UPSC IAS 2024

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28/05/2023

कोचिंग क्लासेज का काला सच जो आपको हेरान कर देगा , और आपको कोई नही बताएगा , जरुर देखिये और शेयर करिये ❤️ 🇮🇳 🤐 😍

21/08/2022
23/01/2022
26/10/2021

UPSC - CSAT

26/10/2021

गाँधी जी और लार्ड विलिंग्त्न
गोलमेज सम्मेलन
रेमसे मेक्डोनाल्ड अवार्ड
पूना पेक्ट
मदन मोहन मालवीय और भीमराव आंबेडकर

https://youtu.be/Z393OnGge4E
24/10/2021

https://youtu.be/Z393OnGge4E

#पूना समझौता #रैमसे मैकडोनाल्ड अवार्ड

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06/06/2021

टीके में नस्लभेद मानवजाति पर कलंक
चेतन भगत, ( अंग्रेजी के उपन्यासक )

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एटोनियो गुटेरस ने ट्वीट किया, ‘अमीर देश और इलाकों को कम आय वाले देशों की तुलना में 30 गुना तेजी से वैक्सीन मिल रही है। टीकाकरण में अंतर न सिर्फ अनुचित है, बल्कि सभी के लिए खतरा है…’

एक अन्य लेख में डब्ल्यूएचओ प्रमुख ने मौजूदा वैक्सीन संकट को ‘शर्मनाक असमानता’ बताया। उन्होंने कहा कि अब तक लगे 75% टीके सिर्फ 10 देशों में लगे हैं। जबकि 0.3% कम आय वाले राष्ट्रों में गए।

अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद मानवजाति ने दुनियाभर में कोविड टीकाकरण के मामले में खुद को निराश किया है। दुनिया में एकमात्र वैश्विक प्रयास डब्ल्यूएचओ का ‘कोवैक्स’ है, जो गरीब देशों को वैक्सीन उपलबध कराने का कार्यक्रम है। वह पहले ही कमी का सामना कर रहा है। कई देशों को अब तक एक भी डोज नहीं मिला। मुख्य निर्भरता सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया पर थी, वह भी भारत में कमी के चलते कोवैक्स को टीके नहीं दे पाएगा। स्थिति बुरी है।

वैक्सीन की कमी वाले देश अब भी कोरोना से हो रही मौतें झेल रहे हैं। वहीं अमेरिका, यूके और इजरायल ने करीब आधी आबादी को टीका लगाकर कोरोना के मामले 90% तक कम कर लिए हैं। वहां जीवन सामान्य होने लगा है। बेशक, वैक्सीन की समय पर सोर्सिंग और प्री-ऑर्डर न करने का दोष कुछे देशों पर हैं। उदाहरण के लिए, भारत 2020 में ही वैक्सीन उम्मीदवारों की योजना बनाकर प्री-ऑर्डर कर सकता था। हमने नहीं किया। हम इसका नतीजा भुगत रहे हैं। हालांकि जब 100 देशों के पास बिल्कुल टीके न हों, वहीं कुछ के पास लगभग पूरी सप्लाई हो, तो दुनिया और समूची मानव जाति के स्तर पर कुछ गलत लगता है। हम सभी एक ही मानव जाति के हैं। यह कहना कि किसी खास देश का नागरिक होने से कोई जीने का ज्यादा हकदार हो जाता है, जबकि दूसरे नहीं, यह हमारी नस्ल का स्याह पक्ष बताता है। यह वैक्सीन नस्लभेद है।

कुछ मुट्‌ठीभर फार्मा कंपनियों और सक्रिय सरकारों के हाथ में वैश्विक संकट का समाधान है। बड़ी फार्मा कंपनियों ने टीके की खोज की। उन्हें पूरा श्रेय जाता है। उनका पूरा सम्मान है। लेकिन इस शानदार खोज के बावजूद दुनिया संकट से बाहर नहीं है। सिर्फ कुछ देश हैं। क्या यह वैक्सीन लक्जरी उत्पाद हैं? कल्पना करें, अगर पोलियो या स्मॉल-पॉक्स का टीका सिर्फ अमीर देशों को दिया जाता तो? तब भी आप खोजकर्ताओं और निवेशकों का सम्मान करते?

मौजूदा टीका संकट सिर्फ बड़ी फार्मा कंपनियों का दोष नहीं है। दुनियाभर की सरकारों और यूएन/डब्ल्यूएचओ का भी दोष है। कई सरकारें लालफीताशाही, टीका राष्ट्रवाद और परिस्थिति की तात्कालिकता समझने में अक्षमता की दोषी हैं। यूएन/डब्ल्यूएचओ में सक्रियता की कमी है। उन्होंने आवश्यक पैमाने को कम आंका और 2020 में वैक्सीन उम्मीदवारों से साझेदारी में पीछे रहे। आज भी कोवैक्स कार्यक्रम मदद आधारित है, न कि बड़ी फार्मा कंपनियों के प्रति व्यवसाय उन्मुख। इसलिए उनका पेटेंट छोड़कर समस्या सुलझाना जरूरी है।

इस संकट का समाधान है इन टीकों का उत्पादन बढ़ाना। इसके लिए वैक्सीन का आईपी (बौद्धिक संपत्ति) रखने वाली कंपनियों को आईपी छोड़ना होगा। यह नैतिक अपील से नहीं होगा। वैक्सीन आईपी धारकों को पूंजीवादी प्रोत्साहन के तहत उचित कीमत देनी होगी। खुशकिस्मती से दुनिया यह कीमत चुका सकती है। टीका इतना बहुमूल्य है कि कोई भी देश उचित बाजार मूल्य देने को तैयार हो जाएगा। यूएन/डब्ल्यूएचओ, डब्ल्यूटीओ और विश्व नेताओं को मिलकर पेटेंट रिलीज करने की राशि तय करनी चाहिए, जो वैक्सीन निर्माताओं की भरपाई कर सके। यह राशि आबादी के आधार पर सभी देश दे सकते हैं। पेटेंट मिलने पर हम दुनियाभर के अन्य प्लांट में वैक्सीन निर्माण में तेजी ला सकते हैं।

