Ravi Singh Rajawat

Ravi Singh Rajawat तुम शब्द मै अर्थ तुम बिन मै व्यर्थ
जय सियाराम 🙏🏻🙏🏻

स्त्रियों के अर्धनग्न और छोटे कपडो़ में घूमने पर जो लोग या स्त्रियाँ ये कहते हैं कि कपड़े नहीं सोच बदलोउन लोगों से कुछ प्...
26/12/2023

स्त्रियों के अर्धनग्न और छोटे कपडो़ में घूमने पर जो लोग या स्त्रियाँ ये कहते हैं कि कपड़े नहीं सोच बदलो
उन लोगों से कुछ प्रश्न हैं !! आशा है आप जवाब देंगे 🙏

1)पहली बात - हम सोच क्यों बदलें?? सोच बदलने की नौबत आखिर आ ही क्यों रही है??? आपके अनुचित आचरण के कारण ??? और आपने लोगों की सोच का ठेका लिया है क्या??

2) दूसरी बात - आप उन लड़कियों की सोच का आकलन क्यों नहीं करते?? कि उन्होंने क्या सोचकर ऐसे कपड़े पहने कि उसके स्तन पीठ जांघे इत्यादि सब दिखाई दे रहा है....इन कपड़ों के पीछे उसकी सोच क्या थी?? एक निर्लज्ज लड़की चाहती है की पूरा पुरुष समाज उसे देखे, वहीँ दूसरी तरफ एक सभ्य लड़की बिलकुल पसंद नहीं करेगी की कोई उसे इस तरह से देखे।

3)अगर सोच बदलना ही है तो क्यों न हर बात को लेकर बदली जाए??? आपको कोई अपनी बीच वाली ऊँगली का इशारा करे तो आप उसे गलत मत मानिए......सोच बदलिये..वैसे भी ऊँगली में तो कोई बुराई नहीं होती....आपको कोई गाली बके तो उसे गाली मत मानिए...उसे प्रेम सूचक शब्द समझिये..... ???
हत्या ,डकैती, चोरी, बलात्कार, आतंकवाद इत्यादि सबको लेकर सोच बदली जाये...सिर्फ नग्नता को लेकर ही क्यों? क्या ये सारे कार्य अभिव्यक्ति की आज़ादी की श्रेणी में ही आते हैं????

4) कुछ लड़कियां कहती हैं कि हम क्या पहनेगे ये हम तय करेंगे....पुरुष नहीं.....
जी बहुत अच्छी बात है.....आप ही तय करें....लेकिन हम पुरुष भी किन लड़कियों का सम्मान/मदद करेंगे ये भी हम तय करेंगे, स्त्रियां नहीं.... और

"हम किसी का सम्मान नहीं करेंगे इसका अर्थ ये नहीं कि हम उसका अपमान करेंगे।"

5)फिर कुछ विवेकहीन लड़कियां कहती हैं कि हमें आज़ादी है अपनी ज़िन्दगी जीने की.....
जी बिल्कुल आज़ादी है, ऐसी आज़ादी सबको मिले, व्यक्ति को चरस गंजा ड्रग्स ब्राउन शुगर लेने की आज़ादी हो, गाय भैंस का मांस खाने की आज़ादी हो, वैश्यालय खोलने की आज़ादी हो, पोर्न फ़िल्म बनाने की आज़ादी हो... हर तरफ से व्यक्ति को आज़ादी हो।????

6) लड़कों को संस्कारो का पाठ पढ़ाने वाला कुंठित स्त्री समुदाय क्या इस बात का उत्तर देगा कि क्या भारतीय परम्परा में ये बात शोभा देती है की एक लड़की अपने भाई या पिता के आगे अपने निजी अंगो का प्रदर्शन बेशर्मी से करे ??? क्या ये लड़कियां पुरुषों को भाई/पिता की नज़र से देखती हैं ??? जब ये खुद पुरुषों को भाई/पिता की नज़र से नहीं देखती तो फिर खुद किस अधिकार से ये कहती हैं कि

"हमें माँ/बहन की नज़र से देखो"???

कौन सी माँ बहन अपने भाई बेटे के आगे नंगी होती हैं??? भारत में तो ऐसा कभी नहीं होता था....

सत्य यह है की अश्लीलता को किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं ठहराया जा सकता। ये कम उम्र के बच्चों को यौन अपराधों की तरफ ले जाने वाली एक नशे की दुकान है और इसका उत्पादन स्त्री समुदाय करता है।
मष्तिष्क विज्ञान के अनुसार 4 तरह के नशों में एक नशा अश्लीलता(से....) भी है।

आचार्य कौटिल्य ने चाणक्य सूत्र में वासना' को सबसे बड़ा नशा और बीमारी बताया है।।
यदि यह नग्नता आधुनिकता का प्रतीक है तो फिर पूरा नग्न होकर स्त्रियां पूर्ण आधुनिकता का परिचय क्यों नहीं देती????
गली गली और हर मोहल्ले में जिस तरह शराब की दुकान खोल देने पर बच्चों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है उसी तरह अश्लीलता समाज में यौन अपराधों को जन्म देती है।इसको किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता है.।।
विचार करिए और चर्चा करिए.... या फिर मौन धारण कर लीजिए ।।
जय हिंद 🇮🇳
🙏🙏🙏.
ेटी_मेरी

15/12/2023

एक पृष्ठ है भूमिका, एक पृष्ठ निष्कर्ष,
बाक़ी पन्नों पर लिखा एक सतत संघर्ष...
🙏🏻राम राम 🙏🏻

अंतिम भाग👉वाल्मीकि रामायण (भाग 98)तब हनुमान जी लंका में गए और विभीषण से आज्ञा लेकर अशोकवाटिका में पहुँचे। सीता जी को प्र...
09/11/2023

अंतिम भाग👉वाल्मीकि रामायण (भाग 98)

तब हनुमान जी लंका में गए और विभीषण से आज्ञा लेकर अशोकवाटिका में पहुँचे। सीता जी को प्रणाम करके उन्होंने कहा, “विदेहनन्दिनी! श्रीराम सकुशल हैं व उन्होंने आपका कुशल समाचार पूछा है। श्रीराम ने युद्ध में रावण को मार डाला है। अतः अब आप चिन्ता छोड़कर प्रसन्न हो जाइये। श्रीराम ने आपके लिए सन्देश भिजवाया है कि ‘अब तुम इसे रावण का घर समझकर भयभीत न होना। लंका का राज्य अब विभीषण को दे दिया गया है। अब तुम अपने ही घर में हो, ऐसा समझकर निश्चिन्त रहो।’”

