07/07/2022
#इतिहास #बलिया_विरासत
पुण्यतोया भगवती गंगा , तम-अघ हारिणी तमसा, वाशिष्ठी सरयू, काम को दग्ध करने वाले कामेश्वर के कवलेश्वरताल, कुशहृदविंदु के सुरथ- सुरहताल आदि जल स्त्रोतों की अगाध जलराशि में ओतप्रोत जन्मभूमि के भू-भाग पर जब लिखने के लिये बैठता हूँ, तो लेखनी से अधिक द्रुत गति से बुद्धि और भावनाएँ दौड़ने लगती हैं।
खोंग यही नाम लिखा है, वैश्विक मानव जाति के इतिहासकार रागेय राघव ने अपनी पुस्तक अंधेरा रास्ता में आज हिमालय की उपत्यकाओं से निकल कर बंगाल की खाड़ी में महासागर से मिलने वाली जीवनदायिनी गंगा का। कालान्तर में यह कभी फारस की खाड़ी ( श्रीनार- क्षीरसागर) से आती थी। आचार्य चतुरसेन की मने तो इसीलिये हरिप्रिया- विष्णु प्रिया कही जाती है।
विमुक्त- भृगु क्षेत्र की बलियाग भूमि में भवानी सरयू-घार्घरा को वाशिष्ठी उस कृतज्ञता में कहना इस कारण से सर्वथा उपयुक्त है कि महर्षि भृगु शिष्य दर्दर अवध के कुलगुरु वशिष्ठ जी की आज्ञा से ही इस देवहा को गंगा से मिलाने लाये थे।
विश्व के विद्वतजन विज्ञ है, मानवीय संस्कृतियां सदानीरा सुरसरि तटों पर पनपीं, पुष्पित पल्लवित हुई थी ।
सृष्टि सृजन की छठवीं पीढ़ी का होमोसैपियन मानव जब जंगली जीवन से थोड़ा ऊपर उठकर समूह में पर्वत कन्दराओं में रहने लगा था। तब नयी धरती की खोज शुरू हुई। खोंग नदी की जलधारा में बाँस की बनी तरणियां तैरने लगी थी।उत्तर में हिमालय पारस्य पर्वतीय प्रदेशों के कठोर जीवन से खोंग के मैदानी भू-भाग का जीवन सरल-सुखद है । ऊर प्रदेश के निषाद-मल्लाह नाविकों का यही कहना है। समतल भूमि, सम शीतोष्ण दिवस, प्रचुर आखेट और भोजन भी है। यह खोंग ही वहाँ सदानीरा है। हा हा (सर्प) डंकार ( शेर-बाघ) का भय भी कम है।
आदिशक्ति ‘धमरा’ के कुल से भी युवा उतावले हो रहे थे, नयी धरती पर जाने के लिये। ब्रिटिश इतिहासकार मि0 एफ0 एच0 फिशर 1884 ई0 के शासकीय गजेटियर में प्राचीन किंदवंती के हवाले लिखते हैं कि हिमालय के उत्तर सुषानगर (ईरान) के प्रजापति ब्रह्मा जी तक आद्य पत्रकार नारद जी यह समाचार पहुँचाते हैं कि दक्षिण में पृथ्वी पर एक ऐसी नदी और ऐसा स्थान है, जहाँ का जल पीकर कौवा हंस बन गया है।
पर्शियन इतिहासकार श्री जैनेसिस भी इसकी पुष्टि करते हैं। पुरातत्ववेत्ता डाॅ फ्रेंकफोर्ट और लेंग्डन की सुमेरियन-प्रोटोइलामाइट सभ्यताओं के विकास क्रम में यह घटना विस्तार लेने लगती है ।
प्रचेता-ब्रह्मा जी अपने मार्गदर्शक मंडल के मुखिया, पिता कश्यप से सलाह कर अपने पुत्र महर्षि भृगु को इस भू-भाग पर भेजते हैं।
अंगे्रज अंगिरा की खोज पवित्र अग्नि के साथ महर्षि भृगु अपने खगोलीय ज्ञान का उपयोग करते हुए विमुक्त भूमि पर पधारें। किन्तु उत्तर-दक्षिण की रार नहीं मिट पा रही थी।
दैत्यपति हिरण्यकश्यपु ने अपनी पुत्री दिव्या को संबंध मधुर बनाने के लिए ही प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र भृगु के साथ ब्याहा था। परन्तु सभ्य, कुलीन ऋचाओं के ज्ञाता देवकुल के श्री हरि विष्णु ने शुक्र, त्वष्टा की माता भृगु पत्नी दिव्या की हत्या कर दिया था। इस अविश्वास को मिटाने और नये संबंध स्थापित करने के लिये दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी से महर्षि भृगु का विवाह हुआ। दूसरी ओर इस उर्वर प्रदेश के पश्चिम में प्रभावशाली कौशिकवंशी राजा गाधि की पुत्री सत्यवती से भृगु पुत्र ऋचीक के विवाह की बात चलाई गई। राजा गाधि ने एक हजार श्यामकर्ण ईरानी घोड़े दहेज लेने के बाद यह संबंध स्वीकार किया।