क्या बड़ी फार्मा कंपनियों के लिए ऐसे समय में बहुत पैसा कमाने की उम्मीद करना नैतिक रूप से गलत है? हमारे पास नैतिकता के मुद्दों पर चर्चा करने का समय नहीं है। हमें बस टीकाकरण जारी रखने की जरूरत है। किसी भी स्थिति में, इसमें शामिल राशि कुछ डॉलर प्रति व्यक्ति या किसी देश की जीडीपी के कुछ प्रतिशत अंकों से ज्यादा नहीं होगी, शायद एक बार कुछ राजकोषीय घाटा हो जाए।

मानवजाति को खुद को संभालने की जरूरत है, वरना दुनिया का अगले तीन साल में टीकाकरण नहीं हो पाएगा। अमीर देश खुद को बेवकूफ बना रहे हैं, अगर वे सोचते हैं कि वे सिर्फ खुद का टीकाकरण कर महामारी से बाहर आ जाएंगे। बिना टीकाकरण वाली आबादियों से आने वाले वैरिएंट असली जोखिम हैं।
डब्ल्यूएचओ को कोवैक्स के लिए बेहतर योजना की जरूरत है। गरीब देश टीके की कीमत चुका सकते हैं (चुकानी भी चाहिए)। बड़ी फार्मा कंपनियों को टीकों की खोज करने के लिए भुगतान करने की जरूरत है और दुनिया को इन टीकों का तेजी से उत्पादन बढ़ाने की जरूरत है। मानवजाति को खुद के लिए यह करना होगा। आइए दुनिया का तेजी से टीकाकरण करें।
AFE IAS

01/06/2021

डिजिटल जगत में असमानता को दूर करने का प्रयास किया जाए

महामारी ने भारत में डिजीटल तकनीक के प्रयोग को बढ़ा दिया है। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी आवश्यक सेवाओं में इनकी जरूरत बहुत बढ़ गई है। उस तुलना में यह जनता को उपलब्ध नहीं है। एक ओर तो महामारी के चलते हुए आर्थिक नुकसान ने इससे जुडी असमानता की दरार को और गहरा कर दिया है, दूसरे दूर-दराज के क्षेत्रों में इंटरनेट सुविधाओं की पर्याप्त पहुँच नहीं है।

शिक्षा से जुड़े कुछ तथ्य –

- नेशनल सैंपल सर्वेक्षण डेटा से पता चलता है कि 2017 में मात्र 6% ग्रामीण और 25% शहरी घरों में कंप्यूटर था।
इंटरनेट सुविधाओं के मामले में भी पिछडापन रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में से मात्र 17% और शहरी क्षेत्रों में से 42% में ही यह सुविधा उपलब्ध रही है।
- पिछले चार वर्षों में स्मार्ट फोन के डेटा से संपर्क साधन बढ़े हैं, परंतु देश की वंचित जनता अभी भी संघर्ष कर रही है।
एन सी ई आर टी और अजीम प्रेमजी फाउंडेशन के डेटा बताते हैं कि 27% और 60% के बीच लोगों को ऑनलाइन पढ़ाई की सुविधा नहीं मिल पा रही है। इसका कारण डेटा पैक खरीदने में असमर्थता, डिवाइस की साझेदारी या घर पर गैजेट खरीदने की क्षमता का होना आदि हैं।

- इंटरनेट कनेक्टिविटी की बाधा भी पढ़ाई न हो पाने का बड़ा कारण है।
- घर में पढाई का वातावरण भी नहीं मिल पा रहा है। अधिकांश घर बहुत छोटे हैं, जिसमें रहने वाले सदस्यों की संख्या ज्यादा है। लड़कियों से घर के कामकाज में हाथ बंटाने की अपेक्षा रखी जाती है।
स्वास्थ्य क्षेत्र –

- महामारी के चलते लोगों का स्वास्थ्य खर्च बहुत बढ़ गया है। सरकार की ओर से सकल घरेलू उत्पाद में स्वास्थ्य बजट मात्र 1% होने से, 2018 के आंकड़ों के अनुसार लोगों का अपनी जेब से जाने वाला स्वास्थ्य खर्च 60% से ऊपर था।
अमेरिका जैसे निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर आश्रित देश में भी लोगों को अपने पास से सिर्फ 10% ही स्वास्थ्य पर खर्च करना पडता है।

- भारत के निजी स्वास्थ्य क्षेत्र में नियमन का अत्यंत अभाव है। इसके चलते गरीबों को अच्छी स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध नही हो पाती हैं।
- वर्तमान स्थितियों में सभी प्रकार के उपचार को एप से जोड़ दिए जाने से निर्धन जनता के लिए उसकी पहुँच कठिन हो गई है।
सरकार, ऑक्सीजन जैसी आवश्यक सुविधा की कालाबाजारी रोक पाने में नाकाम है। उल्टे वह हर सुविधा के लिए “आधार” को अनिवार्य बनाती जा रही है।

