18/08/2022
निशांत का कोहरा घना: आज़ादी की क्रांतिधारा का सृजनात्मक पाठ
(रचनाकार: कमलाकांत त्रिपाठी)
कमलाकांत त्रिपाठी भारतीय भाषाओं में अपवाद-स्वरूप ऐसे उपन्यासकार हैं
जिन्होंने अपने उपन्यासों के केंद्र में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिधारा को
अधिष्ठित किया है। इस धारा के उन क्रांतिकारियों को नहीं, जिनके नाम इतिहास
के पृष्ठों पर अंकित हैं; जिनकी जयंतियाँ और पुण्यतिथियाँ मनाई जाती हैं—जिसके
वे हक़दार भी हैं। किंतु उनसे प्रेरणा लेकर, उन्हें आदर्श बनाकर, उनके क्रांतिकारी संगठनों से जुड़े दर्ज़नों, बल्कि सैकड़ों ऐसे क्रांतिकारी देश के प्रत्येक प्रांत में सक्रिय थे, जिनके नाम इतिहास में कहीं दर्ज नहीं। वे केवल तत्कालीन
दस्तावेज़ों--अंग्रेजी सरकार के गज़ेटियर, आदेशपत्र, पुलिस थाने की रेकॉर्ड-बुक,
अदालती फ़ैसलों और समाचार पत्रों--में ही मिलेंगे। उनमें से जो गिरफ़्तार हो गए,
अधिकांश को फांसी पर लटका दिया गया, शेष भयावह यातनाओं की यंत्रणा से
गुज़रे। वे प्राय: कम पढ़े-लिखे किसान परिवारों से आये थे यद्यपि स्वयं अधिकांश
शिक्षित थे। उनमें सवर्ण थे, बहुजन थे और दलित भी थे। उन्होंने जो उत्कट
साहसिकता दिखाई, अंग्रेजों के लिए जो त्रासद स्थितियाँ उत्पन्न कीं, उनकी
जानकारी तत्कालीन अंग्रेज अधिकारियों को ही रही होगी, थोड़ा-बहुत उनके घर-
परिवार, गाँव-जँवार के लोग जानते रहे होंगे। बाद के कालखंड में तो उन्हें बिल्कुल भुला ही दिया गया--इतिहास केवल नायकों का होता है, सामान्य कार्यकर्ताओं का लेखा-जोखा कौन रखता है! अतीत के ऐसे अनाम और विस्मृत क्रांतिकारियों के क्रियाकलापों का, उनके कठिन, अनिश्चित और ख़तरों से भरी ज़िंदगी के अंतरंग का सृजनात्मक पाठ रचते हैं त्रिपाठी जी के उपन्यास। इस तरह उपन्यास विधा का प्रयोग त्रिपाठी जी ने एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दायित्व निभाने के लिए किया है। इसके लिए वे अभिनंदन के पात्र हैं।
ये क्रांतिकारी भले ही साधारण परिवारों से आये थे, उनके कार्य मुख्य नायकों की
भाँति ही असाधारण थे, उनका बलिदान भी असाधारण था। इसलिए उनके जीवन
और क्रांतिकर्म का आख्यान हमारी राष्ट्रीय और जातीय स्मृति की महत्वपूर्ण
धरोहर है। इन उपेक्षित क्रांतिकारियों के जीवन और कर्म को अपने उपन्यासों का
उपजीव्य बनाने के लिए त्रिपाठी जी ने आधारभूत शोध किया है, जो उनके
असाधारण श्रम, संयम और धैर्य का प्रमाण है। तत्कालीन समाचारपत्र, गैज़ेट,
सरकारी दस्तावेज आदि की जानकारी प्राप्त कर इन्हें मुख्य क्रांतिकारी धारा से
जोड़ना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। कमलाकांत जी ने इसे पूरी निष्ठा से सम्पन्न
किया है। इसके लिए उनमें ज़रूरी वैचारिक प्रतिबद्धता है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि अधिकांश क्रांतिकारी संगठनों का वैचारिक आधार वाम विचारधारा थी। उनका क्रांतिकर्म ही इसलिए था कि वे देश को शोषक उपनिवेशवादी बेड़ियों से मुक्तकर आम आदमी का जीवन बेहतर बनाना चाहते थे। उसके अभाव को, उसके शोषण को, उसकी वंचना को दूर करना चाहते थे, उसके लिए सामाजिक न्याय, समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व के मूल्य साकार करना चाहते थे। कमलाकांत त्रिपाठी की प्रतिबद्धता इन्हीं मूल्यों के प्रति है। और इसी विचारधारा से प्रेरित और प्रतिबद्ध होकर वे उपन्यास-लेखन की ओर प्रवृत्त हुए हैं।
