Shankhdhar Dubey

Shankhdhar Dubey चिंतन प्रधान आवारगी और आवारगी प्रधान चिंतन,कहने को कुछ नहीं है सिर्फ बकवास मिलेगी,रुचि हो तो आइए...

09/11/2024

ऐसा कोई ऐप नहीं है जिसने बाबू जी को लोन देने के लिए दौड़ाया न हो,अब तो व्हाट्स ऐप और फेसबुक खोलने तक से डर लग रहा है।

08/11/2024

लेडीज घड़ी

उन दिनों वक्त बहुत होता था। माथे पर हाथ की कैनोपी बनाकर सूरज की गति से समय का मोटा मोटी अंदाजा लगा लिया जाता। वैसे भी समय देखने की जरूरत थी ही किसको लगभग सब खेती किसानी में लगे थे अपने खेत में खटना।दोपहर को लौटना।नहाना।थोड़ा आराम करना फिर खेत की तरफ निकल लेना और शाम को लौटना।एकरस और रूटीन जिंदगी मतलब बायोलॉजिकल क्लॉक से भी जीवन सध ही जाता था।यह बायोलॉजिकल क्लॉक पशुओं में होती ही थी वे गर्मियों की दोपहर को पुराने घाट और सर्दियों की शाम को पिपरहवा घाट की तरफ रेंगने लगती थीं। समय की ठीक ठीक जानकारी न होने से आधी रात बहुत लंबी होती। लोग सरे शाम गोरू बछरु को अपने थाने पवाने करके और रुखा सूखा खा पीकर सो जाते इसलिए आधी रात शाम नौ बजे से सुबह तीन बजे तक चलती थी। सुबह सूरज निकलने से ठीक पहले लोहित आसमान देख कर आजी कहती थीं लोहा लग गया है मतलब सूरज की पहली किरण धरती पर आने को तैयार है।

हम स्कूल जाने वाले बच्चे आंगन में धूप की गति से समय का अंदाजा लगा लेते थे।मतलब सर्दियों में धूप आंगन की दीवार से उतरने से पहले हमें भागना होता था जबकि गर्मियों में धूप आधे आंगन तक पसर जाती थी।गर्मियों में कोई भागम भाग नहीं गौरैया फुदकते हुए हमारी थाली से चावल चुग जाती हम इत्मीनान से उनका कौतुक देखते।

हम छठी कक्षा में थे जब बड़की भाभी आई थीं। भाभी के साथ कुछ अनोखी चीजें भी आई थीं जिसमें एक छुटके डायल वाली लेडीज घड़ी थी।जिसे दादा ऐसे अजूबे से देख रहे थे जैसे ताजी बयाई भैंस का पाड़ा हो।उन्हें उस नन्हीं घड़ी के चलने पर यकीन न था पर चलता देखकर खासे चकित और मुदित थे ।घड़ी आई तो घर का तो नहीं पर हमारा वक्त बदल गया।ऐसा नहीं था कि हम समय का सदुपयोग करने लगे थे बल्कि यह हुआ कि अब हम घड़ी देखकर अपना वक्त बर्बाद कर रहे थे यह और बात है घड़ी देखना नहीं जानते थे।हम सब छोटे भाई बहन भाभी से घड़ी झटक कर मुंडी जोड़कर उसे चलते हुए देखते थे धक्का मुक्की करते थे बीच मार पीट भी हो जाती थी।घड़ी ने अचानक हमारा कद बढ़ा दिया था सो हम बाहरी लोगों पर रोब ग़ालिब करते थे।घड़ी आने के साथ हमारे दोस्तों की लिस्ट लंबी हो चली थी और वे हमें खड़िया, चाक,इमली अमरूद आदि देकर और घड़ी छूकर हमारे सौभाग्य को सराहते थे।

बड़के भैया को पता न था पर हमने सैद्धांतिक रूप से घड़ी में चाभी देने के लिए बारी फिक्स रखी थी पर जिसके हाथ घड़ी पड़ती थी वह उसमें चाभी भरने लगता था। घड़ी ही तो है के भाव से मजमा छट गया।इसी बीच घड़ी लगभग स्थाई रूप से मेरे हाथ लग गई और मैं घड़ी धारण करके और समय के घोड़े पर सवार होकर नंगे पैर स्कूल जाने लगा।अब मैं इत्मीनान से सेकेंड और मिनिट की सुई को छोड़कर घंटे की सुई को चलते हुए नजर बनाए रखता था।रात को तारीख बदलने तक जगने का प्रयास करता।कोई खास उपलब्धि भले न हो जीवन की पर इतना संतोष तो हैं कि एकाध बार तारीख बदलते हुए देखा है।

