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19/06/2023

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18/11/2022

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20/10/2022

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For a Proletarian Party October - December issue, 2022
16/10/2022

For a Proletarian Party
October - December issue, 2022

17/03/2022

रूस-यूक्रेनी युद्ध और साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच शत्रुता का नया चरण
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क्या रूस-यूक्रेन युद्ध महज एक क्षेत्रीय संघर्ष है? नहीं। यह युद्ध दुनिया को आपस में बांटने के उद्देश्य से साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच बढ़ते अंतर्विरोध की एक क्षेत्रीय अभिव्यक्ति है। यह युद्ध खास तौर पर, वर्चस्व के लिए रूसी और अमेरिकी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं के परिणामस्वरूप हुआ। इन साम्राज्यवादियों के स्वार्थों की लड़ाई की कीमत चुकानी पड़ रही है यूक्रेन के सामान्य, निर्दोष लोगों को, जो आज एक भयानक युद्ध की तबाही के शिकार हैं।

इसमें कोई शक नहीं है कि इस युद्ध में रूस हमलावर है। यूक्रेन के शासकों ने जो भी किया हों, किसी भी देश को किसी अन्य स्वतंत्र, संप्रभु देश पर कब्जा करने के लिए इस तरह के आक्रामक युद्ध छेड़ने का अधिकार नहीं है। हालांकि, आज, पश्चिमी यूरोप में एंग्लो-अमेरिकी साम्राज्यवादी और अन्य साम्राज्यवादी शक्तियां, जो यूक्रेन के लिए आंसू बहा रहे हैं, रूस के खिलाफ युद्ध में यूक्रेन की स्वतंत्रता की रक्षा के नाम पर यूक्रेन को हथियार उपलब्ध कराकर मदद कर रहे हैं, उनके हित-स्वार्थ भी हमारे लिए अज्ञात नहीं हैं। उपनिवेशवाद के इतिहास या पिछली सदी के पूर्वार्द्ध के दो विश्व युद्धों सहित अनगिनत युद्धों के इतिहास का बात छोड़ ही दी जाए, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ ही समय पहले, इराक और अफगानिस्तान की जनता पर संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों द्वारा उनके प्राकृतिक संसाधनों पर अंधाधुंध तरीके से हावी होने और लूटने के लिए बेरहमी से आक्रमण किया गया था। क्यूबा, चिली, बोलीविया से लेकर इराक-अफगानिस्तान तक, अनेक देशों को अपने कब्जे में रखने के लिए जिन्होंने साजिश रचने से लेकर खुली आक्रामकता को अंजाम दिया है, आज जब वे यूक्रेन पर रूस के आक्रमण का विरोध करते हैं, तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह उनके अपने स्वार्थ में है। नैतिकता, मानवता, लोकतंत्र, ये सभी साम्राज्यवादी देशों सहित हर देश के शासक वर्ग के लिए महज बहाने हैं। वे सभी अपने ही देश की पूंजीपति वर्ग के भू-राजनीतिक हितों के नजरिये से इस युद्ध को देख रहे है और उसी के अनुसार कार्य कर रहे हैं।

विभिन्न समाचार माध्यम इस बात को फैलाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह युद्ध पुतिन की मनमानी, साम्राज्य का विस्तार करने के लिए उस की अनुचित, अन्यायपूर्ण महत्वाकांक्षाओं का परिणाम है। लेकिन कितनी भी निरंकुश और तानाशाही शक्ति किसी एक व्यक्ति के पास क्यों न हो, क्या कभी सिर्फ एक व्यक्ति की इच्छा से ही इतना बड़ा युद्ध लड़ा जा सकता है? हरगिज नहीं। किसी एक पूंजीवादी देश का कोई भी शासक अपने निजी हित में या सत्ताधारी दल के हित में इतना महत्वपूर्ण निर्णय नहीं ले सकता है। देश के पूंजीपति वर्ग या उसके किसी हिस्से का वर्ग हित इसके पीछे काम करता है। उसी तरह, रूस और यूक्रेन के बीच इस टकराव का कारण इन दोनों देशों के शासक पूंजीपतियों के स्वार्थ में हैं। और आगे हम देखेंगे कि इसके पीछे न केवल इन दोनों देशों के शासक वर्ग के हित हैं, बल्कि दुनिया के बड़े बड़े साम्राज्यवादी देशों के भी स्वार्थ हैं। क्योंकि, वर्तमान दुनिया में पूंजीवाद एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था है, जिसकी श्रृंखला में प्रत्येक देश की पूंजीवादी व्यवस्था और शासक वर्ग जुड़े हुए हैं, जहां पूरा न भी, फिर भी ज्यादातर कठपुतली जैसे अदृश्य धागे से बंधे है जिनका नियंत्रण साम्राज्यवादी पूँजी के हाथों में है।

यूक्रेन के साथ रूस के युद्ध के हालात वर्ष 2014 से ही चल रहे हैं। हालांकि इससे भी करीब ढाई दशक पहले के इतिहास में भी उस विरोध की जड़े है। 1990 के दशक की शुरुआत में सोवियत संघ के पतन और इसके विघटन के साथ यूक्रेन एक स्वतंत्र देश के रूप में पैदा हुआ था। सोवियत संघ के पतन के बाद से, संयुक्त राज्य अमेरिका ने पूर्व सोवियत ब्लॉक के विभिन्न देशों और यहां तक कि पूर्व सोवियत संघ के घटक देशों को भी अपने अधीन लाने के प्रयास शुरू कर दिए थे। 1999 से लेकर अलग अलग समय पर कई देश अमेरिका के नेतृत्व वाले सैन्य गठबंधन नाटो (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) में शामिल हुए हैं। इनमें चेक गणराज्य, हंगरी, पोलैंड, बुल्गारिया, रोमानिया जैसे पूर्व सोवियत ब्लॉक के कई देश शामिल हैं। इसके अलावा, एस्टोनिया, लाटविया और लिथुआनिया जैसे पूर्वतन सोवियत संघ के घातक देश भी नाटो में शामिल हुए हैं। पहले रूस की आर्थिक और सैन्य स्थिति इतनी कमजोर थी कि वह नाटो के माध्यम से अमेरिकी प्रभुत्व के प्रसार को रोक नहीं सका। उस दौर में ही, यूक्रेन के नाटो में शामिल होने पर कई बार चर्चा सामने आई है। और रूस ने हमेशा इसका विरोध किया है। रूसी शासक वर्ग ने तर्क दिया कि यूक्रेन एक अलग राष्ट्र नहीं है, बल्कि रूसी राष्ट्रीयता का हिस्सा था। इस तरह के रूसी चरमपंथी राष्ट्रवाद का प्रभाव रूसी जनता के एक बड़े हिस्से में हैं जिसका उपयोग रूसी शासक वर्ग करता है। दरअसल यूक्रेन की भौगोलिक या कहना चाहिए भू-रणनीतिक / भू-सामरिक स्थिति ऐसी है कि यूक्रेन के नाटो में शामिल होने का मतलब है कि अमेरिकी आधिपत्य/प्रभुत्व रूस के दरवाजे तक पहुँच जाना। अब तक नाटो में शामिल सभी पूर्वी यूरोपीय देशों में उपस्थित नाटो के सैन्य बलों ने वास्तव में रूस को घेर रखा है। रूस की सीमा से सटे हुए अब महज तीन ही देश बेलारूस, जॉर्जिया और यूक्रेन इससे बचे हुए है। इन देशों पर भी अमेरिका अपना वर्चस्व विस्तार करने की कोशिश कर रहा है। यूक्रेन के नाटो में शामिल होने से इस क्षेत्र में अमेरिकी साम्राज्यवाद का दबदबा परिपूर्ण हो जाएगा।

