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09/02/2024

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yaduvanshi
31/05/2022

yaduvanshi

कालचुर्य कुलदेवी माँ महामाया तथा इष्ट देवता हाटकेश्वर महादेव की जय हो!

अभीर ब्राह्मण – कालचुर्य (कलचूरी) युग।

प्राचीन समय मे पृथ्वी के मध्य मे स्थित सुमेरु (मेरु) पर्वत के उत्तर मे चार दिव्य जाती नाग, यक्ष, गांधर्व, कुंभन का वर्णन मिलता है। सुमेरु पर्वत के ऊपर सपाट प्रदेश मे सुरलोक व नीचे पाताललोक या असुरलोक होने की मान्यता है। जंबुद्वीप सुमेरु के दक्षिण मे होने का वर्णन मिलता है। संभवतः यह भारतीय उपखंड के स्खलन व जावा द्वीप के स्थिरीकरण से पहले की स्थिति का वर्णन हो सकता है।

प्राचीन मेसोपोटेमिया (सुरप्रदेश/सुमेरिया/सिरिया) के अभीर या सुराभीर नाग ब्राह्मणो की ओर से विश्व को कृषिशास्त्र, गोवंशपालन या पशुपालन आधारित अर्थतंत्र, भाषा लेखन लिपि, चित्र व मूर्तिकला, स्थापत्य कला (नगर शैली), नगर रचना (उन्ही के नाम से नगर शब्द), खाध्यपदार्थो मे खमीरिकरण या किण्वन (fermentation) प्रक्रिया की तकनीक (अचार, आटा/ब्रेड/नान, घोल/batter, सिरका, सुरा) इत्यादि जैसी सदैव उपयोगी भेट मिली है जो वर्तमान युग मे भी मानव जीवन और अर्थतन्त्र की द्रष्टि से अति महत्वपूर्ण है।

बाइबल मे उल्लेखित अपनी समृद्धि के लिए प्रसिद्ध ओफिर (सोफिर) क्षेत्र और बन्दरगाह भी अभीर (सूराभीर) का ही द्योतक है। ग्रीक भाषा मे ओफिर का अर्थ नाग होता है। हिब्रू भाषा मे ‘अबीर’ ‘Knight’ याने शूरवीर योद्धा या सामंत के अर्थ मे प्रयोग होता है। संस्कृत मे अभीर का अर्थ नीडर होता है। भारतवर्ष मे ‘अभीर’ अभीर-वंशी-राजा के अर्थ मे भी प्रयोग हुआ है। आज भी इस्राइल मे ओफिर शीर्ष नाम का प्रयोग होता है। यह जानना भी रसप्रद होगा की कोप्टिक भाषा (मिस्र/इजिप्त) मे ‘सोफिर’ भारतवर्ष के संदर्भ मे प्रयोग होता था।

सोफिर बन्दरगाह से हर तीन साल मे क्षेत्र के अभीर राजा सोलोमन को सोना, चाँदी, गंधसार (संदल), अनमोल रत्न, हाथीदांत, वानर, मयूर, इत्यादि प्राप्त होते थे। इसमे ओफिर पर्वत (वर्तमान मे गुनुङ्ग लेदान पर्वत, मुयार, मलेशिया-जहा उस काल मे अभीरों का दबदबा था) से भी सोने और अन्य वस्तुओ के प्रेषण आते थे। ओफिर नामक स्थल ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, कनाडा, यूएसए मे भी पाये जाते है और रोचक बात यह है की इनमेसे अधिक्तर कहीं न कही सोने से संबंधीत है।

अभीर राजा सोलोमन द्वारा बनवाए गए मंदिरो मे गर्भगृह (holiest of the holy chamber) के मध्य मे इष्ट देवता ईश्वर के प्रतीक पवित्र पत्थर (शिवलिंग) ‘कलाल’ का स्थापन होता था जो की महारुद्र भगवान शिव के कालकाल या कालांतक स्वरूप का द्योतक है। (Kalal or Qalal actually means Sacred Stone referring to deity(Shivlinga) placed at the centre of the Holiest of the Holy inside chamber (Garbhgruha) of the temples of Soloman). यह मंदिरो की रूपरेखा आश्चर्यजनक रूप से शिवालय एवं शाकाद्वीपीय या भोजक ब्राह्मणो द्वारा बनाए गए सूर्यमंदिरो से मिलती जुलती है। माना जाता है की भोजक ब्राह्मण मूलतः अश्वका प्रदेश या प्राचीन महाद्वीप कंबोज एवं साका से आए है। विष्णुपुराण मे कंभोजको को योद्धा एवं ज्ञानी (ब्राह्मण) और मित्र दर्शाया गया है। सोलोमन के मंदिरो मे ईश्वर के प्रतीक पवित्र पत्थर (कलाल) को अतिपवित्र स्थान (गर्भगृह) के मध्य मे रखा जाता था। मंदिरो मे बाहरी पवित्र स्थान Holy Chamber (मण्डप), ब्रेज़न या मोलटन सी (कुंड), सामने ओक्सेन (नंदी), परिक्रमा पथ, इत्यादि होते थे। बेबीलोनियन (असुर/Assyrian) आक्रमणों मे इन मंदिरो को नष्ट कर दीया गया था। कलाल (शिवलिंग), पवित्र कमान, पात्र (Vessel) एवं मंदिर का अन्य सामान अक्रांताओ से बचाने के लिए छुपा दिया गया था। कुछ लोग काबा के पवित्र पत्थर को भी इसी संदर्भ मे देखते है।

‘कलाल’ प्राचीन सोलोमन-बेबीलोनियन काल से भी पहले से प्रयोग किया जाता रहा अति पवित्र शब्द है जो त्रिनेत्रेश्वर रुद्र भगवान शिव के कालकाल या कालाहारी (कालांतक) स्वरूप का द्योतक है।

मध्य भारत के इतिहास मे दूसरी शताब्दी से प्रकाश मे आया कालचुर्य या कलचूरी शब्द भी कलाल से ही व्युत्पन्न है।