विमुक्त भूमि में धान की खेती प्रारंभ हो गयी। गुरुकुल में अग्निहोत्र, कर्मकाण्ड, ज्योतिष की पढ़ाई होने लगी। प्रचुर प्राकृतिक सम्पदा, आज्ञाकारी अनुचर और उर्वर भूमि ने भार्गवों को खूब समृद्धि दिया।
इधर उत्तराधिकारी विहीन राजा गाधि को दामाद ऋचीक ने अपने मंत्रशक्ति और याज्ञिक हविष्यान से राज्य का उत्तराधिकारी पुत्र विश्वामित्र का उपहार प्रदान किया । ऋचीक के पौत्र, जमदग्नि कोशल राजकुमारी रेणुका के पुत्र परशुराम और राजा गाधि के पुत्र विश्वामित्र का जन्म एक ही साथ हुआ।
सम्पूर्णं गंगाघाटी में महर्षि भृगु के नाम का डंका बजने लगा था। इस समय ऋग्वेद के दसवें मण्डल की रचना हो रही थी।
कालान्तर में भार्गववंशी गुजरात के निःसंतान राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से च्यवन के साथ विवाह होने से गुजरात को भृगुकच्छ बनाये। इसके अतिरिक्त सुदूर दक्षिण दिशा में अफ्रीका महाद्वीप तक फैल गये। अफ्रीका में भार्गववंशी राजा खूफू नाम से जाने जाते हैं। सूर्य, गौ और अग्नि की पूजा भार्गव ही अफ्रीका महाद्वीप तक ले गये। यहाँ के राजसी पिरामिडो में सोने की बनी सूर्य और गाय की प्रतिमाएँ मिलती हैं। अंतिम भार्गववंशी राजा फिरौन हुए। जिनका शव आज भी मिश्र के म्यूजियम में सुरक्षित रखा है। इनके साम्राज्य का पतन हजरत मूसा अली के सूफी सम्प्रदाय के विस्तारकाल में हुआ था।
ब्रह्मर्षि बनने के लिए प्रयासरत विश्वामित्र ने भी अपने कुछ परिजनों को आस्ट्रेलिया तक खदेड़ा ।
भारत के संविधान निर्माता डॉ भीमराव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘‘द बुद्धा एण्ड हिज् धम्मा’’ में लिखा है कि विरक्त हो निर्वाण की खोज में निकले राजकुमार सिद्धार्थ ने महर्षि भृगु के आश्रम में योग, ध्यान, यज्ञ, पूजा, कर्मकाण्ड का अभ्यास अध्ययन किया था। यहाँ संतुष्टि नहीं मिलने पर वह आश्रमपति भृगु से आज्ञा लेकर अलार कलार मुनियों से मिलने गये थे।
कालखण्ड ने करवट बदला। महर्षि भृगु के पुत्र शुक्र – शुक्राचार्य ने मातृकुल परम प्रतापी राजा बलि का त्रयलोक विजयी यज्ञ भृगुक्षेत्र में ठान दिया। अग्निहोत्र करने वाले प्रत्यक्ष युद्ध में इस दैत्याधिपति से जीत नहीं सकते थे। श्री हरि विष्णु की शरण में गये। राजा बलि को छल से पराजित करने की योजना बनी। विष्णु जी वामन ब्राह्मण बनकर अग्निहोत्र हेतु मात्र तीन पग भूमि की भिक्षा मांगने आयें। सभी पूर्व संबंधों को बताया, कुलगुरु शुक्राचार्य जी ने सावधान किया था, किन्तु दानवीर बनने की अभिलाषा ने राजा बलि को सम्पूर्ण साम्राज्य से च्युत कर बंदी जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य कर दिया।