- डिजीटल तकनीक से जोडने का लाभ तभी मिल सकता है, जब देश की कमजोर और गरीब जनता के पास उसकी पहुँच हो। वैक्सीन के लिए ‘कोविन’ से स्लॉट कोई कैसे ले सकता है, जब फोन या कंप्यूटर ही न हो । इसकी वेबसाइट भी केवल अंग्रेजी में बनी हुई है।
- स्वास्थ्य क्षेत्र में जब तक वार्ड स्टाफ, नर्स, डॉक्टर, लैब, ऑक्सीजन जैसी मूलभूत सुविधांए नहीं बढ़ती हैं, तब तक आरोग्य सेतु, आधार और डिजिटल स्वास्थ्य आई डी अप्रभावी सिद्ध होते रहेंगे। इन सबके लिए हमें तकनीकी नहीं, वरन् राजनीतिक समाधान चाहिए।
10 वर्ष बीत जाने पर भी आधारकार्ड के अभाव में मूलभूत कल्याणकारी योजनाओं से वंचित रह जाने की कई घटनाएं सामने आती हैं। लैपटाप के अभाव में एक प्रतिभाशाली युवती का आत्महत्या करना, शिक्षा मंत्री के संसद में दिए गए उस वक्तव्य का खंडन करता है कि ऑनलाइन शिक्षा के कारण किसी की पढ़ाई नहीं रुकी है। सरकार का दायित्व है कि बढ़ते डिजटलीकरण के दौर में ऐसी व्यापक नीति बनाकर चले, जो समावेशी हो।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित रितिका खेरा के लेख पर आधारित। 11 मई 2021

हेलो मेरे दोस्तों ,                     में आशा करता हु की  आप सभी स्वस्थ और खुश हे में आपसे सिविल सर्विस के बारे में बा...
30/05/2021

हेलो मेरे दोस्तों ,
में आशा करता हु की आप सभी स्वस्थ और खुश हे
में आपसे सिविल सर्विस के बारे में बात करना चाहूँगा , आप में से कुछ साथी तेयारी कर रहे हे और कुछ अभी अगले वर्ष केलिए सोच रहे हे
केसे तेयारी करे और साधन (बुक्स ) कहा से , कोनसी आदि जानकारी के आभाव में परेशान हे , तो अब आपकी हेल्प करने के लिए म आ गया हु
कल हम UPSC सिविल सर्विस सेवा की भूमिका जानेगे

में आपके समय की कीमत भी जानता हु , इसलिए में शोर्ट विडियो पोस्ट करूंगा और आपके जो भी प्रश्न होंगे उनको में लाइव आकर उतर देने की कोशिश करूंगा
तो फिर मिलते ह कल शाम को 5:00PM पे
शुभ रात्रि
आपका अपना साथी

30/05/2021

वर्चुअल हमला

आए दिन बढ़ती साइबर हमले की घटनाओं ने आज बडी-बडी कंपनियों की नींद उड़ा रखी है। इन हमलों के द्वारा हमलावर कम्प्यूटर और उसके नेटवर्क के जरिए डेटा को निष्क्रिय, नष्ट, चुराने या सूचना एकत्र करने का काम करते हैं। हाल ही में यू.एस. कोलोनियल पाइपलाइन, जो अमेरिका के पूर्वी तट में तेल आपूर्ति का प्रमुख जरिया है, के डेटा पर रेन्समवेयर हमला किया गया है। इसने इस ऊर्जा कंपनी को तुरंत ही बंद होने पर मजबूत कर दिया है। संघीय सरकार ने आपातकाल की स्थिति बताते हुए ऊर्जा आपूर्ति के वैकल्पिक मार्ग को चुना है। इस घटना को देखते हुए डिजिटलीकरण के फैलते परिदृश्य में साइबर सुरक्षा से जुड़े खतरों पर एक बार फिर से विचार किया जाना चाहिए।

मैलवेयर एक दुर्भावनापूर्ण सॉफ्टवेयर है, जो महत्वपूर्ण कंप्यूटर फाइलों को लेने के लिए सुरक्षा अंतराल का उपयोग करता है। रैंसमवेयर मेलवेयर का एक रूप है। यह वैध उपयोगकर्ता को आवश्यक फाइलों तक पहुँचने से रोक सकता है। पिछले पाँच वर्षों में यह ऐसे माध्यम के रूप में उभरा है, जिसके माध्यम से साइबर अपराधी सरकारी मददगारों के बिना भी हानि पहुँचाने में सफल हो रहे हैं। 2017 में वान्नाक्राई और नॉटपेट्या ऐसे ही दो रैन्समवेयर थे, जिनके माध्यम से अनेक देशों पर हमले किए गए थे। एक ने तो मर्क कंपनी के वैक्सीन निर्माण को भी प्रभावित कर दिया था।

रैन्समवेयर हमलों के चलते सॉफ्टवेयर कोड का चलन बहुत बढ़ गया है। घरेलू उपकरणों से लेकर पॉवर ग्रिड तक सभी जगह कोड लगाये जाने लगे हैं। क्रिप्टोकरेंसी के बढ़ते चलन से अब साइबर अपराधियों को नए मार्ग से भुगतान प्राप्त करने की सुविधा दे दी है।

साइबर अपराध से निपटने के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर भारी समन्वय की आवश्यकता है, क्योंकि कंप्यूटर नेटवर्कों का परस्पर जुड़ाव खतरों को बढ़ाता है। इसके अलावा साइबर अपराध के लिए सीमाओं का बंधन नहीं है। अतः सभी देशों में फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स जैसे निकायों के माध्यम से प्रतिक्रिया मानकों को स्थापित करने का प्रयास किया जा सकता है। इस खतरे पर नया गठबंधन भी बनाया जा सकता है।