एक विचारशाला अनुसार कलचूरी नाम को अभीरों की विशिष्ट केशभूषा से जोड़कर भी देखा जाता है जो बहुत रोचक है। संभवतः उनकी केशभूषा उस समय के जंबुद्वीपियों के लिए अजूबे का विषय रही हो। परंतु उससे भी पूर्व वर्तमान उज्बेकिस्तान मे स्थित प्राचीन कुषाण साम्राज्य कालीन khalchayan (khaltchaian या khalchiyan या kaalchian) महेल के अवशेष व कुषाण योद्धा राजकुमार का शिल्प कालचूर्यों के ही द्योतक हे। यह जानना रोचक होगा की बक्त्रिया के कुषाण वंश के मुखिया Sapadbizes के अनुगामी व Kujula Kadphises के पुरोगामी Heraios (१-३० CE) द्वारा जारी हेलेनिस्टिक शैली मे बने ग्रीक भाषा मे अंकित रजत सिक्को पर ग्रीक विजय की देवी Nike से माला के रूप मे विजयश्री का आशीर्वाद पाते हुए घुड़सवार Heraios का चित्रांकन है। सिक्को पर मुखिया का नाम ‘HAOY’ या ‘HIAOY’ दर्शाया गया है। जो की यदुवंशी राजा हैहय से संबन्धित नहीं है। वर्तमान उज्बेकिस्तान मे सुरखान दरया (Surxondaryo Viloyati/Surkhan Valley, सुर्ख कोटल) स्थित khalchayan (khaltchaian या khalchiyan या kaalchian) महल Heraios ने ही बनवाया था। Kara-Tepe, Balkh, Balalyk Tepe, Surkh Kotal व Khalchayan मे बकत्रियन कुषाण कालीन सभ्यता के कयी समरूप अवशेष मिले है। Khalchayan मे पाये गए कुषाण कालीन सिक्के, मूर्तिया, मकबरे, बर्तन, मृण्मूर्ति (Terracotta), चित्र, इत्यादि व Personage (व्यक्तित्व) तथा Balkh, Surkh Kotal व मथुरा के कुषाण कालीन अवशेष समरूप दिखाई पड़ते है। उनका अनोखा Leather Attire (चमड़े की पौशाक) विशिष्ट है। आज भी अर्मेनिअन मूल के लोगो मे khaltcherian या khatcherian या khacherian शीर्षनाम होता है। रूस से आज़ाद होने के बाद अज़रबैजान मे रहे अर्मेनिअन लोगो ने स्वतंत्र Nagorno-Karabakh Republic (NKR) बना लिया।

Khalchian को मुक्त पैरो वाले या पवनवेगी अश्व या अश्वारूढ़ व्यक्ति के अर्थ मे भी समजा जा सकता है। Khaltcherian का एक अर्थ मीठा मिश्रण याने शीरा/हलवा या श्रीखंड भी होता है। कालचुर्य का उद्भव व अर्थ मीमांसा का विषय हो सकता है।

अभीर कालचुर्य इतिहास मे भारत वर्ष के किसी न किसी भूभाग पर निरंतर १२०० वर्ष का दीर्घ कालीन शाशन करने वाले एकमात्र राजवंश है। अभीर ग्रेकों-यूरोपियन इरानों-सिंथियन मूल के इंडो-आर्यन वर्ग के इंडो-अफघान संवर्ग के याने के साकाद्वीपी मूल के माने जाते है। ग्रीक इतिहास मे उल्लेखित अभिरासेस भी अभीर के ही संदर्भ मे है। प्राचीन ग्रीस के रोमनादों या रोमक यानि एलेक्ज़ांड्रिया के साथ भी अभीरो के राजद्वारी संबंध रहे थे। यह भी माना जाता है की प्राचीन मेसोपोटेमिया से सत्ताभ्रष्ट होने के बाद एवं सासानिद, हूण, वू-ची इत्यादि आक्रांताओ से संघर्ष करते हुए वे मध्यपूर्व-इराक-ईरान-उज़्बेकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान होते हुए भारतवर्ष मे सीमित हो गए। Kalar, Iraq व Qalal, Azerbaijan इसी स्थानांतरणों के पदचिन्ह हो सकते है। ईरानी तथा अन्य इतिहासकारो द्वारा उल्लेखित प्राचीन समय के मध्यपूर्व से लेकरके ईरान अफ़्घ्निस्तान व भारतवर्ष मे शाशन मे रहे राय या ब्राह्मण राजवंश इसीसे संबन्धित है। महरगढ़, क्वेटा, मोहन-जो-डारो, हरप्पा, लोथल को समाविष्ट करते प्राचीन वैदिक राज्य ब्राहमीनाबाद और कुशाण साम्राज्य को भी इसी संदर्भ मे देखा जा सकता है। हरप्पन अवशेषो से मिली ‘Priest King’ याने ब्राह्मण राजा की प्रतिमा और कुषाण साम्राज्य के सिक्को पर बनी छबियों मे अद्भुत साम्यता है। अथर्ववेद परिशिष्ट, रामायण, महाभारत, बृहद संहिता, मार्कन्डेय पुराण, पतंजलि महाभाष्य, इत्यादि के संदर्भ से तुखारा, साकाद्वीपी, Yuezhi, कुषाण, ऋषिका, परम कंबोजा, इत्यादि को एक ही दर्शाया है और उनको साका, प्राचीन ग्रीस, बक्त्रिया, सिंथिया से जोड़ा जाता है। महाभारत मे परम कंबोजा को बहील्का या बल्ख, उत्तर मद्र, उत्तर कुरु देशो के साथ लगा हुआ दर्शाया गया है। महाभारत मे कंबोज (अश्वका) के अश्वो का प्रशस्तिपूर्ण उल्लेख मिलता है। मत्स्य पुराण अनुसार ऋषिका विद्वान, प्रबुद्ध वंशावली, ऋषिकुल से व्युत्पन्न है जो ब्राह्मण का द्योतक है। माना जाता है की वे भारतीय उपखंड मे उनका निवास पुराण कालीन सरस्वती नदी के तटीय प्रदेश से आरंभ हुआ। कश्मीरी मूल के सरस्वती नदी के तटीय प्रदेश से सबंधित ब्राह्मणो को गौड़ सारस्वत ब्राह्मण वर्गित किया जाता है। कोंकण प्रदेश मे भी कश्मीरी मूल के गौड़ सारस्वत कोंकणस्थ ब्राह्मण पाये जाते है। प्राचीन मेसोपोटेमिया के Ctesiphon, इराक के बगदाद, वैदिक राज्य ब्राह्मणाबाद और मध्य पूर्व की अन्य कई नगररचनाओ मे ब्राह्मणवंशी स्थपतिओ का अमूल्य योगदान रहा है। चाइनिज भारतवर्ष को ब्राह्मणो का देश या ब्राह्मण साम्राज्य के रूप मे ही जानते थे। चाइनिज साहित्य के अनुसार कुषाण साम्राज्य को पाँच कुलीन ‘Yuezhi’ मे से एक का दर्जा प्राप्त था परंतु कुशाण और ‘Yuezhi’ के बीच का संबंध स्पष्ट नहीं होता है। शैवपंथी कुषाण राजवंश के ही राजा Vima Kudphises कालीन सिक्को पर भगवान शिव का रुद्र स्वरूप एव नंदी को देखा जा सकता है।

सांप्रदायिक सद्भावना सभी अभीर शाशकों की लाक्षणिकता रही है। हिन्दू वैदिक संस्कृति मे आस्था रखते हुए भी अभीरों ने राज्य व्यवस्था मे समय समय पर जर्थ्रोस्टि, बौद्ध, जैन सम्प्रदायो को भी पर्याप्त महत्व दिया है। हिन्दू वैदिक संस्कृति(खास कर शैवपंथ) के साथ साथ जर्थोष्टि व बौद्ध सम्प्रदायो को भी समान आदर देनेवाले प्राचीन ग्रीक मूल के माने जाते कुशाण शाशको मे भी यही विशेषता का दर्शन होता है। माना जाता है की सासानीड आक्रमणों के चलते कुशाण साम्राज्य का अस्त हुआ।