तो स्कूल में घंटी लगवाने की जिम्मेदारी बाबू नरसिंह सिंह की थी जिनकी स्पेलिंग नर्सिंग लिख कर उनके हाथों एक मर्तबा मैं पिट भी चुका था। वे घड़ी उल्टी तरफ मतलब नाड़ी की तरफ बांधते थे और जब याद आता तो हाथ उलट कर घंटी देखते और घंटी बजवा देते।समय का प्रवाह कट जाता सीन बदलता और हम किसी और टीचर के हाथों या तो पिट रहे होते या हुरपेटे जा रहे होते।बाबू साहब के इशारे पर क्लास से तीन चार लोग लपकते थे लेकिन अक्सर ही दो राम मूर्तियों में से कोई एक राममूर्ति घंटी बजा पाते थे।पहले राममूर्ति रेवरादास से थे दूसरे बनियाजोत के।पहले वाले भाई साहब से कोई कम ढंग से न होता था सिर्फ घंटी बजती थी सो भी इतनी जोर कि उसकी आवाज ब्रह्मांड में गूंजती थी ऐसा मुझे लगता था।

घड़ी आने के साथ समय को लेकर मेरा और बाबू नरसिंह जी की हल्की फुल्की बहस शुरू हुई कि बाबू साहब आपने घंटी पांच मिनट पहले या बाद में लगवाई।पहले यह बात हम दोनों के बीच होती थी फिर यह बात सार्वजनिक रूप से होने लगी।बाबू साहब सीधे आदमी थे घर के बुजुर्ग की तरह।सो हम भिड़े ही रहने लगे।बाबू साहब इगोर करते थे।मेरा हौसला इतना बढ़ने लगा कि हम अपनी घड़ी से घंटी बजा देने का हौसला जुटाने लगे।एक मर्तबा ऐसा हुआ भी हम कक्षा से पहले निकले, महुए के पेड़ के पास नेपाए खड़े थे समय हुआ घंटी ठोंक दी।फिर बाबू साहब ने लंच के समय जब सब बच्चे फील्ड में खेल कूद रहे थे बुलाकर मुझे विधिवत रूप से कूटा।घड़ी का नशा उतर गया।मेरी रुसवाई की दीर्घ सूची में एक और नया इंदराज जुड़ गया।

 ्तित्व
12/10/2024

्तित्व

11/10/2024

मात्र तिरपन साल की उम्र में हानकांग को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला है।हमारे यहां वाले तो तिरपन तक युवा कवि कहलाए जाने में ही खर्च हुए जा रहे हैं।

Blue ...
11/10/2024

Blue ...

04/08/2024

जैसे ही आप पश्चिम से पूर्व की तरफ बढ़ते हैं उपनाम छोटे होते जाते हैं।
कोंकड़ क्षेत्र में सरदेशपांडे पाए जाते हैं।
थोड़ा पूर्व में आगे बढ़ने के साथ ही देशपांडे मिलते हैं।
थोड़ा और दूर आने पर पांडे मिलते हैं।
पश्चिम बंगाल तक पहुंचते पहुंचते इस उपनाम में सिर्फ डे बचता है।

व्हाट्सअप।

23/06/2024
होली हो ली..
23/03/2024

होली हो ली..

01/12/2023

भले आदमियों के साथ दिक्कत यह होती है कि वे भले आदमियों जैसे बातें करते हैं जो बुराई के दलदल में आकंठ डूबे हम जैसे लोगों के लिए बहुत रूहानी दिक्कततलब और दिल दुखाऊं बात साबित होती है।अब भैया हिंदुस्तान है चमत्कारों का देश। सो भले लोगों की संख्या भले ही बहुत बिरल हो गई हो लेकिन अगर आपका दिन खराब हो तो अभी भी मिल ही जाते हैं।मुझे आज मिल गए।

