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खोमचे पर तिलकुटयह दुर्लभ तस्वीर 1956 के रांची के बाजार की है। बाजार कौन-सा है? शायद अपर बाजार। आप क्या कहते हैं?
09/01/2021

खोमचे पर तिलकुट

यह दुर्लभ तस्वीर 1956 के रांची के बाजार की है। बाजार कौन-सा है? शायद अपर बाजार। आप क्या कहते हैं?

25/12/2020
झारखण्ड़ का नया लोगो तय हो गया है।
22/07/2020

झारखण्ड़ का नया लोगो तय हो गया है।

05/02/2020

Jharkhand. रांची की इस बेटी की पढ़ाई आर्थिक कठिनाई के कारण बीच में ही छूट गई। इसके बाद मैकेनिक के रूप में अपनी पहचान बना ली....

यह नहीं हैदिल्ली का शाहीन बाग न तो यह हैइलाहाबाद का रोशनबागया फिर लखनऊ का घंटाघरयह तो हैराँची का कडरू।जो चल पड़ा हैशाहीन...
05/02/2020

यह नहीं है
दिल्ली का शाहीन बाग
न तो यह है
इलाहाबाद का रोशनबाग
या फिर लखनऊ का घंटाघर
यह तो है
राँची का कडरू।

जो चल पड़ा है
शाहीन बाग के नक्शेकदम पर
जिन्होंने जोड़ा है नाता
शाहीन बाग, घंटाघर, रोशनबाग
और ना जाने कितने जगहों से
जहाँ से उठ रही है
हक और अधिकार की आवाज।

बेशक,
शाहीन बाग की महिलाओं ने
दिखाया है रास्ता
जुल्मी व अक्खड़ सरकार से
लड़ने का बनाया है मोर्चा
इन्होंने तोड़ी है
पितृसत्ता के गुरूर को।

इसीलिए,
आज शाहीन बाग की महिलाओं को
कहा जा रहा है
पाकिस्तानी, वेश्या, भाड़े की कुतिया
और भी ना जाने क्या-क्या
लेकिन ये फिर भी अड़ी है
लड़ रही है, जूझ रही है
गा रही है, नारे उछाल रही है।

आज कडरू की महिलाओं के अंदर भी
घुस चुकी है शाहीन बाग की महिलाएं
ये बन चुकी हैं सगी बहनें
इनका भी साथ देने के लिए
आ रहे हैं इनके पति, पुत्र और भाई।

हाँ जी, यही महिलाएं
गुरूर तोड़ेंगी तानाशाह का
साथ ही तोड़ेंगी उनका सपना
भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने का
और यही महिलाएं
न सिर्फ उन्हें एक इंच पीछे हटाएंगी
बल्कि मजबूर कर देंगी
अपना उगला हुआ निगलने के लिए।।

― रूपेश कुमार सिंह

ट्राईबल म्यूजियम के तोहफे का अर्थहेमंत सोरेन ने प्रधान मंत्री से मिल कर द्राईबल विवि की मांग की थी, उन्होंने दिया ट्राईब...
02/02/2020

ट्राईबल म्यूजियम के तोहफे का अर्थ

हेमंत सोरेन ने प्रधान मंत्री से मिल कर द्राईबल विवि की मांग की थी, उन्होंने दिया ट्राईबल म्यूजियम, यानि अजायब घर जिसमें सामान्यतः इतिहास बन चुके जीवों, जन्तुओं व वस्तुओं को रखा जाता है ताकि उनका संरक्षण, उन पर शोध व लोगों के मनोरंजन के लिए उनका प्रदर्शन हो सके.

क्या आदिवासी और उसकी संस्कृति इतिहास की वस्तु बन चुका है या ऐसी मिटती प्रजाति जिसे म्यूजियम में ररवा जाय? भाजपा और संघ परिवार को शायद ऐसा ही लगता है. सिर्फ भाजपा या संघ परिवार को नहीं, बहुत सारे बुद्धिजीवियों को भी जो समझते हैं कि आदिवासी आदिम सभ्यता के अवशेष भर हैं. आदिवासी म्यूजियम उनकी भावना के अनुरूप है.

लेकिन हमारे लिए नहीं. आदिवासी जीवन शैली, संस्कृति और जीवन दृष्टि ही मानव जाति के वर्तमान संकट को बचाने का एकमात्र विकल्प है. वह इतिहास की वस्तु नहीं, इतिहास को गढ़ रहा है. अभी अभी उसने अपराजेय समझे जाने वाले मोदी और उनके कुनबे को झाररवंड, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में धूल चटाया है. असम में वह पूरी ताकत से लड़ रहा है.