भारत की सीईआरटी-इन, जो इंडियन कंप्यूटर इमरजेंसी रेस्पॉन्स टीम है, को भी देश के डिजटलीकरण की गति के साथ तालमेल बैठाने के लिए संसाधन आवंटन के संदर्भ में अपग्रेड किए जाने की जरूरत है। इसके साथ ही साइबर अपराधियों की काम करने की गति के साथ अपने टास्क फोर्स की गति बढ़ाने की जरूरत होगी। तब जाकर इन हमलों पर नियंत्रण की उम्मीद की जा सकती है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 11 मई, 2021

30/05/2021

कहीं ‘मोदित्व’ हमारे स्वायत्त संस्थानों को खत्म न कर दे
शशि थरूर, ( पूर्व केंद्रीय मंत्री )

क्या भारत का लोकतंत्र खतरे में है? या फिर भारत पहले ही लोकतांत्रिक नहीं रहा? पांच राज्यों में सफल चुनावों के बाद यह सवाल अजीब लग सकता है। ये चुनाव लगभग पूरी स्वतंत्रता और निष्पक्षता से हुए और केवल एक राज्य में भाजपा जीती। फिर भी, अगर अमेरिकी थिंक-टैंक ‘फ्रीडम हाउस’ की वार्षिक रिपोर्ट पढ़ें, जिसमें भारत को ‘स्वतंत्र’ के स्थान पर ‘आंशिक स्वतंत्र’ कहा गया है या स्वीडन के प्रतिष्ठित वी-डेम संस्थान की मानें, जिसने भारत को ‘चुनावी तानाशाही’ बताया है, तो दुनिया के लोकतंत्रों में हमारा कद गिरता जा रहा है। चुनाव लोकतांत्रिक हो सकते हैं, लेकिन सच्चा लोकतंत्र वह है जो चुनावों के बीच होता है।

वर्ष 2014 में, जब से यह सरकार सत्ता में आई है, हमने हमारे स्वायत्त संस्थानों की स्वतंत्रता को उच्च स्तर पर कमजोर होते देखा है। फिर वह रिजर्व बैंक जैसा वित्तीय नियामक हो या केंद्रीय सूचना आयोग जैसा जवाबदेही वाला संस्थान। यहां तक कि अब तक अलंघनीय माने जाने वाले चुनाव आयोग और सैन्य बलों के उच्च स्तरीय विभागों तक पर सवाल उठने लगे हैं। अब संसद, न्यायपालिका और यहां तक कि प्रेस को भी सरकार के प्रभाव से मुक्त नहीं माना जाता।

इनके प्रणालीगत ढंग से टूटने के एक कारण की जड़ मोदित्व सिद्धांत और इसके सत्ता के सहज निरंकुश केंद्रीकरण में है। मोदित्व आरएसएस के हिंदुत्व के राजनीतिक सिद्धांत में निहित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को व्यक्त करता है, लेकिन उस पर शक्तिशाली और निर्णायक मजबूत नेता के विचार का भी निर्माण करता है, जो राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करे। स्वायत्त जन संस्थान मोदित्व सिद्धांत के लिए खतरा हैं क्योंकि वे अपने स्वरूप में स्वतंत्र हैं। उनके अधिकार को कमजोर करने के लिए ही ‘राष्ट्रवादी’ तर्क को बढ़ाया गया कि विपक्ष और मत विरोधी परिभाषा से देशद्रोही हैं। डर यह है कि जातीय-राष्ट्रवाद भारत को ‘डिक्टोक्रेसी’ के अजीब मिश्रण की ओर ले जा रहा है, जो एक ओर डेमोक्रेसी के स्वरूपों का संरक्षण करती है, वहीं अपने आदेशों के खिलाफ कोई मतभेद भी बर्दाश्त नहीं करती।

अगर भारतीय शासन का अ-संस्थानीकरण ऐसे ही चलता रहा, तो भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा यह होगा कि लोगों का व्यवस्था पर से विश्वास उठेगा। ऐसा दुनिया के कई हिस्सों में होने लगा है। बहुचर्चित पेपर में हार्वर्ड के अध्येता याशा माउंक व रॉबर्टो फोआ तर्क देते हैं कि दुनिया में उदारवादी लोकतंत्रों की सेहत खराब हो रही है। वैश्विक डेटा के मुताबिक लोकतंत्र को समर्थन कमजोर हुआ है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को लेकर अधीरता बढ़ी है, खासतौर पर मिलेनियल्स में (80 के दशक के बाद पैदा हुए)।

वास्तव में, कई लोकतंत्रों में शासन के गैर-लोकतांत्रिक या अधिकारवादी स्वरूपों को समर्थन बढ़ा है। माउंक-फो के डेटा के अनुसार भारत की स्थिति बुरी है। करीब 70 फीसदी भारतीय उत्तरदाताओं को लगा कि ‘एक मजबूत नेता, जिसे संसद या चुनावों की परवाह न हो, वह देश चलाने के लिए अच्छा है’।

सीएसडीएस-अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के हालिया सर्वे में चार बड़े राज्यों के 50 फीसदी उत्तरदाताओं ने मौजूदा लोकतंत्र की तुलना में अधिकारवादी विकल्प को प्राथमिकता दी। जहां भारत सरकार के कई समर्थकों के लिए सिर्फ स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों का हो जाना ही पर्याप्त बचाव है, वहीं लोकतंत्र तभी फल-फूल सकता है, जब तंत्र संतुलन बनाए रखे, सहमति को प्रोत्साहित करे और संस्थागत स्वायत्तता को सुनिश्चित करे। वरना हम एक और ‘अनुदार लोकतंत्र’ बन जाएंगे।

