श्री सत्येन्द्र कुमार गुप्ता

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23/04/2024
गांव के बियाहपहले गाँव मे न टेंट हाऊस थे और न कैटरिंग, थी तो बस सामाजिकता। गांव में जब कोई शादी ब्याह होते तो घर घर से च...
15/03/2024

गांव के बियाह
पहले गाँव मे न टेंट हाऊस थे और न कैटरिंग, थी तो बस सामाजिकता। गांव में जब कोई शादी ब्याह होते तो घर घर से चारपाई आ जाती थी, हर घर से थरिया, लोटा, कलछुल, कराही इकट्ठा हो जाता था और गाँव की ही महिलाएं एकत्र हो कर खाना बना देती थीं। औरते ही मिलकर दुलहिन तैयार कर देती थीं और हर रसम का गीत गारी वगैरह भी खुद ही गा लिया करती थी।
तब DJ अनिल-DJ सुनील जैसी चीज नही होती थी और न ही कोई आरकेस्ट्रा वाले फूहड़ गाने। गांव के सभी चौधरी टाइप के लोग पूरे दिन काम करने के लिए इकट्ठे रहते थे। हंसी ठिठोली चलती रहती और समारोह का कामकाज भी। शादी ब्याह मे गांव के लोग बारातियों के खाने से पहले खाना नहीं खाते थे क्योंकि यह घरातियों की इज्ज़त का सवाल होता था। गांव की महिलाएं गीत गाती जाती और अपना काम करती रहती। सच कहु तो उस समय गांव मे सामाजिकता के साथ समरसता होती थी।
खाना परसने के लिए गाँव के लौंडों का गैंग समय पर इज्जत सम्हाल लेते थे। कोई बड़े घर की शादी होती तो टेप बजा देते जिसमे एक कॉमन गाना बजता था-मैं सेहरा बांधके आऊंगा मेरा वादा है और दूल्हे राजा भी उस दिन खुद को किसी युवराज से कम न समझते। दूल्हे के आसपास नाऊ हमेशा रहता, समय समय पर बाल झारते रहता था और समय समय पर काजर-पाउडर भी पोत देता था ताकि दुलहा सुन्नर लगे। फिर द्वारा चार होता फिर शुरू होती पण्डित जी लोगों की महाभारत जो रातभर चलती। फिर कोहबर होता, ये वो रसम है जिसमे दुलहा दुलहिन को अकेले में दो मिनट बतियाने के लिए दिया जाता था लेकिन इत्ते कम समय में कोई क्या खाक बात कर पाता। सबेरे कलेवा में जमके गारी गाई जाती और यही वो रसम है जिसमे दूल्हे राजा जेम्स बांड बन जाते कि ना, हम नही खाएंगे कलेवा। फिर उनको मनाने कन्यापक्ष के सब जगलर टाइप के लोग आते।
अक्सर दुलहा की सेटिंग अपने चाचा या दादा से पहले ही सेट रहती थी और उसी अनुसार आधा घंटा या पौन घंटा रिसियाने का क्रम चलता और उसी से दूल्हे के छोटे भाई सहबाला की भी भौकाल टाइट रहती लगे हाथ वो भी कुछ न कुछ और लहा लेता...फिर एक जय घोष के साथ रसगुल्ले का कण दूल्हे के होठों तक पहुंच जाता और एक विजयी मुस्कान के साथ वर और वधू पक्ष इसका आनंद लेते।
उसके बाद दूल्हे का साक्षात्कार वधू पक्ष की महिलाओं से करवाया जाता और उस दौरान उसे विभिन्न उपहार प्राप्त होते जो नगद और श्रृंगार की वस्तुओं के रूप में होते.. इस प्रकिया में कुछ अनुभवी महिलाओं द्वारा काजल और पाउडर लगे दूल्हे का कौशल परिक्षण भी किया जाता और उसकी समीक्षा परिचर्चा विवाह बाद आहूत होती थी और लड़कियां दूल्हा के जूता चुराती और 21 से 51 में मान जाती। इसे दूल्हा दिखाई कहा जाता था.
फिर गिने चुने बुजुर्गों द्वारा माड़ौ (विवाह के कर्मकांड हेतु निर्मित अस्थायी छप्पर) हिलाने की प्रक्रिया होती वहां हम लोगों के बचपने का सबसे महत्वपूर्ण आनंद उसमें लगे लकड़ी के शुग्गों ( तोता) को उखाड़ कर प्राप्त होता था और विदाई के समय नगद नारायण कड़ी कड़ी 10/20 रूपये की नोट जो कहीं 50 रूपये तक होती थी।
वो स्वार्गिक अनुभूति होती कि कह नहीं सकते हालांकि विवाह में प्राप्त नगद नारायण माता जी द्वारा 2/5 रूपये से बदल दिया जाता था।
आज की पीढ़ी उस वास्तविक आनंद से वंचित हो चुकी है जो आनंद विवाह का हम लोगों ने प्राप्त किया है.
लोग बदलते जा रहे हैं, परंपरा भी बदलते चली जा रही है, आगे चलकर यह सब देखन को मिलेगा की नही अब इ त विधाता जाने लेकिन जो मजा उस समय मे था, वह अब धीरे धीरे बिलुप्त हो रहा है।