रामायणकाल में महर्षि विश्वामित्र जी के साथ अयोध्या के दोनों राजकुमार श्रीराम-लक्ष्मण इस भू-भाग पर आते हैं। वर्तमान सिद्धागर घाट, लखनेश्वरडीह, रामघाट नगहर,कामेश्वर धाम कारों, सुजायत और उजियार भरौली को इनकी लीलाभूमि के रुप में श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान दिल्ली ने चिन्हित किया है। बाल्मीकीय रामायण के बालकाण्ड के तेइसवें अध्याय में भी इसका उल्लेख है।
राजा राम की निर्वासित पत्नी माता सीता द्वारा तमसा नदी के तट पर स्थित बाल्मीकी ऋषि के आश्रम निवास करने एवं कुश-लव के जन्म, राजा श्री राम के राजसूय यज्ञ के घोड़े को उनके पुत्रों कुश लव द्वारा रोकने और अयोध्या की सेना से युद्ध की साक्षी भूमि होने के भी साक्ष्य बिखरे पड़े हैं। महाभारतकाल के महामनीषी महाभारत महाकाव्य के रचयिता, कौरव-पाण्डव वंश की वंशावली जिनके तेजस् दान से आगे बढ़ी, गुरुपूर्णिमा पर पूजे जाने वाले वेदव्यास जी की जन्मभूमि होने का गौरव भी इसी भूमि को प्राप्त है।
महान सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य जिन्होंने इस अजनाभखण्ड में उत्तर – दक्षिण का भेद ईरान, इराक, यूनान, अफगानिस्तान, चीन, म्यांमार, पाकिस्तान, बंगलादेश अपने पौरुष से विजित कर एक अखण्ड भारत का निर्माण किया था। उनके पुत्र बिम्बिसार के कालखण्ड महाजनपद काल में इस भू भाग को कोशल नरेशप्रसेनजित ने राजनैतिक संधि में अपनी बहन महाकोशला का विवाह कर मगध सम्राट बिम्बिसार को दहेज में दे दिया था।
राजन्य परिवारों की कातर विवशता, मिथ्या अहंकार और सत्ता के लिये होने वाले सौदों की भी कहानियाँ हैं।
प्रसेनजित की बहन महाकोशला की बड़ी सौतन का पुत्र अजातपुत्र जब युवराज बना। तो उसने कोसलों को सीमा समेटना शुरू किया। यह बात प्रसेनजित को बुरी लगी, और मगध सम्राट बिम्बिसार को दहेज में दिया भू-भाग वापस ले लिया। किन्तु मौर्यवंशी मागध युवराज, अपने सूर्यवंशी सौतेले मामाश्री से भिड़ गया। कोसल नरेश प्रसेनजित को इसबार अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह चन्द्रगुप्त मौर्य के इस पौत्र अजातशत्रु सम्राट अशोक के साथ करना पड़ा और साथ में वापस लिया भू भाग भी दहेज में देना पड़ा। राजसत्ता के लिये बहन-बेटी और धरती बलि चढ़ती रही है।
इतिहास की माने तो ईसापूर्व 603 से 551 पूर्वेसा तक काशी, कोसल और मगध साम्राज्य की राजनीति में यह उर्वर, ऊर्जित, मनोहारी भूमि कभी आर कभी पार होती रही।
मि0फासवेल अपनी पुस्तक ‘चायनीज अकाउंट्स आफ इंडिया’ के पृष्ठ 306 पर एक चैंकाने वाली बात लिखते हैं। जिसकी पुष्टि कर्निघम के आर्कालाजिकल सर्वे आफ इंडिया वाल्यूम 16, डॉ ओल्डहेम और ह्वेनसांग का यात्रा वृतांत भी करता है। कपिलवस्तु का राजकुमार सिद्धार्थ जो दुःख का कारण और निवारण ढूंढने के लिए महर्षि भृगु के आश्रम में आया था। वह उरुवेला ( बोधगया ) तीर्थ में अर्हत बुद्ध बनकर कासियो के नगर मृगदाव ( सारनाथ) इसी मार्ग से जा रहे थे । गंगा पार करने के बाद इनका सामना रामायणकाल के ताड़का, सुबाहु, मारीच सरीखे मानवभक्षी मनुष्यों से होता है। यह इनके अर्हत की अग्नि परीक्षा की घड़ी थी।इस घटना के एक हजार साल बाद आये ह्वेनसांग लिखते हैं कि तथागत ने इन जंगली मनुष्यों का हृदय परिवर्तन कर दिया था। मौर्य सम्राट अशोक ने बुद्ध जहाँ बैठकर इन मानवों को उपदेश दिये थे, वहाँ शिलालेख लगवा दिया है। भोरे भरवली के अमावं गाँव में स्थित इस उपदेश स्थल पर डॉ ओल्डहेम को दिव्य ज्योति के दर्शन होते हैं।ऐसा उन्होंने स्वयं लिखा है।
