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संपादकीय "बेजुबान": पशु-पक्षियों को केवल पशु-पक्षी लिखने-बोलने से अपना अभिप्राय स्पष्ट नहीं होता?तपती दुपहरी जहां आमजन क...
11/05/2024

संपादकीय

"बेजुबान": पशु-पक्षियों को केवल पशु-पक्षी लिखने-बोलने से अपना अभिप्राय स्पष्ट नहीं होता?

तपती दुपहरी जहां आमजन का हाल बेहाल हैं, वहीं
मानसून के इंतजार के बीच झुलसा देने वाली भीषण गर्मी के कहर से न केवल इंसान बल्कि पशु और पक्षी भी बेदम हो रहे हैं। पशु-पक्षी पानी की तलाश में इधर-उधर भटकते रहते हैं। गर्मी ने पशु-पक्षियों को चपेट में लेना शुरू कर दिया है। तेजी से कम होते प्राकृतिक जल स्रोत और पेड़ों की कमी से इनके जीवन की स्थिति विकट हो गई है। पानी की तलाश में इन पक्षियों को भटकना पड़ रहा है।

पानी की पुरानी व्यवस्था बहाल नहीं होने से पशु पक्षियों के सामने संकट खड़ा हो गया। खाना तो दूर पानी के लिए भी तरस गए। एक जमाना था जब देशभर में पानी के प्राकृतिक स्रोत मौजूद थे। मगर आज पानी के प्राकृतिक स्रोत न के बराबर हैं। जो बचे भी हैं, उनका पानी पीने योग्य नहीं है। ऐसे में आप तो अपने घर में साफ पानी की व्यवस्था कर लेते हैं मगर जानवरों और पक्षियों को इन्हीं गंदे पानी के स्रोतों से प्यास बुझानी पड़ती है, जिससे इनको फायदा कम होता है बल्कि ये बीमार भी हो जाते हैं। आपको अगर ऐसा लग रहा है कि पक्षी-जानवर तो अपने लिए पानी का इंतजाम कर ही लेते होंगे। असल में ऐसा है नहीं है।

एक समय था जब वे पानी की व्यवस्था कर लेते थे, क्योंकि तब उनके लिए पानी के प्राकृतिक स्रोत जैसे नदी, तालाब आदि थे। जो अब या तो नष्ट हो चुके हैं या सूख गए हैं। गर्मी का असर पशुओं के साथ-साथ पक्षियों पर होता है। सच तो यह है पक्षी गर्मी के झुलसते मौसम में ज्यादा प्रभावित होते हैं। खाना और पानी की खोज में लगातार धूप में उड़ते रहने से वे कमजोर हो जाते हैं। इसके अलावा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई-छंटाई के कारण कहीं रुककर आराम करने के लिए इनके पास कोई आशियाना भी नहीं होता है। हर साल पक्षियों के गिरने या घायल होने के ढेरों मामले सामने आते हैं। इस सबके चलते हर साल गर्मियों के मौसम में पक्षियों और जानवरों की असमय मौत हो जाती है।

किसी की मुस्कुराहट पे हो निसार..........किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार.........इन पंक्तियों को सार्थक करता हैं परिंडा अभियान! क्योंकि गर्मी शुरू होते ही समाज के जागरूक समाज सेवी, संगठन आदि जगह-जगह परिंडों की व्यवस्था करते है। इनका कार्य नेक हैं लेकिन इन्हें "बेजुबान" "मूक" बोलना चिंतनीय शब्द है। अक्सर देखा जा रहा हैं गर्मियों के सीजन में पशु पक्षियों के लिए खाना पानी की व्यवस्था तो की जाती हैं लेकिन इन्हें सार्वजनिक दिखाने के लिए जागरूक समाज सेवी, व्यक्तियों के साथ साथ विभिन्न संगठनों, एनजीओ के व्यक्ति भी इन्हें "बेजुबान" "मूक" बताकर पोस्ट डलवाते हैं, आमजन जागरूक हो उसके लिए समाचार पत्रों में खबरें प्रकाशित करवाते हैं, वे भी उन्हें "बेजुबान" शब्द को बहुत ही मजबूती से हाईलाइट करते हैं, स्क्रिप्ट में तो होता ही हैं लेकिन बड़ी बड़ी हैडिंग में भी "बेजुबान" शब्द देखने को मिलता हैं, सोचिए.....
क्या पशु-पक्षी बेजुबान और मूक होते है? क्या पशु-पक्षियों के मुँह में जुबां नहीं होती? क्या पक्षियों की अपनी बोली और भाषा नहीं होती? क्या पक्षी अपनी अभिव्यक्ति अपनी बोली से प्रकट नहीं करते? क्या पशु-पक्षियों को केवल पशु-पक्षी लिखने-बोलने से अपना अभिप्राय स्पष्ट नहीं होता? क्या "बेजुबान-मूक, बधिर"शब्द पक्षियों के लिए "विशेषण" के रूप में उपयोग गलत नहीं है? क्या आपने कहीं गाय, बन्दर, अन्य पालतू पशु एवं जंगली पशु देखा जिसके मुंह में जुबान नहीं है? पशु-पक्षियों के ज़ुबान और कान होते हैं और उनकी बोली आवाज में मिठास होती है, वो बोलकर अपनी बात कहते भी हैं। और सुनते ही हैं। पक्षियों की कर्ण प्रिय बोली पर तो कवियों ने अपने गीत लिखें हैं साथ ही राजस्थानी लोक गीतों की मिठास में पक्षियों की बोली का अपना ही आनंद है। कई कलाकार तो पशु-पक्षियों की बोली अपने मुंह से निकाल कर प्रशंसा बटोरते हैं, पुरस्कार मिलते हैं। बस कुछ कलम के सिपाहियों और विशेष दानदाताओं को पशु-पक्षियों के मुंह में "जुबान" नहीं दिखती इसलिए "बेजुबान" लिखते हैं। (ये लेखक के निजी विचार हैं)

मनीष टांक
प्रधान संपादक
कलम अस्तित्व समाचार पत्र
राजस्थान

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