मिलते ही घोर निराशा हुई।हमने बड़े बड़े प्रलोभन दिए पर वे झांसे में न आए भले आदमी बने मंद मंद मुस्काते रहे।यह मेरे लिए खासी चिड़चिड़ाहट की बात थी कि वे किसी बात पर चिड़चिड़ा नहीं रहे थे। न ट्रैफिक पर,ना प्रदूषण पर न ,ना सर्दी पर न मौसम पर।फिर हमने निंदा रस परोसा वे उसमें भी न फंसे।बल्कि मुझे लगा निंदा के प्रति मेरे स्वाभाविक उत्साह को देखकर वे मुझे ही जज कर रहे हों। यह अलग दिल दिखाऊं बात साबित हो रही थी।सो मेरा उत्साह उफनते दूध सा फसफसा कर बैठ गया।
वे सहज रूप से सजग हूं हां कहते हुए बहुत कम दखल के मेरी बातें सुनते रहे,किसी बात का कोई प्रतिकार न किया।मैं देर तक कुछ न कुछ बोलता रहा पर उनकी चुप्पी के बरक्स लगा मैं बक रहा हूं और मेरे इर्द गिर्द अनर्गल बातों का कचरा जमा हो गया है जिसमें मैं लिथड़ गया हूं।यह भान होते ही मैं अचानक बेतरतीब हो गया फिर अचानक चुप गया कहना ना होगा कि उनकी सधी और सुविचारित चुप्पी के बीच मेरी अचानक अवतरित चुप्पी और मुखरित रूप में अश्लील लग रही थी।कुछ सूझ ही न रहा था,माथे पर पसीने चुहचुहा आए।कुछ न सूझने पर अचानक प्रणाम किया और वहां से तेजी से चलकर भाग निकला।जैसे जैसे भले आदमी से दूर होता जा रहा था व्यर्थता बोध का अहसास दबोच रहा कि भगवान भले लोगों से बचाओ हम शेर का सामना कर लेंगे पर भले लोगों का? ना बाबा ना...

28/10/2023

वन तुलसी की गंध

अजीब गणित है
चीजें दूर होकर पास आ जाती हैं
और आंखों का गणित उससे भी अजीब है
एक उम्र के बाद पीठ में उग आती हैं
अजीबपने का यह खेल कितना अजीब है कि जिन गंधों,धुनों और रंगों से भागते रहे थी उनकी
तरफ भागने लगते हैं।

वन तुलसी की गंध से सर भन्नाता था
एक बूढ़ा जर्जर हाथ
आशीर्वाद में
मेरे कंधे पर टिक जाता था
सारंगी की एक थकी धुन में
राम रसायन मिलाकर गाते थे
बड़े मियां।

आज वन तुलसी के लिए दुनिया में घटती जमीन के बीच मेरे पन के परिसर में
वन तुलसी का हरा भरा जंगल है।
आशीर्वाद में कांपते हाथों
का स्पर्श स्थाई है
मेरे अंधेरे पलों का आसरा है।

संभव है बड़े मियां की सारंगी बिखर गई होगी
पर उसकी वेदनामयी धुन
पहले से भी साफ सुनाई देती है।

यह बड़े होने की दुश्वारियां हैं कि जिन बचकानी चीजों को हमें
हंसकर भूल जाना था
उन्हें हम रोकर याद कर रहे हैं।

01/10/2023

हम गरीब लोग हैं।बल्कि खानदानी गरीब हैं।डबल बल्कि यह भी अंडर स्टेटमेंट है।हम खानदानी खांटी गरीब लोग हैं जिसमें अमीरी या यहां तक कि मिडिल क्लासी होने का कोई दाग धब्बा नहीं है। महा मिलावट के युग में ,जहां धनिए में घोड़े की लीद,घी में चर्बी , दूध में उर्वरक यहां तक कि उर्वरक तक नकली और मिलावटी मिल रहा हो हमारे पुरखों की सदियों की इस थाती में कोई मिलावट नहीं है।शुद्ध गरीबी का आलम यह है कि अगर इस क्षेत्र में कोई हाल मार्क या आईएसओ 9000 टाइप का कोई प्रमाणन होता तो एजेंसियां हमें देखते ही गले में हमारे गले में चीखते हुए प्रमाण पर्वडाल देती कि देखो लोगों देखो शुद्ध गरीब इसे कहते हैं।हमारे परिवार की कहानियों में पहले हम अमीर थे या जागीरदार थे फिर अंग्रेजों ने हमें लूट लिया या जमीदारी चली गई टाइप के वाक्य नहीं आते।हमारी गरीबी के किसी का दोष नहीं यह हमारी आध्यात्मिक उपलब्धि है।हम हर मौसम हर युग हर ऋतु में गरीब लोग रहे हैं।हम हर एंगल ,चाल ,चलन और चरित्र से गरीब दिखते हैं।हमारी एक पारिवारिक परंपरा और संस्कृति है।हमारे पास अगर कुछ है तो गरीबी है।यही हमारा पीठ का पर्दा है ।हमने गरीबी को सांस्कृतिक विरासत की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी संभाल के रखा है और वीरता पुरस्कार की तरह अपने सीने पर पहन रखा है और गर्व से मुनादी करते हुए घूम रहे हैं कि "क्या करें साहब!! हम तो गरीब लोग हैं।" जैसे ही इस बात को हम कहीं बोलते हैं या सीधे हमें अपनी सैकड़ों पीढ़ियों की अविछिन्न परंपरा में जोड़ देती है।

