06/11/2024
●क्या छोड़ गईं शारदा? शारदा सिन्हा होने के मायने...
★एक विवेचना ~ खुद से ही खुद में समा गईं आप शारदा सिन्हा... कोई और आपकी जगह ले भी नहीं सकता। आप बनातीं भी कोई तो वो आपके जैसा या आपके गला-कंठ की तरहा हो भी नहीं सकता था। लोक संगीत गायकी के सगरे जगत में आप अकेली थीं तो खुद को ही खुद में समा कर चल दीं। फ़िल्म "मोहब्बतें" के उस लिरिक्स की तरह कि..."हमको हमीं से चुरा लो!"
o 1978 में जब आपके गाये छठ गीत "उग हो सूरुज देव" की पहली बार कोई रिकार्डिंग सामने आई तो लगा कि बिहार समेत पूर्वांचल के वन-प्रांतर में कोई कोकिला गा उठी हो। लोक आस्था के महापर्व छठ में घर-घर और हर नदी-घाट में व्रती स्त्रियों के विराट लोक को आपने सुर दे दिया, आवाज़ दे दी। बड़ी बात तो ये कि माथे पर "दउरा" उठाये पिछड़े और श्रेष्ठ-दबंग सोच का पुरुष समाज भी आपके गीतों को दोहराने लगा। गाने-गुनगुनाने लगा।
o ऐसा और ये सब बिहार, यूपी और हिंदी प्रदेशों के साथ पूरे पूरबी समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक आबोहवा में बड़ा और क्रांतिकारी बदलाव था। आपके गाये छठ गीत ने तुलसी के मानस के राम की तरह आम जन मन को, सौरमंडल के केंद्रीय ताराग्रह सूर्य को "सुरुजमल" में बदल दिया।
o छठी मइया के कथागीतों में आपकी गायकी का किरदार कुछ इस कदर चस्पां हुआ कि आपही उनके लिए जैसे "छठी मइया" हो गईं। आपके रूप, आपका पहनावा, आपके सज श्रृंगार में ललाट की वो बड़ी बिंदी...ये सब रूप भी आपके गाने सुनते या गाते हुए मन-मस्तिष्क में तारी हो जाता।
o शारदा सिन्हा, आपने उस सामंती समाज की बंदिशों और रवायतों में कैद बेटियों को भी जाने-अनजाने बाहर निकाला। गायकी और अपनी सांस्कृतिक प्रतिभा को सिर्फ घर-आंगन, बमुश्किल रेडियो स्टूडियो तक ही प्रतिभावान बेटियों को प्रदर्शन की इजाज़त थीं। आपकी सफलता, लोकप्रियता,संगीत साधना ने वैसे स्त्री समाज की गुमनाम प्रतिभाओं के पंख लगा दिए। आज बिहार, यूपी के गांव-समाज से निकलकर जाने कितनी गायिकाओं की फ़ौज खड़ी हो गई है।
o मराठी, बंगाली सांस्कृतिक समाज के कल्चर से जुदा पूरबी समाज के बंद मन को भी आपकी गायकी ने खोला। आपके गायकी के शील, संस्कार, परिधान और कंटेन्ट (विषय) ने भी बेटियों पर लगे ताले खोलने में अभिभावकों को उत्साहित किया। आपकी पूर्ववर्ती और लोकगायिकी की मनीषी पद्मश्री विन्ध्यवासिनी देवी जी के दौर में उस हद तक नहीं हो पाया था। आप चलीं गई इस जगत को छोड़ कर लेकिन साथ में छोड़ गईं एक बहुत बड़ी लोक विरासत जिस पर इतराता और दंभ भरता रहेगा भारत से लेकर, फिजी, सूरीनाम, मॉरीशस से लेकर एशिया, यूरोप, अमेरिका का पूरबी समाज।
o शारदा सिन्हा ने पूरबी, मैथिल, मगही के समाज के लोक संस्कारों को भी बड़े फ़लक पर अपनी खनकती आवाज़ दी। ज़िश कारण उनके गाये संस्कारगीत, हिंदी लोक साहित्य- संस्कृति के जैसे "इनसाइक्लोपीडिया" बन गये हों। जन्म, जनेऊ, मुंडन, शादी -विवाह, क्या और किस अवसर, नेग, विध-व्यवहार के उन्होंने गीत नहीं गाये।
o यही वज़ह है कि घर-परिवार में कोई सुमंगल का अवसर शारदा सिन्हा बज उठती हैं...उनके कोकिलकंठी स्वरलहरी गूंजने लगती है। परदेस हो या देश या हो विदेश, मॉर्डन सिंगिंग के इयरफोन कान में लगाये झूमते नौजवान बच्चे भी शारदा जी के गाने पर झूम उठते और मगन हो जाते हैं। उनका गांव-घर, शहर, देश, माता-पिता याद आने लगते हैं और छठगीत तो उन्हें भाव-विह्वल कर देता है कि- चलो गांव की ओर!
o शारदा जी, अच्छा नहीं लगा आपका जाना। 72 की उम्र कोई वैसी भी उम्र नहीं थी पर एम्स दिल्ली के मेडिकल बुलेटिन ने बताया कि आपकी बीमारी बड़ी और ख़ास थी। वैसे आप अपने पीछे सदियां गढ़ और छोड़ गई हैं। वे सदियां जिन पर आपकी छाप रहेगी। कहें तो अपने फ़न, अपने अंदाज, खुद के संगीत को लेकर, आज सदियों में समाहित हो गई हैं कोकिला शारदा सिन्हा या यूं कहें तो लोक संगीत की आनेवाली सदियां समाहित रहेंगी पद्म पुरस्कारों से सम्मानित शारदा में।
◆आप शारदा ही थीं- लोक संस्कृति समाज और सुरप्रेमियों की शारदा-महासरस्वती...छठी मइया!!✒️ 🙏
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