अपने भू-रणनीतिक महत्व के अलावा, यूक्रेन का आर्थिक महत्व भी है, खासकर अपने प्राकृतिक संसाधनों के कारण। हालाँकि, यूरोपीय अर्थव्यवस्था के लिए भी यूक्रेन का एक विशेष महत्व है। वह है यूक्रेन के भीतर से एक पाइपलाइन के माध्यम से पश्चिमी यूरोप को रूसी गैस की आपूर्ति होती है। पश्चिमी यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था रूसी गैस पर निर्भर करती है। साथ साथ इस पाइपलाइन के जरिए यूक्रेन को रूस से बड़ी रकम भी मिलती है।

आरंभ में जब पूर्वी यूरोप में अमेरिकी साम्राज्यवाद नाटो का विस्तार कर रहा था, उस दौरान रूस अपनी कमजोरी के कारण इसे रोक नहीं सका। वह मौखिक या कूटनीतिक कार्रवाई के अलावा कुछ नहीं कर सकता था। हालांकि, धीरे-धीरे, रूस ने अपनी कमजोरियों पर काबू पा लिया और आर्थिक एवं सैन्य रूप से अपने आप को मजबूत करना शुरू कर दिया। तब से, रूसी साम्राज्यवाद इस अमेरिकी विस्तारवादी प्रयास को सैन्य रूप से विफल करने की कोशिश कर रहा है। इसका एक उदाहरण 2008 का रूस-जॉर्जिया युद्ध है। नाटो के वर्ष 2008 के बुखारेस्ट शिखर सम्मेलन में, नाटो ने जॉर्जिया और यूक्रेन को जोड़ने की योजना की घोषणा की। इसके छह महीने बाद ही रूस ने जॉर्जिया पर हमला किया। जॉर्जिया के मामले में भी, रूस ने वहां के दो क्षेत्रों की जनता का जॉर्जिया के शासक वर्ग के खिलाफ विद्रोह का इस्तेमाल किया है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि रूसी शासक वर्ग हमेशा से यूक्रेन पर कब्जा करना चाहता है और इसके लिए वे यूक्रेन में अपने आज्ञाकारी लोगों को स्थापित करना चाहते हैं। लेकिन क्या सिर्फ रूस ही अपने आज्ञाकारी लोगों को सत्ता में लाना चाहता है? क्या अमेरिका ऐसा नहीं चाहता है ? अमेरिका भी चाहता है। 2014 में, रूस समर्थक यूक्रेनी राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को एक बड़े विरोध के जरिए सत्ता से गिरा दिया गया था। कई लोगों का मानना है कि उस परिवर्तन में संयुक्त राज्य अमेरिका की महत्वपूर्ण भूमिका थी। तत्कालीन अमेरिकी सहायक विदेश मंत्री विक्टोरिया नुलैंड और यूक्रेन में अमेरिकी राजदूत के बीच फोन पर हुई बातचीत की रिकॉर्डिंग से यह सबूत मिला है कि यूक्रेन में सत्ता में कौन होगा, यह तय करने में अमेरिका सीधे तौर पर शामिल था।

दूसरी ओर, 2014 में, रूस ने भी यूक्रेन पर अपना प्रभुत्व बढ़ाना शुरू कर दिया। एक ओर, रूस ने रूसी बहुसंख्यक द्वीप क्रीमिया पर कब्जा कर लिया, और दूसरी ओर, पूर्वी यूक्रेन के रूसी-बहुसंख्यक क्षेत्रों में यूक्रेन-विरोधी विद्रोह की सीधे सहायता करना शुरू कर दिया। तब से, पूर्वी यूक्रेन के डोनबास और लुहान्स्क क्षेत्रों में रूसी विद्रोही यूक्रेनी सेना के विरुद्ध लड़ रहे हैं।

