22/09/2021
#बेटी_को_पत्र
मेरी बेटी। जब तुम नहीं हो तब एहसास हुआ है कि तुमसे मैंने कितनी कम बातें की है। तेरे सामने चुप रहना अच्छा लगता था ताकि तुम्हें सुन सकूं। जब तुम सामने होती या खेल रही होती थी, भाइयों से नोक- झोंक कर रही होती थी ,ख़ुद में मशगूल रहती थी, तब मैं तुम्हारे भोलेपन और मासूमियत पर ख़ुश हो लेता था। जब तुम बातों - बातों में समझदारी की बातें अनायास कर जाती थी ,मुझे तुमपर फ़क्र होता था । जब तुम छोटी सी उम्र में ही औचित्य और न्याय की बातें करती ,मेरा हृदय गदगद हो जाता था।
जब तुम पैदा हुई तो मैंने सिर्फ़ यही सपने देखे थे कि तुम्हारे जितने सपने होंगें पूरा करने में मैं कभी भी पीछे नहीं हटूँगा। मैंने तभी ठान लिया था कि तुम्हें मैं तुम्हारे जैसे जीने देने के लिए सबसे लड़ जाऊँगा।
लेकिन ,सुप्रिया आज ऐसा वक़्त आ गया है कि मुझे तुमसे बात करने के लिए past tense का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। जो समय ,जो ताक़त मैं तुम्हें तुम्हारे सपने पूरे करने के लिए लगाता मेरा सबकुछ तुम्हें इंसाफ़ दिलाने में लग रहा है।
#मैंने_तुम्हें_समाज_के_वैसे_पहलू_से_पूरा_पूरा_वाक़िफ़_नहीं_करवाया_जिसकी_तुम_शिकार_हो_गयी। मुझे लगता था कि अच्छाई बताने से हमेशा हमारे साथ अच्छा ही होता है। मैं तुम्हें सुबह की रौशनी के बारे में बताने से पहले काली अँधियारी रात के बारे में बेहतर ढंग से बताना चाहता था। मैं तुम्हें दुनिया से लड़ने और जीतने के सारे अनुभव बताना चाहता था। मैं तुमसे बहुत सारी बातें करना चाहता था। अब मैं कुछ भी नहीं कर सकता। मैं इस कल्पना से डर जाता हूं कि तुम्हारे शरीर और मन पर कितनी चोटें आई होगीं,तुम्हें कितनी निर्दयता से मारा गया होगा। तुम्हारे शरीर पर पड़े हर ज़ख़्म इस बात की गवाही थी कि तुम्हें रौंदने की चाह रखने वाले तुमसे जीत नहीं सके। जबतक तुम्हारी साँस रही तुम लड़ती रही होगी। तुम्हारे साहस के आगे नतमस्तक हूँ ,सुप्रिया!
तुम फाइटर थी मेरी बेटी।
लेकिन, मैं बदनसीब था, मैं उस वक़्त तुम्हारे साथ नहीं था जब तुम्हें मेरी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। जब मैं तुम्हारे मृत शरीर को देखा ,हज़ारो ज़ख़्म सामने दिखने के वाबजूद मुझे लगा कि अभी कहीं से जादू होगा और तुम 'पापा' पुकारोगी। मुझे क्या मालूम था कि सिर्फ़ साँस की कमी हो और इंसान लाश बन जाते हैं!
ुम_गोद_में_खेला_करती_थीं ,जब मेरे कांधे पर चहककर चढ़ जाती थी,जब मैंने तुम्हें छोटी सी बात पर डाँटा था, जब तुम अपनी मम्मी के आँचल में छुप जाती थी, वो सारे दृश्य जिसमें तुम हो मेरे मन में फ़िल्म की तरह चलते रहते हैं।
सुप्रिया, मैं तुम्हें याद करता हूँ। बहुत याद करता हूँ। तुम जहाँ हो वहाँ बारिश होती है क्या? तुम्हारी साईकल मिली है ,तुम जहाँ हो वहां चलती है क्या? तुम तो मुझसे ही नहीं, सारे मनुष्य जाति से नाराज़ होगी। लेकिन मेरी बेटी,तुमने जाते -जाते इंसान का निकृष्टतम रूप देखा है लेकिन बेटी इंसान कुछ अच्छे भी हैं । ऐसे इंसान हैं जो इंसाफ़ की समझ भी रखते हैं,साथ ही उसे पाने और दिलाने के लिए हमेशा तैयार भी रहते हैं।सुप्रिया, मुझे मालूम है कि अब तुम्हें इंसानों पर भरोसा नहीं होगा और जबतक तुम्हें इंसाफ़ न दिला दूँ तबतक होना भी नहीं चाहिए।
तुम्हारा पिता..