17/12/2023
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Traveler, Nature Lover, Poet, Photographer, Politics, Data Analytics.
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gift hamper was provided to Ms. Kangana Ranaut Kangana Ranaut and she very graciously accepted and listened to the story of EDehati . She appreciated how farmers & are building a brand for .
We also thank विश्व संवाद केंद्र शिमला for providing such an opportunity to us and thank the organisers who organised such a big event.
With this eDehati promises you to keep growing & keep working to bring a change in the lives of all including our associate & partner SPNF farmers, SHG members and above all our esteemed customers.
Thank you...
Welcome Kangana Ranaut ji to Bilaspur for
Looking forward to engaging conversations with social media creators from Devbhoomi-Veerbhoomi at the ‘HP Social Media Meet 2023’. See you on Tue, Dec 12, in Bilaspur!
मैं वो नहीं जो मैं तेरी नज़र में दिखता हूं,
मैं वह हूं जो तेरे जेहन में घर कर गया है।
तुझे लगता है कि तुं मुझे जानता है,
पर तू नहीं जानता कि मैं तुझे जान गया हूं।
मेरी चुप्पी का तूं यूं कोई अर्थ ना निकाल,
बस यह समझ ले, तूफान का आना बाकी है।
किसी का वक्त बदलते देर नहीं लगती,
तेरा वक्त बदला है मेरा आना बाकी है।
मैं जी उठूंगा हर बार ख़ाक से भी,
है जज़्बा पहाड़ चीर कर रास्ता बनाने का,
फक्त कितने भी आएं तूफान इस जिंदगी में,
मैं समंदर हूं! तेरे जेहन का कोई तालाब नहीं।
राहुल पहाड़ी
'हिमाचल प्रदेश सोशल मीडिया मीट-2023' का आयोजन विश्व संवाद केन्द्र, हिमाचल द्वारा किया जा रहा है। कार्यक्रम का उद्देश, देश, प्रदेश व समाज के लिए सार्थक संवाद को बल देना है
during
...
Door kahin jab din dhal jaaye.....
Dur kahin sanjh dhale,
doobtey Suraj ki Roshani mein,
Tere husn ki tarif ke qasida padh raha hoga koi,
Aur main yah soch ke chup baitha hun ki tu khush hai...
after
Get fresh from https://www.edehati.com
Summary of one of the interview in London by a famous young politician : -
- India is worst country of World
- Dont give weightage to India, India is not as it's shown, No democracy, no media rights, no minority rights
- Don't invest in India, no business opportunity there, all belongs to Adani
- India is coward
- Requesting US and Europe to put sanctions on India to reboot the democracy.
Let me tell you this politician isn't a Pakistani 😏
Flowering
Why are there 7 days in a week?
Why Day is divided into 24 hours?
How true..
'वीर बाल दिवस' पर श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज के साहिबजादों के बलिदान को कोटि-कोटि नमन!
साहिबजादों का पावन बलिदान युगों-युगों तक राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए हम सभी को प्रेरणा प्रदान करेगा।
#बालदिवस #सनातनधर्म
वीर बलिदान दिवस
बाबा जोरावर सिंह जी व बाबा फतेह सिंह जी के बलिदान दिवस पर मनाए जा रहे वीर बाल दिवस के अवसर पर भारत सरकार द्वारा मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है. गुरु गोबिंद सिंह जी के पुत्रों के बलिदान को नमन करें.
What an experience at 2023
आत्मनिर्भर भारत के लिए, समृद्ध हिमाचल प्रदेश के लिए व हमारी भावी पीढ़ियों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए मतदान की प्रक्रिया में भाग अवश्य लें!
My predictions for Himachal Pradesh
BJP 32-35 (40-42%)
Congress 30-32 (41-42%)
Others 2-5 (6%)
गुरु नानक जी की आध्यात्मिक यात्राएँ
गुरु नानक जी की दिव्य आध्यात्मिक यात्राओं को उड़ासी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि गुरु नानक जी दुनिया के दूसरे सबसे अधिक यात्रा करने वाले व्यक्ति हैं। उनकी अधिकांश यात्राएँ उनके साथी भाई मरदाना जी के साथ पैदल ही की गई थीं। उन्होंने सभी चार दिशाओं- उत्तर, पूर्व, पश्चिम की यात्राओं को एक अभिलेख के रूप में जाता है। वैसे ऐसे भी अभिलेख हैं जो इस बात का संकेत करते है कि गुरु नानक जी ने सबसे अधिक यात्राएं की थी । माना जाता है कि गुरु नानक जी ने 1500 से 1524 की अवधि के मध्य दुनिया की अपनी पांच प्रमुख यात्राओं में 28,000 किलोमीटर से अधिक की यात्रा की थी। सबसे अधिक यात्रा करने वाले व्यक्ति का रिकॉर्ड मोरक्को के इब्न बतूता के नाम है। नीचे उन स्थानों की संक्षिप्त जानकारी दी गई है जहाँ पर गुरु नानक जी ने भ्रमण किया था
पहली उदासी : 1500-1506 ई.
यह लगभग 7 वर्षों तक चला और निम्नलिखित कस्बों और क्षेत्रों का भ्रमण किया: सुल्तानपुर, तुलम्बा आधुनिक मखदुमपुर, जिला मुल्तान), पानीपत, दिल्ली, बनारस (वाराणसी), नानकमत्ता (जिला नैनीताल, यूपी, टांडा वंजारा (जिला रामपुर), कामरूप (असम), आसा देश (असम), सैदपुर (आधुनिक अमीनाबाद, पाकिस्तान), पसरूर (पाकिस्तान), सियालकोट (पाकिस्तान)।
दूसरी उदासी: 1506-1513 ई.
यह लगभग 7 वर्षों तक चला और निम्नलिखित कस्बों और क्षेत्रों को कवर किया: धनसारी घाटी, सांगलादीप (सीलोन)
तीसरी उदासी:: 1514-1518 ई.
यह लगभग 5 वर्षों तक चला और निम्नलिखित शहरों और क्षेत्रों का भ्रमण किया: कश्मीर, सुमेर परबत, नेपाल, ताशकंद, सिक्किम, तिब्बत। माना जाता है कि चीन भी गए थे, इसके समर्थन करने के लिए साक्ष्यों का संग्रह चल रहा है।
चौथी उदासी: 1519-1521 ई.
यह लगभग 3 साल तक चला और इसमें निम्नलिखित शहरों और क्षेत्रों का भ्रमण किया: इराक, मक्का, तुर्की और अरब देश। ऐसा कहा जाता है कि सीरिया में बाबा फ़रीद की मस्जिद के पास 'वली हिंद की मस्जिद' नाम की एक मस्जिद है। माना जाता है कि अफ्रीका महाद्वीप गए थे, इसके समर्थन करने के लिए साक्ष्यों का संग्रह चल रहा है।
तुर्की में गुरु नानक जी के स्मारक पर निम्नलिखित लिपिबद्ध है
तुर्की में गुरु नानक जी के स्मारक पर अरबी / फ़ारसी / तुर्की भाषाओं मे (गुरुमुखी लिपि में लिप्यंतरित) ਜਹਾਂਗੀਰ ਜਮਾਂ ਹਿੰਦ ਲਤ ਅਬਦ ਅਲ ਮਾਜੀਦ ਨਾਨਕ (जहाँगीर जामन हिंद लाट अल मजीद नानक) लिखी गई है जिसका पंजाबी में अर्थ है: जमाने दा मालिक, हिन्द दा बंदा , रब दा नानक जिसका हिन्दी मे अर्थ है आज के भगवान, भारत के निवासी, भगवान के आदमी नानक। इसके आगे भी काफी लंबी पंक्तियाँ लिखी हुई है किन्तु शिलालेख अब सुपाठ्य नहीं है । इसके बारे मे अभी भी बहुत सारे रहस्योद्घाटन होना बाकी है। हालाँकि, स्मारक की सबसे निचली पंक्ति में 1267 हिजरी (1850 CE) की तारीख़ स्पष्ट रूप से पठनीय है
बगदाद के पीर बहलोल से मिलना और मठ का निर्माण