साभार

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23/01/2024

अविश्वसनीय, अद्भुत, अतुलनीय, अप्रतिम, नयनाभिराम, उत्कृष्ट, सुंदर, अति उत्तम , विलक्षण, सुललित, सर्वोत्कृष्ट, अलौकिक, अक्षुण्ण, मधुर,कोमल,अकल्पनीय , मनमोहक ❤️

जय श्री राम

15 लाख तो हमारे कब के वसूल हो गए.. अब तो हम  कर्जे में आ गए मोदी जी 😀🙏
23/01/2024

15 लाख तो हमारे कब के वसूल हो गए.. अब तो हम कर्जे में आ गए मोदी जी 😀🙏

मेरे अकाउंट पर 2.5 हज़ार फ़ॉलोअर हो गए हैं! अपना सपोर्ट देने के लिए आपका धन्यवाद. आप सभी के सपोर्ट के बिना मेरे लिए यह क...
25/11/2023

मेरे अकाउंट पर 2.5 हज़ार फ़ॉलोअर हो गए हैं! अपना सपोर्ट देने के लिए आपका धन्यवाद. आप सभी के सपोर्ट के बिना मेरे लिए यह कर पाना संभव नहीं था. 🙏🤗🎉

पिछले 30 दिनों में मुझे अपनी पोस्ट पर 10,000 रिएक्शन रिएक्शन मिले हैं. आपके सपोर्ट के लिए, आप सभी का धन्यवाद. 🙏🤗🎉
04/09/2023

पिछले 30 दिनों में मुझे अपनी पोस्ट पर 10,000 रिएक्शन रिएक्शन मिले हैं. आपके सपोर्ट के लिए, आप सभी का धन्यवाद. 🙏🤗🎉

🙏🌹जय श्री कृष्णा🌹🙏 पोस्ट क्रमांक: 108 #श्रीमद्_भागवत_गीता_यथारूपकर्मयोग      अध्याय 3 : श्लोक-1अर्जुन उवाचज्यायसी चेत्कर...
25/08/2023

🙏🌹जय श्री कृष्णा🌹🙏 पोस्ट क्रमांक: 108

#श्रीमद्_भागवत_गीता_यथारूप

कर्मयोग
अध्याय 3 : श्लोक-1

अर्जुन उवाच

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥[1]

भावार्थ
अर्जुन ने कहा– हे जनार्दन, हे केशव! यदि आप बुद्धि को सकाम कर्म से श्रेष्ठ समझते हैं, तो फिर आप मुझे इस घोर युद्ध में क्यों लगाना चाहते हैं?

तात्पर्य
श्रीभगवान् कृष्ण ने पिछले अध्याय में अपने घनिष्ट मित्र अर्जुन को संसार के शोक-सागर से उबारने के उद्देश्य से आत्मा के स्वरूप का विशद् वर्णन किया है और आत्म-साक्षात्कार के जिस मार्ग की संस्तुति की है वह है– बुद्धियोग या कृष्णभावनामृत। कभी-कभी कृष्णभावनामृत को भूल से जड़ता समझ लिया जाता है और ऐसी भ्रान्त धारणा वाला मनुष्य भगवान् कृष्ण के नाम-जप द्वारा पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होने के लिए प्रायः एकान्त स्थान में चला जाता है। किन्तु कृष्णभावनामृत-दर्शन में प्रशिक्षित हुए बिना एकान्त स्थान में कृष्ण नाम-जप करना ठीक नहीं। इससे अबोध जनता से केवल सस्ती प्रशंसा प्राप्त हो सकेगी। अर्जुन को भी कृष्णभावनामृत या बुद्धियोग ऐसा लगा मानो वह सक्रिय जीवन से संन्यास लेकर एकान्त स्थान में तपस्या का अभ्यास हो। दूसरे शब्दों में, वह कृष्णभावनामृत को बहाना बनाकर चातुरीपूर्वक युद्ध से जी छुड़ाना चाहता था। किन्तु एकनिष्ठ शिष्य के नाते उसने यह बात अपने गुरु के समक्ष रखी और कृष्ण से सर्वोत्तम कार्य-विधि के विषय में प्रश्न किया। उत्तर में भगवान् ने तृतीय अध्याय में कर्मयोग अर्थात् कृष्णभावनाभावित कर्म की विस्तृत व्याख्या दी।

शेष अगले अंक मे

श्रील ए.सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा भाषांतरित श्रीमद भगवत गीता यथारूप

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🌹🙏जय श्री कृष्णा🙏🌹 पोस्ट क्रमांक:100 #ब्रह्म_वैवर्त_पुराण_प्रकृतिखण्ड: अध्याय 6स्त्री के वश में रहने वाला व्यक्ति दिन मे...
24/08/2023