महान जेपी तर्क देते थे कि लोकतंत्र सिर्फ भेड़ों की भीड़ नहीं है, जो हर पांच साल में अपना चरवाहा चुनती है। भारत के लोगों का व्यवस्था में विश्वास तभी रहेगा, जब यह निष्पक्षता से काम करे। अगर उनका विश्वास कमजोर हुआ तो लोकतंत्र की नींव कमजोर होगी। राजनीतिक दल और सत्ताएं आती-जाती रहेंगी, लेकिन स्वतंत्र संस्थान किसी भी लोकतंत्र के स्थायी स्तंभ हैं। उनकी स्वतंत्रता, ईमानदारी और पेशेवर रवैया, उन्हें किसी भी राजनीतिक दबाव को सहने के लिए मजबूत बनाते हैं। हम मोदित्व को उन्हें खत्म न करने दें।
credit to afeias

12/05/2021

मजदूर संघों की चुप्पी

महामारी के इस भयंकर दौर में अनेक राहत योजनाओं के साथ श्रम सुधारों की दिशा में कदम उठाना, एक सकारात्मक कार्य होगा। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकॉनॉमी ने महामारी के पूरे एक वर्ष में समाप्त हुई वेतनभोगी नौकरियों की संख्या को एक करोड़ बताया है। इस पर सरकार की चुप्पी हैरान करने वाली है। यह निष्क्रियता उस समय है, जब केरल और पश्चिम बंगाल जैसे श्रम प्रधान राज्यों में श्रमिकों द्वारा किया जाने वाला विरोध चरम पर रह चुका है। तमिलनाडु ने पिछले 3 वर्षों में श्रमिकों की 51 हड़तालें देखी हैं।

सवाल यह है कि श्रमिकों के वेतन, औद्योगिक संबंधों, व्यावसायिक और सामाजिक सुरक्षा पर नए श्रम कोडों ने क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का ध्यान अभी तक क्यों नहीं खींचा है ?

संविधान की समवर्ती सूची में श्रम कानूनों को रखा गया है। केंद्र और राज्य दोनों को ही इस पर कानून बनाने का अधिकार है। राष्ट्रीय सेवक संघ प्रेरित भारतीय मजदूर संघ जैसे अनेक मजदूर संघों ने नए लेबर कोड या श्रम संहिता के अनेक प्रावधानों का पहले ही विरोध करना शुरू कर दिया है। फिलहाल, इनके स्थगन से मजदूर संघों को कुछ राहत मिली है। लेकिन अगर सरकार उन प्रावधानों को फिर से लागू करने का प्रयत्न करती है, तो मुश्किल बढ़ सकती है।

वास्तविकता यह है कि भारत श्रम बल का मात्र 10% ही संगठित क्षेत्र में है, बाकी का अधिकांश भाग अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र में है। अगर ये मजदूर संघ, असंगठित मजदूरों को आकर्षित करने का प्रयत्न भी करते हैं, तो इनमें पहले जैसी ताकत नहीं है।

भारत की अर्थव्यवस्था श्रम के बजाय सेवा आधारित होती जा रही है। अतः मजदूर संघों में अब वह ताकत नहीं रही है। आज हमारे सकल घरेलू उत्पाद में सेवा क्षेत्र का योगदान 60% है। जबकि श्रम का संबंध विनिर्माण से है, और इसका योगदान मात्र 18-19% है। विनिर्माण में ऑटोमेशन का दौर बढ़ने से अब कुशल श्रम की आवश्यकता पड़ने लगी है। यह भी अधिकतर तकनीक से जुड़े होते हैं। इस प्रकार के कर्मचारी यूनियनबाजी में भी नहीं पड़ना चाहते। ऐसा लगता है कि आने वाले समय में ये मजदूर संघ शांत ही हो जाएंगे।

यही कारण है कि अब सरकारें और विपक्षी राजनीतिक दल अपने चुनाव में श्रम सुधारों को मुद्दा नहीं बना रहे हैं। अब भारत के पास श्रम क्षेत्र को लेकर लचीलापन आ गया है। ऐसा लगता है कि इस लचीलेपन के साथ भी हम वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना कर सकते हैं। साथ ही वास्तविक मजदूर संघों ( जिनका राजनीतिक आधार न हो) के लिए श्रम सुधार भी कर सकते हैं।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित मैथिली मुस्नुरमथ के लेख पर आधारित। 4 मई, 2021

05/05/2021
04/05/2021

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04/05/2021

33% BECOME IAS

आप सभी में से , कोन -कोन कोचिंग करता ह , और ख़ास से कमेन्ट बॉक्स में जरुर बत्ताए
24/04/2021

आप सभी में से , कोन -कोन कोचिंग करता ह , और ख़ास से कमेन्ट बॉक्स में जरुर बत्ताए

24/04/2021

क्या UPSC के लिए कोचिंग जरुरी ह

07/04/2021

जीवन की गुणवत्ता के मूल्यांकन में न्यूनतम जरूरत सूचकांक हो शामिल
विनायक चटर्जी , (लेखक फीडबैक इन्फ्रा के चेयरमैन हैं)

परंपरागत तौर पर आम बजट के एक दिन पहले पेश की जाने वाली आर्थिक समीक्षा में कुछ नवीन विचार एवं सुझाव समाहित होते हैं। हालांकि बजट घोषणाओं की अपेक्षा और फिर उनके विश्लेषण की आड़ में आर्थिक समीक्षा में पेश विचारों एवं सुझावों को उतनी तवज्जो नहीं मिल पाती है। आर्थिक समीक्षा को बजट के पूरे एक महीने पहले पेश करना अच्छा विचार हो सकता है ताकि नीति-निर्माताओं और समझदार जनता को उसमें उठाए गए बिंदुओं पर सोच-विचार का पर्याप्त समय मिल सके। हाल के समय में आई आर्थिक समीक्षाओं ने कुछ नई अंतर्दृष्टि देने का काम किया है। सार्वभौम बुनियादी आय और बैड बैंक के विचार तो यादगार हैं। मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यन के मार्गदर्शन में तैयार हालिया आर्थिक समीक्षा में न्यूनतम जरूरत सूचकांक (बीएनआई) के रूप में एक नया सूचकांक शुरू करने की दिलचस्प संकल्पना पेश की गई है।

