17/09/2022
जितिआ परब विशेषः
✍️हरे किसनअ हिंदइआर
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जहार जितिआ ससटिमाञ🙏🙏🙏
जितिआ परब भारत के कई राज्यों में मनाया जाता है लेकिन छोटनागपुर पठार मे बसे कुछ राज्यों जैसे झारखंड ,बंगाल एवं उड़ीसा में जितिआ परब की धूम कुछ अलग ही रहती हैं। चाँद के अनुसार यह परब भाद्र माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। जितिआ नामकरण के पीछे एक युक्ति है जीति+आ अर्थात जीत कर आना। बिहा के पश्चात कन्या जब मायके में जाती है तो कन्या के मां बाप की मंशा होती है कि मेरी पुत्री ससुराल से कब जीतकर मेरी आंगन में आएगी। कहने का तात्पर्य है की कन्या जब तक ससुराल में वंशवृद्धि अर्थात संतानोत्पत्ति नहीं कर पाती है, तब तक वह ससुराल में हारी हुई मानी जाती है, क्योंकि समाजिक नियमानुसार यदि कोई कन्या का संतानोत्पत्ति लंबे समय तक नहीं होती है, तो उसके विकल्प में उसके पति दूसरे को बिहा कर लाता है और ऐसी स्थिति में अधिकतर जगहों मैं उसके साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है। यहां तक की कभी-कभार उसे झगड़ा झंझट से बचने के लिए मायके में ही रहना पड़ता है। तब कन्या के माता पिता को काफी दुख होता है और वह बेटी से कहता है की आज तुम ससुराल में हार गई।
यहीं पर जो कन्या संतानोत्पत्ति कर मायके आती है तो उसे कहा जाता है तुम जीत कर आई है। अब तुम जितिआ माँ ससटि माँ अर्थात जीव सृजनकारी प्रकृति महाशक्ति की तुम परब करो और अपनी संतानों की वंशवृद्धि ,यशवृद्धि, कर्मवृद्धि व धनवृद्धि आदि की कामना करो। इस परब में जो भी खर्च या लागत आएगी सारा मैं यानी कन्या के पिताजी वहन करेंगे । यह कहकर जितिआ परब करने की प्रेरणा देते है।
परब के कुछ दिन पहले से ही घर की झाटाई पुताई शुरू कि जाती है। इसके बाद संजोत के दिन आंगन की लीपापोती कर नाई से नाखुन काटवाति है फिर तालाब, नदी आदि के किनारे मिट्टी का घड़ा लेकर जाती है उसमें, झिंगा पता,दतइन,हलदी,तेल, चना, कुरथी ,मूंग के बीजों के साथ खीरा आदि होता है।मुँह धोने के समय चालह सियार को दइतन पानी देकर नेहर करती है -
ले चालह सिआर दतइन पानि मुँह धआ ,स्नान करि संजअत करा
आर हामरा केउअ मुंँह धउआआ आर जितिआ परब कर संजअत कराउआ । इसके बाद घर आकर भूतपिढ़ा में धूप देती है और आँकुर थापने का का काम नियम पूर्वक करती है। पहले तीन दना आँकुर और तीन दना में पानि देकर चालह सिआर को नेहर कर थापा जाता है। इसके बाद भीतर घर में आँकुर चुका को रखती है।
अगले दिन सुबह घर का कोइ पुरुष नहा धोकर आता है और आँकुर को भुतपीढ़ा के सामने पेछिया आदि में छानकर रखता है।महिलाएँ आष्टमी में दिनभर उपवास कर शाम के समय झींगा पत्ता दतइन लेकर नदी या तलाब में जाती है फिर चालह सियार को सेंउरन कर झिंगा पता दतइन देती है और नहान कर एक खिरा बहाती है अर्थात मातृत्व शक्ति का वह गुण जो काम में नहीं आया है उसे वह बहाती है। फिर घर आकर नया कपड़ा पहनकर जितिया ससटि माँ के सेंउरन के लिए तैयार होती है। प्रायः हर गुस्टि में जितिआ डाल गाड़ी जाती है। जहां सभी महिलाएं एकत्रित होकर सेंउरन करती हैं।
जितिया परब के सेंउरन में मुख्य रूप से 9 प्रकार के पेड़ पौधे/वस्तु का चयन किया गया है-
1) ईख (3या5)- यह मातृशक्ति का प्रतिक है। इसके हार गांठ में सृजनकारी क्षमता है। अतः इससे कामना की जाती है की मेरी पुत्री पुत्र का वंश वृद्धि में कभी भी कमी ना हो।
2) बड़ टहनी- इसमें मातृत्व शक्ति के साथ साथ पुत्र की दीर्घायु की कामना की जाती है।
3) भेलुआ टहनी- इसमें पुत्र पुत्री की अशुभ लक्षण नष्ट होने की कामना की जाती है।
4) बेलनदड़ि घास/केउआँ- इसके हर भाग में पोषक तत्व यानी दूध पाया जाता है इसलिए इससे पोषक तत्व की कमी ना हो कि कामना की जाती है।
5) पाकइड़/पिपल टहनी- शीतलता के प्रतीक के रूप में।
6) चिडचिटि- अपनी पहचान/गुण दूसरों को देने मे।
7) धान पौधा- वंश वृद्धि एवं पोषण में सहायता प्रदान करना।
8) आकंद टहनी-पोषक तत्व के प्रतीक गुण का समावेश ।
9)घर मुहनी- मूल तत्व के प्राप्ति की प्रतीक।
इन 9 चीजों को एक साथ मिलाकर गुस्टि के पुराना आंगन में तांबा, दूब घास, काटी, हरतकी आदि देकर गढ़्ढा में गाड़ा जाता है। इसके बाद सभी व्रती विधिपूर्वक सेउरन करती है और इनके सृजन कारी व सृजन में सहयोग करने वाले तत्व की सेंउरन कर उसे उसके गुणों की प्राप्ति की कामना अपने पुत्र पुत्रियों के लिए करती है। ताकि उसके वंश में किसी भी चीज का कमी ना हो।सेंउरन के पश्चात रात भर नाच गा कर जितिया डाल को जगाया जाता है, फिर सुबह विधि पूर्वक उसे उठाकर नदी या तलाब में ले जाकर फूल आदि को भाषाया जाता है और ईख को लाकर बच्चों के बीच भग के रुप में वितरण किया जाता है। व्रती सब नहा धो के परब का भोग बनाती है। फिर चालह सिआर को भग देने के पश्चात भोग का वितरण वैसे घर में करती है जहां यह परब नहीं चलता है इसके बाद पारण करती है।
परब के संजोत या उपवास के दिन कोई व्यक्ति उस गुस्टि का मर जाता है तो इस परब को रखने के लिए भेगना के यहां आँकुर देने की भी प्रचलन है। वह इस परब को रख देता है, फिर वह अगले वर्ष विधि पूर्वक वापस कर देता है। यदि अंकुर थाकने से लेकर डालने तक कोई मर जाता है तो परब चला जाता है और फिर यदि उस गुष्टी में बच्चा, बछड़ा या बकरी का जन्म संजोत या उपवास के दिन होता है तो यह परब पुनःआ जाता है। इस पर्व में अमावस्या के पूर्व तक संगे संबंधियों के यहां आँकुर पीठा देने का भी विधान है।