नागवंश व चंद्रवंश से संबन्धित अभीरो मे शैव व वैष्णव दोनोही मान्यता वाले वर्ग थे। अफघानी कालटोयक व हरिता को इसी संदर्भ मे देखा जाता है। भारतवर्ष मे त्रिकुटक वंश के अभीर वैष्णव धर्मावलम्बी होने की मान्यता है। सक शिलालेखों मे भी अभीर का उल्लेख मिलता है। अभीरों मे नाग पुजा व गोवंश का विशेष महत्व रहा है। सोलोमन के मंदिरो से लेकर के वर्तमान शिवमंदिरो मे नंदी का विशेष स्थान रहा है। मध्य भारत के अभीर कालचुर्यों का राजचिन्ह भी स्वर्ण-नंदी ही था।

भारतवर्ष के इतिहास मे अभीर व आहीर मे बहुत विभ्रान्ति दिखाई पड़ती है जो समान उच्चार व परंपरा के चलते हो सकता है। वास्तव मे इंडो द्रविडियन मूल के आहिर और इरानों सिंथियन मूल के इंडो आर्यन अभीर दोनों अलग प्रजाति है। यद्यपि दोनों मे नाग पुजा व गोवंश की महत्ता जैसी साम्यता भी है। संभवतः विभ्रांति का यह भी एक कारण है।
पिता राजा ययाति से मनमुटाव के चलते सोमवंश से निष्कासित महाराजा यदु ने यदुवंश की स्थापना की। उनके चार पुत्र सहस्त्रजीत, क्रोश्ठा, नल व रिपु थे। यदुवंश के अधिकृत उत्तराधिकारी राजा क्रोश्ठा के वंशज यादव कहलाए। सहस्त्रजीत के पुत्र सतजित के तीन पुत्र थे अहिहय, रेनूहय और हैहय। हैहय के वंशज हैहय क्षत्रिय कहलाये जब की अहिहय के वंशज आहिर कहलाये। भगवान विष्णु के ६ठे अवतार भगवान परशुराम और हैहयवंशी चक्रवर्ती सम्राट सहस्त्रार्जुन मे हुए संघर्ष के चलते हैहयवंश विलुप्त होने की मान्यता है।

भारतवर्ष के इतिहास मे जगह जगह पर अभीर राज्य यहा तक की अभीर दस्युओ का भी वर्णन मिलता है जो की अभीरो की संघर्ष गाथा के बिखरे पन्ने हो सकते है। ऐतिहासिक व स्थापत्यकला के द्रष्टिकोण से अभीर समवायी धर्मनिरपेक्ष होने के साथ साथ हिन्दू वैदिक संस्कृति के प्रखर अनुयायी रहे है। अभीर अपने नाम के पीछे देव, राय, गुप्त, ब्रहमन वर्मन या बर्मन, सेन, मित्र इत्यादि लगाते थे। मनु स्मृति के अनुसार अभीर ब्राह्मण ब्रहमण व अंभिस्था के पुत्र है। स्कन्ध पुराण मे भी अभीर को ब्राह्मण दर्शाया गया है।

भारतवर्ष के इतिहास मे अन्य कथित अभीरो का भी उल्लेख मिलता है जैसे की मरुस्थल राजपूताना के म्लेच्छ अभीर जो अत्यंत क्रूर होने के साथ हिन्दू वैदिक संस्कृति व ब्राह्मण साम्राज्य के अत्यंत विरोधी तथा बुद्धिष्ट व समनार विचारधारा के कट्टर समर्थक थे। उस काल मे बुद्धिष्ट व समनार समर्थक बल एवं छल पूर्वक ब्राह्मण साम्राज्य व हिन्दू शाशन एव समाज व्यवस्था को ध्वंस्त करते जा रहे थे।

दक्षिण के कालाभीर या कालाभ्र स्थानिक जनजाति के थे और उनके नाम मे काला शब्द उनके शरीर के वर्ण से प्रेरित था। कालाभ्र भी म्लेच्छ अभीर की तरहा ही अत्यंत क्रूर होने के साथ हिन्दू वैदिक संस्कृति व ब्राह्मण साम्राज्य के अत्यंत विरोधी तथा बुद्धिष्ट व समनार विचारधारा के कट्टर समर्थक थे। रोमन इतिहासकार प्लीनी ने १ली शताब्दी मे उन्हे Caelobothras कहा है जो सम्राट अशोक द्वारा नामांकित केरालापुत्रो (Sons Of Kerala) का ही विदेशी अपभ्रंश है। कालाभ्रो ने हिन्दू शाशन व समाज व्यवस्था को तितरबितर कर दिया था तथा उनके आतंक के चलते इतिहास मे उन्हे बर्बर, असामाजिक व सभ्य समाज (Civilization) के शत्रु करार दिया गया है। उनके युग को भी दक्षिण के इतिहास मे अंधकार युग या ‘Kalabhra Interregnum’ से जाना जाता है। उनके दुराचारो से त्रस्त होकर समस्त दक्षिण भारत (मुख्यतः तामिलनाडू) के हिन्दू समाज के ब्राह्मण, वैश्य व अन्य सभी वर्गो ने एक साथ मिलकर उनसे प्रचंड संघर्ष किया और उन्हे उखाड़ फेंका। श्रीलंका मे हिन्दू एव बौद्ध विचारधारा मे चल रहे संघर्ष के मूल भी इसी अंतर्विग्रह मे देखे जाते है। दक्षिण के मुदिराजा कोली कालाभ्र के वंशज माने जाते है।

बुद्धिष्ट साहित्य मे कालाभ्र काल के स्थानिक जनजातीय दस्यु पुल्ली का भी उल्लेख मिलता है जिसे ‘कोलावर’ दर्शाया गया है यह ‘कलवार’ के अर्थ मे नहीं परंतु स्थानीय भाषामे किसी को मारने की अदम्य इच्छा वाला या हिंसक प्रकृति का व्यक्ति के अर्थ मे कहा गया है।

चेदी राज्य के कलचूरी:

श्री कृष्ण भगवान ने महाभारत काल मे जिसका वध किया था वह शिशुपाल शाषित पौराणिक चेदी राज्य (अर्वाचीन बुंदेलखंड) की राजधानी सूक्तिमति हुआ करती थी। माना जाता है की वासुचेद्य के पुत्र बृहदरथ ने चेदी राज्य की स्थापना की थी। यमुनाजी के दक्षिण से लेकर वेत्रावती (बेतवा) नदी से लगे इस प्राचीन राज्य पर यदुवंशी, हैहय, निषाध, सतवाहन, वाकाटक, औलीकर, कालचुर्य (कलचूरी), भोसले (मराठा), इत्यादि जैसे राजवंशो का आधिपत्य रहा।