भारत में संपत्ति बनाने को लेकर ऐतिहासिक तौर पर गजब की ललक देखी जाती रही है। लेकिन इन परिसंपत्तियों से वांछित सेवा लेने पर सापेक्षिक रूप से कम ध्यान दिया जाता है। बात चाहे बड़े बिजली उत्पादन संयंत्र की हो या बड़े बांध एवं राजमार्गों की हो-आम आदमी को इन बड़ी परिसंपत्तियों से होने वाले लाभ संदिग्ध तौर पर दशकों तक नदारद रहे हैं। बीएनआई सूचकांक पिरामिड के निचले सिरे पर मौजूद एक आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी पर असर डालने वाले पांच क्षेत्रों का जिक्र करता है। आर्थिक समीक्षा में नागरिकों को न्यूनतम जरूरतें मुहैया कराने पर ध्यान देने के लिए सरकारों की लगातार तारीफ की जाती है, इसकी मात्रा कम-ज्यादा हो सकती है। मौजूदा पहल के संदर्भ में इन योजनाओं का उल्लेख किया गया है:

स्वच्छ भारत अभियान (शहरी एवं ग्रामीण)- खुले में शौच से 100 फीसदी मुक्ति और नगरीय ठोस अवशिष्ट का 100 फीसदी वैज्ञानिक निपटान का लक्ष्य हासिल करना।

प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई)- देश के ग्रामीण एवं शहरी दोनों ही क्षेत्रों में सबको आवास मुहैया कराना।

राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम (अब जल जीवन मिशन- जेजेएम)- हरेक ग्रामीण परिवार तक पेयजल, खाना पकाने एवं अन्य घरेलू जरूरतों के लिए साफ एवं पर्याप्त पानी पहुंचाना।

सहज बिजली हर घर योजना (सौभाग्य)- ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में सभी घरों तक बिजली कनेक्शन पहुंचाकर सार्वभौम घरेलू बिजलीकरण करना।

प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना- 8 करोड़ घरों तक नि:शुल्क एलपीजी कनेक्शन देने के लक्ष्य के साथ गरीब परिवारों को स्वच्छ रसोई ईंधन मुहैया कराना।

हरेक राज्य एवं समूह के लिए सूचकांक 2012 और 2018 के लिए ग्रामीण, शहरी एवं संयुक्त रूप से तैयार किया गया है। सूचकांक का मूल्य शून्य और एक के बीच है। सूचकांक का मूल्य जितना अधिक होगा, न्यूनतम जरूरतों तक पहुंच उतनी ही बेहतर मानी जाएगी। तात्कालिक तौर पर इस सूचकांक से निकलने वाले कुछ निष्कर्ष वास्तव में सारगर्भित हैं। पहला, अधिकांश राज्यों में परिवारों की न्यूनतम जरूरतों तक पहुंच 2012 की तुलना में 2018 में खासी बेहतर है। वर्ष 2018 में न्यूनतम जरूरतों तक पहुंच के मामले में सबसे अच्छी स्थिति केरल, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, उत्तराखंड, दिल्ली, गोवा, मिजोरम एवं सिक्किम की है जबकि ओडिशा, झारखंड, पश्चिम बंगाल एवं त्रिपुरा में सबसे बुरी स्थिति है। दूसरा, न्यूनतम जरूरतों तक पहुंच के मामले में राज्यों के बीच की असमताएं 2012 की तुलना में 2018 में कम हुई हैं। तीसरा, ग्रामीण भारत में वर्ष 2018 में न्यूनतम जरूरतों तक सर्वाधिक पहुंच पंजाब, केरल, सिक्किम, गोवा और दिल्ली में दर्ज की गई है जबकि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम, मणिपुर एवं त्रिपुरा में हालत खराब है। चौथा, न्यूनतम जरूरतों तक पहुंच के मामले में निर्धन परिवारों की हालत देश भर में सापेक्षिक रूप से संपन्न परिवारों की तुलना में गैर-आनुपातिक रूप से बेहतर हुई है। समानता की दिशा में बढ़ा यह कदम खास तौर पर उल्लेेखनीय है क्योंकि धनी लोग तो निजी विकल्पों को भी आजमा सकते हैं, बेहतर सेवाओं के लिए गुटबंदी कर सकते हैं या जरूरत पड़ी तो बेहतर सेवाओं वाले इलाकों का रुख कर सकते हैं। लेकिन गरीब परिवारों के पास ये तमाम विकल्प नहीं होते हैं। पांचवां, न्यूनतम जरूरतों तक पहुंच बेहतर होने से स्वास्थ्य एवं शिक्षा सूचकांकों में सुधार दर्ज किया गया है। बीएनआई को राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (एनएसओ) के दो दौर के आंकड़ों के आधार पर सभी राज्यों के लिए तैयार किया गया है। पेयजल, स्वच्छता, साफ-सफाई एवं भारत में आवास की स्थिति पर एकत्र आंकड़ों का इस्तेमाल हुआ है। उम्मीद की जाती है कि प्रति व्यक्ति आय, पोषण एवं स्वास्थ्य जैसे दूसरे स्वीकृत मानदंडों के साथ न्यूनतम जरूरत सूचकांक को भी भारत में जीवन की गुणवत्ता के सारे भावी मूल्यांकनों में वाजिब जगह मिलेगी।
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07/04/2021