बलिया जिले का ज्यादातर भू-भाग मलद, करुष राजाओं के अधीन रहा है। महर्षि विश्वामित्र के साथ प्रभु श्रीराम की यात्रा मार्ग के अन्वेषक मुझसे मलद और करुष राज्य की राजधानी बहुत पूछते हैं। वास्तव में मलद राज्य मल्ल राजाओं के राज्य का अपभ्रंश शब्द है। जिसकी स्थापना भगवान राम ने किया था। अपने जीवनकाल में ही उन्होंने अपने चारों भाईयों के पुत्रों में राज्य का बंटवारा कर दिया था। श्री लक्ष्मण जी के पुत्र चन्द्रकेतु को अवध का यह सीमान्त प्रान्त मिला। चन्द्रकेतु ने वर्तमान लखनेश्वरडीह को अपनी राजधानी बनाया और स्वयं को मल्ल राजा घोषित किया। मल्ल का शाब्दिक अर्थ बलवान होता है। मल्ल राज्य के दक्षिण में काशी राज्य की सीमा समाप्त होने के बाद करुष राज्य की सीमा प्रारम्भ होती थी। वर्तमान बलिया जिले के भू-भाग को और स्पष्ट रूप में बताया जाये तो जिले का गड़हा परगना करुष राज्य में था। द्वाबा परगना अंग राज्य के अन्तर्गत आता था। खरीद और बाँसडीह परगना पर वज्जी शासन करते थे। सिकन्दरपुर, कोपाचीट और लखनेश्वरडीह परगना पर मल्लों का राज था।
अखण्ड भारत के अधिष्ठाता सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य और आचार्य चाणक्य के मगध साम्राज्य के अंतिम शासक मौर्यवंशी बृहद्रथ की हत्या छल से उन्हीं के यूथपति पुष्यमित्र शुंग ने कर दिया था ।
यह मानव जातियों की अन्तर्भुक्ति का सबसे महत्वपूर्ण कालखण्ड है। डॉ पी वी काने की ‘‘धर्मशास्त्र का इतिहास’’ और विमल चरण लाॅ की पुस्तक ‘‘ट्राइब्स इन ऐंशेंट इण्डिया’’ को देखें तो इस समय कम्बोज, गांधार, कुरु, पांचाल, शौरसेन, आग्रेय, चेदि, मद्र, मालव, शाल्व, उशीनर, वाह्लीक, त्रिगर्त, यौधेय, केकय, आभीर, शिवि, दरप, करुष, कुलूट, कुलिन्द, बर्बर, मुरुण्ड, आर्जुनायन, अंबष्ट, निषाद, निषध,काशी, कोसल, वत्स, यातुधान, आत्रेय, भारद्वाज, लम्पाक, योन, कलिंग, अंध्र, दमिल, शबर, मूतिब, पुलिन्द, कुंतल, राष्ट्रिक, नासिक्य, अश्मक, मूलक, चोल, पाण्डय, केरल या चरे, मागध, विदेह, ज्ञातृक, शाक्य, मल्ल, बंग, गौड़, सुप्ल, पुण्ड्र, किरात, प्राग्ज्योतिष,बुलिय, कोलिय, मोरिय, भग्ग, कालाम, लिच्छवि, उत्कल और उड्र, अवंति, सिंधु सौवीर, सुराष्ट्र, शूद्र, लाट, शूर्पारक, औदुम्बर, काक, खरपरिक, सनकानीक, मत्स्य, रमठ, पारद, भोज, मेकल , दशार्ण, पारियाण, पेटनिक, गोलांगूल, शैलूष, कुसुम, नामवासक, आधक्य, दण्डक, पौरिक, अथर्व, अर्कलिंग, मौलिक, मूषिक, चूलिक, कणकन, तोसल, वैदिश, तुष्टिकार, माहिषक, कीकट, प्रवंग, रांगेय, मानद, उग्र, तंगण, मुदकर, अंतगिय, बहिर्गिर, अनूप सूर्य्यारक, वृक, हारभूषिक, माठर, जागुण, ब्रह्मोत्तर भृगुकच्छ, माहेय, भोज, अपरांत, हैहय , भोगवर्धन, हर्षवर्धन, सारस्वत, अश्वकूट, चर्म खण्डिक इत्यादि।
