22/04/2021
लक्ष्मीकांत मुतरुआर की जन्म दिन
एवं कुड़मालि दिवस पर विशेष
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लक्ष्मीकांत मुतरुआर कुड़मालि जगत के अनमोल रत्न थे। इन्होंने अपनी संपूर्ण जीवन कुड़माली भाषा के प्रचार प्रसार एवं इसकी गहन अध्ययन में बिताएं। इनका जन्म 22 अप्रैल 1939 ई. को बोकारो जिला के चास प्रखंड स्थित भंडरो गांव के टोला डुंगरीटांड़ में एक किसान परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम राखाल महतो तथा माता का नाम बुचि माहाताइन था। तीन भाई तथा दो बहनों में से ये बड़े थे। लक्ष्मीकांत मुतरुवार जी बचपन से ही बड़े साहसी और परिश्रमी छात्र थे। तमाम अभावों के बीच इन्होंने पिताजी के साथ कृषि कार्य करते हुए कर्मठता पूर्वक अपनी पढ़ाई पूरी करते रहे। उनकी प्राथमिक शिक्षा घर पर ही शुरू हुई। मध्य विद्यालय कुरा में आठवीं की पढ़ाई पूरी कर माध्यमिक पढ़ाई के लिए बारमसिया उच्च विद्यालय में नामांकन करवाएं। घर से काफी दूर होने के कारण आने जाने में बहुत कठिनाई होने लगी। जिसके कारण उन्होंने अपने ननिहाल बदुवा गांव में रहकर 1956 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। इसके पश्चात पिंजराजोड़ा के शिक्षण प्रशिक्षण विद्यालय से प्रशिक्षण प्राप्त किए तथा 1959 में शिक्षक बने ।अपने प्रचेष्ठा से बाद में उन्होंने स्नातक ,स्नाकोत्तर तथा वकालती की परीक्षा पास की। शिक्षण के क्रम में वे कई मध्य विद्यालय में प्रधानाध्यापक भी रहे और बोकारो जिला प्राथमिक शिक्षक संघ के अध्यक्ष भी थे ।30 अप्रैल 1999 को वे सेवानिवृत्त हुए।
सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में वे नौकरी जीवन से ही सक्रिय थे ।लेकिन अवकाश प्राप्त करने के बाद उन्होंने कुड़माली भाषा साहित्य एवं संस्कृति के लिए अपने आप को पूर्ण रूप से समर्पित कर दिए ।वे वैदिक रूढ़िवादी के खिलाफ थे। सामाजिक बुराइयों तिलक व दहेज के खिलाफ भी आवाज बुलंद की। पारंपरिक कुड़माली रीति-रिवाजों को स्थापित करने के लिए कुड़माली नेगाचारि पद्धति से अपने माता पिता का क्रिया कर्म (मरखी) एवं अपने बेटा बेटियों की शादी भी कराई।
वे सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ शिक्षा प्रेमी एवं नारी शिक्षा के प्रबल पक्षधर भी थे। नारी शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपने ही गांव में बालिका विद्यालय की स्थापना की। साथ ही कई उच्च विद्यालयों की स्थापना में अहम भूमिका निभाई। इसी क्रम में झारखंड प्रदेश में स्थानीय भाषा की शिक्षा आंदोलन को खड़ा करने में अग्रणी भूमिका भी निभाई ।अपनी मातृभाषा कुड़माली की उत्थान, संरक्षण एवं संवर्धन में ये मुखर रहे। ये कुड़मालि भाषा के अलावा संथाली,बांगला,
हिंदी,नागपुरी,
मुण्डारी,संस्कृत
अंग्रेजी आदि भाषाओं के ज्ञाता भी थे।
.झारखंड में भाषा आंदोलन की बात चली तो वे कुड़माली भाषा को स्थापित करने में तन ,मन ,धन से सक्रिय हुए ।1980 में जब डॉ कुमसर सुरेश सिंह रांची के कमिशनर सह प्रति कुलपति थे ।तब रांची विश्वविद्यालय में जनजाति एवं क्षेत्रीय भाषाओं के लिए अलग पीजी विभाग की स्थापना की बात आई और भाषाओं के लिए परामर्श दातृ समिति गठन की बात हुई तो निर्णय हुआ कि लक्ष्मीकांत मुतरुआर जी को कुड़माली के परामर्श दातृ समिति में रहेंगे ।1980-82 में कुड़माली सिलेबस बोर्ड का गठन होने की बात हुइ तो इनकी अगुवाई में वकील अंगद महतो व एचएन सिंह के साथ मिलकर बोर्ड का गठन हुआ । बाद में तीन भाषाविद् केशव चंद्र टिंडुआर,चित रतन महतो और चूड़ामन महतो जुड़े।