फासीवादी मानसिकता वाले बुद्धिजीवी
विकास सारस्वत , ( लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

‘हिंसा को केवल झूठ के द्वारा ही छिपाया जा सकता है और झूठ को केवल हिंसा द्वारा कायम रखा जा सकता है।’ नोबेल पुरस्कार विजेता अलेक्जेंडर सोलजेनित्सिन ने यह प्रसिद्ध उक्ति यूं तो सोवियत संघ की अत्याचारी कम्युनिस्ट सरकार के संबंध में कही थी, परंतु यह किसी भी काल और समाज में पनपी तानाशाही प्रवृत्ति का लक्षण है।

एक माह पूर्व तृणमूल कार्यकर्ताओं द्वारा बेरहमी से पीटी गईं 82 वर्षीय शोभा मजूमदार का पिछले दिनों बंगाल के उत्तरी 24 परगना में निधन हो गया। अपने पुत्र के साथ शोभाजी को केवल इसलिए पीटा गया, क्योंकि पुत्र गोपाल ने चुनाव में भाजपा के समर्थन का फैसला किया था। इस हमले का वृद्ध शोभाजी द्वारा मार्मिक विवरण उस राष्ट्रीय चेतना के लिए चुनौती है, जो भारत के सफल लोकतंत्र होने का गुमान रखती है। शोभाजी की मृत्यु से एक दिन पहले ही एक छोटी बच्ची का वीडियो वायरल हुआ था। उस वीडियो में चोटिल बच्ची कह रही है कि तृणमूल वालों ने उसे तब मारा, जब वह पिता को बचाने के लिए आगे आई।

बंगाल में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस द्वारा जारी हिंसा शर्मनाक अध्याय के रूप में याद रखी जाएगी, परंतु तृणमूल कार्यकर्ताओं द्वारा विरोधी भाजपा समर्थकों के साथ मारपीट और लगातार हत्याएं जितनी उद्वेगकारी हैं, उतनी ही हैरानी वाली बात इन घटनाओं पर कथित भारतीय बुद्धिजीवियों की चुप्पी है। जिन बुद्धिजीवियों ने ‘जय श्रीराम’ जैसे अभिवादन और स्वेच्छा से दिए गए त्यागपत्रों में फासीवाद ढूंढ लिया उन्हें हाड़-मांस के मानवों की राजनीतिक विरोध में हुई हत्याओं में निरंकुश सत्ता का बोध कभी नहीं हुआ। बावजूद इसके कि ‘फासीवाद’, ‘तानाशाही’ और ‘असहिष्णुता’ जैसे शब्दों का कोलाहल बीते वर्षों में पूरी तरह विमर्श पर छाया रहा है। बंगाल में त्रिलोचन महतो, सुखदेव प्रमाणिक, गणेश राय, चंद्र हलदर, रॉबिन पॉल, पूर्णचरण दास जैसी हिंसा का शिकार हुईं दर्जनों आत्माएं बुद्धिजीवियों के सहानुभूति पटल पर पंजीकृत नहीं हो पाईं।

केवल बंगाल ही नहीं, केरल, कर्नाटक में हुई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्याएं या महाराष्ट्र सरकार द्वारा सत्ता मद में आम नागरिकों और मीडियाकर्मियों पर ज्यादतियां या फिर दिल्ली सहित देश के अलग-अलग हिस्सों में हिंदुओं की हत्याओं पर छद्म बुद्धिजीवी चुप्पी साधे रहे हैं। ऐसे घोर अतिवाद पर मौन रहकर ‘बहुसंख्यकवाद’, ‘चुनावी अधिनायकवाद’, ‘एकाधिकारी राजसत्ता’ जैसे ऊलजुलूल और बेईमान जुमले गढ़ ये बुद्धिजीवी लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही कोसने लगे हैं। दरअसल ‘फासीवाद’ का यह बुद्धिजीवी प्रलाप सोलजेनित्सिन की बात को चरितार्थ करता है। जहां एक ओर ये बुद्धिजीवी असल हिंसा को छुपाने का प्रयास करते हैं, वहीं नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए और कृषि कानून विरोधी आंदोलन जैसे भ्रामक और उग्र विरोधों को हवा देकर हिंसा फैलाने का काम करते हैं।

राजसत्ता द्वारा पोषित भारत का वामपंथी बुद्धिजीवी वर्ग जो बुद्धिजीवी कम और अभिजात्य ज्यादा है, केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद से क्रोध, घृणा और क्षोभ में डूबा हुआ है। अपनी आयातित विचारधारा को भारत पर थोपने को आतुर यह वर्ग भारतीय संस्कृति और सभ्यता के पुनरुत्थान से तिलमिलाया हुआ है। स्वयं असहिष्णुता का पर्याय यह वर्ग बंगाल समेत देशभर में सत्ताधारी भाजपा और उसके समर्थकों पर हो रही हिंसा का मौन समर्थक है। ऐसा ही मौन समर्थक वह नक्सली हिंसा का भी है। कई बार तो वह इस हिंसा को जायज ठहराने की भी कोशिश करता दिखता है। मनोविज्ञान कुंठितों में मनोवैज्ञानिक प्रक्षेपण की बात करता है। यह वह रक्षात्मक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपनी खामियों और अपने दुर्व्यवहार को दूसरे पर प्रक्षेपित करता है। प्रसिद्ध मनोविज्ञानी सिग्मंड फ्रायड मानते थे कि ऐसा व्यक्ति प्रक्षेपण की प्रक्रिया में उन विचारों, प्रेरणाओं, इच्छाओं और भावनाओं को बाहरी दुनिया में रखकर किसी और को उनके लिए जिम्मेदार ठहरा देता है, जिन्हें उसे अपने व्यवहार में स्वीकार करना असहज होता है।