‘निशांत का कोहरा घना’ वस्तुत: त्रिपाठी जी के पूर्व-प्रकाशित उपन्यास ‘तरंग’ की
अगली कड़ी है। ‘तरंग’ जहाँ खत्म होता है, ‘निशांत का कोहरा घना’ वहीं से शुरू
होता है। तरंग के केंद्र में है हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के विच्छिन्न
क्रांतिकारियों की एक मंडली, जिसके मुखिया दादा हैं। दादा की मृत्यु के बाद मंडली का क्रांतिकर्म दिशाहीन होकर लड़खड़ाने लगता है। उसी दौरान मुम्बई में करो या मरो की घोषणा के साथ 1942 का ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन छिड़ जाता है। इसी बिंदु पर ‘तरंग’ का समापन और ‘निशांत का कोहरा घना’ का समारम्भ होता है। तरंग और निशांत का कोहरा घना के कई पात्र सामान्य हैं। इन पात्रों का व्यक्तित्व और कृतित्व निशांत का कोहरा घना में विस्तार पाता है और उनके माध्यम से सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की भावना जीवित रहती है। दादा उनके लिए निरंतर प्रेरणा-स्रोत बने रहते हैं।
एक महाराष्ट्रियन होने के नाते मैं त्रिपाठी जी के प्रति विशेष कृतज्ञता व्यक्त
करना चाहता हूँ कि उन्होंने इस कड़ी के पहले उपन्यास तरंग में बाबासाहेब
आंबेडकर के इतिहास में उपेक्षित कार्यों को प्रकाश में लाने की महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई और प्रस्तुत उपन्यास में सतारा में क्रांतिवीर नाना जी पाटील के अद्भुत
क्रांतिकर्म को हिंदी के व्यापक फलक पर लाने का ज़रूरी कार्य किया। बाबासाहब ने केवल दलितों के लिए नहीं, समस्त किसान और मज़दूर वर्ग की समस्याओं को लेकर संघर्ष किया था। उन्होंने बम्बई में कोंकण के खोती किसानों का विशाल मोर्चा आयोजित किया था जिसका समापन एस्प्लनेड मैदान में एक विशाल सभा में हुआ था। किसान-प्रतिनिधियों ने बाबासाहब के साथ बम्बई प्रेज़िडेंसी के ‘प्रधानमंत्री’ खेर से मिलकर खोती प्रथा की समाप्ति के लिए प्रतिवेदन दिया था।
उन्होंने बम्बई के मज़दूरों का भी एक शांतिपूर्ण मोर्चा निकाला था और कामगार
मैदान में उनकी विशाल रैली आयोजित की थी जिसमें क़रीब एक लाख़ मज़दूर
सम्मिलित हुए थे। डॉ. आम्बेडकर ने किसानों और मज़दूरों को शोषण-मुक्त करने
के लिए असेम्बली में बिल पेश किये और सतत उनकी लडाई लड़ी। इन प्रसंगों का बहुत संवेदनशील आख़्यान तरंग के कथावितान में संगुम्फित है। डॉ. आम्बेडकर के इस व्यापक व्यक्तित्व पर बहुत कम लिखा गया है। इस दृष्टि त्रिपाठी जी का यह योगदान अप्रतिम है।
ठीक इसी तरह प्रस्तुत उपन्यास में सतारा के नाना जी पाटील के क्रांतिकारी
व्यक्तित्व का, उनकी अद्भुत संगठन-क्षमता का, उनके द्वारा स्थापित प्रति-
सरकारों की कार्यपद्धति और उनकी सफलता के रहस्य का अंतरंग सामने आता
है। इसी बहाने लेखक समाजवादी नेता अच्युतराव पटवर्धन, क्रांतिकारी नौजवान
यशवंतराव चव्हाण, वसंतदादा पाटील तथा अरुणा आसफ़ अली के साहसिक कार्यों को पाठक के सामने लाता है। जाने-अनजाने वह उत्तर के क्रांतिकारियों को महाराष्ट्र के क्रांतिकर्म से जोड़ देता है। दोनों उपन्यास इसके प्रमाण हैं।
