07/11/2022
छठ/सुनापन/और पलायन।
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छठी मैया ग ई।उनके
जाने के बाद गाँव की गलियां वीरान हैं।घर का आँगन सुना है।मुनिया काकी कह रही है कि-" एह से बढिया त अईबे ना करतू ए छठी मैया!" भाषा वैज्ञानिकों की बात नहीं जानता मगर संजीदा और भावुक लोगों के लिए मुनिया की बात में समाज का दर्द छलकता है।छठ के बाद पसरा सन्नाटा वैसा ही है जैसे बेटी की बिदाई हुई हो।छठी मैया आई तो सब आए,ग ई तो सब चले ग ए यह कहकर कि--"तो ले सलामी ऐ मेरा गाँव, अगर जिन्दगी सलामत रही तो फिर आएंगे अगले छठ में"।इस वाक्य में जो वेदना है वह शायद "पलायन" का है।आए,खुशी मनाई और रोजी-रोटी के चक्कर में चले ग ए।"कदाचित रोजी-रोटी पलायन पर मजबूर करती है।
"पलायन" बहुत विवादित
शब्द है।मेरी दृष्टि में पलायन का शाब्दिक अर्थ है-"भागना, या भाग जाना"।परन्तु आमतौर पर जब कोई सिर्फ़ अपनी रोजी-रोटी के लिए अपना क्षेत्र,जिला,राज्य या देश छोड़कर कहीं जाता है तो उसे भी पलायन ही कहते हैं।पलायन भाववाचक है।इस शब्द के भाव में जो मार्मिक पीडा और बेबसी है उसे यदि ठीक से अनुभव किया जाए तो कलेजा फट जाएगा।सिर्फ़ घर छोड़कर रोटी कमाना ही पलायन नहीं है।सच तो यह है कि पलायन हमेशा मजबूरी में होता है।वरना घर तो सतयुग में हरिश्चन्द्र,त्रेता में राम,द्वापर में कृष्ण और कलियुग में बुद्ध और महावीर ने भी छोड़ा था।परन्तु वह उनकी मजबूरी नहीं अपितु अपनी आत्मा की आन्तरिक सहमति थी।सारांश यह कि जिस स्थान पर हैं वहां यदि जीवन बोझ लगने लगे,आदमी जब अनचाहे परिस्थितियों में जीने को मजबूर हो जाए,जिन्दगी कराहने लगे तो उसे मुस्कुराहट(रोजी-रोटी)देने के लिए विकल्प के तौर पर स्थान-परिवर्तन करना ही पलायन है।शौक,देशाटन या मानवता के कल्याणार्थ घुमने के क्रम में स्थान-परिवर्तन करना पलायन नहीं बल्कि मानव-कल्याणार्थ जीवन की योजना है।
पलायन के वैसे तो क ई कारण हैं परन्तु मेरी दृष्टि में सरकारों द्वारा कल्याणकारी योजनाओं का धरातल पर क्रियान्वयन में घोर विफलता सबसे प्रमुख है।अभी तक की सारी सरकारें सिर्फ़ सत्ता पर काबिज रहने के लिए social engineering में व्यस्त रहीं जिसके कारण जातिवाद बढा,अपराध बढा और सामाजिक ताना-बाना टुट गया।इन सामाजिक बदलावों और सरकारी उदासीनता के कारण न ए रोजगार सृजित नहीं हुए,पूंजी-निवेश नहीं हुआ,मिलें बंद हैं,रिश्वतखोरी और अफसर-शाही हावी है,नौकरी नहीं है,मजदूरों का अभाव है,कारखाने बंद हैं,जन-प्रतिनिधियों की सामाजिक उदासीनता और योजनाओं में भयंकर लूट,पूंजी का अभाव,मुद्रा-लोन की विफलता आदि अनेक कारणों से किसी भी सामान्य आदमी के लिए रोजी-रोटी की व्यवस्था करना रेगिस्तान में पानी निकालने जैसा है।ऐसी परिस्थिति में पलायन मजबूरी हो जाती है।पलायन आम आदमी की मानसिकता बनते जा रही है।
मैं स्पष्ट आकड़े तो नहीं जानता न आकडो पर विश्वास है।क्योंकि जिन्दगी आकडो का खेल नहीं बल्कि आँखो की चमक और होठों की मुस्कान है।परन्तु पलायन करने वालों के चेहरे की झुर्रिया और उनके जीवन के संघर्ष की जीवंत तस्वीरें सरकारों पर पैशाचिक अट्टहास करते हुए उसके विफलता की पोल तो खोल ही रही है।
ऐसे में उन सभी भाई
-बन्धुवों से निवेदन है कि अगर आप सिर्फ़ रोजी-रोटी के लिए ही पलायन किए हैं तो वह तो यहां भी है।आइए! और अपने सरकार पर अपने रोजगार के लिए दबाव बनाइए वरना आपकी पलायनवादिता वंशानुगत हो जाएगी।इसलिए अभी भी वक्त है।लौट आओ अपने गाँव!डीह बाबा तुम्हें बुला रहे हैं।खेतों के मचान और विरहा के तान तुम्हें बुला रहे हैं।गाँव का पीपल, पनवाड़ी की दुकान और लाला जी का बथान बुला रहे हैं।तुम्हारे बिना खेत-खलिहान सुने हैं, गाँव का चौपाल सुना है,ब्रम्ह बाबा का चबूतरा रो रहा है,साँझ का क ऊडा(अलाव) की खैनी-बीडी भी खत्म,रामलीला-नाटक सब खत्म।साँझ का हाट सुना, गलियां सुनी हैं।रिश्ते-नाते टूटने के कगार पर हैं।इस रोजी-रोटी के चक्कर में नेवता-हंकारी सब छुट रहे हैं, परिवार टुट रहे हैं।ऐसी रोजी जो हमारे रिश्तों और संस्कारों को ही खा जाए उस रोजी से पैदा हुई रोटी को हम नहीं खा सकते।यह रोटी बहुत जहरीली है मेरे भाई!
इसलिए अब आ जा!
आ जा उम्र बहुत है छोटी,अपने घर में भी है रोटी।हम यहीं साथ जिएंगे, साथ मरेगे।कम से कम "पलायनवादी" का कलंक तो नहीं लगेगा।बाकी ईश्वर है।
अब समझ में आया कि मुनिया काकी की नाराजगी छठी-मैया से नहीं बल्कि छठ में आकर फिर पलायन करने वाले अपनों से हीं है।वाह काकी शाबास! आखिर तुमने "पलायन का नारियल" छठी-मैया के सिर पर ही फोड दिया।
जय छठी-मैया!🙏🙏
(विनोद-वाणी)