यह सुनकर सीता जी को अपार हर्ष हुआ। उन्होंने कहा, “इस प्रिय समाचार के लिए मैं तुम्हें पुरस्कार देना चाहती हूँ, किन्तु सोना, चाँदी, रत्न अथवा तीनों लोकों का राज्य भी इस शुभ समाचार की बराबरी नहीं कर सकता।”

इस पर हनुमान जी बोले, “देवी! श्रीराम की विजय से ही मेरे सब प्रयोजन सिद्ध हो गए हैं। मुझे कुछ नहीं चाहिए। अब आप श्रीराम के लिए कोई सन्देश मुझे दीजिए।”

तब सीता जी बोलीं, “मैं उनका दर्शन करना चाहती हूँ।”

यह सुनकर हनुमान जी ने उन्हें प्रणाम किया और लौटकर श्रीराम से बोले, “प्रभु! सीता देवी ने नेत्रों में आँसू भरकर मुझसे कहा है कि ‘मैं श्रीराम का दर्शन करना चाहती हूँ।’”

यह सुनकर श्रीराम की आँखें डबडबा गईं। लम्बी साँस खींचकर उन्होंने आँखें बंद कर लीं और भूमि की ओर देखते हुए उन्होंने विभीषण से कहा, “तुम सीता को सिर से स्नान करवाकर, दिव्य वस्त्र एवं आभूषणों से विभूषित करके शीघ्र मेरे पास ले आओ।”

यह सुनकर विभीषण तुरंत अपने अन्तःपुर में गया और अपनी स्त्रियों को सीता के पास भेजकर उसने अपने आगमन की सूचना दी। फिर सीता को प्रणाम करके उसने श्रीराम का संदेश सुनाया। इस पर सीता जी ने कहा, “मैं बिना स्नान किए अभी तुरंत ही श्रीराम का दर्शन करना चाहती हूँ।”

लेकिन विभीषण के समझाने पर उन्होंने श्रीराम की इच्छा के अनुसार स्नान किया तथा सुन्दर श्रृंगार करके बहुमूल्य वस्त्र एवं आभूषण पहने। तब एक पालकी में बिठाकर उन्हें श्रीराम के पास लाया गया। सीता के आगमन की सूचना मिलने पर श्रीराम का मन भर आया।

सीता के आगमन का मार्ग बनाने के लिए राक्षस सिपाही हाथों में छड़ी लेकर वानरों को हटाने लगे। इससे बड़ा कोलाहल मच गया। तब श्रीराम ने क्रोधित होकर विभीषण से कहा, “तुम क्यों इन सबको कष्ट देकर मेरा अनादर कर रहे हो? ये सब वानर भी मेरे आत्मीय जन हैं। अतः जानकी पालकी को छोड़कर पैदल ही मेरे पास आएँ और ये सब वानर भी उनका दर्शन करें।”

तब पालकी से उतरकर लज्जा से सकुचाती हुई सीता जी धीरे-धीरे चलती हुई श्रीराम के सामने पहुँचीं। अपनी लज्जा के होते हुए भी उन्होंने जी भरकर अपने पति को निहारा और अपने मन की पीड़ा दूर की।

तब श्रीराम ने सीता जी से कहा, “भद्रे! युद्ध-भूमि में शत्रु को परास्त करके मैंने तुम्हें छुड़ा लिया। मुझ पर जो कलंक लगा था, आज मैंने उसे धो लिया। अब मैं अपनी प्रतिज्ञा के भार से मुक्त हो गया। तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि मैंने यह युद्ध तुम्हें पाने के लिए नहीं किया।

अपवाद (बदनामी) का निवारण करने व अपने सुविख्यात वंश पर लगे कलंक को मिटाने के लिए ही मैंने यह सब किया है। यह तुम्हारे चरित्र पर संदेह का अवसर है, फिर भी तुम मेरे सामने खड़ी हो। जैसे आँखों के रोगी को दीपक की ज्योति नहीं सुहाती है, उसी प्रकार तुम भी आज मुझे अत्यंत अप्रिय लग रही हो।”

“ऐसा कौन सामर्थ्यवान पुरुष होगा, जो दूसरे के घर में रह चुकी स्त्री को मन से स्वीकार कर लेगा? रावण तुम्हें उठाकर ले गया था और तुम पर अपनी दूषित दृष्टि डाल चुका है। तुम जैसी सुन्दर स्त्री को अपने घर में देखकर वह बहुत समय तक तुमसे दूर नहीं रह सका होगा। ऐसी दशा में मैं तुम्हें कैसे स्वीकार कर सकता हूँ?”

“अब मेरा तुमसे कोई संबंध नहीं है। अतः तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, तुम वहाँ जाने को स्वतंत्र हो। तुम चाहो तो भरत या लक्ष्मण के साथ रह सकती हो, अथवा शत्रुघ्न, सुग्रीव या विभीषण के पास भी रह सकती हो। जहाँ तुम्हें सुख मिले, तुम वहीं अपना मन लगाओ।”

इतने दुःखों, कष्टों और चिरकाल की प्रतीक्षा के बाद मिले अपने पति के मुख से ऐसी कड़वी बातें सुनकर सीताजी का मन आहत हो गया। उन्होंने कठोर शब्दों में श्रीराम से कहा, “जिस प्रकार कोई निम्नकोटि का पुरुष न कहने योग्य ओछी बातें भी किसी स्त्री से कह डालता है, उस प्रकार आप मुझसे ऐसी अनुचित बातें क्यों कर रहे हैं? मेरे शील-स्वभाव को भूलकर आप किसी ओछे मनुष्य की भाँति मुझ पर आरोप लगा रहे हैं। मैंने रावण को स्वेच्छा से नहीं छुआ था।

मेरी विवशता के कारण उसने मेरा अपहरण कर लिया था। हम दोनों इतने वर्षों तक साथ रहे, फिर भी यदि आपने मुझे नहीं समझा है, तो मेरा जीवन ही व्यर्थ है। लक्ष्मण! तुम मेरे लिए चिता तैयार कर दो। मैं इस मिथ्या कलंक के साथ नहीं जी सकती।

सीता जी का यह अपमान देखकर लक्ष्मण को बहुत क्रोध आया किन्तु श्रीराम ने संकेत में उन्हें कुछ समझाया और तब लक्ष्मण ने सीता के लिए के लिए चिता तैयार कर दी। श्रीराम वहीं सिर झुकाए खड़े थे। उनकी परिक्रमा करके सीताजी प्रज्वलित अग्नि के पास गईं और हाथ जोड़कर उन्होंने अग्निदेव से कहा, “मेरा चरित्र शुद्ध है, फिर भी श्रीराम मुझ पर संदेह कर रहे हैं। यदि मैं निष्कलंक हूँ तो अग्निदेव मेरी रक्षा करें।”

ऐसा कहकर उन्होंने अग्नि की परिक्रमा की और वे उस जलती आग में कूद पड़ीं। यह देखकर सब लोग हाहाकार करने लगे। श्रीराम की आँखों में भी आँसू आ गए। उसी समय अनेक देवताओं के साथ स्वयं ब्रह्माजी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने श्रीराम को समझाया, “आप तो स्वयं नारायण हैं और सीता साक्षात लक्ष्मी हैं। रावण का वध करने के लिए ही आपने मनुष्य के रूप में अवतार लिया था। इन सब बातों को भूलकर आप सीता पर संदेह कैसे कर रहे हैं?”