ऐसा भी नहीं है कि हमारे खानदान में ऐसे अभागे महत्वाकांक्षी और पुरषार्थी लोग नहीं थे जो अमीर और मिडिल क्लास जीवन के आकांक्षी थे,उन्होंने गरीबी से बाहर निकलने के लिए हाथ पांव मारे,लेकिन मेरे खानदान के बहुसंख्यक गरीबवादियों ने उन्हें लुहलुहाया,उनका मजाक बनाया ,उनकी असफलता की भविष्यवाणियां की और उनके बर्बाद होने की चेतावनी दी। मेरे खानदान के एक भाई साहब हैं जो परिवार में किए गए हर पुरुषार्थ की असफलता कालक्रमानुसार डायरेक्टरी रखते हैं अब जैसे ही पारिवारिक परंपरा से अलग कोई रंगरूट कुछ करना चाहता है उसे खानदानी असफलताओं और बरबादियों की ऐसी सचित्र कहानी सुनाते हैं कि आगे बढ़ने का हजातमंद आदमी सोचता है ,हाय ये मैं किस आत्मघाती रास्ते पर चल पड़ा था। आप उक्त भाई भाई साहब को धंधा रोजगार सुझाओ वे असफल लोगों की सूची प्रस्तुत कर देंगे। वे सफल लोगों की तरफ देखते ही नहीं,असफल लोगों की तरफ ही देखते हैं क्योंकि उनके लिए बल्कि बृहत्तर पारिवारिक आग्रहों में पुरषार्थ रोग है जिससे आदमी समृद्ध हो सकने की आशंका छुपी हुई है। हम गरीबी को लेकर पुरानी शर्ट को पहनने जैसे सहज हैं जो हमारे शरीर के बेढबपेन के हिसाब से ढल गई हो।

देश की आजादी के साथ ही अमीर होने या कम से कम मिडिलची होने के खुलते तमाम अवेन्यू के बीच भी हम अपने रास्ते से भटके नहीं और एकाध पीढ़ी के कतिपय बिचलनों को छोड़ दिया जाय तो हमने अपनी स्थिति को एंटैक्ट रखी है।हमारे परिवार की गरीबी ऐसे ही नहीं है बल्कि उसका दार्शनिक आधार है जिसमें सबसे प्रमुख सिद्धांत पैसा पाप है और खुद का कमाया पैसा तो कत्तई जहर है।पैसे से तमाम दुर्गुण आते हैं ,रिश्ते नाते सब नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं समृद्धि में नैतिक मूल्यों का ह्रास होता है,समृद्धि में डर समाया हुआ है आदमी कभी भी विपन्न हो सकता है।जबकि गरीबी में सिर्फ गरीबी की एक ही चिंता शामिल है समृद्धि में सौ चिंताएं शामिल हैं।लिहाजा हम गरीबी की थिगली पर सिर टिकाए और प्रमाद की चादर ताने निश्चिंत होकर सो रहे हैं।सरकार रोज रेपो रेट बढ़ाए , टैक्स बढ़ाए हमारी बला से।

हम बिगड़े जमीदार सुबह उठते थका थका महसूस करते हैं, कृष्काय बच्चों को बढ़ता देख कर चौकते हैं कि बताइए ,इस गरीबी में भी बढ़े जा रहे हैं, आलस्य के बरामदे में अरमतलबी की कुर्सी खींच कर बैठ गए हैं ,हाथ की रेखाएं देख रहे हैं ,जांघ पर तबला बजा रहे हैं , मैल की बत्ती बना रहे हैं,गिर रहे घर को देख रहे हैं,दरवाजे पर विश्व के आठवें आश्चर्य की तरह बिना भोजन पानी के जिंदा और बुलंद आवाज में रंभाते पशुओं को देख रहे हैं,अकारण सिर पर हाथ फेर रहे हैं ,भजन गा रहे हैं,काम बूट,धंधे रोजगार पर जा रहे किसी आदमी को चीखकर रोकते हैं ,उसे आगाह करते हैं कि कहां मरने जा रहे हो,और ताकीद करते हैं कि तुम्हें सुख नहीं बदा है। मरो खींझ खींझ कर !! वे इस बात को इस आत्मविश्वास से कहते हैं जैसे खुद क्षीर सागर में लेटे हों।

