06/12/2022
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जा कूँ कहैं कबीर जुलाहा, सब गति पूर्ण अगम अगाहा।
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केशो नाम धर कबीरा आए, बालदि आनि ढही रे ।
दास गरीब कबीर पुरुष कै, उतरी सौंज नई रे ।।
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खुल्या भंडारा गैब का, बिन चिट्टी बिन नाम ।
गरीबदास मुक्ता तुले, धन्य केशो बलि जाँव ।।
डीने झनवा तुलत है, बूरा घृत और दाल।
गरीबदास ना आटे अटक, लेवे मुक्ता माल।।
कस्तूरी पान मिठाईयां, लड्डू जलेबी चंगेर।
गरीबदास नुकती निरख, जैसे भण्डारी कुबेर ।।
बिना पकाया पकि रह्या, उतरे अर्श खमीर ।
गरीबदास मेला सरू, जय जय होत कबीर।।
सकल संप्रदा त्रिपती, तीन दिन जनार ।
गरीबदास षट दर्शनं, सीधे गंज अपार।।
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कबीर परमेश्वर जी को काशी शहर से भगाने के उद्देश्य से हिन्दू तथा मुसलमानों के धर्मगुरूओं तथा धर्म के प्रचारकों ने षड़यंत्र के तहत झूठी चिट्ठी में निमंत्रण भेजा कि कबीर जुलाहा तीन दिन का भोजन-भंडारा (लंगर) करेगा।
प्रत्येक बार भोजन खाने के पश्चात् दस ग्राम स्वर्ण की मोहर (सोने का सिक्का) तथा एक दोहर ( खद्दर की दोहरी सिली चद्दर जो कंबल के स्थान पर सर्दियों में ओढ़ी जाती थी) दक्षिणा में देगा। भोजन में सात प्रकार की मिठाई, हलवा, खीर, पूरी, मांडे, रायता, दही बड़े आदि मिलेंगे। सूखा-सीधा (एक व्यक्ति का आहार, जो भंडारे में नहीं आ सका, उसके लिए) दिया जाएगा।
यह सूचना पाकर दूर-दूर के संत अपने शिष्यों समेत निश्चित तिथि को पहुँच गए। काजी तथा पंडित भी उनके बीच में पहुँच गए। चिट्ठी जंबूदीप (पुराने भारत) में सब जगह पहुँची।
{ईराक, ईरान, गजनवी, तुर्की, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बिलोचिस्तान, पश्चिमी पाकिस्तान आदि-आदि सब पुराना भारत देश था ।] संतजन कहाँ-कहाँ से आए? सेतुबंध, रामेश्वरम्, द्वारका, गढ़ गिरनार, मुलतान, हरिद्वार, बढीनाथ, केदारनाथ, गंगा घाट अठारह लाख तो साधु-संत व उनके शिष्य आए थे। अन्य अनाथ (बिना बुलाए अनेकों व्यक्ति भोजन खाने व दक्षिणा लेने आए थे। जो साघु जिस पंथ से संबंध रखते थे, उसी परंपरागत वेशभूषा को पहने थे ताकि पहचान रहे अपने पंथ की प्रचलित साधना कर रहे थे। कोई (बाजे) वाद्य यंत्र बजाकर नाच-नाचकर परमात्मा की स्तुति कर रहे थे।
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