मधुरिपुत्र, ईश्वरसेन, शिवदत्त अभीर वंश के माने जाते है। भारतवर्ष मे कलचूरी कालगणना दूसरी शताब्दी मे अभीर ईश्वरसेन से आरंभ हुई। सातपुड़ा मनुदेवी माताजी का मंदिर अभीर ईश्वरसेन ने बनवाया था। मान्यता है की मंदिर के आस-पास विराट वृक्षो मे प्रकट रूप से विद्यमान भगवान परशुराम स्वयं भक्तो का स्वागत करते है।

दूसरी शताब्दी मे अभीर ईश्वरसेन (शकसेन) द्वारा सतवाहन को सत्ताभ्रष्ट करने के साथ कोशल और मराठा क्षेत्र के उत्तरमे कालचुर्य युग व कलचूरी संवत का आरंभ हुआ।

कालचुर्य वंश के कृष्णराजा कोकल्ल देव १ ने ५वी शताब्दी मे प्राचीन चेदी राज्य (बुंदेलखंड) मे त्रिपुरी (तेवार, वर्तमान जबलपुर के पास) से शाशनधुरा संभाली जो कोकल्ल देव १५ तक चलती रही। त्रिपुरी उपरांत गोरखपुर, रतनपुर, राजपुर (पूर्व गुजरात), रायपुर खलवाटिका (खल्लारी) मे भी कालचुर्य वंश कुछ शाखाओ मे विस्तृत हुआ। रतनपुर शाखा को तूम्मन के कालचुर्य कहा गया है। कुछ वर्षो के अंधकार को छोडकर ५वी शताब्दी से निरंतर १२वी शताब्दी तक पौराणिक चेदी राज्य (बुंदेलखंड) एव दक्षिण कोशल क्षेत्रो मे कालचुर्यों का दबदबा रहा। कृष्णराजा, शंकरगण, बालहर्ष, युवराज १, लक्ष्मनराजा, शंकरगण २, युवराज २, गांगेयदेव, लक्ष्मीकर्ण या कर्णदेव, यशकर्ण, गयाकर्ण, जाजल्लदेव, रत्नदेव, पृथ्वीदेव, जयसिंह, विजयसिंह, रामचंद्र, ब्रह्मदेव इत्यादि महत्वपूर्ण रहे। वामराजदेव का भी उल्लेख मिलता है। गांगेयदेव का शाशन काल खूब यशश्वी रहा। उन्हे त्रिकालिंगधिपति और विक्रमादित्य जैसे शीर्षक दिये गए। कलचूरी राज्य मे प्राचीन हैहय क्षेत्र, बघेलखंड, डहालामंडल, दक्षिण कोशल भी समाविष्ट थे। कालचुर्य शाशनकाल सीमासंघर्षों से भरपूर रहा। प्रतिहार, गुर्जर, चंदेल, मारवाड़ के गोहील, शाकंभरी के चौहान, वांग व कोंकण नरेश, पल्लव, सोमवंशी, कुंग, मुरल, पांडियन, कुंतल, सोमेश्वर इत्यादि से कलचूरिओ के संघर्ष का वर्णन मिलता है। संघर्षरत होते हुए भी कलचूरीयों ने उत्तम शाशन व्यवस्था बनाये राखी। संघर्षो के चलते कलचूरी व्यवस्था मे विश्वास आधारित अधिकारी तंत्र देखने को मिलता है जिसमे महत्वपूर्ण पदो पर परिवार के या अन्य ब्राह्मण को ही नियुक्त किया जाता था। ब्राह्मणवादी वैदिक राजतंत्र के हिमायती अभीर कालचुर्य शाशको के शिलालेख व ताम्रलेख ब्राह्मी व संस्कृत भाषा मे पाये जाते है। मध्य भारत के कालचुर्य वंश का राजचिन्ह स्वर्ण-नंदी था। अभीर कालचुर्यों मे अपने पूर्वजो के प्रति विशेष सम्मान दिखाई पड़ता है। कलचूरी नरेशो मे श्राद्ध के अवसर पर भी खूब दान देनेका प्रचलन रहा था। माना जाता है के नाग व चंद्रवश से संबन्धित कालचुरयो के पूर्वज हाटक ने इष्टदेवता भगवान शिव की कृपा से अपने नाम से हाटक राज्य की स्थापना की और भोलेनाथ भगवान शिव की हाटकेश्वर रूप मे अर्चना की। ऐसी मान्यता है की उनके वंशज बब्रुवाहन ने मध्यभारत के रायपुर व गुजरात के वडनगर मे हाटकेश्वर महादेव का भव्य मंदिर बनवाया। कालचुर्य वंश के राजा रामचन्द्र के पुत्र ब्रह्मदेव ने १४वी शताब्दी मे रायपुर के पास खारुण नदी के तट पर अपने इष्ट देवता हाटकेश्वर महादेव मंदिर को पुनः स्थापित किया। तत्पश्चात वडनगर का वर्तमान हाटकेश्वर मंदिर १७वी शताब्दी मे बना। कालचुर्य कुलदेवी माँ महामाया का मंदिर अम्बिकापुर के पास बिलासपुर मे रतनपुर शाखा के राजा रत्नासेन ने १०वी शताब्दी मे बनवाया। सभी स्थापत्य प्रशिष्ट नागर शैली मे है जो खजुराहो के मंदिरो से समरूप है।

कला व ज्ञान का सम्मान करने वाले कलचूरी स्वयं भी ज्ञान पिपासु रहे थे। कालचुर्य काल से पूर्व भाषा लेखन के लिए आर्मेईक और कोशट्रू जैसी लिपि से व्युत्पन्न ब्राह्मी लिपि का चलन था। भारतवर्ष मे प्रयोग मे आने वाली सर्व लेखन लिपियो समेत दक्षिण एशिया की लगभग ४० लेखन लिपयो का उद्भव इसी लिपि से हुआ है।

आज भारतीय उपखंड मे सर्वाधिक प्रयोग मे आने वाली देवनागरी लिपि का उद्भव भी कालचुर्य काल मे ही हुआ।
अभीर लाक्षणिक्तानुसार ही सभी कालचुर्य राजाओ ने भी अपने कार्य काल मे विविध चित्र व अंकन वाले सिक्के भी जारी किए जिसे ‘रूपक’ कहा जाता था।

१०वी शताब्दी मे कलचूरी राजा कर्णदेव (कल्याणवर्मन) ने उज्जैन के वराहमिहिर द्वारा रोमक सिद्धांतो के आधार पर लिखी ‘बृहद जातक’ को विस्तृत करते हुए पौलिस, रौमस, वसिष्ठ, यवनाचार्य, बादरायण, शक्ति, अत्री, भारद्वाज, गूदाग्नि, केशव और गार्गी सरीखे धुरंधरों के कार्यो का गहन अध्ययन व संकलन करते हुए ‘सारावली’ ग्रंथ का लेखन किया जो आज भी ज्योतिष शास्त्र मे विश्व के ५ महत्वपूर्ण ग्रंथो मे गिना जाता है (यह जानना भी रोचक होगा की ग्रीस मे सारावली नामक नगर व किला है)। बांधवगढ़ के समीप बामणिया टीले मे कलचूरी काल के कई अवशेष दबे होने की मान्यता है।