हम दिन भर खाली रहते हुए खुद को व्यस्त रखते हैं।कहीं भी जाने को तैयार रहते हैं परमार्थ के लिए तो कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक जा सकते हैं बशर्ते बाइक और गुटके का इंतजाम हो जाय।हम बेदाग लोग हैं हमारे जीवन में की सारी समस्याएं दूसरे खासतौर से वे अभागे लाए हैं जो हमारे जीवन को सहारा देने की कोशिश कर रहे हैं। हम लोग काम वहीं करते हैं जिसमें कोई फायदा न हो।फायदे के लिए हम काम नहीं करते।स्वाभिमानी लोग हैं जिस पर निर्भर हों उसकी भी परवाह नहीं करते।दूसरे क्या करें इस बारे में हमारे पास मैनुअल है ,हम क्या करें इस बारे में हमारा खानदान मौन रहता है।

खानदान में कई लोग गरीबी से घबरा कर कहीं और पलायन कर गए और जहां गए वहां भी गरीबी को मेंटेन किए हुए गरीबी में जीवन यापन कर रहे हैं और पीछे रह गए दार्शनिक लोग उनका मजाक बना रहे हैं।

कुलमिलाकर हम ऐसे परमार्थी लोग हैं जिनके चूतड कुत्ते नोच रहे हैं और जो दूसरों को शगुन बताने से बाज नहीं आ रहे हैं ....
#रीठेल

29/09/2023

प्रार्थनाएं

छोटे से एक ही जीवन में
कभी शिल्प
और सुर में नहीं रहा
सब बेतरतीब, बेढब, खुरदुरा
ही रहा।
आश्चर्य नहीं जब मुझे
शिल्प और सुर में होना था
मैं दोनों से बाहर और बहुत दूर था,
इतना की वापसी संभव न थी।

कोई और नहीं
मेरा खुद का ही बोझ मुझ पर भारी था
जाने अनजाने में कितने पाप हुए
जिनका कोई प्रायश्चित नहीं है
धूल, धुएं और घुटन से भरी
प्रायश्चित की कोठरी से एहतियातन
कम ही गुजरता हूं
मगर किसी थके और बोझिल पल में
जब कोई बोझ भारी पड़ता है
तो सरक जाता हूं
पर तुरंत ही धूल झाड़ता हुआ
शब्दों की सीढ़ी लौट आता हूं।
क्या कि शब्द हों तो पेशा कोई गलत नहीं है
चोरी भी आंदोलन और प्रार्थना में गिनी जाती है।

मेरी वेदना का उत्स मेरी ही पीड़ाएं नहीं हैं।
बल्कि कई बार लगता है मुझे पात्रता से अधिक मिला है
इतना अधिक, कि सफलताएं और उपलब्धियां
कुछ कुछ हादसे की तरह आईं।

मुझ जैसे उथले मनुष्य का कोई बार नहीं है
मैं अपनी प्रार्थनाओं से दबा हूं।
कोई राज पाट की प्रार्थना नहीं थी
बैशाख जेठ की झुलसती धूम में
दूब के लिए थोड़ी सी नमी मांगी थी
मांगा था बहनों को मिले खूब प्यार
नदियों में बचा रहे पारदर्शी झिलमिलाता पानी।

हर कातर पुकार को उत्तर मिले
एक टुकड़े सुख के बादल की छांव
सब पर रहे
यातना में भी बचा रहे विवेक
संस्कृति विमर्श में किसी काम के ना रह गए शब्द भी बचे रहें
और वे भी बने रहें जिनके बने रहने का किसी के लिए कोई औचित्य नहीं है।

इस भागम भाग में कोई हो
जिसे कहीं पहुंचें की कोई जल्दी ना हो
जो इंतजार कर सके
और इंतजार करने से ऊबे नहीं
बेबसी के विकल्प से इतर
धैर्य से इंतजार करता मनुष्य
सुंदर दृश्य है।