तरंग उपन्यास का अंत क्रांतिकारी कार्यो से जुड़े अंबिका के वरिष्ठ क्रांतिकारी
साथी महानरायन को लिखी एक चिट से होता है। तरंग में अंबिका और मेवा दादा
की मंडली के सदस्य हैं। वे क्रांतिकर्म के लिए मुम्बई भेजे गये थे। दादा की मृत्यु
के बाद मंडली की गतिविधियाँ शिथिल पड़ गईं। तभी मुम्बई के गवालिया टैंक
मैदान में 8 अगस्त 1942 का गांधी जी का प्रसिद्ध ‘भारत छोड़ो’ भाषण होता है,
जिसमें दोनों मौजूद रहते हैं। दोनों मुंबई से मंडली के इलाहाबाद ठिकाने पर पहुँचते हैं और महानारायन के साथ रुकते हैं। पता चलता है कि आर्मी के अधिकांश सदस्य क्रांतिकारी कार्यों से विदा ले चुके हैं। दोनों रात में एक चिट छोड़कर चुपके से वहां से निकल जाते हैं—‘महानरायन भाई साहब, माफ़ कीजिएगा। जानता हूँ, मैं कुछ भी कर लूँ, देश को आज़ादी की दिशा में एक इंच भी आगे नहीं बढ़ा सकता। हो सकता है हम फिर मिलें, हो सकता है, न मिलें। अब गुलाम देश में अपने को आपके सामने लाने का मेरा हौसला नहीं है।‘ और यही चिट निशांत का कोहरा घना के कथासूत्र का बीज-बिंदु है।
निशांत का कोहरा घना की शुरुआत अम्बिका और मेवा के युक्तप्रांत के अपने
ज़िले जौनपुर पहुँचकर वहाँ भूमिगत क्रांतिकारी आंदोलन चलाने की योजना से होती है। दोनों पहले अंबिका के गाँव जाते हैं। जल्द ही वे जौनपुर इलाक़े में पहले से सक्रिय एक क्रांतिकारी संगठन से जुड़ जाते हैं। संगठन के सदस्य के रूप में
पुलिस स्टेशनों पर धावा बोलकर वहाँ से शस्त्रास्त्र और गोली-बारूद लूटना, संगठन में नये-नये युवाओं को भरती करना, उन्हें प्रशिक्षण देकर सशस्त्र बनाना, डाकघर और सरकारी खजाना लूटकर संगठन के लिए संसाधन की व्यवस्था करना, इस तरह लगातार संगठन का विस्तार करना--इसी अजेंडे पर काम करते हुए अम्बिका संगठन का सूत्रधार बन जाता है और मेवा उसका प्रमुख सहायक। संगठन की महत्वाकांक्षी योजना देश भर में बिखरे हुए पुराने क्रांतिकारियों को जोड़कर एक विशाल, देशव्यापी नेटवर्क तैयार करने और युद्ध में फँसी ब्रिटिश सरकार को शिकस्त देकर देश को आज़ाद कराने की है। पहले उसकी मुठभेड़ पुलिस टुकड़ियों से होती है। बाद में प्रशासन द्वारा लगाई गई सेना की टुकड़ियों से झड़पें होने लगती हैं। वे छापामार युद्ध की रणनीति से लड़ते हुए, एक बड़े क्षेत्र पर हावी हो जाते हैं।
एक रात जब वे एक गन्ने के एक बड़े खेत में छिपकर विश्राम कर रहे थे,
मशीनगनों से लैस अँग्रेजी सेना की एक बड़ी टुकड़ी अचानक उन पर हमला कर
देती है। वे तीन ओर से घिर जाते हैं। ऐसे में उन्हें सोते से उठकर अँधेरी रात के
अंधकार में भागना पड़ता है। इस भगदड़ में अम्बिका अकेला पड़ जाता है। उसे