मदीना की यात्रा करने के बाद, गुरु नानक देव जल्द ही बगदाद पहुंचे और शहर के बाहर मरदाना के साथ एक मंच संभाला। गुरु नानक देव जी ने प्रार्थना करने के लिए लोगों का आह्वान किया , उन्होने अपनी प्रार्थना मे मुहम्मद अल रसूल अल्लाह को हटाकर उसके बदले सतनाम शब्द का प्रयोग किया जिस पर पूरी आबादी खामोश हो गई और उग्र होकर गुरु नानक जी को एक कुएं में धकेल दिया और पत्थरों से मारा दिया गया। इतनी पत्थरबाजी के बाद गुरू नानक जी कुएं से बिना किसी चोट के निशान के बाहर निकल आए। उन्हे सकुशल वापस निकलते देखने के बाद इराक के अस्थायी और आध्यात्मिक नेता, पीर बहलोल शाह ने उन्हे पीर दस्तगीर और अब्दुल कादिर गिलानी कहकर पुकारा , क्योंकि उन्हे समझ मे आ गया कि गुरु नानक जी हिंद (भारत) के लिए एक पवित्र और सिद्ध संत थे और उन्होने गुरु नानक जी को आध्यात्मिक चर्चा के लिए आमंत्रित किया।
पीर बहलोल शाह, जो एक ईरानी थे, लेकिन इराक में आकर बस गए थे, उन्होने गुरु नानक तीन सवाल पूछे और तीनों का समुचित उत्तर पाने के बाद उन्होने गुरु नानक जी के साथ किए गए दुर्व्यवहार के लिए स्थानीय लोगों को क्षमा करने और लंबे समय तक रहने की अपील की। उनके आग्रह पर गुरु नानक जी 17 दिनों तक रहे। गुरु नानक जी ने अपने इस प्रवास के दौरान पीर बहलोल के बेटे के साथ पारलौकिक दुनिया की (सूक्ष्म यात्रा) की। वो दो सेकंड के एक अंश में हवा में अंतर्ध्यान हो गए और जब वापस लौटे तो पवित्र भोजन का एक कटोरा धरती पर लाए। आज विज्ञान भी सूक्ष्म यात्रा पर काम कर रहा है। गुरु नानक जी के वहाँ जाने के बाद, बहलोन ने उनकी याद मे एक स्मारक खड़ा किया जहाँ गुरुनानक जी बैठते थे और प्रवचन देते थे। कुछ समय बाद मंच के ऊपर एक कमरे का निर्माण किया गया, जिसमे तुकिसी भाषा मे शिलालेख के साथ एक पत्थर की पटिया लगाई गई। 2003 के युद्ध के दौरान इस मठ को पूरी तरह से उजाड़ दिया गया ।
स्रोत: SpeakingTree.in
#गुरु_नानक_देव_जी
संत नामदेव : (वि. स. 1327 -1407, ई. सन 1270 – 1350)
संत नामदेव का जन्म ग्राम नरसी बामनी जिला परभनी (महाराष्ट्र) में हुआ था । महाराष्ट्र में नामदेव नाम के छह संत हो गए हैं । सर्वाधिक लोकप्रिय वे नामदेव हैं, जिन्होंने उत्तर भारत में, विशेष रूप से पंजाब में, भागवत धर्म का प्रचार किया और मराठी तथा हिन्दी में काव्य-रचना की।
संत नामदेव के पिता का नाम दयाशेठ तथा माता का नाम गोणाई था । संत नामदेव के परिवार में व्यापार होता था, किन्तु नामदेव का मन व्यापार में नहीं लगा । मन तो विट्ठल भक्ति में ही लगा रहता था । बीस वर्ष की आयु में संत नामदेव की भेंट संत ज्ञानेश्वर से हो गयी । संत ज्ञानेश्वर स्वयं नामदेव से भेंट करने पण्ढरपुर आये। दोनों में अभिन्नता हो गयी और फिर वे साथ-साथ ही रहने लगे। दोनों ने मिलकर पूरे देश की यात्रा कर डाली।
बिसोवा खेचर को गुरु माना- संत ज्ञानेश्वर ने कहा, नामदेव! अब आप बिसोवा खेचर को अपना गुरु बना लो। संत बिसोवा पागल की तरह रहते थे। संत ज्ञानेश्वर की बात मानकर नामदेव, संत बिसोवा के पास पहुंच गए। संत बिसोवा ने नामदेव से कहा - 'दुनियाँ को भगवन्नाम से भर दो।' इसके पश्चात नामदेव का अहंकार दूर हआ। उन्होंने बिसोवा को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।
पंजाब का प्रवास - देशभर की तीर्थयात्रा के पश्चात् संत नामदेव पंजाब आ गए और यहीं भागवत धर्म का प्रचार करते रहे ; करताल और एकतारा बजाकर मधुर स्वर में अभंग गाते थे। वे बीस वर्षों तक पंजाब में रहे तथा यहीं इनकी मृत्यु हुई । पंजाब के घुमाण नामक स्थान पर बाबा नामदेव जी के नाम पर एक गुरुद्वारा आज भी है। इनके शिष्यों को नामदेवियाँ कहा जाता है। श्री गुरुग्रन्थ साहिब' में संत नामदेव के साठ शबद (भजन) सम्मिलित किए गए हैं । संत नामदेव का मन भक्तिभाव से भजन करने में ही लगा रहता था। उनके लिए, विट्ठल, शिव, विष्णु, पाण्डुरंग सभी एक ही हैं। सभी प्राणियों के अन्दर एक ही आत्मा है। फिर जाति का भेद कितना झूठा है:
सर्वभूतों में हरि यही एक सत्य। सर्व नारायण देखते हरि॥
अर्थात् 'सभी जीवों में ईश्वर ही सत्य है। प्रभु सभी को देख रहे हैं।'
पंजाब की संत परम्परा में नामदेव प्रथम संत कहे जाते हैं। वे छीपी या दर्जी जाति के थे तथा अपनी इस
जाति के कारण ही संत नामदेव को अनेक बार अपमानित होना पडा। एक बार वे पण्ढरपर में प्रभु के दर्शन के लिए गए तो वहाँ के पुजारियों ने उन्हें मन्दिर से बाहर निकाल दिया । संत नामदेव दुःखी होकर प्रभु से अपनी व्यथा कहते हैं; उनके इस पद को 'श्री गुरुग्रन्थ साहिब' में श्रद्धा के साथ संजोया गया है :
हसत खेलत तेरे देहरे आइया। भगति करत नामा पकरि उठाइया॥
हिनड़ी जाति मेरी जादिम राइया॥ छीपे के जनमि काहे कउ आइया॥
लै कमली चलिओ पलटाइ॥ देहुरै पाछै बैठा जाइ।
जिउ जिउ नामा हरि गुण उचरै ।। भगत जनां कउ देहुरा फिरै ।। 6॥ (श्री गुरु ग्रन्थ साहिब, पृ. 1164)
अर्थात 'हे प्रभु ! मैं तो हँसता-खेलता तेरे मन्दिर में दर्शन करने आया था. परन्तु मुझ भक्ति करते हुए को लोगों ने पकड़ कर उठा दिता है ? हे यादव राज ! मेरी जाति हिन् है, मैंने भला छीपी के रूप में जन्म क्यों लिया है ? नामदेव अपना कम्बल लेकर पलट कर मन्दिर से बाहर आ गया ! वह मन्दिर के पिछवाड़े जाकर बैठ गया ! जैसे जैसे नामदेव प्रभु के गुणों का उच्चारण करता जाता है वैसे-वैसे ही भक्तजनों का देहरा (मन्दिर) घूमता जाता है।' संत - नामदेव प्रभु को पूछते हैं कि हे प्रभु ! आपने मेरे को नीच जाति में क्यों पैदा किया? जातिगत अपमान की व्यथा भजनों के रूप में फूट पड़ी।
पण्ढरपुर में विट्ठल मन्दिर के प्रवेश द्वार की प्रथम सीढ़ी नामदेव जी की पायरी के नाम से प्रसिद्ध है । संत-नामदेव ने पंजाब में श्री गुरु नानकदेव जी से लगभग दो सौ वर्ष पहले निर्गुण उपासना का प्रतिपादन किया । उत्तर भारत में भक्ति-भाव की संत परम्परा वाले वे आदिपुरुष दिखते हैं। उनकी दृष्टि बहुत व्यापक है और वे कहते हैं कि सभी प्राणियों के अन्दर एक ही राम हैं :
एकल माटी कुंजर चींटी भाजन हैं बहु नाना रे॥
असथावर जंगम कीट पतंगम घटि घटि रामु समाना रे॥
एकल चिंता राखु अनंता अउर तजह सभ आसा रे॥
प्रणवै नामा भए निहकामा को ठाकुरु को दासा रे॥ (श्री गुरु ग्रन्थसाहिब, पृ. 988)
अर्थात् 'हाथी और चींटी दोनों एक ही मिट्टी के वैसे ही बने हैं जैसे (एक ही मिट्टी के) बर्तन अनेक प्रकार के होते हैं। एक स्थान पर स्थित पेड़ों में, दो पैरों पर चलने वालों में तथा कीड़े-पतंगों के घट-घट में वह प्रभु ही समाया है। उस एक अनन्त प्रभु पर ही आशा लगाए रखो तथा अन्य सभी आशाओं का त्याग कर दो । नामदेव विनती करता है कि हे प्रभु ! अब मैं निष्काम हो गया हूँ इसलिए अब मेरे लिए न तो कोई मालिक है और न कोई दास है अर्थात् स्वामी और दास अब एक रूप हो गए हैं।' संत नामदेव जातिपाँति का पूर्णतया निषेध करते हैं तथा भक्तिभाव का जागरण करते हुए राम का नाम भजने को ही कहते हैं :
कहा करउ जाती कहा करउ पाति ॥ राम को नामु जपउ दिन राति॥
रांगनि रांगउ सीवनि सीवउ ॥ राम नाम बिनु घरीअ न जीवउ॥ (श्री गुरु ग्रन्थसाहिब, पृ. 485)