मैं खुद से ज्यादा प्रार्थनाओं के बोझ दबा हूं।
सबकी प्रार्थनाएं मुक्त ही नहीं करतीं।

14/09/2023

कायमगंज में एक भाभी जी थीं।वे लखनऊ की थीं ऐसा वे बताती थीं,पर वे संडीला की थीं ऐसा उनकी ननद ,जिसे मैं अंग्रेजी पढ़ाता था,बताती थी।भाभी की जिद थी वे अंग्रेजी ही बोलने की कोशिश करती थीं जो अलबत्ता गलत होती थी।भाषा के बारे में आमतौर पर और अंग्रेजी के बारे के उनकी खासतौर पर यह धारणा थी कि भाषा सिर्फ कॉन्फिडेंस का ही मामला है।शब्द और व्याकरण अनुशासन सब बेकार की बाते हैं। उनकी धारणा यह थी कि मात्र अंग्रेजी न आने के कारण वे कायमगंज जैसे पिछड़े और प्रतिगामी शहर में फंस गई हैं लेकिन वे अपनी बच्ची को अंग्रेजी ही पढ़ाएंगी यही स्वर्ग की सीढ़ी है।मैंने अपना ही उदाहरण देकर उनका ध्यान बटाना चाहा कि देखिए मुझे अंग्रेजी आती है और मैं अंग्रेजी आने की वजह से ही आपके पिछड़े शहर में आया हूं।भाभी जी इस तर्क से प्रभावित नहीं हुईं उल्टे यह कहकर मेरे आत्मविश्वास को धोबीपाट दे मारा कि मास्टर साहब अगर आपकी अंग्रेजी सच में अच्छी होती तो आप लखनऊ पब्लिक स्कूल या सिटी मांटेसरी में पढ़ा रहे होते यहां देहाती भूस्स लड़कियों को अंग्रेजी पढ़ाने की जहमत न उठाते।भाभी ने एक ही वार में ननद और उसके गुरु दोनों का चूर्णीकरण कर डाला।हम किंकियां भी न सके।लेकिन अभी तो हमें और भी जलील होना था।सो,बीच में ही मॉड भाभी की छुटकी सी बिटिया आ गई जो निहायत ही सादगी बल्कि हिंदी मीडियम से कुछ खा रही थी।बच्ची आई, भाभी की गोद में बैठ गई।भाभी ने उससे "ओपन योर माउथ" की दरयाफ्त कि और बच्ची ने अनुपालन किया।भाभी ने जितना विस्मय हुआ जा सकता है उससे ज्यादा सो भी अग्रेजी में विस्मित होते हुए बिटिया को चपत(अंग्रेजी में ही) लगाई और फरमाया कि, नॉटी गर्ल!ईटिंग गोवा!!

मुझे अपनी भूमिका मिल गई थी सो हम भाभी जी से भी ज्यादा विस्मित होते हुए इस बात पर खासी आपत्ति प्रकट कर डाली कि किसी को भी ऊपर इतनी छोटी बच्ची को गोवा( एक लोकप्रिय गुटखा ब्रांड) नहीं खाना चाहिए। मैं अनजाने में ही भाभी जी के संस्कार और परवरिश को ठेस पहुंचा रहा था।पर फॉर्म में था जो गुटखा खाने से होने वाले नुकसान पर एक निरीह अध्यापक सा बोलता रहा।

फिर भाभी जी ने दखल देते हुए बात का सिरा झटका और बताया कि वह अमरूद खा रही है गुरुजी!!
गुरुजी लिट्रली मरते मरते बचे।मेरी होनहार छात्रा मुझसे अलग से महीनों नाराज रही कि कहां वह मुझे भाभी की बेइज्जती कराने ले गई थी कहां मैं उसकी और अपनी दोनों की बेइज्जती करा आया था।