पता नहीं, मेवा का क्या हुआ। भागकर वह इलाहाबाद की बस पकड़ने में सफल हो जाता है। उसकी योजना इलाहाबाद होते हुए मुंम्बई पहुँचने की है। इलाहाबाद में मंडली का एक अन्य सदस्य, आइरिश पादरी, पार्ली उसके साथ हो लेता है। पार्ली को अपनी आइरिश मित्र, सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की पुरानी सदस्य सावित्री देवी (तरंग में वर्णित, यशपाल को आश्रय देने के जुर्म में सज़ा काटकर बाहर आई) से मुंबई में भूमिगत कार्रवाइयों में लगे कुछ नेताओं के नाम पत्र मिल जाते हैं। मुंम्बई पहुँचकर दोनों सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की पद्धति पर क्रांतिकर्म शुरू करना चाहते हैं। उसी सिलसिले में उनकी मुलाक़ात भूमिगत होकर कार्य कर रहे कांग्रेस के समाजवादी नेता अच्युत पटवर्धन से होती है। उनके नेटवर्क के सहयोग से मुंबई में अंबिका और पार्ली खोपोली के बिजलीघर को बम से उड़ाकर निष्क्रिय कर देते हैं, जिससे तीन दिन बिजली न आने और लोकल न चलने से मुंबई का अधिकांश कामकाज ठप रहता है। बिजलीघर को उड़ाने के बाद दोनों को तुरंत मुंबई छोड़कर बाहर निकल जाना था। ऐसे में वे पटवर्धन के माध्यम से सतारा में क्रांतिवीर नाना जी पाटिल के पास पहुँच जाते हैं और नाना जी के प्रति-सरकार संगठन से जुड़ जाते हैं। धीरे-धीरे नाना जी के सबसे अधिक विश्वासपात्र और उनके संगठन के अग्रणी क्रांतिकारी बन जाते हैं। सतारा के क्रांतिकारी अभियानों का नेतृत्व करने लगते हैं।
इस तरह इस उपन्यास के केंद्र में भी सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के दो
क्रांतिकारियों का सतारा के क्रांतिसूर्य नाना जी पाटील की प्रति-सरकारों के इतिहास-प्रसिद्ध अनोखे अभियान है में भाग लेना है।
अम्बिका की कमज़ोरी मुंबई के एक बड़े सेठ की बेटी शशिकला है; जहां वह पहले(तरंग में वर्णित) मुनीम के रूप में काम करता था। अपने बम्बई-निवास के दौरान अम्बिका उससे मिलता है और पुराने सम्बंध में नई ऊष्मा का संचार होता है। इससे उपजे द्वंद् और बेचैनी की स्थिति से निजात पाने के लिए वह अपने
क्रांतिकर्म के दौरान मृत्यु की परवाह न कर, बड़ा से बड़ा जोखिम उठाने को तत्पर हो जाता है।
उपन्यास का एक बड़ा हिस्सा नाना जी पाटील की क्रांतिकारी प्रति-सरकार से
संबंधित है। हिंदी पाठकों के लिए यह एक नई और महत्वपूर्ण जानकारी है। नाना
जी पाटील की प्रति-सरकारों की अद्भुत कार्य-पद्धति का सूक्ष्म और विस्तृत
विवरण इस उपन्यास की बड़ी उपलब्धि है।
अम्बिका के नेतृत्व में क्रांतिकारियों की एक टुकड़ी को गोवा से मुंबई आ चुके
अस्त्रों की बड़ी खेप ट्रक में लदे बालू के नीचे बोरों में छिपाकर वहाँ से सतारा ले
जाने का दायित्व सौंपा जाता है। मुंबई में पुलिस को अम्बिका की भनक लग जाती
है। वह ट्रक का पीछा करती है। पुलिस बैरियर पर ट्रक को रुकने के लिए मजबूर
होने पर अंबिका उससे कूदकर आत्मसमर्पण कर देता है। पुलिस को ट्रक में बालू
के नीचे हथियारों के बोरे होने की ख़बर नहीं है। इस कारण अम्बिका आत्मसमर्पण कर साथी क्रांतिकारियों तथा अस्त्रों की खेप को सुरक्षित सतारा पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करने में सफल होता है। अम्बिका पर मुक़दमा चलता है तथा जौनपुर में एक ख़ुफ़िया पुलिसकर्मी की हत्या के जुर्म में, उसे फ़ाँसी की सजा सुना दी जाती है। शशिकला के प्रयास से प्रीवी कौंसिल में अपील दायर होती है किंतु भारत के अनिश्चित राजनीतिक माहौल के मद्देनज़र वहाँ लंबित पड़ी रहती है। 2 सितम्बर 1946 को केंद्र में कांग्रेस की अंतरिम सरकार बनने पर फांसी का इंतज़ार करते अंबिका को क्षमादान मिल जाता है और वह जेल से मुक्त हो जाता है। इसी के साथ उपन्यास का भी समापन हो जाता है। उस बिंदु से 15 अगस्त 1947 को विभाजन के साथ आज़ादी मिलने तक का राजनीतिक ब्योरा उपन्यास के परिशिष्ट में दर्ज है।