🌹🙏जय श्री कृष्णा🙏🌹 पोस्ट क्रमांक:100

#ब्रह्म_वैवर्त_पुराण_प्रकृतिखण्ड: अध्याय 6

स्त्री के वश में रहने वाला व्यक्ति दिन में जो कुछ कर्म करता है, उसके फल का वह भागी नहीं हो पाता। इस लोक और परलोक में– सब जगह उसकी निन्दा होती है। जो यश और कीर्ति से रहित है, उसे जीते हुए भी मुर्दा समझना चाहिये। एक भार्या वाले को ही चैन नहीं; फिर जिसके अनेक स्त्रियाँ हों, उसके लिये तो सुख की कल्पना ही असम्भव है। अतएव गंगे! तुम शिव के पास जाओ और सरस्वती! तुम्हें ब्रह्मा के स्थान पर चले जाना चाहिये। यहाँ मेरे भवन पर केवल सुशीला लक्ष्मी जी रह जायें; क्योंकि परम साध्वी, उत्तम आचरण करने वाली एवं पतिव्रता स्त्री का स्वामी इस लोक में स्वर्ग का सुख भोगता है और परलोक में उसके लिये कैवल्यपद सुरक्षित है। जिसकी पत्नी पतिव्रता है, वह परम पवित्र, सुखी और मुक्त समझा जाता है।

भगवान नारायण कहते हैं– नारद! इस प्रकार कहकर भगवान श्रीहरि चुप हो गये। तब गंगा और लक्ष्मी तथा सरस्वती– तीनों देवियाँ परस्पर एक-दूसरे का आलिंगन करके रोने लगीं। शोक और भय ने उनके शरीर को कँपा दिया था। उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे। उन सबको एकमात्र भगवान ही शरण्य दृष्टिगोचर हुए। अतः वे क्रमशः उनसे प्रार्थना करने लगीं।

सरस्वती ने कहा– नाथ! मुझ दुष्टा को पाप, ताप और शाप से बचाने के लिये कोई प्रायश्चित्त बता दीजिये; जिससे मेरा जन्म और जीवन शुद्ध हो जाये। भला, आप-जैसे महान सच्चरित्र स्वामी के परित्याग कर देने पर कहाँ कौन स्त्रियाँ जीवित रह सकती है? प्रभो! मैं भारतवर्ष में योगसाधन करके इस शरीर का त्याग कर दूँगी– यह निश्चित है।

गंगा बोली– जगत्प्रभो! आप किस अपराध से मुझे त्याग रहे हैं? मैं जीवित नहीं रह सकूँगी।

लक्ष्मी ने कहा– नाथ! आप सत्त्व-स्वरूप हैं। बड़े आश्चर्य की बात है, आपको कैसे क्षोभ हो गया। आप अपनी इन पत्नियों पर कृपा कीजिये। कारण, श्रेष्ठ स्वामी के लिये क्षमा ही उत्तम है। मैं सरस्वती का शाप स्वीकार करके अपनी एक कला से भारतवर्ष में जाऊँगी। परंतु प्रभो! मुझे कितने समय तक वहाँ रहना होगा और मैं पुनः कब आपके चरणों के दर्शन प्राप्त कर सकूँगी।

शेष अगले अंक में

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🙏🌹जय श्री कृष्णा🌹🙏 पोस्ट क्रमांक: 107 #श्रीमद्_भागवत_गीता_यथारूपगीता का सारअध्याय-2 : श्लोक-72एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ...
24/08/2023

🙏🌹जय श्री कृष्णा🌹🙏 पोस्ट क्रमांक: 107

#श्रीमद्_भागवत_गीता_यथारूप

गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-72

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥[1]

भावार्थ
यह आध्यात्मिक तथा ईश्वरीय जीवन का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य मोहित नहीं होता। यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस तरह स्थित हो, तो वह भगवद्धाम को प्राप्त होता है।

तात्पर्य
मनुष्य कृष्णभावनामृत या दिव्य जीवन को एक क्षण में प्राप्त कर सकता है और हो सकता है कि उसे लाखों जन्मों के बाद भी न प्राप्त हो। यह तो सत्य समझने और स्वीकार करने की बात है। खट्वांग महाराज ने अपनी मृत्यु के कुछ मिनट पूर्व कृष्ण के शरणागत होकर ऐसी जीवन अवस्था प्राप्त कर ली। निर्वाण का अर्थ है– भौतिकतावादी जीवन शैली का अन्त। बौद्ध दर्शन के अनुसार इस भौतिक जीवन के पूरा होने पर केवल शून्य शेष रह जाता है, किन्तु भगवद्गीता की शिक्षा इससे भिन्न है। वास्तविक जीवन का शुभारम्भ इस भौतिक जीवन के पूरा होने पर होता है। स्थूल भौतिकतावादी के लिए यह जानना पर्याप्त होगा कि इस भौतिक जीवन का अन्त निश्चित है, किन्तु अध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत व्यक्तियों के लिए इस जीवन के बाद अन्य जीवन प्रारम्भ होता है। इस जीवन का अन्त होने से पूर्व यदि कोई कृष्णभावनाभावित हो जाय तो उसे तुरन्त ब्रह्म-निर्वाण अवस्था प्राप्त हो जाति है। भगवद्धाम तथा भगवद्भक्ति के बीच कोई अन्तर नहीं है। चूँकि दोनों चरम पद हैं, अतः भगवान् की दिव्य प्रेमीभक्ति में व्यस्त रहने का अर्थ है– भगवद्धाम को प्राप्त करना। भौतिक जगत में इन्द्रियतृप्ति विषयक कार्य होते हैं और आध्यात्मिक जगत् में कृष्णभावनामृत विषयक। इसी जीवन में ही कृष्णभावनामृत की प्राप्ति तत्काल ब्रह्मप्राप्ति जैसी है और जो कृष्णभावनामृत में स्थित होता है, वह निश्चित रूप से पहले ही भगवद्धाम में प्रवेश कर चुका होता है।