तभी वृद्ध अग्निदेव स्वयं सीता को लेकर चिता से बाहर निकले और उन्होंने कहा, “श्रीराम! आपकी धर्मपत्नी सीता ने मन, वचन, बुद्धि से सदा केवल आपका ही विचार किया है। रावण की कैद में अनेक कष्ट सहकर भी यह केवल आपकी आशा में जीवित रही। इसका चरित्र सर्वथा शुद्ध है। अतः मैं आपको आज्ञा देता हूँ कि आप इसे सादर स्वीकार करें तथा कभी भी इससे कोई कठोर बात न कहें।”

यह सुनकर श्रीराम के आँसू छलक आए। वे अग्निदेव से बोले, “भगवन्! सीता के प्रति मेरे मन में तनिक भी संदेह नहीं था। जिस प्रकार सूर्य से उसकी प्रभा अलग नहीं हो सकती, उसी प्रकार मुझसे भी सीता कभी अलग नहीं हो सकती। मेरा और उसका हृदय एक ही है। परन्तु अन्य लोग यह सब नहीं समझ सकते। यदि मैं सीता को देखते ही प्रसन्न होकर उसे अपना लेता, तो यही लोग कहते कि दशरथ का पुत्र राम बड़ा मूर्ख और कामी है। लोगों को सीता की पवित्रता का विश्वास दिलाने के लिए ही मुझे ऐसा करना पड़ा।”

यह कहकर श्रीराम बड़े प्रेम से सीता जी से मिले।

फिर महादेव ने उन्हें बताया कि “आपके पिता दशरथ भी इन्द्रलोक से यहाँ आए हुए हैं।” तब श्रीराम, सीता और लक्ष्मण ने दशरथ जी को भी प्रणाम किया। वे अत्यंत प्रसन्न हुए और सबको आशीर्वाद देकर लौट गए।

फिर देवराज इन्द्र के पूछने पर श्रीराम ने उस युद्ध में हताहत हुए सब वानरों को पुनः जीवित एवं स्वस्थ कर देने का वरदान माँगा। इसके बाद सब देवता अपने लोक को लौट गए।

अगले दिन श्रीराम विभीषण से बोले, “मित्र! यहाँ का मेरा कार्य अब पूर्ण हो गया है। अतः यहाँ ठहरना मेरे लिए अब उचित नहीं है। मेरा मन भरत से मिलने को व्याकुल है। तुम उसका कुछ उपाय करो क्योंकि अयोध्या तक पैदल पहुँचने में तो बहुत समय लगेगा।”

यह सुनकर विभीषण ने तुरंत ही पुष्पक विमान बुलवाया। उसे देखकर श्रीराम व लक्ष्मण को बड़ा विस्मय हुआ। फिर श्रीराम ने विभीषण से विदा लेते हुए कहा, “मित्र! इन सब वानरों ने युद्ध में बड़ा परिश्रम किया है। अतः तुम रत्न और धन आदि देकर इन सबका भी सत्कार करना।”

फिर उन्होंने सुग्रीव को भी किष्किन्धा लौट जाने की आज्ञा दी। तब विभीषण ने कहा, “श्रीराम! हम सब भी आपके राज्याभिषेक के लिए अयोध्या चलना चाहते हैं।”

श्रीराम ने सहर्ष इसकी अनुमति दे दी। तब उन सबको लेकर वह विमान आकाश में उड़ चला। आकाश-मार्ग से जाते समय श्रीराम ने सीता जी से कहा, “विदेहनन्दिनी! त्रिकूट पर्वत के शिखर पर विश्वकर्मा की बनाई हुई इस सुन्दर लंकापुरी को देखो। उस युद्धभूमि को देखो, जहाँ रक्त और मांस का कीचड़ जमा हुआ है। वह देखो, उधर रावण राख का ढेर बनकर सोया हुआ है। तुम्हारे लिए ही मैंने इसका वध कर डाला। वह समुद्र के ऊपर नल वानर का बनाया हुआ सेतु दिख रहा है। वह कठिन सेतु भी मैंने तुम्हारे लिए ही बनवाया था।”

इस प्रकार सब स्थानों को देखते हुए वे लोग आगे बढ़ते रहे। मार्ग में सीता के कहने पर उन्होंने किष्किन्धा में रुककर सुग्रीव की पत्नियों और अन्य वानर स्त्रियों को भी साथ ले लिया। फिर आगे बढ़ते हुए वे लोग प्रयाग में संगम तट पर भरद्वाज मुनि के आश्रम में आ पहुँचे। श्रीराम ने उनसे अयोध्या का और भरत का कुशल-क्षेम पूछा।

इसके बाद श्रीराम ने हनुमान जी से कहा, “हनुमान! समस्त सुखों, हाथी, घोड़ों और रथों से भरपूर समृद्ध राज्य मिलने पर किसका मन नहीं पलट सकता? अतः तुम शीघ्र जाकर अयोध्या की स्थिति का पता लगाओ। शृङ्गवेरपुर में निषादराज गुह से भी मिलना और भरत का समाचार पूछना।

फिर तुम भरत से मिलना। उसे सीता के अपहरण से लेकर रावण के वध तक का सब घटनाक्रम भी बताना। तुम भरत से कहना कि ‘श्रीराम अपने शत्रुओं को जीतकर, राक्षसराज विभीषण, वानरराज सुग्रीव तथा अपने अन्य महाबली मित्रों के साथ अयोध्या आ रहे हैं।’”

“यह कहते समय तुम भरत की मुख-मुद्रा पर तुम विशेष ध्यान देना और मेरे प्रति उसके विचार जानने की चेष्टा करना। यदि कैकेयी की संगति अथवा दीर्घकाल तक राज्य-वैभव का सुख भोगने के कारण भरत का मन बदल गया हो, तो ऐसा राज्य मुझे नहीं लेना है।”