इनको पढने से यह बात पूरी तरह से स्पष्ट हो जाती है कि महाजनपद काल में जातियां नहीं थीं। नागरिक अपनी जन्मभूमि की राष्ट्रीयता से जाने जाते थे। मगध का मागधी, कम्बोज का काम्बोज, गंधार का गांधार।
पी0 वी0 काणे को नहीं भी मानें तो वैदिक युग के समाप्ति के पहले ही कर्म आधारित जातियों की उल्लेख मिलता है। जिसमें जो वंश समुदाय जिस पेशे से जीविका चलाता था, वही उसकी जाति होती थी।
ऐसा कौशिकेय नहीं कहतें हैं, वाजसनेय संहिता, तैत्तिरीय संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण, काठक संहिता, अथर्ववेद, पाण्डय ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण, छांदोग्य और बृहदारण्यकोपनिषद में अजापाल-बकरी पालने वाले चरवाहों की जाति। किरात-जंगल में आखेटक। गोपाल-गौवंश पालक, चर्मम्मन- चमड़े का काम करने वाले। चाण्डाल-मृत्यु के उपरांत संस्कार करने वाले। दास-सेवा करने वाले। धैवर, निषाद या नैषाद नाव चलाने वाले। बिन्द या बैन्द मछली मारने वाले। सुराकार शराब बनाने-बेचने वाले कलार या कलवार। राजमिस्त्री भवन बनाने वाले। रथकार, सूत रथ बनाने चलाने वाले। वप नाई। वासह-परलपूली कपड़े धोने वाले धोबी। वंशनर्तिन नाचने गाने वाले नट नटिन। वाणिज, वणिक बनिया। हिरण्यकार सुनार। राजपुत्र जो राज्य करते थे।
इसको अति संक्षिप्त रूप में लिखने के पीछे अपनी मंशा भी मैं स्पष्ट करना देना चाहता हूँ। सृष्टि के आरम्भ से ही मनुष्य की कोई जाति नहीं रही है। वर्ण व्यवस्था की बात तो घोर अमानवीय और हास्यास्पद है। वैदिक काल में जब देव, दैत्य, दानव, असुर, नाग, गन्धर्व आपस में विवाह करते थे। एक ही कश्यप की दिति, अदिति, दनु से सभी मनु के संतान मनुष्यों की उत्पत्ति होती है। फिर यह अनावश्यक वितण्डा खड़ा कर समाज को विखण्डित करने वाले असामाजिक तत्वों को उपेक्षित करने की आवश्यकता है।
हम पुनः जन्मभूमि बलिया लौटते हैं। पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल के पतन बाद जिले के कोसल राज्य के अधीन रहे , लखनेश्वरडीह, भदाँव और सिकन्दरपुर परगना में चेरों और भाँड़ का आधिपत्य हो गया था। बाँसडीह, द्वाबा, कोपाचीट परगना चेरूओं के अधीन हो गया था। जिसके प्रचुर पुरातात्विक प्रमाण प्राप्त होते हैं।
चेरु राजा भरन किताई ने ही मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा पराजित उज्जैन के राजा भोज को और बाँसडीह में आये निकुम्भ राजाओं को शरण दिया था।
मुस्लिम आक्रमणकारियों में सबसे पहले सन् 1194 ई0 में कुतुबुद्दीन ऐबक बलिया जिले की सरहद में कुतुबगंज घाट पर आया। सन् 1202 ई0 में इख्तियार मुहम्मद ने घाघरा नदी के तट पर स्थित कठौड़ा और कुतुबगंज के समृद्ध नगर पर अधिकार कर लिया। यहाँ यह एक उल्लेख करना उचित होगा कि बलिया जिले का एक बहुत छोटा राज्य हल्दी जिसके यशस्वी तिलकधारी राजा श्री रामदेव जी हुए, वह मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा कभी जीते नहीं जा सके।
सन् 1493 ई0 में सिकन्दर लोदी बलिया के घाघरा नदी के तट पर स्थित कठौड़ा आया था।या था।
05 मई 1529 ई0 को बाबर और महमूद लोदी के बीच मध्ययुगीन इतिहास की पहली जल और थल पर हुई जंग का साक्षी बलिया का खरीद बना।