अर्थात् 'मुझे अब किसी ऊँची-नीची जाति-पांति की परवाह नहीं रही क्योंकि, अब मैं दिन-रात परमात्मा का सुमिरन करता हूँ। अब मैं रंगाई और सिलाई का काम किए चला जा रहा हूँ, परन्तु प्रभु-नाम के बिना घड़ी भर भी जीवित नहीं रह सकता।' संत नामदेव, सामाजिक कुरीतियों एवं जातिगत भेदभाव के विरुद्ध हैं, किन्तु इनका तेवर संत कबीर की तरह आक्रामक नहीं है। प्रभस्मरण को ही वे जीवन का आधार मानते हैं। राम का स्नेह ही सब कुछ है । वे कहते हैं 'अरे मन ! क्यों भटक रहा है?':
काहे रे मन भूला फिरई।
चेतनि राम चरन चित धरई॥टेक॥
नरहरि नरहरि जपि रे जियरा। अवधि काल दिन आवै नियरा।
पुत्र कलित्र (स्त्री) धन चित्त विसासा। छाड़ि मनां रे झूठी आसा॥ (संत साहित्य की समझ, पृ० 31)
संत नामदेव, भक्तों को भाई कह कर सम्बोधित करते हैं और राम नाम की महिमा भी बतलाते हैं। राम नाम के समक्ष सारे जप-तप, यज्ञ, हवन, जोग, तीरथ, व्रत आदि तुच्छ हैं। राम नाम से इनकी तुलना नहीं की जा सकती:
भइया कोई तुलै रे रामाँय नाम।
जोग यज्ञ तप होम नेम व्रत। ए सब कौंने काम।।
संत नामदेव को कुछ लोग निर्गुण उपासक मानते हैं, किन्तु उनका तीर्थों में विश्वास भी कम नहीं है।
त्रिवेणी पिराग करौ मन मंजन । सेवौ राजा राम निरंजन ।|
संत नामदेव प्रारम्भ में सगुण-भक्ति वाले संत कहे जाते थे, किन्तु आगे चलकर सगुण एवं निर्गुण के मध्य की धारा प्रवाहित करने वाले संत के रूप में वे स्थापित हो गए। श्री कृष्ण के सुन्दर सगुण स्वरूप का वर्णन वे अपने भजन में करते हैं:
धनि-धनि ओ राम बेन बाजै। मधुर मधर धनि अनहत गाजै ।।
धनि-धनि मेघा रोमावली।। धनि-धनि क्रिसन ओढ़ें कांबली॥
धनि-धनि तू माता देवकी। जिह ग्रिह रमईआ कवलापती॥
धनि-धनि बनखण्ड बिंद्राबना। जह खेलै सी नाराइना॥
बेनु बजावै गोधनु चरै। नामे का सुआमी आनन्द करै। (श्री गुरु ग्रन्थसाहिब,पृ. 988)
अर्थात् 'नामदेव कृष्ण के द्वारा मधुर स्वर से बजने वाली वंशी को धन्य कहते हैं । उससे प्रकट होने वाली अनहद धुन भी मधुर है । वह भेड़ भी धन्य है जिसकी रोमावली (बालों) से कमली (कम्बल) बनी है, जिसे कृष्ण ओढ़े हुए हैं । देवकी माता ! तू धन्य है, तेरे घर स्वयं कमलापति (भगवान् विष्णु) अवतरित हुए हैं। वृन्दावन के वे जंगल भी धन्य हैं जहाँ भगवान् श्री कृष्ण (नारायण) खेले हैं। संत नामदेव का ईश्वर वंशी बजाता है, गाय चराता है और आनन्द करता है।' आगे चल कर श्री गुरु नानकदेव ने पंजाब की धरती पर जो उपदेश दिया उसका महत्वपूर्ण अंश संत नामदेव के विचार-दर्शन से ही आता है। श्री गुरु नानक देव से दो सौ वर्ष पूर्व, संत नामदेव ने पंजाब में सिक्ख-गुरुओं के भक्ति-जागरण हेतु सामाजिक समन्वय की व्यापक भूमिका तैयार कर दी थी। देश भर में आपके लाखों अनुयायी हैं तथा वे अपने नाम के आगे नामदेव लगाते हैं । संत नामदेव ने मराठी में अभंग तथा हिन्दी में पदों की रचना की । संत कबीर तथा संत रैदास आदि सभी ने इनकी महिमा का गान किया है। भक्त रैदास कहते हैं :
नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरे।
कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरि जीउ ते सभै सरै॥ (श्री गुरुग्रन्थ साहिब, पृ० 1106)
अर्थात नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, साधना , सैन आदि सभी पार उतर गए हैं| रविदास कहता है कि संतजनों ध्यान से सुन लो कि वह प्रभु सब कुछ कर सकता है| संत नामदेव उस ब्रह्मा की साधना में लगे रहे जो घट – घट वासी है| देश भ्रमण करते हुए पंजाब में घुमाण गाँव में आपकी मृत्यु हुई|
#हमारे_प्राचीन_धनुष
कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर एक मैसेज प्रसारित हो रहा है जिसमें महर्षि दधिची की अस्थियों से तीन धनुष पिनाक, शांर्डग्य (शारंग) और गांडिव के बनने की बात कही जा रही है.
इस भ्रामक पोस्ट को पढ़कर ही विचार आया कि हमारे पौराणिक आयुधों पर लिखा जाए.
महर्षि दधिची की अस्थियों से केवल ्र का निर्माण हुआ था जिसे देवराज इंद्र को दिया गया था.
िनाक, ांर्डग्य और ाण्डीव का निर्माण समाधिस्थ ्षि_कण्व की मूर्धा पर उगे बांस से हुआ भगवान विश्वकर्मा ने किया था. जिन्हे क्रमशः आदिधनुर्धर महादेव, पालनकर्ता भगवान विष्णु और सृष्टि रचयिता भगवान ब्रह्मा को अर्पण किया गया. कालांतर में यह तीनों धनुष अलग अलग योद्धाओं द्वारा प्रयोग किये गए.
सोशल मीडिया पर प्रसारित उस लेख में भीमपुत्र ोत्कच का वध कर्ण द्वारा इंद्र से प्राप्त वज्र से होना बताया गया है, जो कि असत्य है.
दानवीर कर्ण ने इंद्रदेव की आराधना कर उनसे ोघ_अस्त्र प्राप्त किया था ना कि वज्र.
घटोत्कच के वध का प्रसंग पढ़ने पर जानकारी मिलती है कि घटोत्कच जब कौरव सेना का संहार कर रहा था तब दुर्योधन के कहने पर कर्ण ने इसी अमोघ अस्त्र से घटोत्कच का वध किया था.
सोशल मीडिया पर ऐसे भ्रामक लेख प्रसारित होना कोई नई बात नहीं है. कुछ अज्ञानी अथवा अल्पज्ञानी लोग आधी अधूरी बातें पढ़कर आधी बात मन से जोड़कर लेख लिख देते हैं. कर्ण के अमोघ अस्त्र, कर्ण के धनुष विजय और इंद्रदेव के वज्र तीनों का संबंध देवराज इंद्र से था, शायद इसी की आधी अधूरी जानकारी के साथ वह लेख तैय्यार कर दिया गया.
वज्र ्त्र श्रेणी का आयुध है जबकि धनुष से ्त्र श्रेणी के आयुध छोड़े जाते हैं. इन दोनों में सामान्य सा अंतर है अस्त्र किसी यंत्र के द्वारा चलाए जाते हैं जैसे धनुष से बाण चलाया जाता है. जबकि शस्त्र को तलवार की तरह हाथ में पकड़कर या हाथ से फेंककर वार किया जाता है.
इस लेख में हमारे दिव्य धनुषों के बार में लिखता हूँ, किस योद्धा के पास कौनसा धनुष था.
1:- भगवान शिव:- पिनाक धनुष शिव जी को अर्पित किया गया था. पिनाक को अजगव भी कहा गया है. शिव जी के पास और भी कई धनुष थे. त्रिपुरांतक धनुष से उन्होंने मयासुर द्वारा बनाए त्रिपुर को नष्ट किया था. शिव जी के पास रुद्र नामक एक और धनुष का उल्लेख मिलता है जिसे बाद में भगवान बलराम ने प्राप्त किया था.
2:- भगवान विष्णु:- शांर्डग्य (शारंग) धनुष विष्णु जी को अर्पित किया गया था जिसे उन्होंने धारण किया. इसे शर्ख के नाम से भी जाना गया. यह धनुष भगवान परशुराम और योगेश्वर श्री कृष्ण ने प्राप्त किया था.
3:- भगवान ब्रह्मा :- भगवान ब्रह्मा को गांडिव धनुष अर्पित किया गया था. जिसे अग्निदेव, दैत्यराज वृषपर्वा और अंत में सव्यसांची अर्जुन ने प्राप्त किया.
4:- भगवान परशुराम :- भगवान परशुराम के पास अनेक धनुष थे. उन्होंने अपने गुरु महादेव से पिनाक, भगवान विष्णु से शांर्डग्य (शारंग) और देवराज इंद्र से विजय नामक धनुष प्राप्त किया था. यह विजय धनुष उन्होंने अपने शिष्य कर्ण को दिया था.
5:- प्रभु श्री राम:- भगवान राम जिस धनुष को धारण करते थे उसका नाम कोदण्ड था. रामचरित मानस में प्रभु के धनुष को सारंग भी कहा गया है, परंतु वह धनुष शब्द का पर्यायवाची शब्द सारंग है ना कि विष्णु जी का धनुष शांर्डग्य.
6:- लंकापति रावण:- रावण के पास पौलत्स्य नामक धनुष था. जिसे द्वापर युग में घटोत्कच ने प्राप्त किया था. एक समय पर रावण ने शिव जी से पिनाक भी प्राप्त किया था, परंतु उसे धारण नहीं कर पाया.