यह सुनकर हनुमान जी मनुष्य रूप धारण करके तीव्रगति से अयोध्या की ओर उड़े। शृङ्गवेरपुर में निषादराज गुह से मिलकर वे शीघ्र नन्दीग्राम के पास आ पहुँचे। वहाँ उन्होंने चीर-वस्त्र और मृगचर्म धारण किए हुए आश्रमवासी भरत को देखा। भाई के वनवास से वे बहुत दुःखी और दुर्बल दिखाई दे रहे थे। उनके सिर पर जटा बढ़ी हुई थी और तपस्या ने उन्हें दुबला कर दिया था। इन्द्रियों का दमन करके वे बड़े संयम से रहते थे और श्रीराम की चरणपादुकाओं को सिंहासन पर रखकर शासन संभालते थे।

भरत को प्रणाम करके हनुमान जी ने अपना परिचय दिया और श्रीराम के आगमन का वृत्तांत सुनाया। यह सुनते ही भरत आनंदविभोर हो गए। प्रसन्न होकर उन्होंने हनुमान जी को गले लगा लिया और उनकी आँखों से हर्ष के आँसू बहने लगे। तुरंत ही उन्होंने शत्रुघ्न को श्रीराम के स्वागत की तैयारी करने की आज्ञा दी। दशरथ जी की रानियाँ भी वहाँ आ गईं। तभी सामने से आता हुआ पुष्पक विमान भी दिखाई दिया।

श्रीराम को देखते ही भरत ने विनीत भाव से उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। फिर श्रीराम की आज्ञा से कुबेर का वह विमान कुबेर को ही लौटा दिया गया। इसके बाद भरत ने कहा, “श्रीराम! आपका राज्य मेरे पास धरोहर के रूप में था, वह आज मैं आपको लौटा रहा हूँ। मेरे जीवन का मनोरथ आज पूर्ण हुआ।”

फिर शत्रुघ्न की आज्ञा से कुशल नाई बुलवाए गए और श्रीराम की जटाएँ निकलवाई गईं। इसके बाद श्रीराम ने स्नान किया और सुन्दर पुष्पमाला, अनुलेपन, पीताम्बर, आभूषण आदि धारण करके वे एक रथ पर आरूढ़ होकर अयोध्या की ओर चले। स्वयं भरत ने सारथी बनकर रथ की बागडोर संभाल रखी थी। शत्रुघ्न ने छत्र पकड़ा और लक्ष्मण तथा विभीषण दोनों ओर चँवर लेकर खड़े हो गए।

सुग्रीव और अन्य सब वानर भी मनुष्य रूप धारण करके हाथियों पर बैठे हुए थे। श्रीराम को देखते ही सब अयोध्यावासी उनकी जय-जयकार करने लगे।

अब राज्याभिषेक की तैयारी आरंभ हुई। सुग्रीव ने चार श्रेष्ठ वानरों को सोने के चार घड़े देकर समुद्र का जल लेकर आने की आज्ञा दी। जाम्बवान, हनुमान जी, गवय और ऋषभ जाकर चारों महासागरों से व अनेक नदियों से सोने के कलश भरकर अगले दिन लौट आए।

फिर श्रीराम और सीता जी को रत्नों से सजी एक चौकी पर बिठाया गया। वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि, कश्यप, कात्यायन, सुयज्ञ, गौतम और विजय, इन आठ मंत्रियों ने सुगन्धित जल से उन दोनों का अभिषेक करवाया।

सबसे पहले औषधियों के रसों द्वारा ऋत्विज ब्राह्मणों ने अभिषेक किया, फिर सोलह कन्याओं ने और फिर मन्त्रियों ने अभिषेक किया। तत्पश्चात अनेक योद्धाओं एवं व्यापारियों ने भी उनका अभिषेक किया।

अब वसिष्ठ जी ने अन्य ब्राह्मणों के साथ मिलकर रत्नों से सजे हुए एक सुन्दर मुकुट व अन्य सुन्दर आभूषणों से श्रीराम को अलंकृत किया। सोने का वह सुन्दर मुकुट ब्रह्माजी ने स्वयं बनवाया था। फिर शत्रुघ्न ने एक सफेद छत्र रखा और सुग्रीव तथा विभीषण चँवर लेकर दोनों ओर खड़े हो गए। इस अवसर पर वायुदेव ने सौ स्वर्ण कमलों से बना हुआ एक दिव्य हार और अनेक प्रकार के रत्नों एवं मणियों से विभूषित मुक्ताहार श्रीराम को भेंट किया।

अपने राज्याभिषेक के अवसर पर श्रीराम ने एक लाख घोड़े, एक लाख गाएँ, स्वर्ण मुद्रिकाएँ, बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण एवं बहुत-सी अन्य सामग्री दान में दी।

सुग्रीव को उन्होंने सोने की एक सुन्दर माला भेंट की तथा अंगद को दो अंगद (बाजूबन्द) भेंट में दिए। वायुदेव ने जो सुन्दर मुक्ताहार दिया था, वह श्रीराम ने सीता जी के गले में डाल दिया। तब सीता जी ने श्रीराम को संकेत किया कि वे यह हार उपहार में हनुमान जी को देना चाहती हैं। तब उनकी सहमति से कजरारे नेत्रों वाली सीता जी ने वह हार बुद्धि, यश, विनय, नीति, पुरुषार्थ व पराक्रम के धनी हनुमान जी को दे दिया। उस हार से हनुमान जी की शोभा और भी बढ़ गई।

इस प्रकार श्रीराम ने सबका यथायोग्य सत्कार किया। उनके राज्याभिषेक को देखने के बाद सुग्रीव, हनुमान जी, जाम्बवान, मैन्द, द्विविद आदि सब वानर किष्किन्धा को लौट गए। विभीषण भी अपने निशाचर साथियों के साथ लंका लौट गया। उन सबके लौट जाने पर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! तुम अयोध्या के युवराज बनकर मेरे साथ इस राज्य को संभालो।” परन्तु बार-बार कहने पर भी लक्ष्मण ने युवराज पद स्वीकार नहीं किया।

उनके आग्रह पर श्रीराम के भरत को युवराज बनाया। इस प्रकार अपने राज्य की उचित व्यवस्था करके श्रीराम ने अपने भाइयों के साथ अनेक वर्षों तक शासन किया।

श्रीराम सबसे श्रेष्ठ राजा थे। उनके राज्य में सदा न्याय होता था, कहीं भी चोर-लुटेरों का नाम तक सुनाई नहीं पड़ता था। सब लोग निर्भय होकर जीते थे। कोई मनुष्य झूठ नहीं बोलता था और अनैतिक कार्य नहीं करता था। चारों वर्णों के लोग श्रीराम के राज्य में सदा प्रसन्न रहते थे। श्रीराम स्वयं भी निष्ठापूर्वक धर्म का पालन करते थे और उनकी प्रजा भी सदा धर्म में तत्पर रहती थी।

समस्त संसार को श्रीराम के इस आदर्श जीवन का परिचय देने के लिए ही महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम की विजय के इस रामायण महाकाव्य की रचना की। नित्य इसका पठन-श्रवण करने से मन प्रसन्न रहता है और व्यक्ति पाप के विचारों से दूर रहकर अच्छे कार्यों की ओर प्रवृत्त होता है। जय श्री राम!

