तालाब/गाय आदि एक वर्ष तक उपयोग करने हेतू पुरस्कार स्वरूप प्रदान करने की परंपरा है। यह बहुत ही आकर्षक एवं रोमांचक आयोजन होता है। अखाड़े के मेले टुसु-घाटों के आसपास ही लगते है। यहां दही-चूड़ा खाना अनिवार्य परंपरा है। बेझा-बिंधा में विवाह योग्य युवाओं की भागीदारी भी निश्चित की जाती है इसी के साथ दिनभर हर्षोल्लास से बीत जाता है। आखाइन जातरा के दिन सुबह नदी तालाब में स्नान कर नये फाल लगा हल बैलों को लेकर खेत में "ढाई-पाक" हल चलाने की परंपरा पुरी की जाती है अर्थात नये कृषि-संवत् मे प्रवेश किया जाता है। इसके बाद तालाब से मिट्टी उठाने, गोबर-गड्ढा खोदने तथा नये घर बनाने हेतू मिट्टी पूजन करने की जनजातीय परंपरा भी निभाई जाती है। इन सभी कामों में विशिष्ठ प्रकार के नेगाचारि पद्धति का निर्वहन करना अत्यावश्यक होता है वरना कार्य असफल हो जाते है ऐसी मान्यता है।
*जनजातीय नववर्ष: आखाइन जातरा*
टुसु बिदाई दिन यानी मकर-संक्रांति दिन के बाद अगले दिन को आखाइन जातरा कहा जाता है। "आखाइन जातरा" राढ़-संस्कृति का नववर्ष है। इसी दिन से इस चासा (कृषक) संस्कृति का नया कृषि वर्ष आरंभ होता है। खगोल विज्ञान के दृष्टिकोण से भी सूर्य की परिक्रमा का नया चक्र इसी आखाइन दिन से ही आरंभ हुआ माना गया है जिसे जनजातीय संस्कृति के पुर्वज हजारों साल पहले से ही मानते रहे है। इसके तहत बाँउड़ी मकर व आखाइन जातरा के दिन से शुरू हो कर अगले कई-कई दिनो तक क्षेत्रीय मेलों की श्रृंखला लगी रहती है। जिसमें सतीघाट, देलघाटा, भाव मेला, दिबघारा, दाड़हा मेला, खेलाइचंड़ि, जिआरि मेला, रांगाहाड़ी मेला, भुआ मेला, माठा मेला, जइदा मेला, हिड़िक मेला, बुटगड़ा मेला, सालघाटा मेला, जारगो मेला, पुरनापानी मेला, हथिआपाथर मेला, सिरगिटी मेला, टुंगरि मेला, कुलकुली मेला, जबला मेला, दिउड़ी मेला, हाथीखेदा मेला, झाबरि मेला, बाधाघाट मेला, कोचो मेला, पानला मेला, चड़गई मेला, बानसिनि मेला, चेड़ि मेला, छाताघाट मेला आदि सैकड़ों मेले लगते है जिसमे झाड़खंडी जनमानस सारे दुख भूलकर प्रकृति के साथ जुड़कर हिलोरें लेता है।
इस प्रकार देखा जाए तो भारत की बहुआयामी सांस्कृतिक धरोहर में से कुड़मालि जनजातीय संस्कृति का यह एकमाह व्यापी टुसु पर्व बहुत ही विशेष मायने रखता है। दुर्भाग्यवश इस विशिष्ठ संस्कृति और इसकी उपादेयता पर कथित मुख्यधारा के विद्वजनों का सदैव उदासीन रवैया ही दिखता रहा है। जनजातीय संस्कृति के आयोजनों को हासिए पर रखने के प्रचलन सा रहने के कारण ही देश के अनेक विशिष्ठ जनजातीय संस्कृतियों का लोप भी हो चूका है। अतः जरूरत इस बात की है कि विविधता से भरे भारतीय संस्कृति की अमुल्य संपदा कुड़मालि जनजातीय संस्कृति जो राढ़-सभ्यता का अवशेष मात्र कहा जा सकता है, का पुनर्जागरण हो इसके लिए युवा विद्वजनों को आगे आने की आवश्यकता है। झाड़खंडी जनजीवन के गहराई तक रचा-बसा टुसु-परब वाकई झारखंडी संस्कृति की मातृशक्ति का जीवंत प्रतीक है। राड़ माटी के हड़कमिआ सुधी जनों से इस संबंध में और अधिक खोजकार्य किये जाने की प्रत्याशा में ...
आभार :
महादेब डुंगरिआर
(शिक्षक- मवि तालगड़िया, बोकारो)
संयोजक- कुड़मालि भाखि चारि आखड़ा।