ब्रह्म और भौतिक पदार्थ एक दूसरे से सर्वथा विपरीत हैं। अतः ब्राह्मी-स्थिति का अर्थ है, “भौतिक कार्यों के पद पर न होना।” भगवद्गीता में भगवद्भक्ति को मुक्त अवस्था माना गया है।[2] अतः ब्राह्मी-स्थिति भौतिक बन्धन से मुक्ति है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के इस द्वितीय अध्याय को सम्पूर्ण ग्रंथ के प्रतिपाद्य विषय के रूप में संक्षिप्त किया है। भगवद्गीता के प्रतिपाद्य हैं– कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग। इस द्वितीय अध्याय में कर्मयोग तथा ज्ञानयोग की स्पष्ट व्याख्या हुई है एवं भक्तियोग की भी झाँकी दे दी गई है।

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय “गीता का सार” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।

शेष अगले अंक मे

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23/08/2023

🌹🙏जय श्री कृष्णा 🙏🌹पोस्ट क्रमांक: 106

#श्रीमद्_भागवत_गीता_यथारूप

गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-71

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति॥[1]

भावार्थ
जिस व्यक्ति ने इन्द्रियतृप्ति की समस्त इच्छाओं का परित्याग कर दिया है, जो इच्छाओं से रहित रहता है और जिसने सारी ममता त्याग दी है तथा अहंकार से रहित है, वही वास्तविक शान्ति प्राप्त कर सकता है।

तात्पर्य
निस्पृह होने का अर्थ है– इन्द्रियतृप्ति के लिए कुछ भी इच्छा न करना। दूसरे शब्दों में, कृष्णभावनाभावित होने की इच्छा वास्तव में इच्छाशून्यता या निस्पृहता है। इस शरीर को मिथ्या ही आत्मा माने बिना तथा संसार की किसी वस्तु में कल्पित स्वामित्व रखे बिना श्रीकृष्ण के नित्य दास के रूप में अपनी यथार्थ स्थिति को जान लेना कृष्णभावनामृत की सिद्ध अवस्था है। जो इस सिद्ध अवस्था में स्थित में स्थित है, वह जानता है कि श्रीकृष्ण ही प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं, अतः प्रत्येक वस्तु का उपयोग उनकी तुष्टि के लिए किया जाना चाहिए। अर्जुन आत्म-तुष्टि के लिए युद्ध नहीं करना चाहता था, किन्तु जब वह पूर्ण रूप से कृष्णभावनाभावित हो गया तो उसने युद्ध किया, क्योंकि कृष्ण चाहते थे कि वह युद्ध करे। उसे अपने लिए युद्ध करने की कोई इच्छा न थी, किन्तु वही अर्जुन कृष्ण के लिए अपनी शक्ति भर लड़ा। वास्तविक इच्छाशून्यता कृष्ण-तुष्टि के लिए इच्छा है, यह इच्छाओं को नष्ट करने का कोई कृत्रिम प्रयास नहीं है। जीव कभी भी इच्छाशून्य या इन्द्रियशून्य नहीं हो सकता, किन्तु उसे अपनी इच्छाओं की गुणवत्ता बदलनी होती है। भौतिक दृष्टि से इच्छाशून्य व्यक्ति जानता है कि प्रत्येक वास्तु कृष्ण की है [2], अतः वह किसी वस्तु पर अपना स्वामित्व घोषित नहीं करता। यह दिव्य ज्ञान आत्म-साक्षात्कार पर आधारित है– अर्थात् इस ज्ञान पर कि प्रत्येक जीव कृष्ण का अंश-स्वरूप है और जीव की शाश्वत स्थिति कभी न तो कृष्ण के तुल्य होती है न उनसे बढ़कर। इस प्रकार कृष्णभावनामृत का यह ज्ञान ही वास्तविक शान्ति का मूल सिद्धान्त है।

शेष अगले अंक मे

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🙏🌹जय श्री कृष्णा🌹🙏 पोस्ट क्रमांक:99 #ब्रह्म_वैवर्त_पुराण_प्रकृतिखण्ड: अध्याय 6इसके बाद सरस्वती ने कहा– ‘भारती! तुम गंगा ...
23/08/2023