=======================(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

नोट: वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। मैं केवल सारांश ही लिख रहा हूँ। मैं जो कुछ लिख रहा हूँ, वह वाल्मीकि रामायण में दिया हुआ है। जिन्हें आशंका या आपत्ति है, वे कृपया मूल ग्रन्थ को स्वयं पढ़ें।
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वाल्मीकि रामायण का यह सारांश अब मैं यहाँ समाप्त कर रहा हूँ। यह मेरे लिए बड़ी अविश्वसनीय बात है कि रामायण जैसे धार्मिक विषय को मुझ जैसे साधारण व्यक्ति ने 98 दिनों तक रोजाना नियम से लिखा।

इस बीच एक-दो कठिन प्रसंग भी आए, पर मेरा संकल्प था कि मैं किसी भी परिस्थिति में इस कथा को अधूरा नहीं छोडूँगा। महादेव की कृपा, श्रीराम के आशिर्वाद और हनुमान जी कृपा से ही आज यह संकल्प पूरा हुआ है

आप सबने प्रतिदिन निष्ठा से इसे पढ़ा, उसके लिए आप सबको धन्यवाद। मेरे लेखन में जो त्रुटियाँ हैं, वे सब मेरी हैं और रामायण में जो कुछ अच्छा है, वह सब श्रीराम का है। सादर!

जय श्रीराम✍️

वाल्मीकि रामायण (भाग 97)राजसभा में आकर रावण अपने सिंहासन पर बैठ गया। वह पुत्रशोक में अत्यंत दुःखी एवं दीन दिखाई दे रहा थ...
09/11/2023

वाल्मीकि रामायण (भाग 97)

राजसभा में आकर रावण अपने सिंहासन पर बैठ गया। वह पुत्रशोक में अत्यंत दुःखी एवं दीन दिखाई दे रहा था। अपनी सेना के प्रमुख योद्धाओं से कहा, “वीरों! तुम लोग समस्त हाथी, घोड़े, रथ एवं पैदल सैनिकों को साथ लेकर युद्धभूमि में जाओ और राम को चारों ओर से घेरकर मार डालो।”

रावण की आज्ञा सुनते ही वे निशाचर अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर लंका से निकले और वानर सेना पर टूट पड़े। उनके आक्रमण से जब वानरों का पक्ष दुर्बल होने लगा, तो उन्होंने सहायता के लिए श्रीराम को पुकारा। तब बलशाली, पराक्रमी, महातेजस्वी श्रीराम ने धनुष लेकर राक्षसों पर बाण-वर्षा आरम्भ कर दी और कुछ ही समय में श्रीराम ने हजारों रथियों, हाथियों, घोड़ों, सवारों और पैदल सैनिकों का संहार कर डाला। बचे-खुचे राक्षस घबराकर लंका में भाग गए। उस युद्ध में जिनके पति, पुत्र और भाई-बन्धु मारे गए थे, वे सब राक्षसियाँ अब दुःख से भीषण विलाप करने लगी और शूर्पणखा को तथा रावण को कोसने लगीं।

लंका के घर-घर से उठते उस चीत्कार को रावण ने भी सुना। वह लंबी साँस खींचकर चिंता में डूब गया। अपने पास खड़े राक्षसों से उसने लड़खड़ाते स्वर में कहा, “निशाचरों! महोदर, महापार्श्व तथा विरुपाक्ष को तुरंत ही सेना के साथ कूच करने का आदेश दो।”

यह आज्ञा मिलते ही उन सब राक्षसों ने उठकर रावण को प्रणाम किया। उन्हें देखकर रावण ने कहा, “आज अपने बाणों से मैं राम और लक्ष्मण को यमलोक पहुँचा दूँगा। मेरा रथ तैयार करवाओ और सब मेरे पीछे चलो।”

रावण की यह आज्ञा मिलते ही लंका के सब राक्षस अपने अस्त्र लेकर वहाँ आ पहुँचे। तुरंत ही रावण ने अपने भयंकर रथ पर आरूढ़ होकर युद्ध के लिए प्रस्थान किया। महापार्श्व, महोदर तथा विरुपाक्ष भी अपने रथों पर आरूढ़ होकर रावण के पीछे-पीछे चले।

रावण जब युद्ध के लिए निकला, तो उसकी मृत्यु का संकेत देने वाले अनेक अपशकुन दिखाई पड़े। आकाश से उल्कापात हुआ। अमंगलसूचक पक्षी अपनी अशुभ बोली बोलने लगे। सूर्य की चमक फीकी पड़ गई। सब दिशाओं में अन्धकार छा गया और धरती डोलने लगी। बादलों से रक्त की वर्षा होने लगी और घोड़े लड़खड़ाकर गिर पड़े। रावण की बाँयीं आँख फड़कने लगी, बाँयीं भुजा काँप उठी, चेहरे का रंग उड़ गया और उसकी आवाज भी कुछ बदल गई। रावण ने इन सब अपशकुनों की कोई चिंता नहीं की और वह वानरों के संहार के लिए युद्धभूमि में आ पहुँचा।

युद्धभूमि में पहुँचकर रावण अपने बाणों से भारी मार-काट करने लगा। वानर उसके बाणों को सह न सके। सब वानर चीखते-चिल्लाते हुए इधर-उधर भागे। बड़े वेग से वानरों का भीषण संहार करके अब वह राक्षस श्रीराम से जूझने के लिए उनके सामने आ पहुँचा।

उधर सुग्रीव ने देखा कि वानर-सैनिक घबराकर युद्ध से भाग रहे हैं, तो एक को वृक्ष उठाकर वह राक्षसों से लड़ने के लिए आगे बढ़ा। युद्धभूमि में भारी गर्जना करके सुग्रीव ने अपने पराक्रम से राक्षसों का भीषण संहार आरंभ कर दिया। यह देखकर विरुपाक्ष सुग्रीव से लड़ने लगा। उन दोनों के बीच बहुत देर तक युद्ध चला। अंत में सुग्रीव ने एक के बाद मुक्कों की मार से उसका मुँह तोड़ डाला और उसके प्राण ले लिए। रावण ने अब महोदर को युद्ध के लिए आगे भेजा। महोदर व उसके सैनिक वानरों का संहार करने लगे। तब सुग्रीव ने महोदर पर आक्रमण कर दिया और उसके भी प्राण ले लिए।