म्यूजियम तो दरअसल उनके लिए बनना चाहिए जो आज के वैज्ञानिक युग में भी धर्म की राजनीति करते हैं, धर्म और जाति के नाम पर मनुष्य मनुष्य में भेदभाव करते हैं. जो स्त्री को आज भी भोग की वस्तु समझते हैं. म्यूजियम में तो भरसक मनुवादियों के लिए बताया जाना चाहिए और उन्हें और उनकी संस्कृति से जुड़ी वस्तुओं को वहां रखा जाना चाहिए ताकि उन पर शोध हो सके और दर्शनार्थियों को बताया जा सके कि ये वो लोग है जो मानते है कि कुछ मनुष्यों की उत्पत्ति सर से, कुछ की बजुओं से, कुछ की उदर से और कुछ की पैर से हुई है.

आदिवासी तो अपने पूरे वजूद के साथ वर्तमान में मौजूद है और भविष्य को गढ़ने की दिशा में है, खासकर झाररवंड में..उसके लिए म्यूजियम की दरकार नहीं..

― विनोद कुमार

नये वालों को बधाई, पुराने वाले बदहाल
30/01/2020

नये वालों को बधाई, पुराने वाले बदहाल

गांव छोड़ब नाहीं...जैसे चर्चित गीत के रचयिता और नाम के अनुरूप अपनी खराशभरी आवाज में उसे गुंजायमान करने वाले गायक अब पद्मश...
26/01/2020

गांव छोड़ब नाहीं...जैसे चर्चित गीत के रचयिता और नाम के अनुरूप अपनी खराशभरी आवाज में उसे गुंजायमान करने वाले गायक अब पद्मश्री मधु मंसूरी हो चुके हैं। उनके गीत को जंगल, पहाड़, शहर-डगर और गांव-खलियान में प्रतिनिधि लोकगीत के दर्जा हासिल कर चुके हैं। रविवार में जब उनके पास बधाई और शुभकामनाओं के फोन आने लगे, तो वो स्तब्ध रह गए। जब यकीन हुआ तो आंखें छलछला गईं। शब्द फूटा, जो भी हूं सब झारखंड के लोगों का प्रेम है। उनका एहसान है। जरा सकुचाते हुए भास्कर से कहते हैं कि तब उनकी उम्र महज 7 साल की रही होगी। 2 अगस्त 1956 की तारीख। रातू ब्लॉक के शिलान्यास का मौका था। मुख्य अतिथि रातू महाराज चिंतामणि शरणनाथ शाहदेव थे। उन्होंने घासीराम के गीत दूर देसे...को मधुर-मुखर स्वर में सुनाया था। तालियां तो बजनी ही थीं। गुनगुनाते तो थे। इस पहली प्रस्तुति के बाद गीत लिखना शुरू कर दिया। 4 साल बाद ही 10 दिसंबर 1960 को बड़ी सभा में स्वरचित गीत उनके कंठ का हार बना, पहलि रहलि हम गोरा के धागंरवा, आबे ही साहबेक पानी भरव्वा...। झारखंड आंदोलन की कमोबेश हर छोटी-बड़ी सभा में उनके गीत नारे का रूप बनने लगे। राज्य बनने के बाद जब दर्द मिटा नहीं, तो उन्होंने उसे अल्फाज दिए। 2007 में गीत मशहूर हुआ गांव छोड़ब नाहीं ....। ये अबतक इनके अलावा देश-दुनिया के कई मंचों पर गाया जा चुका है। मधु बताते हैं अबतक 250 गीत लिखे। जबकि 3000 से अधिक मंचों पर वो गा चुके हैं। हर बड़े फ़नकार की तरह वो भी डिग्री वाली तालीम न ले सके। आर्थिक मजबूरी भी सबब रही। मैट्रिक भी न कर सके। लेकिन उनके पास अनुभव बोलता है। जन्म रांची के पास गांव सिमलिया में 4 सितंबर 1948 को हुआ था।

― सैय्यद शहरोज़ कमर

शशाधर आचार्य जी को ‘पद्म श्री’ मिलने पर बहुत बहुत बधाई।
25/01/2020

शशाधर आचार्य जी को ‘पद्म श्री’ मिलने पर बहुत बहुत बधाई।

पद्मश्री के लिए मधु मंसूरी जी को बधाई !!
25/01/2020

पद्मश्री के लिए मधु मंसूरी जी को बधाई !!

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