🙏🌹जय श्री कृष्णा🌹🙏 पोस्ट क्रमांक:99

#ब्रह्म_वैवर्त_पुराण_प्रकृतिखण्ड: अध्याय 6

इसके बाद सरस्वती ने कहा– ‘भारती! तुम गंगा का शाप स्वीकार करके अपनी एक कला से भारतवर्ष में चलो। तुम अपने पूर्ण अंश से ब्रह्मसदन पर पधारकर उनकी कामिनी बन जाओ; ये गंगा अपने पूर्ण अंश से शिव के स्थान पर चलें।’ यहाँ अपने पूर्ण अंश से केवल लक्ष्मी रह जाये। कारण, इनका स्वभाव परम शान्त है। ये कभी तनिक-सा क्रोध नहीं करतीं। मुझ पर इनकी अटूट श्रद्धा है। ये सत्त्वस्वरूपा हैं। ये महान साध्वी, अत्यन्त सौभाग्यवती, क्षमामूर्ति, सुन्दर आचरणों से सुशोभित तथा निरन्तर धर्म का पालन करती हैं। इनके एक अंश की कला का महत्त्व है कि विश्वभर में सम्पूर्ण स्त्रियाँ धर्मात्मा, पतिव्रता, शान्तरूपा तथा सुशीला बनकर प्रतिष्ठा प्राप्त करती हैं।

अब भगवान श्रीहरि स्वयं अपना विचार कहने लगे– अहो! विभिन्न स्वभाववाली तीन स्त्रियों, तीन नौकरों और तीन बान्धवों का एकत्र रहना वेद की अनुमति के विरुद्ध है। ये एक जगह रहकर कल्याणप्रद नहीं हो सकते। जिन गृहस्थों के घर स्त्री पुरुष के समान व्यवहार करे और पुरुष स्त्री के अधीन रहे, उसका जीवन निष्फल समझा जाता है। उसके प्रत्येक पग पर अशुभ है। जिसकी स्त्री मुखदुष्टा, योनिदुष्टा और कलहप्रिया हो, उसके लिये तो जंगल ही घर से बढ़कर सुखदायी है। कारण, वहाँ उसे जल, स्थल और फल तो मिल ही जाते हैं। ये फल-जल आदि जंगल में निरन्तर सुलभ रहते हैं, घर पर नहीं मिल सकते।

अग्नि के पास रहना ठीक है; अथवा हिंसक जन्तुओं के निकट रहने पर भी सुख मिल सकता है; किंतु दुष्टा स्त्री के निकट रहने वाले पुरुष को अवश्य ही महान क्लेश भोगना पड़ता है। वरानने! पुरुषों के लिये व्याधिज्वाला अथवा विषज्वाला को ठीक बताया जा सकता है; किंतु दुष्टा स्त्रियों के मुख की ज्वाला मृत्यु से भी अधिक कष्टप्रद होती है। स्त्री के वश में रहने वाले पुरुषों की शुद्धि शरीर के भस्म हो जाने पर भी हो जाये– यह निश्चित नहीं है।

शेष अगले अंक में

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🙏🌹जय श्री कृष्णा🌹🙏 पोस्ट क्रमांक:105 #श्रीमद्_भागवत_गीता_यथारूपगीता का सार            अध्याय-2 : श्लोक-70आपूर्यमाणमचलप्र...
22/08/2023

🙏🌹जय श्री कृष्णा🌹🙏 पोस्ट क्रमांक:105

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गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-70

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥[1]

भावार्थ
जो पुरुष समुद्र में निरन्तर प्रवेश करती रहने वाली नदियों के समान इच्छाओं के निरन्तर प्रवाह से विचलित नहीं होता और जो सदैव स्थिर रहता है, वही शान्ति प्राप्त कर सकता है, वह नहीं, जो ऐसी इच्छाओं को तुष्ट करने की चेष्ठा करता हो।

तात्पर्य
यद्यपि विशाल सागर में सदैव जल रहता है, किन्तु, वर्षाऋतु में विशेषतया यह अधिकाधिक जल से भरता जाता है तो भी सागर उतने पर ही स्थिर रहता है। न तो वह विक्षुब्ध होता है और न तट की सीमा का उल्लंघन करता है। यही स्थिति कृष्णभावनाभावित व्यक्ति की है। जब तक मनुष्य शरीर है, तब तक इन्द्रियतृप्ति के लिए शरीर की माँगे बनी रहेंगी। किन्तु भक्त अपनी पूर्णता के कारण ऐसी इच्छाओं से विचलित नहीं होता। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि भगवान् उसकी सारी आवश्यकताएँ पूरी करते रहते हैं। अतः वह सागर के तुल्य होता है– अपने में सदैव पूर्ण। सागर में गिरने वाली नदियों के समान इच्छाएँ उसके पास आ सकती हैं, किन्तु वह अपने कार्य में स्थिर रहता है और इन्द्रियतृप्ति की इच्छा से रंचभर भी विचलित नहीं होता। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति का यही प्रमाण है– इच्छाओं के होते हुए भी वह कभी इन्द्रियतृप्ति के लिए उन्मुख नहीं होता। चूँकि वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में तुष्ट रहता है, अतः वह समुद्र की भाँति स्थिर रहकर पूर्ण शान्ति का आनन्द उठा सकता है। किन्तु दूसरे लोग, जो मुक्ति की सीमा तक इच्छाओं की पूर्ति करना चाहते हैं, फिर भौतिक सफलताओं का क्या कहना– उन्हें कभी शान्ति नहीं मिल पाती। कर्मी, मुमुक्षु तथा वे योगी– सिद्धि के कामी हैं, ये सभी अपूर्ण इच्छाओं के कारण दुखी रहते हैं। किन्तु कृष्णभावनाभावित पुरुष भगवत्सेवा में सुखी रहता है और उसकी कोई इच्छा नहीं होती। वस्तुतः वह तो तथाकथित भवबन्धन से मोक्ष की भी कामना नहीं करता। कृष्ण के भक्तों की कोई भौतिक इच्छा नहीं रहती, इसलिए वह पूर्ण शान्त रहते हैं।