यह देखकर क्रोधित महापार्श्व आगे आया और उसने अंगद की सैन्य टुकड़ी पर आक्रमण कर दिया। तब सुग्रीव, अंगद, जाम्बवान, गवाक्ष आदि ने उसकी सेना को घेर लिया। बहुत देर तक चले युद्ध के बाद सुग्रीव ने महापार्श्व की छाती में एक बलशाली मुक्का मारा, जिससे उसका हृदय फट गया और उसके प्राण निकल गए। अब रावण ने क्रोधित होकर अपने सारथी को अपना रथ आगे बढ़ाने की आज्ञा दी और तामस नामक भयंकर अस्त्र से वह वानरों को मारने लगा।

यह देखकर स्वयं श्रीराम और लक्ष्मण युद्ध के लिए आगे बढ़े। लक्ष्मण ने अपने पैने बाणों से रावण पर आक्रमण कर दिया। रावण ने उन सबको हवा में ही काट डाला। फिर वह श्रीराम पर बाणवृष्टि करने लगा। श्रीराम ने अपने तीखे भल्लों से रावण के सब बाण काट डाले। इस प्रकार उन दोनों के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया। वे दोनों ही अस्त्रवेत्ता थे एवं युद्ध-कला में निपुण थे। अतः उन दोनों में ऐसा अद्भुत युद्ध होने लगा, जैसा पहले कभी नहीं देखा गया था। रौद्रास्त्र, आसुरास्त्र, आग्नेयास्त्र, गान्धर्वास्त्र, सूर्यास्त्र चलाया आदि के प्रयोग से दोनों एक-दूसरे को घायल करने लगे।

इसी बीच लक्ष्मण ने अपने बाणों की मार से रावण की ध्वजा के टुकड़े कर डाले। उस ध्वजा पर मनुष्य की खोपड़ी का चिह्न बना हुआ था। उन्होंने रावण के सारथी को भी मार डाला तथा उसके धनुष को भी काट डाला। तभी विभीषण भी उछलकर आगे बढ़ा और उसने रावण के घोड़ों को मार डाला।

इससे क्रोधित होकर रावण ने वज्र के समान प्रज्वलित शक्ति विभीषण पर चला दी। लक्ष्मण ने तीन बाण मारकर उसे बीच में ही काट दिया। तब रावण ने विभीषण पर एक और शक्ति चलाई, किन्तु लक्ष्मण ने उसे भी रोक दिया। अब क्रोधित होकर रावण ने लक्ष्मण पर ही अपनी शक्ति उन्हीं पर चला दी।

वज्र और अशनि के समान गड़गड़ाहट करने वाली वह शक्ति इतने वेग से मारी गई थी कि लक्ष्मण को संभलने का अवसर ही नहीं मिला। वह शक्ति उनके सीने पर लगी और भीतर तक धँस गई। उससे विदीर्ण होकर लक्ष्मण भूमि पर गिर पड़े। लक्ष्मण को भूमि पर रक्त से लथपथ पड़ा देखकर श्रीराम व्यथित हो गए। लेकिन यह विषाद का समय नहीं था, अतः वे रावण के वध का निश्चय करके उससे युद्ध करने लगे।

बहुत प्रयास करके भी वानरगण उस शक्ति को लक्ष्मण के शरीर से निकाल नहीं पाए। तब श्रीराम ने अपने दोनों हाथों से पकड़कर उसे लक्ष्मण के शरीर से निकाला और कुपित होकर उसे तोड़ डाला। उस समय रावण उन पर अनवरत बाण-वर्षा करता रहा।

तब श्रीराम ने सुग्रीव और हनुमान जी से कहा, “कपिवरों! तुम लोग चारों ओर से लक्ष्मण को घेरकर खड़े रहो। जिस पराक्रम की मुझे चिरकाल से अभिलाषा थी, अब उसका समय आ गया है। जिसके कारण मैं यह विशाल वानर-सेना लाया हूँ, जिसके कारण मैंने वाली का वध करके सुग्रीव को सिंहासन पर बिठाया, जिसके कारण समुद्र पर सेतु बनाया, वह रावण आज युद्ध में मेरे सामने उपस्थित है। अब यह जीवित नहीं बच सकता।”

“मेरे राज्य के नाश, वन के निवास, दण्डकारण्य के कष्ट, सीता के अपहरण तथा राक्षसों से संग्राम के कारण मुझे घनघोर दुःख सहना पड़ा है। रणभूमि में आज रावण का वध करके मैं सारे दुःखों से छुटकारा पा लूँगा। आज संग्राम में देवता, गन्धर्व, सिद्ध, ऋषि और चारणों सहित तीनों लोकों के प्राणी राम का रामत्व देखें। आज मैं ऐसा पराक्रम प्रकट करूँगा, जिसकी चर्चा जब तक यह पृथ्वी कायम रहेगी तब तक चराचर जगत के जीव और देवता सदा करते रहेंगे और एक-दूसरे को बताएँगे कि यह भीषण युद्ध किस प्रकार हुआ था।”

ऐसा कहकर श्रीराम अपने स्वर्णभूषित बाणों से रावण को घायल करने लगे। रावण भी श्रीराम पर चमकीले नाराचों और मूसलों की वर्षा करने लगा। उन दोनों के बाण छिन्न-भिन्न होकर आकाश से भूमि पर गिर पड़ते थे। अंततः श्रीराम के बाणों से आहत होकर रावण भय के कारण युद्धभूमि से भाग खड़ा हुआ।

तब श्रीराम ने लक्ष्मण की चिकित्सा के लिए सुषेण को बुलवाया। लक्ष्मण को देखने के बाद सुषेण ने कहा, “प्रभु! लक्ष्मण अभी जीवित हैं। इनकी साँसें चल रही हैं और इनका हृदय भी कम्पित हो रहा है।”

फिर सुषेण ने हनुमान जी से कहा, “सौम्य! जाम्बवान ने पहले तुम्हें जिस महोदय पर्वत के बारे में बताया था, तुम शीघ्र ही वहाँ जाओ और उसके दक्षिणी शिखर पर मिलने वाली विशल्यकरणी, सावर्ण्यकरणी, संजीवकरणी तथा संधानी नामक प्रसिद्ध औषधियों को शीघ्र ले आओ। उन्हीं से लक्ष्मण के जीवन की रक्षा होगी।”

यह सुनते ही हनुमान जी वहाँ गए किन्तु औषधियों को पहचान नहीं पाए। अधिक सोचने का समय नहीं था, अतः तीन बार हिलाकर उन्होंने उस पूरे पर्वत शिखर को ही उखाड़ लिया और सुषेण के पास ले आए। सुषेण ने तुरंत वे औषधियाँ निकालीं और उन्हें कूट-पीसकर लक्ष्मण को सुँघाया। उस औषधि को सूँघते ही लक्ष्मण के घाव भर गए वे पूर्णतः स्वस्थ हो गए। इससे श्रीराम को अत्यंत प्रसन्नता हुई व उन्होंने लक्ष्मण को गले से लगा लिया।