7:- श्री कृष्ण :- योगेश्वर श्री कृष्ण का मुख्य आयुध सुदर्शन चक्र था परंतु उन्होंने भी शांर्डग्य (शारंग) धनुष को धारण किया था.
8:- भगवान बलराम:- बल दऊ के धनुष का नाम रुद्र था जो उन्होने भगवान शिव से प्राप्त किया था.
9:- भगवान कार्तिकेय :- इन्होंने अपने पिता भगवान शिव के धनुष पिनाक को धारण किया था.
10:- देवराज इंद्र:- इंद्रदेव ने विजय नामक धनुष को धारण किया जिसे उन्होंने भगवान परशुराम जी को दे दिया.
11:- कामदेव:- कामदेव ने ईख (गन्ने) की छड़ी पर मधुमक्खी के तार से बनी प्रत्यंचा से तैय्यार पुष्पधनु नामक धनुष को धारण किया था.
12:- युधिष्ठिर :- युधिष्ठिर जी ने महेंद्र नामक धनुष को धारण किया था.
13:- भीम:- भीमसेन ने वायुदेव से प्राप्त वायव्य धनुष को धारण किया था.
14:- कौन्तेय अर्जुन:- अर्जुन ने ब्रह्मा जी के धनुष गांडिव को धारण किया था. जिसे उसने खांडवप्रस्थ में मयदानव से प्राप्त किया था.
15:- नकुल:- नकुल ने भगवान विष्णु से प्राप्त वैष्णव धनुष को धारण किया था.
16:- सहदेव:- सहदेव ने अश्विनी कुमारों से प्राप्त अश्विनी नामक धनुष को धारण किया था.
17:- कर्ण:- कर्ण ने अपने गुरु भगवान परशुराम से देवराज इंद्र का विजय धनुष प्राप्त किया था. इंद्रदेव की उपासना कर कर्ण ने अमोघास्त्र भी प्राप्त किया था.
18:- अभिमन्यु:- अभिमन्यु ने अपने गुरु और मामा भगवान बलराम से भगवान शिव का धनुष रुद्र प्राप्त किया था.
19:- घटोत्कच :- घटोत्कच ने लंकापति रावण का धनुष पौलत्स्य प्राप्त किया.
(उप पाण्डव:- पाण्डवों और द्रौपदी से उत्पन्न पुत्रों को उप पाण्डव कहा गया)
20:- प्रतिविंध्य:- युधिष्ठिर के इस पुत्र ने रौद्र नामक धनुष का प्रयोग किया.
21:- सूतसोम:- भीमसेन के इस पुत्र ने आग्नेय नामक धनुष प्राप्त किया.
22:- श्रुतकर्मा:- अर्जुन के इस पुत्र ने कावेरी नामक धनुष का प्रयोग किया.
23:- शतनिक:- नकुल के इस पुत्र को यम्या नामक धनुष प्राप्त हुआ.
24:- श्रुतसेन:- सहदेव के पुत्र ने गिरिषा नामक धनुष का प्रयोग किया.
कुरुवंश के कुल गुरु
25:- द्रोणाचार्य :- आचार्य द्रोण ने महर्षि अंगिरस से प्राप्त आंगिरस धनुष का प्रयोग किया.
हमारे सनातन इतिहास में कई दिव्य अस्त्र-शस्त्र हुए हैं, यहां मैंने केवल धनुषों के नाम लिखे हैं.
जम्मू-कश्मीर का भारत में अधिमिलन
भारत का विभाजन और आधिपत्य की समाप्ति – कोई रियासत स्वतंत्र नहीं सो सकती थी
जब द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ तो भारत में स्व-शासन आंदोलन तेजी से प्रगति कर रहा था। 12 मई, 1946 को स्टेट ट्रीटीस एवं पैरामाउंट का ज्ञापन कैबिनेट मिशन द्वारा चैंबर ऑफ प्रिंसेस के चांसलर के समक्ष प्रस्तुत किया गया।
इसके बाद, 3 जून, 1947 को माउंटबैटन योजना की घोषणा कर दी गई। इस योजना की एक सलाह यह थी कि 562 रियासतें अपना भविष्य स्वयं तय करने के लिए स्वतंत्र हैं यानी वह भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी एक को स्वीकार कर सकती हैं।
अंततः 18 जुलाई, 1947 को यूनाइटेड किंगडम की संसद ने विभाजन के साथ भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पारित कर दिया।
अधिनियम की धारा 1 (I) के अनुसार, ‘अगस्त के पंद्रहवें दिन, उन्नीस सौ सैंतालिस से भारत में दो स्वतंत्र डोमिनियनस की स्थापना की जाएंगी, जिन्हें क्रमशः भारत और पाकिस्तान के रूप में जाना जाएगा’।
परिणामस्वरूप, अधिनियम ने भारतीय रियासतों के ऊपर ब्रिटिश क्राउन का आधिपत्य समाप्त कर दिया।
25 जुलाई, 1947 को भारत के गवर्नर-जनरल एवं वायसराय, लुईस माउंटबैटन ने क्राउन प्रतिनिधि की अपनी क्षमता के रूप में राजाओं को अंतिम बार आमंत्रित किया।
उन्होंने सलाह दी कि वे अपना मन बना ले और व्यक्तिगत तौर पर भारत अथवा पाकिस्तान में से एक को स्वीकार करें।
उन्होंने यह भी बताया, “आप अपनी नजदीकी डोमिनियन सरकार और सबसे महत्वपूर्ण जिस जनता के लोक-कल्याण के लिए जिम्मेदार हैं, दोनों को नजरंदाज नहीं कर सकते”।
इसलिए एक स्वतंत्र राष्ट्र बनने का प्रश्न यहां समाप्त हो गया था। अन्य तीसरे राष्ट्र के निर्माण का कोई विकल्प ही नहीं था। भारत के उप-प्रधानमंत्री एवं राज्य मंत्री, वल्लभभाई पटेल ‘सरदार’ ने दृढ़ता से कहा कि 15 अगस्त, 1947 से पहले यह निर्णय ले लिया जाना चाहिए।
महाराजा हरि सिंह की इच्छा और अधिमिलन में देरी के जिम्मेदार – शेख अब्दुल्ला
जम्मू-कश्मीर के महाराजा, हरि सिंह की स्वतंत्र होने की कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी जबकि वास्तव में वे सम्पूर्ण भारत की प्रगति में दिलचस्पी रखते थे।
एक गलत इस्लामिक पहचान के प्रश्न पर कुछ सांप्रदायिक एवं अराजक तत्वों के कारण राज्य के अधिमिलन में विलंब हुआ।
वे राज्य में ब्रिटिश डिवाइड एंड रूल की नीति को लागू करना चाहते थे क्योंकि वहां मुसलमान बहुसंख्यक थे और शासक एक हिंदू था।
इसका कोई साक्ष्य नहीं है कि महाराजा अपनी मुसलमान जनसंख्या के विरुद्ध थे। भारत में शामिल हुई अन्य कुछ रियासतों में भी इसी प्रकार की बेमेल स्थिति थी।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर ‘बाबासाहेब’ ने इस स्थिति को अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ़ इंडिया’ में समझाया है, “कश्मीर राज्य में, शासक एक हिंदू है लेकिन अधिकांश जनसंख्या मुसलमान हैं, कश्मीर में मुसलमान एक प्रतिनिधि सरकार के लिए लड़ रहे है क्योंकि कश्मीर में प्रतिनिधि सरकार का अभिप्राय हिंदू शासक से मुसलमान जनता को सत्ता का हस्तांतरण है। अन्य राज्यों में जहाँ शासक एक मुसलमान है लेकिन वहां अधिकांश जनता हिंदू हैं। ऐसे राज्यों में प्रतिनिधि सरकार का मतलब है कि मुसलमान शासक से हिंदू जनता को सत्ता का हस्तांतरण और यही कारण है कि मुसलमान एक मामले में प्रतिनिधि सरकार की स्थापना का समर्थन करते हैं तथा दूसरे में इसका विरोध करते हैं”।
हालांकि, सभी रियासतों का अधिमिलन भारत के साथ बिना किसी जटिलता के हो गया था।
जम्मू-कश्मीर का प्रश्न कभी पेचीदा नहीं होता लेकिन इसे जानबूझकर बनाया गया।
जब मई 1946 में ब्रिटिश कैबिनेट मिशन दिल्ली में था तो नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता, शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने राज्य के राज्य सरकार के विरुद्ध ‘क्विट कश्मीर’ अभियान शुरू कर दिया।
अब्दुल्ला का व्यक्तित्व ऐसा था जिन्हें मोहम्मद अली जिन्ना तक पसंद नहीं करते थे।
एक बार स्वयं उन्होंने अब्दुल्ला के बारे में कहा, “ओह, वो लंबा आदमी जो कुरान पढ़ता है और लोगों का शोषण करता है”।
अब्दुल्ला की नीतियों अथवा व्यवहार से हर जगह नाराजगी, असंतोष और नाखुशी फैल गयी थी। परिणामस्वरूप उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उनका मुकद्दमा तीन सप्ताह तक चला। 10 सितंबर, 1946 को न्यायालय ने उन्हें तीन साल की सजा सुनाई जिसमे प्रत्येक दिन को तीन बार गिना जाना था।
नेहरू की गिरफ़्तारी और महाराजा की दूरदृष्टि
अब्दुल्ला की गिरफ्तारी ने जवाहरलाल नेहरू को बेहद उत्तेजित कर दिया।
जब अब्दुल्ला कारावास में थे तो उन्होंने जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने कोशिश की और 20 जून, 1946 को अपनी प्रविष्टि पर प्रतिबंध के आदेश की अवहेलना के कारण राज्य की सीमा पर नजरबन्द कर लिए गए।