उस दौर के मध्य भारत मे कदंब व उनके अनुगामी/वंशज चालुक्य, राष्ट्रकूट, कालचुर्य जैसे ब्राह्मण राजवंशो का आधिपत्य था। दक्षिण मे पल्लवो का आधिपत्य था। यह सभी इंडो आर्यन सिंथियन मूल के थे। कालचुर्यों का नाग व चन्द्र वंश से नाता उनके शाकाद्वीपी मूल का ही द्योतक है। कदंब, राष्ट्रकूट और कलचूर्यों ने अपने को ब्रहमाजी से उत्पन्न दर्शाया है। यह सभी ब्राह्मणवादी हिन्दू वैदिक संस्कृति आधारित राज्य व्यवस्था वाले राज्य थे। इन राज्यो मे राजवंशी एव अन्य ब्राह्मणो को विशेष छुट तथा अधिकार प्राप्त थे। राजवंशी ब्राह्मणो को ‘सत् क्षत्रिय’ कहा जाता था जो अन्य क्षत्रियो से अलग थे। राजवंशी व अन्य ब्राह्मणो को ब्राह्मण संस्कार अनुसार संस्कारो एव पाठशाला मे ज्ञान पाने का अधिकार था जो अन्यो को नहीं था। उन्हे मृत्युदंड से भी मुक्ति रहती थी। शाशन व्यवस्था मे भी ब्राह्मणो को ही प्राधान्य मिलता था। चालुक्य, राष्ट्रकूट और कालचुर्यों मे अच्छे सामरिक एव वैवाहिक संबंध रहे। कालचुर्यों और नागरखंड के कदंब शाशकों के दरम्यान भी घनिस्ट सामरिक व सामाजिक संबंधो का अभिलेख है। नागरखण्ड शाखा के बम्मारस (पौत्र सोयीदेव (सोमदेव) पत्नी कलालादेवी) के साथ सामरिक संबंधो के चलते कलचूरीयो और बनवासी मुख्य कदंब शाशकों मे तनाव हो गया, बाद मे कलचूरीयो का हंगल कदंब के साथ समाधान हो गया।

उस काल मे हिन्दू वैदिक संस्कृति विरोधी व बौद्ध तथा जैन समनार समर्थक ताकते बल छल व युक्ति पूर्वक ब्राह्मण समराजयों को नष्ट करने मे लगी हुई थी। दक्षिण भारत मे कट्टर समनार समर्थको के दबाव से ब्राह्मण पल्लवो ने अपने को क्षत्रिय घोषित कर लिया। इन्ही ताकतों के प्रभाव मे राष्ट्रकूट और चालूक्यो के समनारवादी समर्थक हो जाने पश्चात कलचूर्यों से उनके संबंध विक्षिप्त हो गए।

उस दौर के बौद्ध साहित्यकारो को अपने संप्रदाय से अधिक भारतवर्ष के इतिहास हिन्दू वैदिक संस्कृति व ब्राह्मणो के विषय मे लिखना सविशेष रुचिकर दिखाई पड़ता है। हिन्दू वैदिक संस्कृति और ब्राह्मण विषय मे सविशेष नकारात्मक टिप्पणिया मिलती है।

मानव इतिहास के सबसे यशश्वी ब्राह्मण साम्राज्य के इतिहास को द्वेष के चलते छोटे छोटे स्थानीय टुकड़ो मे विभाजित करके, ऐतिहासिक तथ्यो व कड़ियो को तोड़मरोड़ के, छुटपुट या नगण्य दर्शाने का यहाँ तक की कई जगहो पर उसे जनजातीय करार देनेका, कहीं कहीं उन्हे हिन्दू वैदिक संस्कृति व ब्राह्मण विरोधियो के संग तो कहीं अब्राहमण तक बताने का प्रयास किया गया।

खूब प्रताड़ना व संघर्ष सहते हुए भी कालचूर्यों ने अपना ब्राह्मणत्व व हिन्दू वैदिक संस्कृति आधारित राष्ट्रवाद को बचाए रखा। अपनी लाक्षणिक सांप्रदायिक सदभावना निभाते हुए भी कालचुर्यों ने अपनी हिन्दू धर्मी आस्था को सँजोये रखा। अनेक समाजोपयोगी धार्मिक स्थापत्यों की रचना करवाई, मठो को संरक्षण दिया, कला, ज्ञान और संशोधन प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया और ऐसे कई कदमो से हिन्दू धर्म का रक्षण किया। कलचूरीओ को भी बल और छल पूर्वक समनार समर्थक बनाने के अनेकों असफल प्रयास किए गए। इन प्रयासो मे राष्ट्रकूट और चालूक्यो द्वारा भी दबाव बनवाया गया जो संबंधो का लाभ लेते हुए कलचूरी राज्य के आंतरिक मुद्दो मे हस्तक्षेप की सीमा तक चला गया और इसीके चलते राष्ट्रकूट और चालूक्यो से कलचूरियों के संबंधो मे खटाश आयी जो संघर्ष मे बद्दल गयी।

पौराणिक चेदी राज्य जिसे हैहय क्षेत्र भी कहा जाता था उसके शाशक व अपने को ब्रहमाजी से उत्पन्न बताने वाले कलचूरीयों ने या भारतवर्ष मे कही भी कलचूरीयों ने इतिहास मे स्वयं को चेदी या यदुवंशी या हैहयवंशी नहीं दर्शाया है परंतु एक कालविशेष मे अगम्य कारणोसर समनार समर्थक चालूक्यो ने मध्य भारत के कलचूरीओ को एक पक्षी रूप से हैहय दर्शाने का प्रयास किया है। केवल यही नहीं दक्षिण मे चालूक्यो के ही ताबेदार तथाकथित कलचूरी राजकुमारो के अविश्वसनीय एक्का दुक्का दावो के अलावा दूसरी सदी से मध्य भारत (प्राचीन चेदी राज्य के क्षेत्र, बुंदेलखंड, बघेलखंड, हैहयक्षेत्र, इत्यादि) के आधिपत्य मे रहे कलचूरीयों के रामायण कालीन हैहयवंशी चक्रवर्ती सम्राट सहस्त्रार्जुन या उनके द्वारा स्थापित प्राचीन माहिष्मती नगरी से जुड़े होने के स्वाभाविक रूप से ही कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है।
भगवान विष्णु के ६ठे अवतार भगवान परशुराम और हैहयवंशी चक्रवर्ती सम्राट सहस्त्रार्जुन के बीच कामधेनु के रूप मे सिद्ध-तथ्य सामर्थ्यशाली गाय आधारित अर्थतन्त्र की संकल्पना पर वर्चस्व को लेकर हुए संघर्ष और उसके परिणाम स्वरूप हैहयवंश विलुप्त होने की घटना सर्वविदित है। इस घटना के बाद विश्व फ़लक पर व भारतवर्ष मे ब्राह्मण साम्राज्यों के बढ़े प्रभाव और ब्राह्मणवादी हिन्दू वैदिक राज्य व्यवस्था के विरोध मे जैन समनारवाद का जन्म हुआ। कई विद्वान समनारवाद को परशुराम-सहस्त्रार्जुन संघर्ष और हैहयवंश विलुप्ति से व्युत्पन्न क्षत्रिय प्रतिक्रिया मानते है। जैन तीर्थंकरो का चक्रवर्ती व क्षत्रिय होना, मुख्य धर्माधार अहिंसा होते हुए भी आवश्यक होने पर युद्ध को उचित मानना, जैन तीर्थंकरो के साथ यदुवंशीओ की सामरिक, सामाजिक व अन्य निकटता इसी के द्योतक है।