इस प्रकार यूक्रेन को लेकर रूसी साम्राज्यवाद और अमरीकी साम्राज्यवाद के बीच संघर्ष बढ़ गया है। इस हालिया वृद्धि के शायद दो कारण हैं। नंबर एक, यूक्रेन के साथ अपने विवाद के कारण गैस आपूर्ति के विषय में यूक्रेन पर अपनी निर्भरता को कम करने के लिए, रूस ने हाल ही में दो पाइपलाइनों का निर्माण पूरा किया है, नॉर्ड स्ट्रीम 1 और नॉर्ड स्ट्रीम 2, जिससे यूक्रेन को छोड़कर गैस की आपूर्ति की जा सकती है। नॉर्ड स्ट्रीम 2 को पिछले साल के अंत में पूरा किया गया था और इसके कुछ ही दिनों में चालू होने की बात थी। यदि यह पाइपलाइन चालू हो जाती है, तो यूक्रेन को बहुत अधिक राजस्व का नुकसान होगा, इसलिए यूक्रेन नहीं चाहता कि यह पाइपलाइन प्रभावी हो। फिर, बहुतों के अनुसार, अमेरिका को लगता है कि यदि यह पाइपलाइन खोली जाती है, तो पश्चिमी यूरोप के देश रूस पर निर्भर हो जाएंगे और इसलिए उन देशों के साथ रूस के संबंध घनिष्ठ होंगे। वह अमेरिकी साम्राज्यवाद के अनुकूल नहीं होगा। इसलिए अमेरिका भी नहीं चाहता है कि यह पाइपलाइन चालू हो। यह ध्यान देने योग्य है कि संयुक्त राज्य अमेरिका वर्तमान में रूस पर जो प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहा है, उनमें से एक प्रमुख मांग है नॉर्ड स्ट्रीम 2 को चालू न होने देना। नंबर दो, रूस के विरोध के बावजूद, संयुक्त राज्य अमेरिका यूक्रेन को नाटो में शामिल करने के लिए आगे बढ़ रहा है। शायद यही इस युद्ध की अंतिम चिंगारी है। जैसा कि विभिन्न पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के बिभिन्न संगठनों ने भी स्वीकार किया है कि यूक्रेन का नाटो में शामिल होना इस विवाद का मुख्य कारण है। इसका एक अन्य प्रमाण यह है कि पुतिन ने युद्ध समाप्त करने के लिए जो रखी हैं, उनमें से प्रमुख है नाटो में शामिल न होने के लिए यूक्रेन कानून में बदलाव करे। इसके अलावा, दो क्षेत्रों - डोनबास और लुहान्स्क - की स्वतंत्रता की मान्यता और रूस के हिस्से के रूप में क्रीमिया की मान्यता भी अन्य शर्तें है। दूसरे शब्दों में, रूस चाहता है जिन हिस्सों पर वह अपना प्रभुत्व विस्तार कर पाया है उसको मान्यता दी जाए और संयुक्त राज्य अमेरिका को यूक्रेन को नाटो में शामिल करने से रोकने के लिए कदम उठाना।

हालाँकि इस युद्ध में रूसी और अमेरिकी साम्राज्यवाद के आपसी विरोध के भूमिका ही मुख्य है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि यूक्रेन के शासक वर्ग की कोई भूमिका नहीं है। उन्होंने भी खुले तौर पर अमेरिकी साम्राज्यवाद का पक्ष लिया है। और यह भी नहीं कहा जा सकता है कि यूक्रेन के शासक वर्ग ने लोकतंत्र के पक्ष में भूमिका निभाई है। यूक्रेन का दावा है कि यूक्रेन पर रूस का हमला यूक्रेन की स्वतंत्रता पर, यूक्रेन की संप्रभुता पर, लोकतंत्र पर हमला है। सही बात है। हालाँकि यह भी है कि यूक्रेन के पूर्व में जहाँ रूसी-अधिकृत क्षेत्र, डोनबास, यूक्रेन से अलग होना चाहता है, वहां यूक्रेनी शासक वर्ग इसे सैन्य जूतों के नीचे दबाकर रखना चाहता है। यूक्रेन की सेना 2014 से विद्रोहियों से लड़ रही है, जिसमें 14,000 लोग मारे गए हैं। जिस तरह यूक्रेनी लोगों का आत्मनिर्णय का अधिकार है, उसी तरह डोनबास में बसे हुए बहुसंख्यक रुसी लोगो को भी वह अधिकार चाहिए। यूक्रेनी शासक वर्ग द्वारा उन्हें सैन्य संगीन की नोक पर रखने के लिए जो रास्ता अपनाया गया है, वह किसी भी तरह से लोकतंत्र का रास्ता नहीं है। यह भी व्यापक रूप से माना जाता है कि यूक्रेनी सेना ने पूर्वी यूक्रेन में विद्रोहियों के साथ किए गए 2014 के युद्धविराम समझौते का पालन नहीं किया है।

संक्षेप में, इस युद्ध के लिए रूसी और अमेरिकी साम्राज्यवाद तो मूलभूत रूप से जिम्मेदार हैं, लेकिन समान स्तर पर न भी हो, यूक्रेन के शासक वर्ग भी जिम्मेदार है। रूसी और अमेरिकी साम्राज्यवाद के बीच कब्जे की प्रतिद्वंद्विता के परिणामस्वरूप इस युद्ध का भयानक बोझ यूक्रेन के लोगों पर पड़ा है। जिस तरह रूस इस युद्ध में आक्रामक है, उसी तरह अमेरिकी साम्राज्यवाद भी अपनी आधिपत्यवादी नीतियों के चलते इस युद्ध के लिए जिम्मेदार है। यूक्रेन का शासक वर्ग इन दोनों पक्षों से अलग नहीं है और वास्तविक अर्थों में लोगों की संप्रभुता और स्वतंत्रता के लिए उसने कोई रुख अख्तियार नहीं किया है। साम्राज्यवादी देश ही नहीं, बल्कि तमाम देशों के शासक वर्ग अपने-अपने संकीर्ण स्वार्थों के अनुसार इस युद्ध में अपना-अपना पक्ष ले रहे हैं। भारत के शासक वर्ग ने भी अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए इस युद्ध में अपना रुख तय किया है। भारत के शासक वर्ग और सरकार ने न तो रूस और न ही अमेरिका का पक्ष लिया है। इसका मतलब यह नहीं है कि वे दोनों साम्राज्यवाद की नीतियों के विरोधी हैं। वे अवसरवादी नीति अपना रहे हैं, जिसके आधार पर वे यूक्रेन पर युद्ध का विरोध कर रहे है, लेकिन रूसी हमले का नहीं। ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि भारतीय शासक विभिन्न आर्थिक और सैन्य समझौतों के कारण काफी हद तक रूस पर निर्भर हैं। इस वजह से उनके लिए रूस के खिलाफ खड़ा होना संभव नहीं है। फिर, संयुक्त राज्य अमेरिका पर उनकी आर्थिक और सैन्य निर्भरता के कारण, उनके लिए रूस का पक्ष लेकर संयुक्त राज्य अमेरिका के खिलाफ सीधा रुख लेना भी संभव नहीं है। इसलिए वे संतुलन का यह खेल खेल रहे हैं, जिसे वे तटस्थता का सिद्धांत होने का दावा करते हैं, हालांकि इस आभासी तटस्थता के साथ उनका असली नैतिक स्थिति का कोई लेना-देना नहीं है।