1942 से 1946 के 4 वर्षों के घटना-सूत्र को उपन्यास की कथावस्तु में अपूर्व
सृजनात्मक कुशलता और ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि के साथ पिरोया गया है।
अम्बिका का निजी, पारिवारिक जीवन तथा उसके रागात्मक सम्बंधों का द्वंद्व
एक नाटकीय विडम्बना को जन्म देता है जिसका बहुत सजगता और रचनात्मकता के साथ कथावस्तु के संयोजन में इस्तेमाल हुआ है। एक ओर अम्बिका की ग्रामीण पत्नी कलावती और दूसरी ओर मुंबई के सेठ चूड़ीवाला की एकमात्र संतान, युवा किंतु परित्यक्ता पुत्रीउसे शशिकला का उसके प्रति तीव्र आकर्षण! इससे सम्बंधों का जो एक जटिल किंतु नाज़ुक त्रिकोण बनता है, लेखक ने बेहद संवेदनशीलता से उसका चित्रण किया है। सेठ की असामयिक मृत्यु के बाद धंधे की पेचीदगियों से अनजान शशिकला अम्बिका का सहारा खोजती है जिसने एक ईमानदार और कुशल मुनीम के रूप में सेठ की बीमारी के समय ही धंधा सँभाल लिया था।
क्रांतिकर्म में अम्बिका की प्रतिबद्ध, साहसिक भूमिका, पत्नी के प्रति उसका
दायित्वबोध और शशिकला के संकटमोचक की भूमिका में जो विकट अंतर्द्वंद्व है,
उसके निर्वाह में लेखक ने बेहद परिपक्व मानवीय दृष्टि का परिचय दिया है।
उपन्यास के नेपथ्य में स्त्री-पुरुष आकर्षण और चुम्बकीय दैहिकता का ऐसा
अनगढ़ राग बजता है जिसका समाहार उपन्यास के अंत में, अम्बिका के फाँसी से
बच निकलने पर कलावती और शशिकला की सौहार्दपूर्ण मुलाक़ात में ही संभव था, जैसा कि उपन्यास में होता है।
तरंग में कोई एक व्यक्ति केंद्र में नहीं था। वहां क्रांतिकर्म ही केंद्र में था। कांग्रेस
दल से जुड़ी राजनीतिक गतिविधियों के समानांतर। दोंनों में वैचारिकत द्वंद्व
सतत चलता रहा जो पात्रों की राजनीतिक चर्चाओं में क्रांतिधारा की रोशनी में
व्यक्त होता था। उसकी तुलना में निशांत का कोहरा घना में राजनीतिक चर्चाएँ
कम, क्रांतिकारियों की साहसपूर्ण घटनाएं अधिक हैं।
अध्याय 1 से 18 तक अंबिका अपने घर लौटकर वहाँ चल रही छापामार मुठभेड़ों
में उलझा रहता है। तीन थानों पर आक्रमण कर वहां के अस्त्रों का अधिग्रहण और
नवयुवकों की भर्ती से संगठन को सशक्त करता है। अपने क्रांतिकारी साथी की
प्राणरक्षा के लिए एक पुलिसकर्मी की जान लेने से भी नहीं हिचकता। अचानक हुए सैनिक हमले से भागकर मुंबई आता है तो भूमिगत क्रांतिकारी सदस्यों से मिलकर पुन: क्रांतिकर्म में सक्रिय हो जाता है। मुंबई उसकी दुखती रग है क्योंकि वहां शशिकला है। इस शशिकला के व्यक्तित्व का जो दर्शन तरंग में होता है, उसकी तुलना में इस उपन्यास में वह अधिक परिपक्व, अधिक समझदार ,अधिक गंभीर लगती है। उसे अब तक पता नहीं था कि अंबिका एक क्रांतिकारी है। जब अंबिका अपने साथियों को बचाने के लिए आत्मसमर्पण कर देता है, उसके मुक़दमे की पैरवी में सर्वाधिक सक्रिय शशिकला है। वह पूरी निर्भीकता से अपना दायित्व निभाती है। अंग्रेजों के शासन में एक भारतीय पूँजीपति की बेटी क्रांतिकारी की सहायता के लिए दौड़धूप कर रही है और उसका आर्थिक भार वहन कर रही है, इस प्रसंग में शशिकला की साहसिकता का, उन दिनों के लिहाज़ से, एक अतिरिक्त आयाम जुड़ जाता है। शशिकला और अंबिका के सम्बंधों का आख्यान लेखक ने बेहद गंभिरता से रचा है। यहाँ रोमानियत के लिए काफ़ी अवकाश था किंतु लेखक की सोद्देश्यता ने उसे उसके प्रवाह में बहने से बचा लिया है।