सोलोमन, हरप्पन, कुशाण से लेकर के कालचुर्य तक सभी अभीर राज्यो मे महारुद्र भगवान शिव, गोवंश (गाय, नंदी/वृषभ), देवी महामाया, धार्मिक स्थापत्य, सांप्रदायिक सदभावना, स्त्री दाक्षिण्य, लोकोपयोगी कार्य, लिपिज्ञान संशोधन, मुद्रा, सिक्के इत्यादि की महत्ता समानरूप से द्रष्टिगोचर होती है। उल्लेखनीय है की कालचुर्य इष्ट देवता महारुद्र भगवान शिव व ब्रह्मा विष्णु महेश के त्रिदेव स्वरूप तथा कुल देवी माँ महामाया (सरस्वती, लक्ष्मी व महिसासुरमर्दिनी का त्रिदेवी स्वरूप) का पूजन करते थे। उनका राज चिन्ह स्वर्ण नंदी (स्वर्ण वृषभ) था।

चेदी राज्य मे कलचूरी राजा अमरसिंघ देव के निधन पश्चात नागपुर के भोसले शाशकों का आधिपत्य हुआ। अल्पकालीन मराठा शाशन के बाद इस क्षेत्र मे फैली अराजकता के दौरान विभिन्न जनजातीय मुखियाओने छोटे छोटे भूभागो पर अपना आधिपत्य जमा लिया। इसी दौरान ब्रिटीशरो ने इस क्षेत्रको अपने अधीन लेते हुए १८५४ मे रायपुर कमिशनरेट की स्थापना की।

सांप्रदायिक सदभावना, कलाप्रेमिता, ज्ञान पिपासा और ज्ञानिओ का सम्मान, रचनात्मक अभिगम, धर्म परायणता, हिन्दू वैदिक संस्कृति के प्रति आस्था, स्त्री दाक्षिण्य (नारी का सम्मान व कुटुंब व्यवस्था मे महत्वपूर्ण स्थान), गोवंश की महत्ता, राजसी प्रकृति, पान बीड़ा, समाजोपयोगी कार्य, सामाजिक और वर्णव्यवस्था से जुड़ी अमानवीय कुप्रथाओ व अतिब्राह्मणवाद की आलोचना व उपहास (जिसके चलते उन्हे अन्य ब्राह्मण समूहो के रोष का भी अनुभव करना पड़ा), इत्यादि अभीर ब्राह्मणो की लक्षणिकता रहे है।

सोलोमन से लेकर के भक्त कवि नरसिंह मेहता तक और आज भी अभीर ब्राह्मणो मे यही लाक्षणिकता दिखाई पड़ती है।
कालचुर्य साम्राज्य के साथ मध्य भारत मे आखरी ब्राह्मण साम्राज्य का भी अस्त हो गया परंतु अभीरों की अस्मिता एव उनकी सहज लाक्षणिकता आज भी कायम है।

ऐतिहासिक काल से ही यादव सैन्य परम्परा से जुड़े हुए रहे हैं। अपने धन, परिवार अथवा समाज की रक्षा के लिए यादव कभी भी अन्यों...
31/03/2022

ऐतिहासिक काल से ही यादव सैन्य परम्परा से जुड़े हुए रहे हैं। अपने धन, परिवार अथवा समाज की रक्षा के लिए यादव कभी भी अन्यों पर आश्रित नहीं रहे, जहां वे उच्च कुल के थे, वहीं वे पराक्रमी योद्धा थे। प्रत्येक युग में यादव सेनाओं में भरती होकर यश और मान अर्जित करके राज्यों और साम्राज्यों के संस्थापक
और स्वामी बने। चाहे वह महाभारत पूर्व का काल है, अथवा उसके बाद का, सभी समय यादव सेनाओं में रहे हैं। स्वतन्त्रता और देशभक्ति की भावना उनमें सर्वोपरि रही

ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध सन् 1739 ई. में सर्वप्रथम यादव सेनापति वीर अझगू मुतूकोणार यादव ने दक्षिण भारत में अंग्रेज़ी हुकूमत से संघर्ष का बिगुल बजाया तो सन् 1857 में उत्तर में राव तुलाराम के नेतृत्व में नसीबपुर (नारनौल) के मैदान में केवल पांच घंटे की लडाई में पांच हजार योद्धा काम आए, जिसमें यादव और अन्य जाति के भारतीय वीर व उनके सेनापति थे, वहीं अंग्रेजी सेना का कमांडर एवं कप्तान यादवों के हाथों मारा गया था।
प्रथम विश्व महायुद्ध में हरियाणा के उमराव सिंह यादव को अपनी वीरता के लिए युद्ध का सर्वोच्च सम्मान विक्टोरिया क्रॉस मिला था। अंग्रेजी शासन की स्थापना के बाद यादवों को उनकी देशभक्ति के दण्ड स्वरूप सेना में भर्ती नहीं किया जाता था, किन्तु जाति के नेताओं के प्रयत्न से सेना में उनकी सीमित भर्ती आरम्भ हुई और वे बहुत अच्छे सैनिक व अफसर साबित हुए।
अंग्रेजी राज में यादवों की भर्ती आरम्भ हुई। एक अंग्रेज सैन्य अधिकारी, मेजर एस. एच. ई. निकोलस के अनुसार : 1898 में रसल्स इंफेन्ट्री में चार कम्पनियां अहीरों की थी, दो 95वीं रेजिमेन्ट में और दो 98वीं में राव युधिष्ठिर सिंह के उत्तराधिकारी राव बहादुर बलवीर सिंह ने राव युधिष्ठिर सिंह द्वारा अहीरों को सेना में भर्ती करवाने के कार्य को आगे बढ़वाया। प्रथम विश्व युद्ध (1914) में जब अंग्रेजी सरकार को अधिक सैनिकों की आवश्यकता हुई , तो उन्होंने राव बलवीर सिंह की सहायता से कुछ अहीर तोपखाने और पैदल पल्टनों में भर्ती किए गए । किन्तु अहीर
रेजिमेंट नहीं बनाई गई। ब्रिटिश सेना में अहीर सैनिकों ने अदभ्य साहस का परिचय दिया। व बहुत अच्छे लडाके और वीर साबित हुए भारतीय अफसरों के मार्ग-दर्शन के
लिए लिखी गई पुस्तक में अहीर, जाट, गूजर, राजपूत, आदि जातियों की विशेषताएं के विषय में मेजर ए.एच.बिंगले ने लिखा यादव बहुत अच्छे सैनिक हैं
। ये बहादुर एवं मेहनती हैं और अनुशासन प्रिय हैं। मैं अपने दस वर्षों के अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि अहीर सैन्य कार्य के लिए सर्वथा योग्य हैं। मेरी राय में अहीरों की विगत की भरती काफी सफल अनुभव रहा है, और सरकार के लिए यह अच्छा रहेगा. यदि इनकी कम्पनियां बढा दी जाए।
और अन्त में लिखा : जब आप भारत की सैनिक जातियों में गोरखा, राजपूत, व ब्राह्मण, जाट , गूजर और पंजाबी मुसलमान का नाम लेते है, तो यदुवंशी अहीर को न भूलें।
किन्तु अहीर रेजिमेंट' न बनी। हां हैदराबाद रेजिमेंट की पैदल पल्टन में एक तिहाई
और तोपखाने की (5वीं) माउन्टेन रेजिमेन्ट में अहीरों की भर्ती बढा दी गई। अहीर रेजिमेंट का निर्माण न करने के कुछ प्रमुख कारण सन 1857 की क्रान्ति अथवा स्वतन्त्रता का प्रथम संग्राम अथवा सिपाही विद्रोह गदर में न केवल रेवाड़ी राज्य के राव तुलाराम और उनके अनुयाईयों ने बढ़चढ़ भाग लिया था, बल्कि उत्तर प्रदेश, बिहार मध्य प्रदेश, आदि के यादवों ने भी कम्पनी के विरुद्ध टक्कर लेने में कोई कसर न छोड़ी और हज़ारों अंग्रेजी सैनिक एवं कर्नल कप्तान सहित मौत के घाट उतार दिया । द्वितीय, पूरे देश में यादव के पास कोई ऐसा नीतिवान नेता न था, जो समयानुकूल निर्णय लेकर जाती को उचित नेतृत्व प्रदान कर सकता हो। आज भी अखिल भारतवर्षीय यादव महासभा के पास कोई ठोस एवं प्रामाणिक जानकारी पूर्ण आकड़े यादवों के विषय में उपलब्ध नहीं हैं। आज भी मात्र मुट्ठी भर यादव इस विषय में सोचते दिखाई देते हैं और शेष बहुत सीमित लोगों को इस विषय में ज्ञान है। उत्साह और संगठित प्रदर्शन का अभाव किसी भी मांग को ठोस कार्यवाही में परिवर्तित नही करवा सकता। अत: न तो मांग ही दिखाई देती है और न उसके पीछे जन समर्थन
ऐसी परिस्थितियों में यादव समाज को अपने संकीर्ण कोटरों से निकल कर अपना नेतृत्व सुयोग्य हाथों में सौंपना होगा और उनके निर्देशानुसार चलना होगा। प्रायः देखा जाता है कि सुयोग्य यादव जातीय संस्थाओं के पदों के लिए चुनाव लड़ने से सकुचाते हैं और शोशेबाज लोग संगठनों के सिरमौर बन कर जाति और संगठन का नुकसान ही अधिक करते हैं। प्राय: संगठनों की सदस्य संख्या भी अति सीमित है
उदाहरणार्थ आखल भारतवर्षीय यादव महासभा सारे देश के यादवों की प्रतिनिधि सभा होने का दावा तो करती है, किन्त इसकी सदस्य संख्या वर्तमान में सम्पूर्ण भारत में मात्र एक हजार के ही आसपास है।
अखिल भारतवर्षीय यादव महासभा ने आज तक कोई महत्वपूर्ण आंदोलन नेतृत्व नहीं किया है मात्र कुछ सभा एवं आयोजन को छोड़कर आवश्यकता है मानसिकता को बदलने और क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने का
सन 1942 की एक घटना (शायद) यादव रेजिमेंट के भविष्य की ओर इंगित कर रही थी। घटना घटी सिंगापुर में, सन 1942। हैदराबाद रेजिमेंट के एक राष्ट्रवादी
और सर्वप्रिय मुसलमान अफसर, जहीर, को उसके विचारों के कारण सेना से निकाल दिया गया। रेजिमेंट के अहीर सिपाही खुली बगावत पर उतर आए। बड़ी कठिनाई से मेजर तिम्मैया ने अहीरों को शान्त किया। सेना की पुनर्गठन समिति ने 19 हैदराबाद को तोड़ने की सिफारिश कर दी। इसमें जाट, अहीर और कुमाऊंनी बराबर संख्या में थे। जाट सैनिक को जाट रेजिमेंट में भेजे जाए और अहीरों तथा कुमाऊंनियों की अलग रेजिमेंट बनाने की सिफारिश की गई। अहीर रेजिमेंट का सेन्टर आगरा और कुमाऊं का रानीखेत रखने की सिफारिश की गई। यह 1944 की बात है। जाट तो जाट रेजिमेंट में चले गए, किन्तु अहीर रेजिमेंट न बनी। कुमाऊं रेजिमेंट बनी उस समय (1946) में जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री थे और गोविन्द बल्लभ पंत भारत के गृहमंत्री थे। वे जातिगत द्वेष के कारण यादव के विरुद्ध थे। इस जातिगत विद्वेष के परिणाम स्वरूप और यादवों के राष्ट्रीय नेतृत्व के अभाव में गोबिन्द बल्लभ पंत ने कमाऊं रंजिमेंट में भी यादव का अनुपात 50 प्रतिशत से घटाकर 25, और कमाऊंनियों का 50 से बढ़ाकर 75 प्रतिशत कर दिया। किसी प्रकार का विरोध यादवों की ओर से नहीं प्रदर्शित हुआ । प्रदर्शित तो तब होता, जब कोई सशक्त संगठन अथवा नेतृत्व होता। युद्ध में बलिदान यादवों का होता है नाम और शोहरत
कुमाऊंनियों के हिस्से में आती। भारत की प्रथम अग्नि परीक्षा स्वतन्त्रता प्रदान के तुरन्त पश्चात् (1947-48) कश्मीर में हुई, जहां यादव सैनिकों ने शत्रु को धूल चटाकर आखिरी कतरा तक बहाकर कश्मीर को बचा लिया । फिर 1962 के भारत-चीन युद्ध में 13 की सी कम्पनी के 120 में से 116 शहीद होने वालों में 114 अहीर बलिदानीयों ने हिमालय के माथे पर अपने शौर्य की अमिट गाथा लिखने के लिए आठ हजार चीनी सैनिक को मौत की नींद सुला दिया। ऐसा साहस, वीरता, प्राणोत्सर्ग की भावना रण में पीठ न दिखाने की प्रबल भावना का दर्शन इतिहास में बिरल है। यही नहीं 1965 और 1971 के यद्धों की सफलता का कारण हैं तो वीर-अहीर, किन्तु का सेहरा अन्यों के नाम दर्ज है क्योंकि 'अहीर-रेजिमेंट नहीं है। यह जातीय
संगठनों और सामाजिक तथा राजनीतिक नेतृत्व की दुर्बलता का परिणाम है।
ब्रिटिश शासन में फौज ब्रिटिश हितों के लिए युद्ध करती थी, वहीं स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् वही भारतीय फौज देश की स्वतन्त्रता, सुरक्षा और सम्मान के लड़ती रही है। सन् 1947-48, 1962, 1965, 1971 और 2001-02 के यादव सैनिकों और अफसरों का अस्मरणीय बलिदान और योगदान रहा है।
वैसे हरियाणा के यादवों ने द्वितीय विश्व महायुद्ध में, विक्टोरिया क्रॉस सहित अनेक पदक प्राप्ति किए थे। कितने सैनिक ही आजाद हिन्द फौज में शामिल होकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। कारगिल युद्ध में उत्तर प्रदेश के योगेन्द्र सिंह यादव को अदम्य साहस, शौर्य एवं पराक्रम के लिए परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया है। रेजांगला की लड़ाई और यादव वीरों का बलिदान ___ 18 नवम्बर, 1962 का दिन भारत के युद्धों के इतिहास में अद्वितीय साहस, शौर्य
और बलिदान में सर्वोच्च स्थान रखता है। उस दिन भारत-चीन युद्ध के बीच 13 कुमाऊं रेजीमेंट की चार्ली कम्पनी के अहीर जवानों में मातृभूमि की रक्षा के लिए जो असाधारण साहस, शौर्य और बलिदान की गाथा अपने खून से लिखी वह भारत हा नहीं, वरन विश्व इतिहास में शायद ही कहीं देखने को मिले। उस दिन इस C कम्पनी के 120 में से 116 रणबांकरे, जिन में 114 अहीर थे, आखिरी गोली ही नहीं आखिरी सांस तक असंख्य चीनी सेना का विषम और विकट परिस्थितियों में सामना करते रहे। गोला-बारूद समाप्त हो गया, तो रायफलों को लाठी की तरह प्रयोग करक शत्रुओं को मौत की नींद सुलाते रहे और जब रायफलें भी टट गई तो हार्थो से ही मल्लयुद्ध करते हुए चीनियों को मौत के घाट उतारते रहे। कहां तो चीनियों का भारी संख्या, जिनके पास बढ़िया हथियार और प्रचुर मात्रा में गोला-बारूद था, और कहा निहत्थे