महाराजा ने 11 जुलाई, 1946 को अपनी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए नेहरू को पत्र लिखा, “आपको श्रीनगर आने से रोकना मेरी सरकार ने अपना कर्तव्य महसूस किया क्योंकि इसकी वजह समाचार-पत्रों, सार्वजनिक स्थानों और मेरे साथ पत्र-व्यवहार में आपने जो कहा उसके विवादास्पद स्वरूप को देखते हुए हम आश्वस्त हैं कि उस समयबिंदु पर आपका यहाँ आने का परिणाम लोक शांति के लिए निश्चित खतरा होता”।
नेहरु द्वारा अब्दुल्ला को समर्थन दिए जाने से राज्य में अराजकता की स्थिति उत्पन्न होने लगी थी। यह स्पष्ट करते हुए ऑल स्टेट राज्य कश्मीरी पंडित कांफ्रेंस, श्रीनगर ने भी सरदार को 4 जून, 1946 को एक टेलीग्राम भेजा, “पंडित जवाहरलाल नेहरू का कश्मीर मामलों के विषय में वक्तव्य पूरी तरह से असत्यापित एवं विवादास्पद है जिसका कश्मीर के हिंदुओं ने सर्वत्र निंदा एवं विरोध किया हैं। शेख अब्दुल्ला के फासीवाद और सांप्रदायिक मंसूबों को प्रोत्साहित करके कश्मीर के लोगों को वे अधिकतम क्षति पहुंचा रहे हैं”।
‘क्विट कश्मीर’ एकदम विफल रहा। अब्दुल्ला की गिरफ्तारी और लोकप्रियता के बारे में 12 सितंबर, 1946 को राज्य सरकार की तरफ से सरदार को एक आधिकारिक पत्र मिला, “गिरफ्तार किए गए लोगों की कुल संख्या 924 थी। वर्तमान में 106 लोगों को गिरफ्तार किया गया है, 55 विभिन्न अपराधों के लिए कारावास में है। मात्र 6 मामलों में छह महीनों से अधिक की सजा मिली है। मुकद्दमों की संख्या 47 है। अन्य सभी को रिहा कर दिया गया है। चूँकि हमारी कुल जनसंख्या 40 लाख से ज्यादा है, हम आपको यह फैसला करने के लिए छोड़ते है कि क्या यह आंदोलन उचित रूप से लोकप्रिय हो सकता है”।
महाराजा ने अनेक बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को समझाने की कोशिश की कि अब्दुल्ला भारत का कोई मित्र नहीं हैं और अगर वे रिहा होते है तो स्थिति को बदतर बना देंगे।
बावजूद इसके नेहरू का अब्दुल्ला के प्रति सम्मोहन अविचल बना रहा। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में से कोई भी नेहरू के विचारों में सहभागी नहीं बने। राज्य का दौरा करने वाले जे. बी. कृपलानी ‘आचार्य’ ने कहा कि ‘क्विट कश्मीर’ निंदनीय एवं उपद्रव है।
प्रधानमंत्री नेहरु का अड़ियल रुख और शेख का धोखा
भारत के प्रधानमंत्री बनने के बाद, नेहरू ने फिर से अब्दुल्ला को रिहा कराने के लिए महाराजा पर दबाव बनाना शुरू कर दिया।
उन्होंने 27 सितंबर, 1947 को सरदार को एक पत्र लिखा, “फिलहाल अभी भी शेख अब्दुल्ला और उनके सहयोगी कारावास में हैं। मुझे यह भविष्य के क्रमागत विकास में बहुत अहितकर लग रहा है”।
आखिरकार, अब्दुल्ला को 29 सितंबर, 1947 को रिहा कर दिया गया।
उन्होंने अपनी पूर्व गतिविधियों के लिए अफसोस व्यक्त करते हुए महाराजा को पत्र लिखा और आश्वासन दिया कि वे तथा उनका दल महाराजा अथवा राजवंश के प्रति देशद्रोह की किसी भावना को कभी आश्रय नहीं देंगे।
जल्द ही, 2 अक्टूबर, 1947 को हजुरी बाग में अब्दुल्ला ने भाषण दिया कि अगर राज्य के लोग पाकिस्तान के साथ जाने का फैसला करते है तो वे अपना नाम हस्ताक्षरित करने वाले पहले व्यक्ति होंगे।
यह व्यवहार बिलकुल वैसा ही है जैसे महाराजा ने भविष्यवाणी की थी।
अन्य धोखेबाज
महाराजा मात्र एक ही नहीं बल्कि अनेक धोखेबाजों से घिरे हुए थे।
राज्य के प्रधानमंत्री, रामचंद्र काक ने लियाकत अली खान को आश्वासन तक दे दिया कि राज्य का अधिमिलन पाकिस्तान के साथ हो होगा।
17 जून, 1947 को नेहरू ने माउंटबैटन पर एक नोट लिखा, “श्रीमान काक ने महाराजा को यह भी समझाने की कोशिश की है जैसे ही वे भारतीय संघ में शामिल हो जाते हैं, वहां राज्य में सांप्रदायिक दंगे होंगे और संभवतः पाकिस्तान के नजदीकी क्षेत्र से शत्रु कश्मीर में प्रवेश कर उपद्रव मचा सकते हैं”।
राज्य मंत्रालय के सचिव, वी. पी. मेनन ने अपनी पुस्तक में काक के इरादों का स्पष्ट वर्णन किया है, “राज्य मंत्रालय की स्थापना के बाद, भौगोलिक दृष्टि से भारत से समीप रियासतों के अधिमिलन के लिए शासकों एवं उनके प्रतिनिधियों के साथ हम समन्वेशी बातचीत कर रहे थे। जम्मू एवं कश्मीर के प्रधानमंत्री, पंडित रामचंद्र काक उस समय दिल्ली में थे। पटियाला के महाराजा के सुझाव पर, हमने उन्हें इस प्रकार के एक सम्मेलन में आमंत्रित किया लेकिन वे इसमें शामिल हो पाने में असमर्थ रहे। तत्पश्चात् उनकी मुलाक़ात मुझसे गवर्नर-जनरल के घर हुई। मैंने उनसे पूछा कि भारत अथवा पाकिस्तान से अधिमिलन के संबंध में महाराजा का क्या रवैया है, लेकिन उन्होंने मुझे बेहद कपटपूर्ण उत्तर दिया। काक ने सरदार से भी मुलाकात की। मैं न उस व्यक्ति को और न ही उनके खेल की गहराई समझता हूँ। बाद में, लॉर्ड माउंटबैटन ने काक और जिन्ना के बीच एक मुलाकात की व्यवस्था की”।
अंत में, 10 अगस्त, 1947 को महाराजा ने काक को पदच्युत कर राज्य का प्रधानमंत्री, जनक सिंह को नियुक्त कर दिया।
कांग्रेस और महाराजा के सम्बन्ध – सरदार का हस्तक्षेप
अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के समय से सरदार एवं कांग्रेस के अन्य नेताओं का महाराजा के साथ कोई वैयक्तिक संपर्क नहीं था।
सरदार ने स्वयं कहा यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कांग्रेस के नेताओं में से किसी ने महाराजा से कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किए। व्यक्तिगत संपर्क से उन गलतफहमियों का अधिकतम निराकरण कर हो गया होता जोकि संभवत: व्यापक रूप से उदासीन स्रोतों के माध्यम से एकत्रित गलत सूचनाओं पर आधारित थी।
जब महाराजा और सरदार पटेल एक-दुसरे के संपर्क में आए तो स्थिति में सुधार आना शुरू हुआ।
महाराजा का सरदार प्रति बहुत आदर था क्योंकि कांग्रेस के नेताओं में से सिर्फ उन्ही के शब्दों पर वे विश्वास कर सकते थे। वे एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने कदाचित ही लम्बे समय तक किसी पर भरपूर विश्वास किया हो लेकिन सरदार के लिए उनकी निष्ठा सशक्त एवं स्थायी रही।
सरदार पटेल और अधिमिलन
3 जुलाई, 1947 को सरदार ने भारत के साथ अधिमिलन स्वीकार करने के लिए महाराजा को पत्र लिखा, “मैं पूरी तरह से उन कठिन एवं नाजुक स्थितियों की समझता हूँ जिनसे आपका राज्य गुजर रहा है लेकिन राज्य के एक ईमानदार मित्र एवं शुभचिंतक के नाते आपको यह आश्वासन देना चाहता हूँ कि कश्मीर का हित, किसी भी देरी के बिना, भारतीय संघ एवं उसकी संविधान सभा में शामिल होने में निहित है”।
हालांकि, महाराजा ने तुरंत अपने विचारों को व्यक्त नहीं किया बल्कि बाद में उन्होंने अपनी अभिलाषा जाहिर की। अधिमिलन के बाद, 31 जनवरी, 1948 को उन्होंने सरदार को भेजे पत्र में लिखा, “आप जानते हैं कि मैं इस विचार के साथ निश्चित रूप से भारतीय संघ को स्वीकार करता क्योंकि संघ हमें निराश नहीं करेगा”।
इसका मतलब है महाराजा ने भारत में अधिमिलन का पहले ही अपना मन बना लिया था। वे और सरदार दोनों सही समय की प्रतीक्षा कर रहे थे।
मोहम्मद अली जिन्ना की चाल और महाराजा हरि सिंह की सूझबूझ