उपन्यास के आरंभ से अंत तक की घटनाएं पूर्ण रूप से यथार्थ हैं। इसमें आए
अधिकांश पात्र भी यथार्थ हैं। इसमें जो मराठीभाषी पात्र हैं उनके कार्यों से प्रत्येक
मराठीभाषी परिचित है। नाना जी पाटील, अच्युतराव पटवर्धन, यशवंतराव चव्हाण,
वसंतदादा पाटील राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुके हैं। अंबिका, मेवा,
पार्ली, शशिकला, रामदीन छोटे-बड़े पात्र हैं जिनमें अम्बिका भी एक ऐतिहासिक पात्र है। घटनाएं यथार्थ, अधिकांश पात्र यथार्थ। यथार्थ घटनाओं और यथार्थ पात्रों को जोड़ने का काम काल्पनिक पात्र करते हैं।
कमलाकांत जी की एक विशेषता परिवेश के कुशल चित्रण में है। जहां घटनाएं
घटित होती है वहां की प्रकृति और भौगोलिक स्थिति का इतने विस्तार और इतनी
सूक्ष्मता से चित्रण करते हैं कि पाठक के सामने वहाँ का घटित अपने परिवेश के
साथ चाक्षुष हो उठता है। उस परिवेश में वर्षों से जीने वाला भी उसे पढ़ कर
आश्चर्यचकित रह जाता है। उत्तर प्रदेश के गाँवों के चित्र तो उत्तम हैं ही, लेखक
वहीं के निवासी हैं। किंतु सतारा, गोवा, मुंबई के आसपास के गांवों, नदियों, नालों
वनस्पतियों, फ़सलों का जो अविकल चित्र उन्होंने खींचा है उसे पढ़कर मराठी
पाठक अतिरिक्त रूप से रससिक्त होता है।
त्रिपाठी जी के उपन्यासों में स्थानीय शब्दों का प्रयोग इस तरह हुआ है कि
सम्बंधित पात्र जीवंत हो उठें। मराठी के ये शब्द सर्वथा उचित स्थानों पर आते हैं,
इसलिए हिंदीभाषी पाठक को खटकते नहीं। मराठियों के खानपान की वस्तुओं,
उनकी वेशभूषा, उनकी संस्कृति का इतना बारीक चित्रण हुआ है और वह इतने
सहज रूप में आया है कि सुखद आश्चर्य होता है।
आज के राजनीतिक परिवेश में इस उपन्यास का विशेष महत्व है। आज हमें जिस
राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाया जा रहा है उसमें तात्विकता कम और
नारेबाज़ी अधिक है। देश की स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारियों ने किस तरह की
नि:स्वार्थ और साहसिक भूमिका निभाई, कैसा बलिदान दिया, कितनी यातनाएँ
सहीं, कितने कष्ट झेले, नई पीढ़ी के सामने प्रस्तुत करने के लिए कमलाकांत जी
बधाई के पात्र हैं। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य की सच्चाइयों को समझने के लिए
हिंदीभाषियों को, ख़ासकर नई पीढ़ी को, त्रिपाठी जी के उपन्यास अवश्य पढना
चाहिए।
क्रांतिवीर नाना जी पाटील के क्रांतिकर्म पर मराठी में काफ़ी लिखा गया है। परंतु
उनके कार्यों, उनकी अनोखी कार्य-पद्धति और उनके अप्रतिम योगदान को भारतीय स्तर पर ले जाने का जो प्रयत्न लेखक ने किया है, उसका महत्व
अनन्य है।
इस उपन्यास के मराठी अनुवाद की सख़्त ज़रूरत है।
--सूर्यनारायण रणसुभे
#पढ़िएकिताब
https://www.amazon.in/dp/B09ZB993Q3?ref=myi_title_dp
https://www.bookshindi.com/product/nishant-ka-kohra-ghana/
Kamlakant Tripathi