तब तक रावण भी एक नए रथ पर बैठकर युद्ध-भूमि में वापस लौट आया था। रावण अपने रथ पर था, किन्तु श्रीराम भूमि पर ही खड़े होकर युद्ध कर रहे थे। यह देखकर देवराज इन्द्र ने अपने सारथी मातलि को बुलाया और अपना रथ लेकर युद्धभूमि में श्रीराम की सहायता के लिए उसे भेजा। तब देवराज इन्द्र के रथ को लेकर मातलि तुरन्त युद्धभूमि में आ पहुँचा और उसने श्रीराम से रथ पर बैठने की प्रार्थना की। यह सुनकर श्रीराम ने रथ की परिक्रमा करके उसे प्रणाम किया तथा वे उस रथ पर आरूढ़ हो गए।

अब राम और रावण का रोमांचक युद्ध आरंभ हो गया। गान्धर्वास्त्र, दैवास्त्र, राक्षसास्त्र, सर्पास्त्र, गारुड़ास्त्र आदि अनेक अस्त्रों का प्रयोग होने लगा। एक के बाद एक अस्त्र नष्ट हो जाने से रावण अत्यंत कुपित हो गया और बाणों की वर्षा से उसने श्रीराम को घायल कर दिया। उनके रथ की ध्वजा को भी उसने काट डाला और घोड़ों को भी क्षत-विक्षत कर दिया। श्रीराम को पीड़ित देखकर देवता, गन्धर्व, चारण, दानव, वानर, विभीषण आदि सब व्यथित हो गए।

इस समय बुध नामक ग्रह रोहिणी नक्षत्र में था और इक्ष्वाकुवंशियों के विशाखा नक्षत्र पर मंगल जा बैठा था। अनेक उत्पातसूचक संकेत दिखाई पड़ रहे थे। समुद्र प्रज्वलित-सा होने लगा, उसकी लहरों से धुआँ-सा उठने लगा और वह ऊपर की बढ़ने लगा। धूमकेतु के उत्पात से सूर्य की किरणें मंद हो गईं।

रावण के बाणों से बार-बार आहत होने के कारण श्रीराम अपने सायकों का सन्धान नहीं कर पा रहे थे। अब श्रीराम को मारने की इच्छा से रावण ने वज्र के समान शक्तिशाली एक बहुत बड़ा शूल हाथों में उठाया और भीषण गर्जना करके श्रीराम पर चला दिया। श्रीराम ने उसे लक्ष्य बनाकर अपने भयंकर बाण मारे, किन्तु उस शूल को स्पर्श करते ही वे सब जलकर नष्ट हो गए। इससे श्रीराम को बड़ा क्रोध हुआ। तब उन्होंने इन्द्र की भेजी हुई शक्ति को हाथ में उठाया, जिसे मातलि अपने साथ लाया था। वह शक्ति उल्का के समान प्रकाशमान थी। उसके प्रहार से रावण का शूल टुकड़े-टुकड़े होकर भूमि पर गिर पड़ा।

फिर श्रीराम ने अपने तीखे बाणों से रावण के सीने को छलनी कर दिया और उसके माथे पर भी चोट पहुँचाई। उन बाणों की मार से रावण का शरीर क्षत-विक्षत हो गया और रक्त की धाराएँ बहने लगीं। उनके तीव्र बाणों की मार से रावण अचेत हो गया। यह देखकर उसका सारथी उसे लेकर पुनः युद्धभूमि से भाग गया।

कुछ समय बाद होश आने पर रावण को अत्यधिक क्रोध आया। उसने सारथी से कहा, “दुर्बुद्धे! मुझसे पूछे बिना तूने रथ को युद्धभूमि से क्यों हटाया? मेरे यश और पराक्रम पर आज तूने पानी फेर दिया है। अब तू शीघ्र इस रथ को युद्धभूमि पर वापस ले चल, अन्यथा मैं यही समझूँगा कि तू भी शत्रु से मिल गया है।” यह सुनते ही सकपकाया हुआ सारथी रावण के रथ को पुनः युद्धभूमि में ले आया।

रावण को युद्धभूमि में आता देख श्रीराम ने मातलि से कहा, “मातले! देखो रावण का रथ बड़े वेग से आ रहा है। तुम भी सावधानी से उसके रथ की ओर आगे बढ़ो। आज मैं रावण का वध कर दूँगा।” यह कहकर श्रीराम ने इन्द्र का भेजा हुआ शक्तिशाली धनुष हाथ में उठा लिया।

उस समय रोंगटे खड़े कर देने वाले भयंकर संकेत रावण को दिखाई दिए। बादलों से रक्त की वर्षा होने लगी। उसके रथ पर गिद्ध मँडराने लगे। असमय ही संध्या हो गई। गीदड़ अमंगल बोली बोलने लगे और रावण के सामने बड़ी-बड़ी उल्काएँ गिरने लगीं। सूर्य की किरणों का रंग बदल गया। बादलों के बिना ही उसकी सेना पर भयानक बिजलियाँ गिरने लगीं और अन्धकार छा गया। भारी धूल से आकाश व्याप्त हो गया।

शुभ और अशुभ शकुनों के ज्ञाता श्रीराम इन लक्षणों को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। रावण के वध को निश्चित जानकर उन्होंने युद्ध में अब अत्यधिक पराक्रम प्रकट किया। उन अपशकुनों से रावण को भी अपनी मृत्यु की आहट मिल गई, अतः उसने भी जीवन का मोह छोड़कर स्वयं को युद्ध में झोंक दिया।

बहुत देर तक उन दोनों का भयंकर युद्ध चलता रहा, किन्तु कोई भी दूसरे को परास्त नहीं कर पा रहा था। क्रोधित होकर श्रीराम ने एक भयंकर बाण से रावण का सिर काट डाला, किन्तु तत्क्षण ही दूसरा सिर वहाँ उत्पन्न हो गया। इस प्रकार श्रीराम अनेक बार उसका सिर काटते रहे, किन्तु हर बार नया सिर उग आता था। इससे वे चिंतित हो गए कि जिन अस्त्रों ने बड़े-बड़े राक्षसों का संहार कर डाला था, वे सब अस्त्र आज रावण पर निष्फल क्यों हो रहे हैं?