जम्मू-कश्मीर राज्य के प्रधानमंत्री, मेहरचंद महाजन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि महाराजा पाकिस्तान में शामिल होने के लिए कभी तैयार नहीं थे। वे लिखते है, “कायद-ए-आज़म श्रीमान जिन्ना के निजी पत्रों के साथ उनके ब्रिटिश सैन्य सचिव तीन बार महाराजा से मिलने श्रीनगर आए। महाराजा को बताया गया कि श्रीमान जिन्ना का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और उनके चिकित्सकों ने सलाह दी है कि वे गर्मियां कश्मीर में बिताए। वहां रुकने पर वे अपनी स्वयं की व्यवस्था के लिए भी तैयार थे। इस कदम के पीछे असली मकसद राज्य में पाकिस्तान समर्थक तत्वों की सहायता से महाराजा को पाकिस्तान के साथ अधिमिलन स्वीकार करने के लिए सहमत अथवा विवश करवाना था। अगर यह सब कुछ असफल जाता तो महाराजा को गद्दी से हटा कर राज्य से दूर कर दिया जाता...... उन्होंने (महाराजा) श्रीनगर में गर्मियां बिताने के लिए जिन्ना को आमंत्रित करना विनम्रता से अस्वीकार कर दिया।
माउंटबैटन का दौरा
19 जून, 1947 को माउंटबैटन ने जम्मू-कश्मीर का दौरा किया और चार दिनों तक वहां रहे।
उन्होंने पाकिस्तान में अधिमिलन के लिए महाराजा को समझाने के प्रयास किए।
विभिन्न कार ड्राइव्स के दौरान उनकी कुछ मुलाकातें हुई। इस मौके पर माउंटबैटन ने आग्रह किया अगर जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान के साथ जाता है तो भारत सरकार द्वारा इसे अप्रिय कृत्य नहीं माना जाएगा।
हालांकि, महाराजा ने उन्हें एक व्यक्तिगत मुलाकात का सुझाव दिया जिसका समय यात्रा के आखिरी दिन तय किया गया था।
माउंटबैटन यह सोचकर सहमत हो गए इससे महाराजा को सोचने का अधिक मौका मिल जायेगा लेकिन जब समय आया तो उन्होंने एक संदेश भेजा कि वे बीमार है और भेंट करने में असमर्थ है।
इस प्रकार उन्होंने पाकिस्तान के साथ जाने के सुझाव से बचाव किया।
महाराजा का मानना था कि पाकिस्तान के साथ अधिमिलन उनके राज्य और भारत दोनों के हित में नहीं होगा।
निष्पक्ष रूप से महाराजा के सन्दर्भ में यह कहना ही होगा कि जैसी वहां स्थिति थी तो उनके लिए एक निर्णय पर आना आसान नहीं था। भारत के साथ अधिमिलन से गिलगित और पाकिस्तान के समीप वाले इलाकों में प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं उत्पन्न हो सकती थी। इसके अलावा, उस समय तक राज्य का सड़क और संचार पाकिस्तान के साथ था। वन संसाधन, विशेष रूप से इमारती लकड़ी जिसका राज्य के राजस्व में महत्वपूर्ण योगदान था, उसका अपवाहन पाकिस्तान की ओर बहने वाली नदियों के माध्यम से होता था।
स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट
इसलिए महाराजा ने सोचा भारत और पाकिस्तान के साथ कुछ समय तक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट करना उपयुक्त रहेगा।
12 अगस्त, 1947 को राज्य सरकार ने स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट की पेशकश की और जाहिर तौर पर पाकिस्तान ने अपने गुप्त उद्देश्यों के साथ उसे मान लिया।
भारत ने एग्रीमेंट को स्वीकार करने से इनकार नहीं किया बल्कि उसकी शर्तों पर बातचीत करने के लिए उन्हें एक प्रतिनिधि दिल्ली भेजने की अभिलाषा व्यक्त की, “इस सन्दर्भ में यदि आप (जनक सिंह, राज्य के प्रधानमंत्री) अथवा अधिकृत अन्य कोई मंत्री कश्मीर सरकार और भारतीय डोमिनियन के बीच स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट पर बातचीत करने दिल्ली आते है तो भारत सरकार के लिए हर्ष का विषय होगा। वर्तमान समझौतों और प्रशासनिक व्यवस्था बनाए रखने में शीघ्र कार्यवाही जरुरी है”।
इस बीच, राज्य की राजनैतिक और संवैधानिक समस्याओं पर सरदार नियमित रूप से महाराजा के संपर्क में थे। उन्होंने भारत के साथ राज्य के भूमिगत एकीकरण को आश्वस्त किया।
2 अक्तूबर, 1947 को उन्होंने महाराजा को पत्र लिखा, “मैं टेलीग्राफ, टेलीफोन, वायरलेस और सड़कों के माध्यम से भारतीय डोमिनियन के साथ राज्य को जोड़ने के लिए जितना संभव होगा उतनी तेजी से प्रयास कर रहा हूँ। हम पूरी तरह से स्थिरता और तात्कालिकता की आवश्यकता महसूस करते हैं और मैं आपको आश्वासन दे सकता हूं कि हम अपनी पूरी कोशिश करेंगे”।
उन्होंने राज्य की परिवहन और खाद्य आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए के. सी. नियोगी, रफी अहमद किदवई, बलदेव सिंह और अन्य साथी मंत्रियों से अनुरोध किया।
स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का उल्लंघन पाकिस्तान ने किया था। एग्रीमेंट के क्रियान्वयन में आने के बाद भी राज्य और पाकिस्तान के बीच संबंध सौहार्द से बहुत दूर थे।
जम्मू-कश्मीर सरकार ने इसकी शिकायत की लेकिन राज्य के जबरन अभिमिलन के प्रयास में पाकिस्तान सरकार ने वहां खाद्य, पेट्रोल और अन्य आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बंद कर दी। उन्होंने कश्मीर और पाकिस्तान के बीच यात्रियों के मुक्त पारगमन को भी सीमित कर दिया।
पाकिस्तान का हमला – हिन्दुओं और सिक्खों की हत्या
यह युद्ध वास्तव में विभाजन के तुरंत बाद शुरू हुआ।
29 अगस्त, 1947 को हजारा के राजा, याकूब खान ने महाराजा को एक टेलीग्राम भेजा जिसमे हजारा के मुसलमानों के व्याकुल होने की बात कही गयी। उसमे आगे लिखा, “हम राज्य में प्रवेश कर हथियारों के साथ लड़ने की पूरी तैयार कर चुके हैं”।
इस पत्र के तुरंत बाद 3 सितंबर, 1947 को हमला शुरू हो गया। हमलावरों ने जो भी उनके रास्ते में आया उसे लुट लिया, हत्याएं और आगजनी की। संभवतः 21 अक्तूबर, 1947 को वे श्रीनगर के समीप पहुँच गए थे।
महाजन जोकि जनक सिंह के स्थान पर राज्य के प्रधानमंत्री बनाए गए थे उन्होंने 23 अक्टूबर, 1947 को सरदार को प्रेस नोट का एक मसौदा भेजा, “पूरी सीमा धुआं और लपटों में हैं। यह वृत्तांत जले हुए घरों, लूट, अपहरण की गई महिलाओं और सामूहिक नरसंहार का है। सीमा से 4 मील अंतर्गत हिंदुओं और सिक्खों के 75 प्रतिशत से अधिक घरों को जला दिया गया है; पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को मार दिया गया हैं”।
पाकिस्तान का यह हमला पूर्व निर्धारित था। मुस्लिम लीग नेशनल गार्ड्स के नाईब-सालार-ए-आला जिन्होंने इस हमले का नेतृत्व किया, 7 दिसंबर, 1947 को डॉन को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि वे कबालियों का बंदोबस्त कर रहे थे और उन्हें उम्मीद थी कि छह महीनों के अंतर्गत 200,000 लोगों की स्थायी सेना तैयार कर देंगे। उनका मानना था कि कुछ ही दिनों में ये कबायली पूरे राज्य पर कब्जा कर लेंगे। अगस्त 1947 से सशस्त्र हलावारों की राज्य में घुसपैठ झेलम नदी के रास्ते शुरू हो गयी थी।
महाराजा को राजी करने सरदार पटेल के आग्रह पर श्री गुरुजी जम्मू-कश्मीर गए थे