मोरल ऑफ द स्टोरी यह है कि हम सब कथित हिंदी प्रेमी उसी मॉड भौजाई की तरह हैं जो अपने बच्चों को अंग्रेजी से इतर भारतीय भाषाओं को बोल देने से शर्मिंदा महसूस करते हैं।भाषा फेसबुक पर रोदन मचाने से नहीं बचेगी बल्कि उसे अगली पीढ़ी तक सफलता पूर्वक सौंपने से बचेगी।जिस तरह से हम अपनी भौतिक उपलब्धियों घर दुवार, खेत खलिहान सौंपने को आतुर रहते हैं वही आतुरता अपनी भाषा की विरासत को भी सौंपने पर दिखानी चाहिए।शायद कुछ शब्द कुछ संस्कृति बची रह जाय।
दूसरे नई प्रौद्योगिकी से भाषा संस्कृति के कितने ही शब्द पीछे छूट गए हैं जिनका कोई हिसाब नहीं है।मात्र ट्रैक्टर आने से ही खेती किसानी से जुड़े कितने ही शब्द चुपचाप विदा हो लिए। जुआठा,बरारी , कुढ़ , नाधा, पैना लढ़ी, शामि, हाल, टेकुआ सैलि....

02/09/2023

जीवन भी अजीब शै है।क्या क्या रंग दिखाता है।जिस पक्की जमीन पर हम पैर जमाए मजबूती से खड़े होते हैं कि कई बार अचानक लगता है,ये जमीन तो पोली है या उतनी मजबूत नहीं है।जिन सपनों ने हमारी रातों की नीद हराम कर रखी थी ,जीने मरने का सवाल बन गए थे वही सपने खुद को ही हास्यास्पद लगते हैं।जैसे पुराने जमाने में नौटंकी प्रेमियों के साथ होता था।रात के अंधेरे में पेट्रोमैक्स की रोशनी में पसीने में नहाई हुई जिस नर्तकी पर मर मिटे थे वह उजाले में अपने रंग मंच के किसी कोने पर लुंगी पहने बेसुध सो रहा है।मुंह खुला है,गाल पर लार की पपड़ियां सूख गई हैं।मक्खियां भिनभिना रही हैं। परदा हटने से सब गुड़ गोबर हो जाता है।यथार्थ और रोमांस में चूहे बिल्ली सा खेल चलता रहता है।कवि कह गया है कि परदा जो हट गया तो भेद खुल जायेगा।सो बहुत दूर तक जानने समझने का प्रयास ऐसा व्यर्थता बोध पैदा करेगा है कि आदमी राजपाट छोड़ कर बुद्ध हुआ चाहेगा। लेकिन बुद्ध होना गौतम की ही नियति है।सो जीवन में सच पूछा जाए तो इसी रहस्य और अनप्रेडिकटेबिल्टी में ही जीवन का सौंदर्य और रस छुपा है।

अब मेरा ही उदाहरण लीजिए,पहले मुझे लगता था कि जीवन में सच्चा प्यार ना मिलना ही सबसे बड़ी पीड़ा रही है।लेकिन अब उम्र के ऐसे खतरनाक और हैरतअंगेज मोड़ ( जिसे गाली बना दिया गया है अधेड़ कहकर!!) पर पहुंच गए हैं कि कुछ खाने के बाद दांत में इतने फांस रह जाती है कि लगता है कि ये निकल जाएं तो जिंदगी सफल हो जाए।रोज का ही मसला है।आदमी खाए बिना जी नहीं सकता उधर खा ले तो फांस अलग से नहीं जीने देती फांस ना तो भी फांस की आशंका नहीं जीने देती।बोलने की आदी जीभ बोलते बोलते जब अचानक फांस की मणि टटोलने लगती है तो सामने वाले को कहना पड़ता है।चुप क्यों हो गए गाओ ना.. अब उन्हें कौन बताएं फांस जीने नहीं देती। दांत भीष्म पितामह की तरह फांस की शर शैया पर लेते हैं और जिन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान भी नहीं है। मार से नहीं प्यार से डर लगने लगा है।कोई कुछ प्यार से परोस दे तो जीभ दांतों का फेरा शुरू देती है।जैसे कह रही हो मामले को भाइयों संभाल लेना ..

आज जीभ ने सुबह सुबह ही श्रम करके एक सप्ताह पहले खाए गए कॉर्न की फांस निकाली है।मुंह न रहा जैसे सप्ताह के खाए पिए का मेन्युकार्ड हो गया है!!

18/08/2023

दुनिया को प्रेम और करुणा चाहिए..