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🌹🙏जय श्री कृष्णा🙏🌹 पोस्ट क्रमांक: 104 #श्रीमद्_भागवत_गीता_यथारूपगीता का सारअध्याय-2 : श्लोक-69या निशा सर्वभूतानां तस्यां...
21/08/2023

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गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-69

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जा ग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥[1]

भावार्थ
जो सब जीवों के लिए रात्रि है, वह आत्मसंयमी के जागने का समय है और जो समस्त जीवों के जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षक मुनि के लिए रात्रि है।

तात्पर्य
बुद्धिमान् मनुष्यों की दो श्रेणियाँ है। एक श्रेणी के मनुष्य इन्द्रियतृप्ति के लिए भौतिक कार्य करने में निपुण होते हैं और दूसरी श्रेणी के मनुष्य आत्मनिरीक्षक हैं, जो आत्म-साक्षात्कार के अनुशीलन के लिए जागते हैं। विचारवान पुरुषों या आत्मनिरीक्षक मुनि के कार्य भौतिकता में लीन पुरुषों के लिए रात्रि के समान हैं। भौतिकतावादी व्यक्ति ऐसी रात्रि में अनभिज्ञता के कारण आत्म-साक्षात्कार के प्रति सोये रहते हैं। आत्मनिरीक्षक मुनि भौतिकतावादी पुरुषों की रात्रि में जागे रहते हैं। मुनि को अध्यात्मिक अनुशीलन की क्रमिक उन्नति में दिव्य आनन्द का अनुभव होता है, किन्तु भौतिकतावादी कार्यों में लगा व्यक्ति, आत्म-साक्षात्कार के प्रति सोया रहकर अनेक प्रकार के इन्द्रियसुखों का स्वप्न देखता है और उसी सुप्तावस्था में कभी सुख तो कभी दुख का अनुभव करता है। आत्मनिरीक्षक मनुष्य भौतिक सुख तथा दुख के प्रति अन्यमनस्क रहता है। वह भौतिक घातों से अविचलित रहकर आत्म-साक्षात्कार के कार्यों में लगा रहता है।

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🌹🙏जय श्री कृष्णा🙏🌹 पोस्ट क्रमांक:97 #ब्रह्म_वैवर्त_पुराण_प्रकृतिखण्ड: अध्याय 6विष्णुपत्नी लक्ष्मी, सरस्वती एवं गंगा का प...
21/08/2023

🌹🙏जय श्री कृष्णा🙏🌹 पोस्ट क्रमांक:97

#ब्रह्म_वैवर्त_पुराण_प्रकृतिखण्ड: अध्याय 6

विष्णुपत्नी लक्ष्मी, सरस्वती एवं गंगा का परस्पर शापवश भारतवर्ष में पधारना

भगवान नारायण कहते हैं– नारद! वे भगवती सरस्वती स्वयं वैकुण्ठ में भगवान श्रीहरि के पास रहती हैं। पारस्परिक कलह के कारण गंगा ने इन्हें शाप दे दिया था। अतः ये भारतवर्ष में अपनी एक कला से पधारकर नदी रूप में प्रकट हुईं। मुने! सरस्वती नदी पुण्य प्रदान करने वाली, पुण्यरूपा और पुण्यतीर्थ-स्वरूपिणी हैं। पुण्यात्मा पुरुषों को चाहिये कि वे इनका सेवन करें। इनके तट पर पुण्यवानों की ही स्थिति है। ये तपस्वियों के लिये तोपरूपा हैं और तपस्या का फल भी इनसे कोई अलग वस्तु नहीं है। किये हुए सब पाप लकड़ी के समान हैं। उन्हें जलाने के लिये ये प्रज्वलित अग्निस्वरूपा हैं। भूमण्डल पर रहने वाले जो मानव इनकी महिमा जानते हुए इनके तट पर अपना शरीर त्यागते हैं, उन्हें वैकुण्ठ में स्थान प्राप्त होता है। भगवान विष्णु के भवन पर वे बहुत दिनों तक वास करते हैं।

तदनन्तर सरस्वती नदी में स्नान की और भी महिमा कहकर नारायण ने कहा कि इस प्रकार सरस्वती की महिमा का कुछ वर्णन किया गया है। अब पुनः क्या सुनना चाहते हो।
सौति कहते हैं– शौनक! भगवान नारायण की बात सुनकर मुनिवर नारद ने पुनः तत्काल ही उनसे यह पूछा।