स्वतंत्र भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की यह इच्छा थी कि कश्मीर भारत का ही अभिन्न अंग बना रहे। किन्तु नेहरू की शेख अब्दुल्ला के प्रति नीति को ध्यान में रखते हुए इस संबंध में वे काफी सतर्क थे। कश्मीर में पाकिस्तान की कुटिल कार्रवाइयों की उन्हें पूरी जानकारी थी और इसीलिए वे भारत में कश्मीर के विलय की अनिश्चितता से दिनोंदिन अधिक चिंतित हो रहे थे। इसी चिंता में सरदार पटेल को अकस्मात् एक योजना सूझी। उन्हें इस बात का पूरा भरोसा था कि पूज्य गुरुजी महाराजा हरि सिंह को भारत में कश्मीर के विलय के लिए राजी करवा सकेंगे। उनकी योजना थी कि महाराजा को इस बात के लिए आश्वस्त किया जाए कि यदि वह विलय के लिए तैयार हो जाते हैं तो गृहमंत्री के नाते सरदार पटेल बाद की स्थिति को संभाल लेंगे। अपनी योजना को कार्यरूप देने के लिए सरदार पटेल ने गुरुजी को ही योग्यतम पात्र समझा जो महाराजा को समझा सकने में समर्थ होते। सरदार पटेल ने जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन से संपर्क स्थापित किया और उन्हें सूचित किया कि वे परमपूज्य गुरुजी को श्रीनगर आमंत्रित करें। उन दिनों दिल्ली-श्रीनगर के बीच सार्वजनिक विमान सेवा नहीं थी और जम्मू-श्रीनगर मार्ग भी सुरक्षित नहीं था। इस कारण दिल्ली से विशेष विमान की व्यवस्था की जाएगी किंतु महाराजा और गुरुजी की भेंट यथाशीघ्र आयोजित करनी है, यह संदेश भी सरदार पटेल ने मेहरचंद महाजन को भिजवाया। सरदार पटेल के निर्देशानुसार श्री मेहरचंद महाजन के निमंत्रण पर पूज्य गुरुजी एक विशेष विमान द्वारा 17 अक्तूबर, 1947 को श्रीनगर पहुंचे। महाराजा हरि सिंह के साथ हुई उनकी वार्ता में मेहरचंद महाजन के अलावा अन्य कोई उपस्थित नहीं था। पास में ही युवराज कर्ण सिंह किसी दुर्घटना में आहत होने से पैर में प्लास्टर बंधी स्थिति में एक पलंग पर लेटे हुए विश्राम कर रहे थे। औपचारिक वार्तालाप के पश्चात् विलय का विषय निकला। महाजन ने कहा, ‘‘कश्मीर में आने-जाने के सारे मार्ग रावलपिंडी की ओर से ही हैं। खाद्यान्न, नमक, मिट्टी का तेल आदि दैनिक जीवनोपयोगी वस्तुएं भी इसी मार्ग से कश्मीर में आती हैं। जम्मू-श्रीनगर मार्ग न तो अच्छा है और न ही सुरक्षित। जम्मू का हवाई-अड्डा भी व्यवस्थित ढंग से कार्यक्षम नहीं है। ऐसी हालत में भारत के साथ विलय होते ही यहां आयात होने वाली आवश्यक वस्तुओं पर पाकिस्तान की ओर से तुरंत पाबंदी लगा दी जाएगी। इस कारण प्रजा की जो दुर्दशा होगी वह हमसे नहीं देखी जाएगी। अत: कुछ अवधि के लिए ही क्यों न हो, कश्मीर का स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखना क्या वह हित में नहीं होगा?’’
महाजन के प्रश्न के जवाब में गुरुजी ने कहा, ‘‘अपनी प्रजा के प्रति आपके अन्त:करण में आत्मीयता होने के कारण उनके संबंध में आपकी भावना मैं समझ सकता हूं, किन्तु भारत के शीर्षस्थ स्थित कश्मीर को यदि आप स्वतंत्र भी रखना चाहें तो भी पाकिस्तान को वह कदापि मंजूर नहीं होगा। आपकी रियासती फौज में तथा प्रजाजनों में पाकिस्तान द्वारा विद्रोह की आग भड़काने के प्रयास हो रहे हैं। ...अगले 6-7 दिनों में ही पाकिस्तान कश्मीर की नाकेबंदी करने वाला है। ...उस समय आप पर और कश्मीर की प्रजा पर कितना भीषण संकट आएगा, इसकी आप कल्पना कर सकते हैं। रियासत को स्वतंत्र घोषित किए जाने के कारण आपकी सुरक्षा के लिए भारतीय सेना भी नहीं आ सकेगी। इसलिए मेरे विचार में भारत के साथ यथाशीघ्र विलय ही एकमेव तथा सभी दृष्टि से हित मार्ग अपने सामने बचा रहता है।’’ महाराजा ने अपना पक्ष रखते हुए कहा, ‘‘पं. नेहरू का आग्रह है कि भारत में कश्मीर के विलय करने के पूर्व शेख अब्दुल्ला को रिहा कर कश्मीर का शासन सूत्र उनके हाथों में सौंपा जाए। गुरुजी ने महाराजा को आश्वस्त करते हुए कहा, ‘‘आपकी शंका उचित है, लेकिन शेख अब्दुल्ला की गतिविधियों के बारे में सरदार पटेल को पूर्ण जानकारी है। वे गृहमंत्री होने के कारण आपकी प्रजा की पूरी चिंता करेंगे।’’
महाराजा ने कहा, ‘‘संघ के स्वयंसेवकों ने हमें समय-समय पर अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारी दी है। पहले तो उन खबरों पर हमें विश्वास नहीं हुआ किन्तु अब उन खबरों की सत्यता के बारे में हम पूर्णतया विश्वस्त हैं। पाकिस्तानी सेना की हलचलों की जानकारी देने में संघ के स्वयंसेवकों ने जो साहस का परिचय दिया है, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम ही होगी। अब्दुल्ला की गतिविधियों के संबंध में पटेल यदि स्वयं सतर्कता बरतने वाले होंगे तो हम भारत में कश्मीर के विलय के लिए तैयार हैं।’’ गुरुजी, ‘‘आपकी स्वीकृति मिलते ही सरदार पटेल केन्द्रीय सरकार की ओर से सारी औपचारिकताएं तुरंत पूरी करेंगे।’’ महाराजा, ‘‘आपकी बात से मैं पूर्णतया सहमत हूं। आप कृपया सरदार पटेल को इसकी जानकारी दे दें।’’ गुरुजी 19 अक्तूबर, 1947 को विशेष विमान से दिल्ली लौटे और महाराजा हरि सिंह के साथ हुई वार्ताओं से सरदार पटेल को अवगत कराया।
भारत में अधिमिलन
महाराजा ने 24 अक्तूबर, 1947 को भारत सरकार से सहायता के लिए संपर्क किया।
उस समय, भारत के साथ राज्य का सैन्य और राजनैतिक समझौता नहीं था।
माउंटबैटन की अध्यक्षता में नई दिल्ली में रक्षा समिति की एक बैठक हुई जिसमें महाराजा की मांग पर हथियार एवं गोला-बारूद की आपूर्ति का विचार किया गया।
सेना के सुदृढ़ीकरण की समस्या पर भी विचार किया गया और माउंटबैटन ने आगाह किया कि जम्मू-कश्मीर जब तक अधिमिलन स्वीकार नहीं करता है तब तक वहां सेना भेजना जोखिम भरा हो सकता है।
इस घटना के बाद, वी. पी. मेनन को महाराजा के पास स्थिति की व्याख्या और प्रत्यक्ष विवरण प्राप्त करने के लिए श्रीनगर भेजा गया। अगले दिन, मेनन ने विक्षुब्ध स्थिति की सूचना दी और महसूस किया कि भारत ने अगर शीघ्र सहायता नहीं की तो सब समाप्त हो जायेगा।
रक्षा समिति ने सैनिकों को तैयार किए जाने तथा वहां भेजने के फैसले के साथ तय किया कि यदि अधिमिलन की पेशकश होती है तो उसे स्वीकार किया जायेगा।
उसी दिन, मेनन फिर से श्रीनगर वापस गए। इस बार वे अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर लेकर दिल्ली लौंटे।
जम्मू-कश्मीर का अधिमिलन भारत के गवर्नर-जनरल, माउंटबैटन द्वारा उसी तरह स्वीकार हुआ जैसा अन्य भारतीय रियासतों के साथ किया गया था।
आखिरकार कानूनी शर्तों के अनुसार 26 अक्टूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा बन गया।
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महामृत्युंजय मंत्र ऊँ हौं जूं स: ऊँ भुर्भव: स्व: ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। ऊर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ऊँ भुव: भू: स्व: ऊँ स: जूं हौं ऊँ।। #Mahadev #mahadev #mahashivratri #hindu #hindufestival https://www.edehati.com
गुरु नानक जी की आध्यात्मिक यात्राएँ गुरु नानक जी की दिव्य आध्यात्मिक यात्राओं को उड़ासी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि गुरु नानक जी दुनिया के दूसरे सबसे अधिक यात्रा करने वाले व्यक्ति हैं। उनकी अधिकांश यात्राएँ उनके साथी भाई मरदाना जी के साथ पैदल ही की गई थीं। उन्होंने सभी चार दिशाओं- उत्तर, पूर्व, पश्चिम की यात्राओं को एक अभिलेख के रूप में जाता है। वैसे ऐसे भी अभिलेख हैं जो इस बात का संकेत करते है कि गुरु नानक जी ने सबसे अधिक यात्राएं की थी । माना जाता है कि गुरु नानक जी ने 1500 से 1524 की अवधि के मध्य दुनिया की अपनी पांच प्रमुख यात्राओं में 28,000 किलोमीटर से अधिक की यात्रा की थी। सबसे अधिक यात्रा करने वाले व्यक्ति का रिकॉर्ड मोरक्को के इब्न बतूता के नाम है। नीचे उन स्थानों की संक्षिप्त जानकारी दी गई है जहाँ पर गुरु नानक जी ने भ्रमण किया था पहली उदासी : 1500-1506 ई. यह लगभग 7 वर्ष
संत नामदेव : (वि. स. 1327 -1407, ई. सन 1270 – 1350) संत नामदेव का जन्म ग्राम नरसी बामनी जिला परभनी (महाराष्ट्र) में हुआ था । महाराष्ट्र में नामदेव नाम के छह संत हो गए हैं । सर्वाधिक लोकप्रिय वे नामदेव हैं, जिन्होंने उत्तर भारत में, विशेष रूप से पंजाब में, भागवत धर्म का प्रचार किया और मराठी तथा हिन्दी में काव्य-रचना की। संत नामदेव के पिता का नाम दयाशेठ तथा माता का नाम गोणाई था । संत नामदेव के परिवार में व्यापार होता था, किन्तु नामदेव का मन व्यापार में नहीं लगा । मन तो विट्ठल भक्ति में ही लगा रहता था । बीस वर्ष की आयु में संत नामदेव की भेंट संत ज्ञानेश्वर से हो गयी । संत ज्ञानेश्वर स्वयं नामदेव से भेंट करने पण्ढरपुर आये। दोनों में अभिन्नता हो गयी और फिर वे साथ-साथ ही रहने लगे। दोनों ने मिलकर पूरे देश की यात्रा कर डाली। बिसोवा खेचर को गुरु माना- संत ज्ञानेश्वर ने कहा, नामदेव! अब आप बिसोवा ख