मुगल बादशाह औरंगजेब की मौत के बाद बलिया में राजपूत जमींदार शासन करने लगे। किन्तु सन् 1719 ई0 में जब मुहम्मद शाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा,तो उसने इन जमींदारों से लगान वसूल कराने लगा।
29 दिसम्बर 1764 ई0 को इस जिले का भू भाग भी ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार के अधीन हो गया था।
उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ मण्डल का बलिया जनपद 25.33 तथा 26.11 उत्तरी अक्षांश एवं 83ः39 तथा 84ः39 पूर्वी देशान्तर पर स्थित है । इस जिले की उत्तरी सीमा सरयू नदी जिसे यहाँ घाघरा, देवहा कहा जाता है तय करती है। इस नदी के पार उत्तर दिशा में उत्तर प्रदेश का देवरिया जिले एवं बिहार के सीवान जिले की सीमा है। इसकी दक्षिण सीमा का निर्धारण गंगा नदी करती है। जिसके पार बिहार प्रांत के भोजपुर और बक्सर जिले की सीमा पड़ती है। इस जिले की पूर्वी सीमा पर घाघरा नदी की धारा गंगा में मिलती है । जो इसकी सीमा का निर्धारण करती है । इसके पूर्व में बिहार के छपरा जिले की सीमा है। पश्चिम दिशा में इस जिले की सीमा पर उत्तरप्रदेश के गाजीपुर और मऊ जिले हैं ।
बलिया जिले की सम्पूर्ण लम्बाई पूरब से पश्चिम तक 184 किलोमीटर है और चैड़ाई उत्तर से दक्षिण की ओर 60 किलोमीटर है। जिले का कुल क्षेत्रफल 3103 वर्ग किलोमीटर अर्थात 313539 हेक्टेयर है।
2001 की जनगणना के अनुसार
बलिया जिले की कुल जनसंख्या 2001 की जनगणना के अनुसार 27,52,412 है। जिसमें 14,09,866 पुरुष और 13,42,546 महिला हैं। कुल बच्चे (छः साल तक) 5,22,958 जिसमें बालक 2,67,874 और 2,55,084 बालिका हैं ।
जिले की कुल साक्षरता 13,45,122 (60.30), साक्षर पुरुष 8,55,481, साक्षर महिलाएं 4,89,461 है। पुरुष-महिला का अनुपात 1000: 952 है। जनसंख्या का घनत्व 868 प्रति वर्ग किलोमीटर है ।
2011 की जनगणना के अनुसार
बलिया जिले की कुल जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 32,39,774 है। जिसमें 16,72,902 पुरुष और 15,66,872 महिला हैं। कुल बच्चे (छः साल तक) 4,71,852 जिसमें बालक 2,48,293 और 2,23,559 बालिका हैं ।
जिले की कुल साक्षरता 19,63,590 (70.94), साक्षर पुरुष 11,60,960, साक्षर महिलाएं 8,02,630 है। पुरुष-महिला का अनुपात 1000: 937 है। जनसंख्या का घनत्व 1,087 प्रति वर्ग किलोमीटर है ।
जिले के सांख्यिकीय विभाग द्वारा जारी आकडे के अनुसार वर्ष 2011-12 में तीन लोकसभा क्षेत्र बलिया, सलेमपुर और घोसी तथा सात विधानसभा क्षेत्र बैरिया, बलिया सदर, बाँसडीह, फेफना, सिकन्दरपुर, बेल्थरारोड और रसड़ा है ।
वर्तमान बलिया जिले में छः तहसीले बलिया सदर, बैरिया, बाँसडीह, सिकन्दरपुर, बेल्थरारोड और रसड़ा है। बलिया जिले में सत्रह क्षेत्र पंचायतें ( सामुदायिक विकासखंड) सीयर , नगरा, रसड़ा, चिलकहर, नवानगर, पन्दह, मनियर, बेरुवारबारी, बाँसडीह, रेवती, गडवार, सोहांव, हनुमानगंज, दुबहड, बेलहरी, बैरिया और मुरलीछपरा हैं । बलिया जिले में 163 न्यायपंचायतें और 833 ग्रामपंचायतें हैं ।
जिले में आबाद गाँवों की संख्या 1830 है गैर आबाद गाँव 530 है, कुल गाँवों की संख्या 2360 है।