यादव सैनिक। हथियार तो दूर, तन पर मौसम के अनुकूल पूरे वस्त्र भी न थे। हां ये यादव महेन्द्रगढ़, रेवाड़ी, गुड़गांव, अलवर, आदि के गर्म तथा शुष्क क्षेत्र के निवासी और कहां हिमालय की - 40 डिग्री से नीचे की जमा देने वाली ठंड। वहां सांस भी जमकर बर्फ बन जाता था, जूते से बाहर निकालने पर पैर भी बेकार हो जाता था और काटना पड़ता था। ऐसी विकट परिस्थितियों में इन यादव वीर अहीरों ने यह युद्ध लड़ा।
कहां तक चीनी सैनिकों को मारते, एक मरता तो दस उस का स्थान पे आ जाते थे । वीर यादव चीनियों को उठा-उठाकर नीचे फेंकने लगे। पर उन पर शत्रु गोलियों की बौछार करके उनके तन और प्राणों को छलनी किए दे रहा था। एक एक वीर के वक्षस्थल में कई-कई गोलियां लगी थीं। सब के सब ढेर हो गए, पर पीठ दिखाकर भागे नहीं चीनी सैनिकों ने इन वीरों के शौर्य और साहस को देखकर दांतों तले उंगली दबाली। उन्हें भारतीय सेना के इस रूप का ज्ञान हुआ। तो उनके बढ़ते कदम रुक गए। चीनियों ने अब तक किसी भी मुठभेड़ में इतनी जानें नहीं गवाई थीं। चीनियों ने बलिदानी अहीरों को देखा, वे मुट्ठी भर थे। शत्रु के साहस, वीरत्व और बलिदान की वे, सैनिक होने के नाते, प्रशंसा किए बिना न रह सके। चीनियों के उठे हुए सिर झुक गए। लांसनायक सिंहराम यादव के गोलियों से छलनी हुए शरीर को उन्होंने सम्मान से उठाया, भूमि समतल की, वहां लिटाया, कम्बल से ढका और एक संगीन सिरहाने गाड़कर उनके अद्वितीय वीरत्व का सम्मान किया। ऐसा ही नायब सूबेदार सुरजाराम यादव और नायक रामकुमार के शरीर को सम्मान दिया। अन्य शहीदों की वीरता देखकर शीश झुकाए वे वापिस लौटे
चीन ने भारत को इस विषय में सूचित किया, किन्तु यहां की सेना और सरकार ने लापता बताकर उनको भुला दिया। लगभग अढाई महीने बाद एक गडरिये ने
विलक्षण दृश्य देखा और वह बेहोश हो गया। होश आने पर वह दोड़ता हुआ आया और सैन्य अधिकारियों को हांफते हुए दृश्य का वर्णन किया। अधिकारियो न भय से उस रोंगटे खड़े कर देने वाले दृश्य को देखा जो 18 नवम्बर को घटित हुआ था
ऐसा लगता था मानो कुशल शिल्पियों ने इन दृश्यों को बनाया हो। वीर अहीर ऐसी
नींद सो रहे थे, जिसका अन्त न था। चीनियों ने इतनी बमबारी की थी गहरे गड्ढे हो गए थे. नाकारा बमों को उठाकर लाया गया. अधिकतर का वजन अस्सी पौंड था
ऐसी कोई लाश न थी जिसके 30-35 गोलियों से कम गोली लगी हो।
जमादार हरिराम यादव के शरीर पर सैंतालीस गोलियों के घाव थे। सबके शरीर पर नाभि से ऊपर गोलियां लगी थी। इसका अर्थ था नाभि से नीचे का भाग र्मोचे में था और ऊपर बदन लड़ने के लिए बाहर था। एक बंकर की चादर में 759 गोलियों का सूराख थे जवानों के हाथों में बेशुमार गोलियां लगी हुई थी।1947 से लेकर 1999 के कारगिल युद्ध तक यादवों ने आपना परचम लहराया फिर भी कुछ धर्म एवं राष्ट्र के ठेकेदारों ने यादव से कट्टरता रखने के कारण आज तक रेजिमेंट का गठन नहीं हुआ

रेजिमेंट ने बनने के कारण यादव का दोष है

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