यूक्रेन में इस युद्ध का बोझ मेहनती लोगों द्वारा वहन किया जा रहा है और आगे भी करना पड़ेगा। यूक्रेन में आज हजारों निर्दोष लोग मौत का सामना कर रहे हैं। हजारों साधारण यूक्रेनियन लोगों ने पड़ोसी देशों में शरण ली है। फिलहाल यह पता नहीं है कि वे कब अपने देश लौट पाएंगे या कभी लौटने का मौका होगा कि नहीं । इस युद्ध का प्रभाव सिर्फ यूक्रेन के लोगों पर नहीं है। इस युद्ध के व्यापक क्षेत्र में फैलने का खतरा बहुत गहरा है। इसे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप में सबसे बड़ा युद्ध बताया जा रहा है। कई लोग इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि कहीं इस युद्ध से तीसरा विश्व युद्ध तो शुरू नहीं हो जाएगा। यदि ऐसा नहीं भी होता है, तो भी इसमें कोई शक नहीं कि इस युद्ध के नतीजे में विश्व की तमाम गरीब, मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी और भी असहनीय हो जायगी। इस युद्ध के परिणामस्वरूप, ईंधन की कीमतें पहले ही बढ़ने लगी हैं, जिसका बोझ अंततः गरीबों पर पड़ेगा। अगर व्यापार और वाणिज्य का संकट आता है, तो इसका बोझ मजदूरों और सभी मेहनती लोगों पर पड़ेगा।

हालाँकि, इस युद्ध का महत्व यहीं तक सीमित नहीं है। 1980 के दशक के उत्तरार्ध में सोवियत गुट के पतन के बाद से, अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवादी देश अविकसित और विकासशील देशों के प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करना और दुनिया भर के मजदूर वर्ग के शोषण और उत्पीड़न को तेज करने का मकसद से हिंसक रूप लेकर कूद पड़े थे। हम भूमंडलीकरण के नाम पर साम्राज्यवादी पूंजी के उस क्रूर हमले से अच्छी तरह वाकिफ हैं। साम्राज्यवादी इराक सहित विभिन्न मध्य एशियाई देशों के तेल संसाधनों को लूटने के लिए हमलावर हो गए। इस हमले में वे इसलिए सक्षम हो गए क्योंकि एक और बड़ी शक्ति के रूप में, सोवियत संघ गिरने लगा और नतीजतन, अमेरिकी साम्राज्यवाद महान शक्तियों में से एक बन गया है।

लेकिन एक और महत्वपूर्ण कारण यह है कि अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग का समाजवादी आंदोलन भी हार गया है। अब दुनिया भर में मजदूर वर्ग तितर-बितर, अव्यवस्थित है। उसकी अपनी कोई पार्टी नहीं है, कोई संगठित वर्ग संघर्ष नहीं है। नतीजतन, साम्राज्यवादी पूंजी के नेतृत्व में, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवाद और देश में घरेलू पूंजी के हमले का विरोध करना उनके लिए संभव नहीं है। विभिन्न देशों के शासक पूंजीपति पूरी दुनिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में साम्राज्यवादी शक्तियों के शिविरों में एकत्रित हुए। जो वास्तव में उनके हमलों का विरोध कर सकता था उस अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग की अनुपस्थिति में, उन्होंने एकतरफ़ा प्रभुत्व कायम किया ।

1990-91 में जब अमरीकी साम्राज्यवाद ने इराक पर आक्रमण किया, तो पूरा साम्राज्यवादी खेमा इसके पीछे सिर्फ एकत्रित ही नहीं था, बल्कि सक्रिय रूप से उसका मददगार हो गया था। सोवियत रूस के पतन के बाद, दुनिया को एकध्रुवीय कहा जाने लगा, जिसका एकमात्र नेता अमेरिकी साम्राज्यवाद था।

करीब तीन दशक बाद आज दुनिया का नक्शा काफी बदल गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियों ने 1990 के दशक की शुरुआत में शुरू हुए वैश्वीकरण के काल में अंधाधुंध लूट का अपना शासन शुरू किया। इस स्तर पर, विशाल एकाधिकारी पूंजीपतियों ने चीन और तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों में निवेश करना शुरू कर दिया। वे उन देशों के सस्ते श्रम का उपयोग करके भारी मुनाफा कमाते हैं। हालाँकि, इन तीन दशकों के वैश्वीकरण ने दुनिया की पूंजीवादी शक्तियों के संतुलन में कई बदलाव भी किए हैं। विशेषकर 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद से साम्राज्यवादी दुनिया में दूरगामी परिवर्तन होने लगे हैं। दुनिया का एकमात्र नेता, संयुक्त राज्य अमेरिका, साम्राज्यवादी आर्थिक संकट से जूझ रहा है। विश्व प्रभुत्व बनाए रखने में अमेरिकी साम्राज्यवाद की विफलता अफगानिस्तान में हाल की घटनाओं से समान रूप से स्पष्ट है। उससे मुकाबला करने के लिए अलग-अलग ताकतें सामने आई हैं। यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियाँ, संयुक्त राज्य अमेरिका के पुराने सहयोगी होने के बावजूद, जर्मनी के नेतृत्व में यूरोपीय संघ के रूप में अलग से संगठित हैं। ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर हो गया है। दूसरी ओर, चीन एक नई शक्ति, एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा है जो अब संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रबल विरोधी, प्रतिद्वंदी है। एक सैन्य शक्ति के रूप में, चीन ने आसपास के क्षेत्र में अपने प्रभुत्व का विस्तार करना शुरू कर दिया है। इस युद्ध के माध्यम से यह स्पष्ट हो गया कि जो रूस सोवियत संघ के पतन के बाद एक कमजोर ताकत बन गया था, वह भी अब अपनी कमजोरी को दूर कर एक दुर्जेय प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरना चाहता है। एक शब्द में कहें तो सोवियत संघ के पतन के बाद एकध्रुवीय दुनिया को जन्म देने के बाद दुनिया की साम्राज्यवादी ताकतें अब अलग-अलग शिविरों में बंट गई हैं और एकध्रुवीय दुनिया से बहुध्रुवीय दुनिया की ओर यात्रा शुरू हो गई है।

साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच इस संघर्ष का मूल कारण, निश्चित रूप से, आर्थिक है। दुनिया की पूंजी और उसके लूट के माल पर कौन या कौन सा गठबंधन नियंत्रण करेगा, इसको लेकर ही विवाद छिड़े हुए हैं। नतीजतन, नए नए आर्थिक ब्लॉक बनाए जा रहे हैं। वैश्वीकरण की शुरुआत में शुरू हुआ मुक्त व्यापार और निवेश का दौर टूट रहा है। विभिन्न देश अपने देशों में आयात के खिलाफ विभिन्न किस्म के प्रतिबंध लगा रहे हैं। नई संरक्षण नीतियां लागू की जा रही हैं। ये सब ही बाजार पर कब्जा करने या पुराने बाजार पर नियंत्रण बनाए रखने की कोशिश में है।

हालाँकि, साम्राज्यवादियों के बीच आर्थिक प्रतिस्पर्धा केवल अर्थव्यवस्था तक ही सीमित नहीं रह सकती। जैसे-जैसे आर्थिक प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, वैसे-वैसे सैन्य प्रतिस्पर्धा भी बढ़ती है। विभिन्न सैन्य ब्लॉक बनाए जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इन आर्थिक और सैन्य गुटों की उपस्थिति अभी भी बहुत स्थायी है, बल्कि यह कि वे विभिन्न गठन-विघटन के दौर से गुजर रहे हैं। विभिन्न प्रभावशाली देश अपने प्रभुत्व का विस्तार करने के लिए विभिन्न कदम उठा रहे हैं। एक शब्द में कहें तो साम्राज्यवादी ताकतों के बीच पूरी दुनिया के पुनर्विभाजन की तैयारी शुरू हो गई है। एक तरफ अमरीकी साम्राज्यवाद अपनी पुरानी शक्ति को कायम नहीं रख पा रहा है, लेकिन अपना प्रभुत्व कायम रखने की पूरी कोशिश कर रहा है। वहीं दूसरी ओर अन्य शक्तियां अपना प्रभुत्व बढ़ाने की ओर बढ़ रही हैं। यूक्रेन और रूस के बीच वर्तमान युद्ध रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच संघर्ष का परिणाम है, और इस तरह के संघर्ष दुनिया भर में खुद को अलग तरह से प्रकट कर रहे हैं। यही कारण है कि यूक्रेन और रूस के बीच वर्तमान युद्ध एक अलग युद्ध नहीं है, बल्कि उस समग्र स्थिति का प्रतिबिंब है जिसमें दुनिया भर में साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच संघर्ष बढ़ रहा है और आर्थिक प्रतिस्पर्धा और सैन्य संघर्ष के लिए बातचीत के दायरे से आगे बढ़ रहा है। इसका मतलब है कि निकट भविष्य में कई और क्षेत्रों में इस तरह के संघर्ष और युद्ध की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।

इसका मतलब यह हुआ कि साम्राज्यवादी ताकतें और स्थानीय शासक जनता पर और भी भारी बोझ डालने वाले हैं। अंतिम फैसले में इस युद्ध की कीमत जनता को ही चुकानी पड़ेगी। लेकिन, यह स्थिति का एक पहलू है। दूसरी ओर, मजदूर वर्ग और मेहनतकश लोग अपनी पुरानी स्थिति में नहीं रह पाएंगे। जीवन का संकट उन्हें संघर्ष के रास्ते पर धकेल देगा। जिस तरह पिछले साम्राज्यवाद के संघर्षों के कारण हुए दो विश्व युद्धों ने लाखों लोगों को एक अवर्णनीय दुख पहुंचाया, उसी तरह मजदूर वर्ग ने इन दो विश्व युद्धों के दौरान विभिन्न देशों में सत्ता हथियाने के लिए साम्राज्यवाद के बीच संघर्ष का फायदा उठाया और समाजवाद का रास्ते पर अग्रसर हुआ। यह बात सच है कि मजदूर वर्ग के संघर्ष की वर्तमान स्थिति उस समय से बिल्कुल अलग है। उस समय देश में मजदूर वर्ग की पार्टियां मौजूद थीं, मजदूर वर्ग का आंदोलन जारी था। आज हम मजदूर वर्ग के संघर्ष में करारी हार के बाद मजदूर वर्ग के विघटन की स्थिति में खड़े हैं। लेकिन, जैसे-जैसे दुनिया गर्म होती है, वैसे-वैसे मजदूर वर्ग और लोगों का संघर्ष भी बढ़ता जाता है। कम्युनिस्टों की भूमिका मज़दूर वर्ग के बढ़ते हुए विरोधों से उभरे मज़दूर वर्ग के हिरावल को संगठित करने और पूँजीवाद के विनाश के संघर्ष में उन्हें दिशा दिखाने की होगी। साम्राज्यवाद-पूंजीवाद का विनाश करना न केवल मजदूर वर्ग, शोषित मेहनतकश लोगों को मुक्त करने का रास्ता है, बल्कि दुनिया को इस युद्ध और इसके अवर्णनीय परिणामों से मुक्त कराने का रास्ता भी है।
- Sarvahara Path