तब मातलि ने श्रीराम से कहा, “प्रभु! आप केवल इस राक्षस का अनुसरण क्यों कर रहे हैं? यह जो अस्त्र चलाता है, आप केवल उसे रोकने वाले अस्त्र का ही प्रयोग करते हैं। आप इसका वध करने के लिए ब्रह्माजी के अस्त्र का प्रयोग कीजिए। अब इसके विनाश का समय आ चुका है।”

यह सुनते ही श्रीराम को उस अस्त्र का स्मरण हो गया। तब उन्होंने महर्षि अगस्त्य का दिया हुआ एक अमोघ बाण हाथों में लिया, जो ब्रह्मा जी से मिला था। उस बाण में वायु का वेग, सूर्य का तेज तथा मन्दराचल का भार था। वह स्वर्ण से भूषित, सुन्दर पंखों से युक्त, अग्नि के समान भयंकर तथा वज्र के समान कठोर था। वह बाण कभी निष्फल नहीं होता था। लक्ष्य पर एकाग्र होकर श्रीराम ने अपने धनुष को पूरी तरह खींचा और सहसा वह बाण रावण पर चला दिया।

वज्र के समान भयंकर वह बाण सीधा जाकर रावण की छाती में लगा और उसने दुरात्मा रावण के हृदय को फाड़ डाला(अमृत सुखा दिया नभी का)। उस भीषण प्रहार से रावण का धनुष उसके हाथों से छूटकर गिर गया और वह दुष्ट निशाचर निष्प्राण होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।

रावण की मृत्यु से भयभीत होकर सब राक्षस लंका में भाग गए। वानर सेना हर्ष से गर्जना करने लगी। अंतरिक्ष से देवताओं ने श्रीराम के रथ पर फूलों की वर्षा की और सब लोग श्रीराम की जय-जयकार करने लगे। सबने मिलकर श्रीराम की विधिवत पूजा की।

इस प्रकार श्रीराम ने रावण का वध करने की अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण कर ली।

अपने पराजित भाई को रणभूमि में मृत पड़ा देख विभीषण शोक से विलाप करने लगा। श्रीराम ने उसे सांत्वना दी। रावण-वध का समाचार सुनकर शोकाकुल राक्षसियाँ भी अन्तःपुर से निकल पड़ीं और युद्धभूमि में आ पहुँची। वहाँ अपने मृत पति को भूमि पर पड़ा देख वे सब करुण क्रन्दन करने लगीं।

विलाप करती हुई मन्दोदरी बोली, “राक्षसराज! आपके क्रोध से तो इन्द्र को भी भय लगता था, फिर आप एक मानव से कैसे परास्त हो गए? यह असंभव है कि कोई साधारण मनुष्य आप जैसे महापराक्रमी का वध कर सके। अवश्य ही भगवान विष्णु ने स्वयं ही श्रीराम के रूप में प्रकट होकर आपका वध किया है क्योंकि आप समस्त देवताओं के शत्रु बन गए थे। आपने छल से एक परायी स्त्री का अपहरण किया और शक्ति के मद में बन्धु-बान्धवों सहित अपना विनाश कर डाला। आपकी मृत्यु से मेरा जीवन भी नष्ट हो गया है।”

यह कहती हुई मन्दोदरी रोने लगी व रावण को धिक्कारने लगी। इसी बीच श्रीराम ने विभीषण से कहा, “मरने के बाद वैर समाप्त हो जाता है। अतः सब भूलकर अब तुम अपने भाई के दाह संस्कार का प्रबंध करो।”

तब विभीषण ने लंका में प्रवेश करके दाह संस्कार के लिए शकट, अग्नि, चंदन की लकड़ियाँ, मणि, मोती, मूँगा, अगर एवं अन्य सुगन्धित पदार्थ एकत्र करवाए। रावण के शव को रेशमी वस्त्र से ढककर सोने की शिबिका में रखा गया। सभी लंकावासी दुःख से आँसू बहाते हुए हुए वहाँ खड़े हो गए। विभीषण आदि राक्षस फूलों व पताकाओं से सजी उस शिबिका को अपने कन्धों पर उठाकर श्मशान भूमि की ओर चले। यजुर्वेदीय याजकों द्वारा त्रिविध अग्नियाँ प्रज्वलित की गईं। उन सबको कुण्डों में रखकर पुरोहितगण शव के आगे चले। अन्तःपुर की सारी स्त्रियाँ रोती हुई शव के पीछे-पीछे चल पड़ीं।

श्मशान में पहुँचकर राक्षसों ने मलय एवं चन्दन की लकड़ियों, पद्मक, उशीर (खस) आदि से चिता बनाई और उस पर रंकु नामक मृग का चर्म बिछाया। उस पर रावण के शव को लिटाकर उन्होंने चिता के दक्षिण-पूर्व में वेदी बनाई और वहाँ अग्नि को स्थापित किया। फिर दही मिश्रित घी से भरी हुई स्रुवा (यज्ञ में आहुति डालने की करछी) रावण के कंधे पर रखी। फिर पैरों पर शकट (छकड़ा/गाड़ी) और जाँघों पर उलूखल (ओखली) रखा गया। अरणि, उत्तरारणि, मूसल आदि को भी यथास्थान रखा गया।

वेदोक्त विधि से तथा कल्पसूत्रों में बताई गई प्रणाली से सारा कार्य संपन्न हुआ। राक्षसों ने एक पशु की बलि दी और चिता पर बिछे मृगचर्म को घी से तर किया। फिर रावण के शव को चन्दन व पुष्पों सजाकर चिता पर अनेक प्रकार के वस्त्र एवं लावा बिखेरा गया। अब विभीषण ने विधि के अनुसार चिता में आग लगाई। फिर स्नान करके उसने भीगे वस्त्र पहने हुए ही तिल, कुश और जल के द्वारा रावण को जलांजलि दी। इसके बाद रावण की स्त्रियों को सांत्वना देकर उन्हें घर जाने के लिए अनुनय-विनय की। उन सबके चले जाने पर विभीषण श्रीराम के पास आकर विनीत भाव से खड़ा हो गया।

अब तक श्रीराम ने भी युद्ध का रोष त्याग दिया था और वे शान्त भाव से खड़े थे। उन्होंने मातलि को विदा किया और फिर प्रसन्नता से उन्होंने सुग्रीव को गले लगाया और सबके साथ वे वानर-सेना की छावनी में लौटे। तब उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “अब तुम लंका में जाकर विभीषण का राज्याभिषेक करो।”

लक्ष्मण के आदेश पर तुरंत ही वानर एक सोने के घड़े में समुद्र का जल ले आए। उस जल के द्वारा लक्ष्मण ने वेदोक्त विधि से विभीषण का राज्याभिषेक किया। फिर श्रीराम ने हनुमान जी से कहा, “हनुमान! अब तुम महाराज विभीषण की आज्ञा लेकर लंका में प्रवेश करो व सीता से मिलकर उनका कुशल-क्षेम जानो। उन्हें यह प्रिय समाचार सुनाना कि युद्ध में रावण मारा गया।

(आगे अगले भाग में…स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

जय श्रीराम✍️

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