स्वयंभू प्रगतिवादी वामपंथी बुद्धिजीवियों में मनोवैज्ञानिक प्रक्षेपण को समूह स्तर पर देखा जा सकता है। झूठ और मक्कारी से भरे इनके व्यवहार में प्रति पल उलट प्रक्षेपण दिखता है। ये धुर सांप्रदायिक नीतियों और शक्तियों का समर्थन करते हैं और दूसरों को सांप्रदायिक बताते हैं। ये विशेष राजनीतिक दलों के क्रियाकलापों पर मौन साधकर अन्य पत्रकारों को गोदी मीडिया कहकर संबोधित करते हैं। बड़ी सरलता से हिंसा और तोड़फोड़ को जनतांत्रिक प्रदर्शन और लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकारों को चुनावी अधिनायकवाद बता देते हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शरारतपूर्ण और झूठे प्रोपेगेंडा चलाने के बाद यदि कभी कोई एजेंसी हल्की कार्रवाई कर दे तो उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन से जोड़ देते हैं। वहीं दूसरे पक्ष की अभिव्यक्ति चाहे वह ऐतिहासिक साक्ष्यों या मजहबी पुस्तकों पर आधारित हो, उसे हेट स्पीच बताते हैं। इनकी दुनिया में सिद्धांतों की नहीं, समूहों और दलों की प्रधानता है। इनकी नैतिकता राज्यसत्ता और पीड़ित की सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि देख जागृत होती है।

राजसत्ता द्वारा शासकीय तंत्र का विरोधियों एवं आम नागरिकों के दमन के लिए प्रयोग फासीवाद का मूल सिद्धांत है। भारतीय छद्म बुद्धिजीवी इसी राज्य प्रायोजित तानाशाही को छोड़कर काल्पनिक क्रियाओं या यकायक हुए अपराधों में शब्दाडंबर द्वारा कृत्रिम फासीवाद का निर्माण करते हैं। इनके प्रयासों का चुनावी राजनीति पर उतना फर्क न पडे़, परंतु एक बडे़ वर्ग की नैतिकता पर इसका प्रभाव पड़ा है। इस प्रयास की सफलता इसी से पता चलती है कि शोभाजी और उन जैसे सैकड़ों पीड़ितों के प्रति एक बडे़ वर्ग में संवेदनशून्यता दिखती है। संघ और भाजपा की लगातार खलनायक के रूप में प्रस्तुति ही वह कारण है कि इनके कार्यकर्ताओं, समर्थकों और विधायकों तक पर हिंसा न सिर्फ आम हो गई है, बल्कि उसे सहज सामाजिक क्रिया मान लिया गया है। एक वर्ग के प्रति इतनी नफरत कि उसकी हत्या पर संवेदना भी पैदा न हो, यही फासीवाद का असल रूप है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो आज का फासीवादी वह है, जो दूसरों को फासीवादी कह रहा है। वह भले बुद्धिजीवी का चोला ओढ़ ले, पर सैकड़ों मासूमों के खून की थोड़ी बहुत जिम्मेदारी उसके सिर भी है।

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26/03/2021

"पितृसत्तात्मक समाज"
SC ने सेना में महिलावो को स्थाई कमिशन दिए जाने पर टिप्पणी करते हुए कहा ह की , हमे ये सवीकार करना होगा की हमारे समाज का ढाचा पुरुषो के द्वारा और पुरुषो के लिए तयार किया गया हे ,
1. कुछ संरचनाये , व्यवस्थाये , सामने से हानि रहित दिखाई दे सकती हे , पर वे कब की "पितृसत्तात्मक का संकेत हे
2. कानूनों का समान रूप से अनुप्रयोग , बहुत दूर हे , समानता का सतही चेहरा सविधान सविधान में निहित सिधान्तो के लिए सही नही हे
"पितृसत्तात्मक समाज"(छोटी इकाई परिवार ह )प्रधान पुरुष हे ,
फ्रांस की लेखिका सिमोन द बोउआर
ने कहा हे की ओरते पैदा नही होती वो बनाई जाती हे ,
अफ्रीका देशो में एक कहावत हे , जब तक शेरो के अपने इतिहाश्कर नही होंगे तब तक शिकारियों की महिमा गाथा गयी जाएगी , जिस दिन शेरो के इतिहाश्कर होने उस दिन पता चलेगा की सही कोण हे
पॉइंट 1,2 पे आप अपनी और से टिपण्णी भी लिख सकते ह
और पोस्ट करे
धन्यवाद
WALL FROM AFE IAS

26/03/2021

तिन विधयेक वो प्रवर समितियों को सोप दिया गया हे (कोर्ष में दिया हे ऑडियो )
अस्थाई समिति ह (अस्थाई समिति दो तरह की होती ह एक प्रवर और दूसरी सयुक्त समिति, सयुक्त समिति में राज्य सभा और लोक सभा दो सदन के सदस्य लिए जाते हे , लेकिन प्रवर समिति में एक ही कोई एक सदन क सदस्य लिए जाते हे और उनको किस विधयेक पर विचार करने के लिए कहा जाता हे और अपनी रिपोर्ट दे , क्योकि सदन के पास इतना समय नही होता ह की हर विधेयक पर विचार करे
AFE IAS WALL

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