नारदजी ने कहा– सत्त्वस्वरूपा तथा सदा पुण्यदायिनी गंगा ने सर्वपूज्या सरस्वती देवी को शाप क्यों दे दिया? इन दोनों तेजस्विनी देवियों के विवाद का कारण अवश्य ही कानों को सुख देने वाला होगा। आप इसे बताने की कृपा कीजिये।

भगवान नारायण बोले– नारद! यह प्राचीन कथा मैं तुमसे कहता हूँ, सुनो। लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा– ये तीनों ही भगवान श्रीहरि की भार्या हैं। एक बार सरस्वती को यह संदेह हो गया कि श्रीहरि मेरी अपेक्षा गंगा से अधिक प्रेम करते हैं। तब उन्होंने श्रीहरि को कुछ कड़े शब्द कह दिये। फिर वे गंगा पर क्रोध करके कठोर बर्ताव करने लगीं। तब शान्तस्वरूपा, क्षमामयी लक्ष्मी ने उनको रोक दिया। इस पर सरस्वती ने लक्ष्मी को गंगा का पक्ष करने वाली मानकर आवेश में शाप दे दिया कि ‘तुम निश्चय ही वृक्षरूपा और नदीरूपा हो जाओगी।’

शेष अगले अंक में

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🙏🌹जय श्री कृष्णा🌹🙏 पोस्ट क्रमांक: 96 #ब्रह्म_वैवर्त_पुराण_प्रकृतिखण्ड: अध्याय 5 भगवान श्रीकृष्ण के अंश व्यास जी वाल्मीकि...
20/08/2023

🙏🌹जय श्री कृष्णा🌹🙏 पोस्ट क्रमांक: 96

#ब्रह्म_वैवर्त_पुराण_प्रकृतिखण्ड: अध्याय 5

भगवान श्रीकृष्ण के अंश व्यास जी वाल्मीकि मुनि के मुख से पुराण सूत्र सुनकर उसका अर्थ कविता के रूप में स्पष्ट करने के लिये तुम्हारी ही उपासना और ध्यान करने लगे। उन्होंने पुष्कर क्षेत्र में रहकर सौ वर्षों तक उपासना की। माता! तब तुमसे वर पाकर व्यास जी कवीश्वर बन गये। उस समय उन्होंने वेदों का विभाजन तथा पुराणों की रचना की।

जब देवराज इन्द्र ने भगवान शंकर से तत्त्वज्ञान के विषय में प्रश्न किया, तब क्षण भर भगवती का ध्यान करके वे उन्हें ज्ञानोपदेश करने लगे। फिर इन्द्र ने बृहस्पति से शब्द शास्त्र के विषय में पूछा। जगदम्बे! उस समय बृहस्पति पुष्कर क्षेत्र में जाकर देवताओं के वर्ष से एक हजार वर्ष तक तुम्हारे ध्यान में संलग्न रहे। इतने वर्षों के बाद तुमने उन्हें वर प्रदान किया। तब वे इन्द्र को शब्द शास्त्र और उसका अर्थ समझा सके। बृहस्पति ने जितने शिष्यों को पढ़ाया और जितने सुप्रसिद्ध मुनि उनसे अध्ययन कर चुके हैं, वे सब-के-सब भगवती सुरेश्वरी का चिन्तन करने के पश्चात् ही सफलीभूत हुए हैं।

माता! वह देवी तुम्हीं हो। मुनीश्वर, मनु और मानव– सभी तुम्हारी पूजा और स्तुति कर चुके हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, देवता और दानवेश्वर प्रभृति– सब ने तुम्हारी उपासना की है। जब हजार मुख वाले ब्रह्मा तुम्हारा यशोगान करने में जडवत हो गये, तब एक मुख वाला मैं मानव तुम्हारी स्तुति कर ही कैसे सकता हूँ। नारद! इस प्रकार स्तुति करके मुनिवर याज्ञवल्क्य भगवती सरस्वती को प्रणाम करने लगे। उस समय भक्ति के कारण उनका कंधा झुक गया था। उनकी आँखों से जल की धाराएँ निरन्तर गिर रही थीं। इतने में ज्योतिःस्वरूपा महामाया का उन्हें दर्शन प्राप्त हुआ।

देवी ने उनसे कहा– ‘मुने! तुम सुप्रख्यात कवि हो जाओ।’ यों कहकर भगवती माया वैकुण्ठ पधार गयीं। जो पुरुष याज्ञवल्क्य रचित इस सरस्वती स्तोत्र को पढ़ता है, उसे कवीन्द्रपद की प्राप्ति हो जाती है। भाषण करने में वह बृहस्पति की तुलना कर सकता है। कोई महान मूर्ख अथवा दुर्बुद्धि ही क्यों न हो, यदि वह एक वर्ष तक नियमपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करता है तो वह निश्चय ही पण्डित परम बुद्धिमान एवं सुकवि हो जाता है।[1]