16/02/2022

हिजाब बहस - चरमपंथी हिंदुत्व का नया हमला
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शिक्षण संस्थानों में मुस्लिम छात्राओं के हिजाब पहनने पर प्रतिबंध को लेकर कर्नाटक और कुछ हद तक देश के अन्य हिस्सों में विवाद हुआ है। यह आरएसएस -भाजपा की एक नई साजिश का हिस्सा है और यह समझने में हमें कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। हिजाब पहन कर स्कूल या कॉलेज जाना कोई ऐसी चीज नहीं है जो दो दिन पहले अचानक से शुरू हो गई हो। नए सिरे से जो बात शुरू हुआ है वह है हिजाब पहनकर स्कूल या कॉलेज में प्रवेश पर प्रतिबंध लगना। और इसके पीछे भाजपा-आरएसएस परिवार की निर्णायक भूमिका को समझने के लिए थोड़ी सी जानकारी ही काफी है। नीचे हम इसे बिंदुवत दे रहे हैं-
1. क्षेत्र के भाजपा विधायक कर्नाटक के तटीय राज्य के एक सरकारी कॉलेज, उडुपी में सरकार द्वारा संचालित पीयू कॉलेज फॉर गर्ल्स की विकास समिति के प्रमुख हैं, और उनकी अध्यक्षता में हुई एक बैठक में यह निर्णय लिया गया कि मुस्लिम छात्रायें हिजाब पहनकर कॉलेज में प्रवेश नहीं करने पाएंगी।
2. इस मामले में हिंदुत्ववादी छात्रों ने भी क्षेत्र में सांप्रदायिक तनाव में संघर्ष को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सैंकड़ो छात्रों ने गले में भगवा पट्टा लपेटकर 'जय श्रीराम' नारे के साथ गर्ल्स कॉलेज के गेट के बाहर बवाल काटा। हालाँकि यह समझ से परे है कि मुस्लिम छात्राओं के हिजाब पहनने से उनके कौन से अधिकार का हनन होता है। और गर्ल्स कॉलेज में हिंदू छात्र अपने गले में भगवा पट्टा लपेटकर गए भी क्यों? हुडदंग मचाने के लिए?
3. दो दिनों में दो क्षेत्रीय घटनाओं के बाद, कर्नाटक राज्य सरकार ने जल्दबाजी में फैंसला ले लिया कि न तो हिजाब और न ही भगवा पट्टा ओढ़ कर कॉलेज में प्रवेश करने की अनुमति दी जाएगी। सतही तौर पर देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि कर्नाटक राज्य सरकार का निर्देश निष्पक्ष हैं। क्योंकि, प्रतिबंध दोनो समुदायों के छात्र-छात्राओं के लिए लगाया गया है। लेकिन, क्या ऐसा सोचना सही है? हिंदू छात्र कभी भी गले में भगवा पट्टा लपेटकर स्कूल-कॉलेज में पहले भी जाते थे क्या? क्या सिखों के तरह पगड़ी पहनना, या मुसलमान महिलाओं के हिजाब पहनने की तरह हिन्दुओं को गले में भगवा पट्टा पहनना कोई आम बात है? जब ऐसा नहीं होता है, तो उस पर प्रतिबंध लगाने से हिंदू छात्रों के किसी भी अधिकार पर प्रतिबंध नहीं लग जाता है। इसके विपरीत अंत में हुआ यह कि पहले तो मुस्लिम छात्रों के कॉलेजों में प्रवेश पर रोक लगा दी गई और राज्य सरकार के निर्देश द्वारा इस पर मुहर लगा दी गई। क्या इसमें संदेह की कोई गुंजाइश है कि जिस तरह से विवाद खड़ा कर मुस्लिम छात्राओं पर प्रतिबंध थोपा गया है उसे आरएसएस परिवार और भाजपा एक सोची–समझी साजिश के तहत अंजाम दिया?
बीजेपी और कट्टर हिन्दुत्ववादी 'धर्मनिरपेक्षता' की आंड़ में अपनी दलीलें पेश कर रहे हैं। उनका कहना है कि मुस्लिम छात्रायें हिजाब पहनकर शिक्षण संस्थानों में अपना धर्म ला रहे हैं। जो लोग बार-बार भारत को एक हिंदू राष्ट्र में बदलने के अपने इरादे को सार्वजनिक रूप से घोषित करते हैं और विभिन्न तरीकों से ऐसा कर रहे हैं, जिन्होंने हमेशा इस देश में धर्मनिरपेक्षता का उपहास किया है, जब वे खुद धर्मनिरपेक्षता का पक्ष लेने की नौटंकी करते है क्या वह विश्वसनीय हो जाता हैं? हालांकि, उन्होंने सवाल उठाया है: शिक्षण संस्थान धर्मनिरपेक्ष हैं और स्कूलों व कॉलेजों में कोई धार्मिक पोशाक पहनने की अनुमति नहीं दी जा सकती है क्या? अच्छी बात है। लेकिन, सवाल यह है कि अगर स्कूल-कॉलेज में हिजाब पहनना धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ है, तो क्या यही तर्क शिक्षण संस्थानों में पगड़ी पहनने वाले सिख छात्रों पर लागू नहीं होता? अगर शिक्षण संस्थान में हिजाब पहनकर जाने से धर्म लेकर जाना होता हैं, तो फिर अगर कोई हिंदू विवाहित छात्रा सिर पर सिन्दूर लगाकर या मंगलसूत्र पहनकर जाती है, या अगर किसी हिंदू ब्राह्मण छात्र जनेऊ लटकाकर या सर पर चोटी बनाकर स्कूल या कॉलेज जाता है, तो भी क्या धर्म लेकर जाने की कोई शिक़ायत नहीं हो सकती है क्या? हालांकि, ये पहलू संघ परिवार-भाजपा की नजर में नहीं आता हैं। दरअसल वे केवल मुस्लिम समुदाय की प्रथाओं को रोकने के लिए लगे हुए हैं। आखिर इसके बाद भी उनकी धर्मनिरपेक्षता के तर्क का कोई आधार बचता है क्या ?
इसमें कोई शक़ नहीं है कि सच्ची धर्मनिरपेक्षता लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। सच्ची धर्मनिरपेक्षता कहती है कि नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने या कोई भी धर्म न मानने का भी अधिकार है। सच्ची धर्मनिरपेक्षता का मतलब है कि धर्म शिक्षा और राजसत्ता से पूरी तरह अलग रहेगा। लेकिन, क्या हमारे देश के शिक्षण संस्थानों में वास्तव में धर्मनिरपेक्षता मौजूद है? क्या अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय के विशेष शैक्षणिक संस्थानों को छोड़कर हर शैक्षणिक संस्थान में औपचारिक या अनौपचारिक तौर पर ही सही, सरस्वती पूजा की प्रथा धर्मनिरपेक्ष है? और क्या भाजपा-आरएसएस परिवार को शिक्षण संस्थानों में धर्मनिरपेक्षता की बात करने का ढोंग करने में इतनी शर्म नहीं आती? वे अब विभिन्न भाजपा शासित राज्यों के शिक्षण संस्थानों में सूर्य प्रणाम और सरस्वती वंदना को अनिवार्य बनाकर धर्मनिरपेक्षता की बात कर रहे हैं? क्या यह केवल पाखंड नहीं है?
