10/08/2023
हिमाचल का लाल सेब सियासत की मंडी में औंधे मुंह गिरा!
व्यापारियों की मनमानी पड़ी भारी, सरकारी कायदे नियम हुए धराशायी, कम पैदावार पर भी बडे सवाल उभरे, किलो की चक्की में सेब की रंगत फीकी, कई सवालों के घेरे में सेब के अस्तित्व पर सवाल.
सत्यदेव भारद्वाज शिमला से विशेष रिपोर्ट के साथ।
मौसम की प्रतिकूल मार के साथ आधुनिक बागवानी के सीधे प्रहार ने बागवानी क्षेत्र की चूलें हिला कर रख दी है। सेब उत्पादन में अप्रत्याशित गिरावट के घेरे में गुणवत्ता का ताना-बाना बिखर कर रह गया है। सैकड़ों सेब प्रजातियों के शोर में कई प्रजातियों के ढेर होने का खतरा भी मंडराने लगा है।
अस्तित्व के प्रश्नवाचक में सेब की खेती मौजूदा दौर में बड़े विकट संकट से गुजर रही है। उस पर सेब के पैरोकार राजनीति की ऊंची नीची भूल भुलैया में फँस कर रह गए हैं। बुलंद आवाज का दम भरने वाले अब ये लोग धरने, घेराव तक ही सीमित होकर रह गए हैं। हालांकि, प्रदेश के भीतर निजाम बदल चुका है। व्यवस्था परिवर्तन की सीधी सपाट लाइन में कांग्रेस की नई सरकार सत्ता के सिंहासन पर काबिज है। कुछ करने की चाह में सरकार ने बागवानी क्षेत्र में कई क्रांतिकारी कदम उठाने का साहस जरूर दिखाया था। मगर, व्यापारियों की चालबाजी सहित विपक्ष की नकारात्मक भूमिका ने बागवानों को बेसहारा बना कर छोड़ दिया है। आपदा की आफत में सेब पर किंतु परंतु का राग बौरा गया है। चिल्लम-पौ का आंदोलन केवल मात्र सोशल नेटवर्किंग साइटों पर ही दहाड़ मार रहा है। सभी शेखचिल्ली यहां पर चिल्लाकर-चिल्लाकर खुद को बागवान हितैषी होने का सर्टिफिकेट मुफ्त में ही बांट रहे हैं। असल में धरातल की धरा पर बड़े व कडे फैसले लेने से हर कोई बच रहा है।
खैर, इससे इतर अगर सेब बागवानी के कुछ आंकड़ों पर गौर करें। तो सन 1950-51 में सेब की खेती का क्षेत्र 450 हेक्टेयर के आसपास था। जो 2021-22 में बढ़कर 1,1,5016 हेक्टेयर हो गया है। मगर उस लिहाज से सेब की पैदावार में रिकॉर्ड इजाफा नहीं हो पाया है। यह दीगर है कि 2010-11 में 892 लाख मीट्रिक टन पैदावार से अधिक की वार्षिक वृद्धि जरूर हुई। मगर, इसके बाद के सालों में इन आंकड़ों से पार सेब की पैदावार कभी भी आगे नहीं जा पाई है। गौर करने वाली बात यह है कि राज्य में कुल फल उत्पादन का 50 फीसदी हिस्सा सेब का है। कुल मिलाकर आधे प्रदेश में इसकी खेती की जाती है।
अब जरा सेब के पिछले 13 सालों के सफर में इसकी सालाना पैदावार पर भी नजर डाली जाए। तो 2010 में 5.11 करोड, 2011 में 1.36 करोड़, 2012 में 1.84 करोड़, 2013 में 3.69 करोड, 2014 में 2.80 करोड़, 2015 में 3.88 करोड, 2016 में 2.40 करोड, 2017 में 2.8 करोड़, 2018 में 1.65 करोड, 2019 में 3.24 करोड, 2020 में 2.84 करोड, 2021 में 3.43 करोड़, 2022 में 3.36 करोड सेब की पैदावार हुई है। मगर बावजूद इसके अगर इन तमाम सालों पर गौर करें। तो अभी तक साल 2010-11 को छोड़कर बाकी उपरोक्त वर्षों में बंपर सेब का रिकॉर्ड उत्पादन नहीं हो पाया है। ना ही इससे आगे सेब पैदावार का आंकड़ा जा पाया है।
ऐसे में अगर मौसम की प्रतिकूलता को छोड़ दें, तो कई अन्य गंभीर कारणों से सेब की पैदावार अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। इसके लिए जहां तमाम सरकारें दोषी है। वहीं दूसरी पंक्ति में इसके पैरोकार व खुद बागवान भी उतने ही दोषी है। जो सार्वजनिक मंच पर सामूहिक गर्जना में शामिल नहीं हो पा रहे हैं। सवाल इस संदर्भ में बड़े और गंभीर है। जिसका उत्तर तलाशना सभी की साझा जिम्मेदारी बनती है। अन्यथा, अगले कुछ सालों में सेब अपनी आन बान और शान का रुतबा हमेशा हमेशा के लिए खो देगा।
प्रस्तुति एवं विशेष रिपोर्ट:-सत्यदेव भारद्वाज, सीनियर जर्नलिस्ट, शिमला, हिमाचल प्रदेश।
दिनांकः-10-08-2023.