बलिया जिले में वर्ष 2017 तक कुल दस नगरीय निकाय है। दो नगरपालिका बलिया एवं रसड़ा तथा बाँसडीह, सिकन्दरपुर, मनियर, रेवती, सहतवार, चितबड़ागाँव, बेल्थरारोड और बैरिया नगर पंचायतें हैं।
जिले में कुल 23 पुलिस स्टेशन हैं, जिसमें 14 ग्रामीण थाने और 09 नगरीय कोतवाली हैं ।
जिले में 2220 प्राथमिक विद्यालय, 905 उच्च प्राथमिक विद्यालय, 454 माध्यमिक स्तर के विद्यालय, 65 स्नातकोत्तर महाविद्यालय और एक जननायक चन्द्रशेखर विश्वविद्यालय है ।बलिया जिले के पौराणिक इतिहास पर दृष्टि डाली जाए तो इस भू- भाग को पूर्वकाल में विमुक्त क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। ब्रिटिश इतिहासकार मि0 एफ0 एच0 फिशर ने 1884 ई0 के शासकीय गजेटियर में लिखा है कि स्थानीय कथाओं के अनुसार जिले की बलिया सदर तहसील के हांसनगर गाँव में गंगा नदी का पानी पीने से एक हंस मनुष्य बन गया था। यह कथानक पुराणों में भी मिलता है। इस विमुक्त क्षेत्र में भगवान शिव की साधना और उनके द्वारा प्यार के देवता कामदेव को भष्म करने का भी उल्लेख मिलता है।
महर्षि भृगु के इस भू-भाग पर आकर आश्रम बनाने के बाद इसे भृगुक्षेत्र के नाम से जाना जाता था ।इसके बाद उनके शिष्य दर्दर मुनि के नाम से दर्दर क्षेत्र के नाम से जाना जाता था।
बलिया जिले के नामकरण के बारे में भी ढेर सारी कहानियाँ हैं। बलिया गजेटियर के अनुसार पौराणिक काल में यहाँ महर्षि भृगु के आश्रम में उनके पुत्र शुक्राचार्य द्वारा दानवराज दानवीर राजा बलि का यज्ञ सम्पन्न कराया गया था। संस्कृत में यज्ञ को याग कहा जाता है। जिससे इसका नाम बलियाग पड़ा था, जिसका अपभ्रंश बलिया है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह बुलि राजाओं की राजधानी रहा है। बलिया गजेटियर में कुछ विद्वानों ने बाल्मीकी आश्रम के बारे में लिखा है जिससे इसका नाम बालमिकीया से बलिया पड़ा है। इसी गजेटियर में बालुकामय भू भाग से बलिया नाम पड़ने का उल्लेख मिलता है।
बौद्धकालीन इतिहास में भी इस भू-भाग के बारे में अनेक महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। डॉ भीमराव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘‘द बुद्धा एण्ड हिज धम्मा’’ में लिखा है कि- राजकुमार सिद्धार्थ ने महर्षि भृगु के आश्रम में कुछ समय रहकर यज्ञ कर्मकांड और साधना की विधियों को सीखा था।
महाभारत के रचनाकार वेद व्यास जी का इसी भू भाग पर जन्म हुआ था। महाजनपदकाल में भी मल्ल, करूष राज्य के इस भू-भाग पर अनेक महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुई थी। मुगलकाल में भी यह भू-भाग गतिविधि का केंद्र रहा है। 05 मई 1529 ई0 में बलिया जिले के खरीद घाघरा नदी के किनारे बाबर और महमूद लोदी के बीच एक निर्णायक युद्ध हुआ था । जिसमें बाबर विजयी हुआ था ।
सन् 1302 ई0में बादशाह बख्तियार खिलजी ने सबसे पहले वर्तमान बलिया
Ballia fame Balliapilglowb Gazipur, Dhaka, Bangladesh Ballia fame BALLIA BALLIA NEWS ( बलिया समाचार ) ग्रुप से जुड़ते ही 3 लोगो को और जोड़े। Pushpendra पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ हिन्दू योद्धा पूर्वांचल फेम