हिजाब पर इस विवाद के पूरे महत्व को समझने के लिए, पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार-भाजपा जैसे चरमपंथी हिंदुत्ववादियों द्वारा मुस्लिम समुदाय के मानवाधिकारों पर सिलसिलेवार हमलों की एक कड़ी पर देखना होगा। अन्य सभी नागरिकों की तरह समान अधिकारों के साथ, मुस्लिम समुदाय के लोगों को सिर ऊंचा करके जीने का उनके अधिकार से वंचित करने के लिए वे एक के बाद एक हमले कर रहे हैं। मुस्लिम महिलाओं को इंटरनेट पर नीलामी के लिए रखा गया है, धर्म-संसद द्वारा मुसलमानों को जनसंहार की धमकी दी गई है, और गुड़गांव में खुले स्थानों में नमाज़ पढने को रोका जा रहा है। जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाकर यह झूठा प्रचार किया जा रहा है कि जनसंख्या वृद्धि का मुख्य कारण मुस्लिम समुदाय है। लव जिहाद की आवाज़ उठाकर अलग-अलग धर्मों के जोड़ों पर हो रहे हमले, उन्हें जबरन अलग किया जा रहा है- लिस्ट लंबी है। हिजाब पहनकर स्कूल और कॉलेज जाने के विवाद को देखते हुए, यह समझना मुश्किल नहीं है कि शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने पर मौजूदा प्रतिबंध इस समग्र हमले में और एक कदम है। चरमपंथी हिंदुत्ववादियों या राजसत्ता द्वारा हिजाब पहनने पर प्रतिबंध लोकतंत्र पर हमला है। मुस्लिम छात्रायें हिजाब पहनती हैं या नहीं यह उनका एक निजी मामला है - चरमपंथी हिंदुत्ववादियों द्वारा इसमें दखलंदाज़ी या राजसत्ता द्वारा प्रतिबंध नहीं लगा सकता है।
लेकिन, क्या बीजेपी और आरएसएस परिवार केवल मुस्लिम लोगों के अधिकारों पर हमला कर रहे हैं? समाज के विभिन्न समुदायों पर, यहाँ तक की हिंदू धर्म मानने वाले अलग-अलग तबके के अधिकारों को भी वे कुचल रहे हैं । वे दलित लोगों को सवर्ण हिंदुओं के पैरों तले रखना चाहते हैं। इसका प्रमाण हमें वर्तमान भाजपा सरकार के कार्यकाल में गुजरात के ऊना या उत्तर प्रदेश सहित विभिन्न राज्यों में मिला है। शिक्षण संस्थानों में भगवाकरण का अभियान चल रहा है। संघ परिवार की फासीवादी नीति का विरोध करने वाले जो भी हैं उन पर भगवा गिरोह द्वारा हमला किया गया है, चाहे वे छात्र हों, युवा हों या शिक्षक-बुद्धिजीवी हों। हम यह नहीं भूल सकते कि उग्रवादी हिंदू सांप्रदायिक ताक़तों द्वारा गौरी लंकेश या कलबुर्गी जैसे तर्कशील, प्रतिवादी लोगों को कैसे मारा गया। हम यह भी नहीं भूल सकते कि कैसे भाजपा- आरएसएस परिवार जैसे हिन्दुत्ववादियों ने मुस्लिम महिला पत्रकारों को इंटरनेट पर नीलामी के लिये बोलियां लगवाया है। हालांकि, सबसे बड़ा हमला मजदूरों, किसानों सहित गरीब कामकाजी लोगों की आजीविका पर है, चाहे वे किसी भी धर्म, जाति, पंथ के हों। नए कृषि कानून और इसके ख़िलाफ़ किसानों के संघर्ष पर भाजपाई गुंडों और पुलिस का आतंक इसका एक बड़ा सबूत है। एक और बड़ा सबूत यह है कि जिस तरह से नए श्रम संहिता लागू करके श्रमिकों को उनके अधिकारों से वंचित किया गया है। मुसलमानों के अधिकारों पर हमले लोकतंत्र पर इस समग्र हमले का हिस्सा हैं।
स्कूलों और कॉलेजों में हिजाब पहनने पर विवाद और विरोध को भड़काया गया है, जिसमें एक महत्वपूर्ण पहलू है छात्रों और युवाओं के बीच सांप्रदायिक विभाजन और आपसी संघर्ष को और गहरा एवं तीव्र रूप दिया जा रहा है। छात्रों के लिए असली समस्या क्या यह है कि वे हिजाब या भगवा पट्टा पहनेंगे या नहीं? स्कूलों और कॉलेजों में, खासकर सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षा की स्थिति कैसी है हम सभी जानते हैं। भाजपा शासन के दौरान केंद्र सरकार की शिक्षा के लिए जो भी थोडा सा बजट आवंटन था उसे भी कम किया गया है। जैसा कि कई क्षेत्रों में है, वैसे ही शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की नीति 'पैसा फेंको तमाशा देखो' जैसी है। अमीर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, गरीबों को मौका मिलना मुश्किल होता जा रहा है। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई, परीक्षा जैसे तमाम विषयों में घोर अराजकता चल रही है। यह एक राज्य की बात नहीं है, यह सभी राज्यों में बराबर है। फिर छात्रों की सबसे बड़ी समस्या पढाई के पश्चात नौकरी और रोज़गार को लेकर है। कुछ दिनों पहले बिहार और उत्तर प्रदेश में रेलवे की परीक्षा को लेकर हुए छात्रों के तीखे विरोध ने एक बार फिर दिखाया कि बेरोज़गारी की समस्या कितनी विकट हो गई है। और बेरोज़गारी की समस्या के लिए भाजपा समेत विभिन्न सत्ताधारी दल ही जिम्मेदार हैं, जिन्होंने भारत के बड़े पूंजीपतियों के हित में विकास का रास्ता अपनाया है, जिसे रोज़गारविहीन विकास कहते हैं। पिछले तीस वर्षों में बैंक, रेलवे, खदान जैसे बड़े क्षेत्रों में रोज़गार में भारी गिरावट आई है। नए उद्योग में बहुत कम नौकरी है। आई टी या कुछ ऐसे ही नए क्षेत्र की अभी शुरुआत हुई है जिसमें काफी पैसे वाली