शेष अगले अंक में

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🌹🙏जय श्री कृष्णा🙏🌹 पोस्ट क्रमांक: 103 #श्रीमद_भगवत_गीता_यथारूपगीता का सार             अध्याय-2 : श्लोक-67-68इन्द्रियाणां...
20/08/2023

🌹🙏जय श्री कृष्णा🙏🌹 पोस्ट क्रमांक: 103

#श्रीमद_भगवत_गीता_यथारूप

गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-67-68

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥[1]

भावार्थ
जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को प्रचण्ड वायु दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार विचरणशील इन्द्रियों में से कोई एक जिस पर मन निरन्तर लगा रहता है, मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है।

तात्पर्य
यदि समस्त इन्द्रियाँ भगवान् की सेवा में न लगी रहें और यदि इनमें से एक भी अपनी तृप्ति में लगी रहती है, तो वह भक्त को दिव्य प्रगति-पथ से विपथ कर सकती है। जैसा कि महाराज अम्बरीष के जीवन में बताया गया है, समस्त इन्द्रियों को कृष्णभावनामृत में लगा रहना चाहिए क्योंकि मन को वश में करने की यही सही एवं सरल विधि है।

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश: ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥[2]

भावार्थ
अत: हे महाबाहु! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ अपने- अपने विषयों से सब प्रकार से विरत होकर उसके वश में है, उसी की बुद्धि निस्सन्देह स्थिर है।

तात्पर्य
कृष्णभावानामृत के द्वारा या सारी इन्द्रियों को भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगाकर इन्द्रियतृप्ति बलवती शक्तियों को दमित किया जाता है। जिस प्रकार शत्रुओं का दमन श्रेष्ठ सेना द्वारा किया जाता जाता है उसी प्रकार इंद्रियों का दमन किसी मानवीय प्रसार के द्वारा नही, अपितु उन्हें भगवान की सेवा में लगाये रख कर किया जा सकता है। जो व्यक्ति यह हृदयंगम कर लेता है कि कृष्णभावनामृत के द्वारा बुद्धि स्थिर होती है और इस कला का आरम्भ प्रामाणिक गुरु के पथ-प्रदर्शन में करता है, वह साधक अथवा मोक्ष अधिकारी कहलाता है।

शेष अगले अंक मे

श्रील ए.सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा भाषांतरित श्रीमद भगवत गीता यथारूप

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🌹🙏जय श्री कृष्णा🙏🌹 पोस्ट क्रमांक:102 #श्रीमद_भगवत_गीता_यथारूपगीता का सार          अध्याय-2 : श्लोक-65प्रसादे सर्वदुःखाना...
19/08/2023

🌹🙏जय श्री कृष्णा🙏🌹 पोस्ट क्रमांक:102

#श्रीमद_भगवत_गीता_यथारूप

गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-65

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याश्रु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥[1]

भावार्थ
इस प्रकार कृष्णभावनामृत में तुष्ट व्यक्ति के लिए संसार के तीनों ताप नष्ट हो जाते हैं और ऐसी तुष्ट चेतना होने पर उसकी बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।

अध्याय-2 : श्लोक-66
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥[2]

भावार्थ
जो कृष्णभावनामृत में परमेश्वर से सम्बन्धित नहीं है उसकी न तो बुद्धि दिव्य होती है और न ही मन स्थिर होता है, जिसके बिना शान्ति की कोई सम्भावना नहीं है। शान्ति के बिना सुख हो भी कैसे सकता है?

तात्पर्य
कृष्णभावनाभावित हुए बिना शान्ति की कोई सम्भावना नहीं हो सकती। अतः पाँचवे अध्याय में [3] इसकी पुष्टि ही गई है कि जब मनुष्य यह समझ लेता है कि कृष्ण ही यज्ञ तथा तपस्या के उत्तम फलों के एकमात्र भोक्ता हैं और समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं तथा वे समस्त जीवों के असली मित्र हैं, तभी उसे वास्तविक शान्ति मिल सकती है। अतः यदि कोई कृष्णभावनाभावित नहीं है तो उसके मन का कोई अन्तिम लक्ष्य नहीं हो सकता। मन की चंचलता का एकमात्र कारण अन्तिम लक्ष्य का अभाव है। जब मनुष्य को यह पता चल जाता है कि कृष्ण ही भोक्ता, स्वामी तथा सबके मित्र है, तो स्थिर चित्त होकर शान्ति का अनुभव किया जा सकता है। अतएव जो कृष्ण से सम्बन्ध न रखकर कार्य में लगा रहता है, वह निश्चय ही सदा दुखी और अशान्त रहेगा, भले ही वह जीवन में शान्ति तथा अध्यात्मिक उन्नति का कितना ही दिखावा क्यों न करे। कृष्णभावनामृत स्वयं प्रकट होने वाली शान्तिमयी अवस्था है, जिसकी प्राप्ति कृष्ण के सम्बन्ध से ही हो सकती है।

शेष अगले अंक मे

श्रील ए.सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा भाषांतरित श्रीमद भगवत गीता यथारूप

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