1983 में ही भाषा संपादकीय समिति का गठन हुआ जिसमें लक्ष्मीकांत मुतरुआर के साथ डॉ एचएन सिंह,डॉ शशि भुषण काडुआर थे। इसी वर्ष "मूलकी कुड़मी भाखि बाइसी" का गठन हुआ जिसके लक्ष्मीकांत जी अध्यक्ष बने एवं 1984 में आदिवासी कुड़मी समाज का गठन किया जिसके हुए उपाध्यक्ष हुए।
कुड़मी समाज के गौरव लक्ष्मीकांत मुतरुआर जी ने समाज संस्कृति की गतिधारा में तोरण उत्पन्न किया साथ में सामाजिक बुराइयों जैसे दहेज, विवाह विच्छेद, बाल विवाह आदि को रोकने में अहम भूमिका निभाई ।बाद में बिनोद बिहारी महतो, ए के राय ,शिबू सोरेन तथा अन्य कई स्थानीय नेताओं के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की जिसमें लक्ष्मीकांत जी संस्थापक सदस्य रहे।
कुड़माली भाषा साहित्य के ये मजबूत स्तंभ माने जाते है ।विशुद्ध रूप से कुड़माली के ये महान जानकर थे। ठेठ कुड़माली भाषा का प्रयोग इनके लेखों में मिलता है। प्रसिद्ध मानव शास्त्री डॉक्टर वीर भगत तलवार ने अपने स्मरण लेख में कुड़माली का होनहार के रूप में इन्हें चिन्हित किया था। इनके द्वारा प्रकाशित पत्रिका "साल पत्र" व "झारखंड वार्ता" में उनकी सभी रचनाएं प्रकाशित हुई थी। लक्ष्मीकांत मुतरुआर की लिखी कोई पुस्तकें विश्वविद्यालय के कुड़माली भाषा विभाग के आधार ग्रंथ बनी हुई है। उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध कृतियों में "एक डंडरा फूल" कुड़माली भाषा तत्व ,कुड़माली साड़ा आडा़ग तथा गइद पइद जुड़ती आदि अग्रणी है। इसके अलावा लक्ष्मीकांत मुतरुआर द्वारा संपादित
टउआ(1972) ,
फुरुंग(1975-76)हेलक(1983), कुड़माली(1988) आदि पत्रिका भी चर्चित रही। इनकी कोई कृतियां अभी भी अप्रकाशित है जिसमें रन गुने खंद, कुड़माली शब्द भंडार ,कुड़मालि मुहजारा इत्यादि है।
लक्ष्मीकांत मुतरुआर जी के द्वारा बनाई गई कुड़माली की वर्णमाला (कुड़मालि कड़ हाला) संजवेता गणेश्वर बंसरिआर द्वारा नवम एवं दशम वर्ग की पाठ्यक्रम पुस्तक "कुड़मालि फुल फर आर
भाङअर" के क्रम
सं.29 के पाठ में भाखि,भाङअर,
धमस,लुकान,साड़ापृ.सं-61-68 में स्वर वर्ण( हहि कड़)अ,आ,इ,उ,ए,व्यंजन वर्ण(पाहि कड़) अक,आच,ट,ड,गइ,जा,पु, बा, में,नु ति,आड़ ,बाञ,अन,दि, हिड़िक सिस, ड़,अग रउ, लत आदि वर्णित है।
भाषा संस्कृति पर लिखी इनकी पुस्तक "जनजाति परिचिति "माननीय डॉ रामदयाल मुंडा, तत्कालीन मंत्री श्री अर्जुन मुंडा, पूर्व पथ निर्माण मंत्री सुदेश महतो, डॉ निर्मल मिंज, श्री सूर्य सिंह बेसरा द्वारा प्रशंसित हुई। उन्होंने अपनी भाषा कुड़माली के प्रचार प्रसार के लिए आकाशवाणी से भी कविताएं नाटक समय-समय पर प्रसारित किए ।
कुड़मी समाज का दुर्भाग्य है कि ऐसे महान रत्न की असमय ही काल ने इन्हें 26/9/2012को अपने आगोश में ले लिया ।इनके निधन से संपूर्ण कुड़मी समाज शोक में डूब गया ।दिनांक 7 /10 /2012 को इनके पैतृक निवास भंडरो टोला ड़ुगरिटांड में कुड़माली रीति रिवाज से नगेन
पुनअरिआर ने इनका सरधा क्रिया संपन्न कराया ।इस अवसर पर बहुत से समाज के गणमान्य, बुद्धिजीवी ,ज्ञानी भाखिविद् चारिविद् आदि उपस्थित हुए।
लक्ष्मीकांत मुतरुआर जी कुड़माली के ऐसे पहला साहित्यकार है जिनके "व्यक्तित्व एवं कृतित्व "पर शोध कर रांची ओरमांझी के मुन्नाराम महतो ने पीएचडी की उपाधि प्राप्त कर इनकी गौरव गाथा में चार चांद लगाएं। ऐसे महापुरुष को मेरा शत-शत नम।
...कुड़माली के ऐसे महान विद्वान लक्ष्मीकांत मुतरुआर की जयंती 22 अप्रैल को "कुड़माली दिवस" के रूप में मनाया जा रहा है।
अतः समाज के सभी लोगों से आग्रह है कि वे अपने अपने जगहों में "कुड़माली दिवस" अवश्य मनाए और अपनी मातृभाषा को सम्मान दें ।
जोहार🙏
साभार हरेकिसनअ हिंदइआर