नौकरी मिल रहे। लेकिन, वह भी कितना है। नब्बे प्रतिशत लोगों को या तो कोई नौकरी नहीं मिल रही है या मिल भी रही है तो उन्हें अपनी कमरतोड़ मेहनत के बदले कुछ ही हजार रुपये मिल रहे हैं। आज सरकारी नौकरियों की दुनिया में व्याप्त भ्रष्टाचार, कॉलेज शिक्षा और परीक्षाओं में विभिन्न अनियमितताओं के कारण छात्र भटक रहे हैं। छात्र और युवा जीवन की इस समस्या के ख़िलाफ़ खड़े न होकर, धर्म को लेकर आपस में लड़ते-झगड़ते रहेंगे क्या ? क्या हिजाब बहस खड़ा कर भाजपा और संघ परिवार का एक बड़ा मकसद यह है कि छात्रों में फूट पैदा करना है ताकि छात्र इन सभी गंभीर मुद्दों से अपनी नज़रें हटा सकें और वे शासकों की साजिशों के ख़िलाफ़ खड़े न हो सकें? इस बारे में हमें विचार करने की ज़रूरत है।
हिजाब पहनने की प्रथा निश्चित रूप से प्रगति के पक्ष में नहीं है। यह तर्क नहीं दिया जा सकता है कि हिजाब या बुर्का पहनकर भी मुस्लिम महिलाओं ने अपने अधिकार के लिए मुखर हुई है या हो सकती है इसलिए हिजाब बढ़ते रूढ़िवादी रवैये की अभिव्यक्ति नहीं है। हिजाब मुस्लिम महिलाओं के बीच बढ़ते इस्लामी कट्टरपंथी प्रभाव की अभिव्यक्ति है। लेकिन, क्या हमारे देश में चरमपंथी हिंदुत्ववादी ताक़तें इसके लिए विशेष रूप से जिम्मेदार नहीं हैं? चरमपंथी हिंदुत्ववादी ताक़तों का सांप्रदायिक प्रचार हिंदू लोगों के एक महत्वपूर्ण हिस्से को प्रभावित कर रहा है और वे एक बड़े हिस्से में सांप्रदायिक जहर फैलाने में सफल रहे हैं। दूसरी ओर, हिंदू समुदाय के आम लोगों के बीच सांप्रदायिकता के प्रभाव और उसके आधार पर उग्रवादी हिंदुत्ववादी ताक़तों की आक्रामक भूमिका के नतीजे में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों में भी अपने धर्म, समुदाय की भावना को बनाए रखने की प्रवृत्ति को बढ़ा दिया है। मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतें भी इस स्थिति का इस्तेमाल कर रहे मुसलमानों पर अपना प्रभाव डालने के लिए। यह घटना हिंदू समुदाय के लोगों के बीच एक बार फिर चरमपंथी हिंदू संप्रदायवाद के प्रभाव को बढ़ा रही है। नतीजतन विभिन्न धार्मिक समुदायों के लोगों में न केवल साम्प्रदायिकता बढ़ रही है, बल्कि विभिन्न प्रकार के धार्मिक पिछड़े मूल्य भी बढ़ रहे हैं। लोकतंत्र के हित में उन पिछड़े मूल्यों को हटाने की ज़रूरत है। लेकिन, यह ऊपर से बलपूर्वक कभी नहीं किया जा सकता है। ऊपर से जबर्दस्ती करने पर वे प्रवृत्तियाँ और अधिक मजबूत हो जाएँगी। संघ परिवार-भाजपा समेत अतिवादी हिंदू सांप्रदायिक ताकतें हिंदू धर्म के पिछड़े मूल्यों के खिलाफ कभी नहीं खड़े होते, बल्कि उसकी रक्षा करने की कोशिश करते हैं। हालांकि, वे मुस्लिम धर्म के लोगों के बीच मौजूद पिछड़े मूल्यों के ख़िलाफ़ जिहाद की घोषणा करते हैं। यह उनके दोगलेपन को दर्शाता है। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके हमले मुसलमानों पर कट्टरपंथियों के प्रभाव को मजबूत करने में मदद कर रहे हैं। हालांकि, इसमें संघ परिवार को चिंता की कोई बात नहीं है। दोनों सांप्रदायिकताएं एक-दूसरे की पूरक हैं और एक-दूसरे को बढ़ने में मदद करती हैं।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि इस स्थिति का एक प्रमुख कारण मजदूर वर्ग सहित मेहनतकश लोगों के क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष की विफलता है। जैसे ठहरे हुए पानी में काई उगती है, वैसे ही संघर्षहीन इस ठहरी हुई स्थिति में भी मेहनतकशों के बीच तरह-तरह के पिछड़े मूल्य पैदा हो गए हैं। इसके आधार पर, पिछले तीस वर्षों में, चरमपंथी हिंदू सांप्रदायिक ताक़तों सहित विभिन्न सांप्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों का प्रभाव बढ़ा है। सबसे ख़तरनाक है, आरएसएस परिवार और भाजपा अपना फासीवादी अभियान बढ़ाते जा रहे है, जिसका लक्ष्य है भारत को एक हिन्दू राष्ट्र में बदल देना। सिर्फ़ वर्ग संघर्ष के विकास के माध्यम से ये फासीवादी अभियान को रोकना संभव है। स्थिति का एक पहलू यह है कि सांप्रदायिकता या धार्मिक मूल्य मजदूर वर्ग सहित मेहनतकश लोगों, खासकर उनके एक पिछड़ा हिस्सा एक हद तक सांप्रदायिक उन्माद के वशीभूत होकर अपनी सोचने विचारने की क्षमता खो बैठा है। एक अन्य पहलू यह भी है कि वर्तमान समय में विशेषकर भाजपा की सत्तासीन केंद्र सरकार के नेतृत्व में शासक वर्ग के हित-स्वार्थ में हमले, आजीविका की समस्याओं का गहराना भी उन्हें भाजपा और संघ परिवार को पहचानने में मदद कर रहा है। पिछले साल किसान आंदोलन के दौरान, हमने देखा है कि उस आंदोलन के नतीजे में, उस आन्दोलन के इर्दगिर्द पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में हिंदू-मुसलमान सभी लोग एकजुट होकर सरकार के हमले को रोका है। समाज में वर्ग विरोध के कारण ही वर्ग संघर्ष पैदा होगा और यह न केवल आरएसएस परिवार के नेतृत्व में उग्र हिंदुत्व की शक्ति सहित समाज से सभी सांप्रदायिकता को उखाड़ फेंकेगा, बल्कि मजदूर वर्ग सहित मेहनतकश लोगों को वास्तविक मुक्ति की ओर ले जाएगा। मजदूर वर्ग के अगुआ लोगों को उस लक्ष्य की ओर कार्य करना है।

सर्वहारा पथ
15 फरवरी 2022

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