जम्मू-कश्मीर का भारत में अधिमिलन भारत का विभाजन और आधिपत्य की समाप्ति – कोई रियासत स्वतंत्र नहीं सो सकती थी जब द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ तो भारत में स्व-शासन आंदोलन तेजी से प्रगति कर रहा था। 12 मई, 1946 को स्टेट ट्रीटीस एवं पैरामाउंट का ज्ञापन कैबिनेट मिशन द्वारा चैंबर ऑफ प्रिंसेस के चांसलर के समक्ष प्रस्तुत किया गया। इसके बाद, 3 जून, 1947 को माउंटबैटन योजना की घोषणा कर दी गई। इस योजना की एक सलाह यह थी कि 562 रियासतें अपना भविष्य स्वयं तय करने के लिए स्वतंत्र हैं यानी वह भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी एक को स्वीकार कर सकती हैं। अंततः 18 जुलाई, 1947 को यूनाइटेड किंगडम की संसद ने विभाजन के साथ भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पारित कर दिया। अधिनियम की धारा 1 (I) के अनुसार, ‘अगस्त के पंद्रहवें दिन, उन्नीस सौ सैंतालिस से भारत में दो स्वतंत्र डोमिनियनस की स्थापना की जाएंगी, ज
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*हिंदुस्तान में 1206 से लेकर 2022 तक का शाशनकाल* इन शाशनकाल को देख कर आप अपने विवेक से ये ज़रूर समझेंगे कि हिंदुस्तान पर अभी तक मुसलमानों और बाहर के लोगों ने ही शासन किया है। आजादी के बाद कांग्रेस ने ज़रूर कोशिश की परन्तु परिवारवाद और योग्य नेता न दे पाने से कहीं न कहीं देश, शेष विश्व से पिछड़ गया। जिन भी साम्राज्य का अंत हुआ अयोग्य उत्तराधिकारियों के कारण हुआ। पिछले कुछ शासन काल का इतिहास: *1206 -1290 –Turkish Rulers / Slave Dynasty or Mamluk Dynasty* • 1206–1210 Qutubuddin Aibak (first) • 1517–1526 Ibrahim Lodi (last) *1290-1320 – Khalji Dynasty* • 1290–1296 Jalal ud din Firuz Khalji • 1296–1316 Alauddin Khalji • 1316 Shihab ad-Din Umar • 1316–1320 Qutbad-Din Mubarak *1320 -1413 – Tughlaq Dynasty* • 1321–1325 Ghiyath al-Din Tughluq • 1325–1351 Muhammad ibn Tughluq • 1351–1388 Firuz Shah Tughlaq • 1388–1413 Ghiyath-ud-din Tughluq Shah / Abu Bakr Shah *1414-1451 – Sayyid Dynasty* • 1414–1421 Khizr Khan Sayyid • 1421-1434 Mubarak Shah • 1434-1443 Muhammad Shah • 1443-1451 Ala-ud-Din Shah *1451 - 1526 – Lodi Dynasty* Bahlul Khan Lodi 1451–1489 Sikandar Khan Lodi 1489–1517 Ibrahim Lodi 1517–1526 *1526-1707 Mughal Empire* Babur (1526–1530) Humayun - (1530–1540 , 1555–1556) Suri Dynasty - (1540-1555) - Not a Mughal rule in Akbar - (1556–1605) Jahangir - (1605–1627) Shah Jahan - (1628–1658)
PRAKASH UTSAV SRI GURU GRANTH SAHIB JI (Bhadrapada Shukla Pratipada) Prakash Utsav of Sri Guru Granth Sahib Ji takes place on the 15th day (New Moon) of Bhadon, the sixth month of the Punjabi calendar, which occurs in August or September in the Western calendar. Guru Granth Sahib J is unique among the great texts of the world. It is considered to be the supreme spiritual authority and head of Sikhism rather than any living person. It is also the only book of its kind that not only contains the works of its religious founders but also the writings of people of their faith. The living Guru of the Sikhs, the book is kept with great reverence by the Sikhs and is treated with the utmost respect. The Guru Granth Sahib ji is a compilation of many hymns, poems, Shabad and other writings from several different scholars including the Sikh Gurus and other saints. Guru Granth Sahib ji has 1,430 pages, and each copy is identical. It contains words spoken by the Gurus. It is known as Gurbani, which means 'from the mouth of the Guru'. It is considered the word of God. It is written in Gurmukhi. This is the script in which the Punjabi language is written. History of Guru Granth Sahib ji: Guru Arjan Dev ji, the fifth Sikh Guru compiled the original version of Guru Granth Sahib ji. Guru Arjan Dev ji felt that the Sikhs needed authentic compilation of the hymns of their gurus. Thus Guru Arjan Dev ji started the collection of original verses of all the Gurus. He sent reliable Sikhs like Bhai Piara ji, Bhai Gurdas ji and Baba Buddha ji across the country in search of original manuscripts. Guru Arjan Dev ji travelled to Goindwal, Khadur and Kartarpur to visit the families of the previous Gurus. Guru Arjan Dev ji collected original manuscripts of the Gurus from Mohan ji(son of Guru Amar Das ji), Datu ji (son of Guru Angad ji) as well as Sri Chand ji (son of Guru Nanak ji). Compilation and Contents of the Guru Granth Sahib: Many of Guru Nanak ji’s hymns and prayers were prese
जाहरवीर गोगा जीवन परिचय जाहरवीर गोगा 11वीं सदी के महान योद्धा थे। जन्मस्थान : चुरू जिले का ददरेवा गाँव पिता : चौहान वंश के शासक जेवरसिंह माता : रानी बाछल जन्मतिथि : विक्रम संवत 1003 में भाद्रपद कृष्णा नवमी चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद जाहरवीर गोगा ख्याति प्राप्त राजा थे। जाहरवीर गोगा का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था। राजस्थान सहित उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा पंजाब, हिमाचल प्रदेश में जाहरवीर गोगा लोक देवता के रूप मे ससम्मान पूजे जाते हैं। लोकमान्यता व लोककथाओं में गोगाजी को साँपों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। सामान्यतः उन्हें गोगा बाप्पा, गोगाजी, गुग्गा, जाहिर वीर, गातोड़जी (गातरोड़जी), गोवर्धनसिंह चौहान और जाहर पीर के नामों से पुकारते हैं। जाहरवीर गोगा की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन
पहले संपूर्ण हिन्दू जाति जम्बू द्वीप पर शासन करती थी फिर उसका शासन घटकर भारतवर्ष तक सीमित हो गया। फिर कुरुओं और पुरुओं की लड़ाई के बाद आर्यावर्त नामक एक नए क्षेत्रका जन्म हुआ जिसमें आज के हिन्दुस्थान के कुछ हिस्से, संपूर्ण पाकिस्तान और संपूर्ण अफगानिस्तान का क्षेत्र था। लगातार आक्रमण, धर्मांतरण और युद्ध के चलते अब घटते-घटते सिर्फ हिन्दुस्तान बचा है। कहना यह चाहिए कि आज जिसका नाम हिंदुस्तान है वह भारतवर्ष का एक टुकड़ा मात्र है। जिसे आर्यावर्त कहते हैं ! वह भी भारतवर्ष का एक हिस्साभर है और जिसे भारतवर्ष कहते हैं वह तो जम्बू द्वीप का एक हिस्सा मात्र है। जम्बू द्वीप में पहले देव-असुर और फिर बहुत बाद में कुरुवंश और पुरुवंश की लड़ाई और विचारधाराओं के टकराव के चलते यह जम्बू द्वीप कई भागों में बंटता चला गया ! लोग लगभग 1650 भाषाएँ और बोलियों का प्रयोग करते हैं अनेक विव
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