डॉ. फ्रैंक मेफ़ील्ड ट्यूक्सबरी इंस्टीट्यूट का दौरा कर रहे थे। बाहर निकलते समय वे एक बुजुर्ग नौकरानी से टकरा गए।टकराने की झेंप से उबरने के लिए डॉ. मेफ़ील्ड ने उससे बात करना शुरू कर दिया।
"आपने यहां कितने दिनों से काम कर रही हैं?"
नौकरानी ने उत्तर दिया कि जब से यह स्थान खुला है, उसने लगभग यहीं काम किया है।
"आप मुझे इस जगह के इतिहास के बारे में क्या बता सकते हैं?" उन्होंने पूछा।
"मुझे नहीं लगता कि मैं तुम्हें कुछ बता सकती हूँ, लेकिन मैं तुम्हें कुछ दिखा सकती हूँ।"
इसके साथ ही, उसने उनका हाथ पकड़ा और उन्हें इमारत के सबसे पुराने हिस्से के नीचे बेसमेंट में ले गई। उसने छोटी जेल की कोठरियों में से एक की ओर इशारा किया, जिसकी लोहे की सलाखें समय के साथ जंग खा रही थीं, और कहा, "यह वह पिंजरा है जहां वे एनी सुलिवान को रखते थे।"
" एनी कौन है?" डॉक्टर ने पूछा.
एनी एक युवा लड़की थी जिसे यहाँ लाया गया था क्योंकि स्थिति बहुत खराब थी - कोई भी उसके साथ कुछ नहीं कर सकता था। वह काटती, चिल्लाती और अपना खाना लोगों पर फेंक देती थी। डॉक्टर और नर्स उसकी या किसी चीज़ की जाँच भी नहीं कर सकते थे। मैंने उसे उन पर थूकते और खरोंचते हुए देखा है।
"मैं खुद उससे केवल कुछ ही साल छोटी थीऔर मैं सोचती थी, 'मुझे निश्चित रूप से इस तरह पिंजरे में बंद रहना पसंद नहीं होगा।' मैं उसकी मदद करना चाहती थी, लेकिन मुझे नहीं पता था कि मैं क्या कर सकती हूं। मेरा मतलब है, अगर डॉक्टर और नर्स उसकी मदद नहीं कर सके, तो मेरे जैसी मामूली नौकरानी क्या कर सकती है?

"मुझे नहीं पता था कि और क्या करना है, इसलिए मैंने काम के बाद एक रात उसके लिए कुछ ब्राउनीज़ बनाईं। अगले दिन मैं उन्हें ले आई। मैं अपने डर पर काबू पाते हुए सावधानी से उसके पिंजरे के पास गई और कहा, 'एनी, मैंने ये ब्राउनीज़ सिर्फ तुम्हारे लिए बनाई हैं 'मैं उन्हें यहीं फर्श पर रख दूँगी और यदि तुम चाहो तो आकर ले सकती हो।'
"फिर मैं जितनी जल्दी हो सके वहां से निकल गई क्योंकि मुझे डर था कि वह उन्हें मुझ पर फेंक सकती है। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसने ब्राउनी ली और उन्हें खा लिया। उसके बाद, जब मैं आस पास होती वह थोड़ी शालीनता से व्यवहार करती । और कभी-कभी मैं उससे बात करती थी। एक बार, मैंने उसे हंसाया भी था।

एक नर्स ने यह देखा और उसने डॉक्टर को बताया। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं एनी के मामले में उनकी मदद करूंगा। मैंने कहा कि अगर मैं कुछ कर सकती हूं तो जरूर करूंगी। तो, हुआ यह कि जब भी वे एनी को देखना चाहते थे या उसकी जांच करना चाहते थे,सबसे पहले मैं कोठरी में जाती थी और उसे समझाती थी और उसे शांत करती थी और उसका हाथ पकड़ती थी।
इस तरह उन्हें पता चला कि एनी लगभग अंधी थी।"
जब वे लगभग एक साल तक उसके साथ काम कर रहे थे - और एनी के साथ स्लेजिंग करना कठिन था - पर्किन्स इंस्टीट्यूट फॉर द ब्लाइंड ने अपने दरवाजे खोले। वे उसकी मदद करने में सक्षम थे और वह पढ़ाई करने लगी और खुद एक शिक्षिका बन गई।
एनी टेक्सबरी इंस्टीट्यूट का दौरा करने और यह देखने के लिए वापस आई कि वह मदद के लिए क्या कर सकती है। पहले तो निदेशक ने कुछ नहीं कहा और फिर उसे अभी-अभी मिले एक पत्र के बारे में ख्याल आया। एक आदमी ने उन्हें अपनी बेटी के बारे में लिखा था। वह बिल्कुल अनियंत्रित थी - लगभग एक जानवर की तरह। वह अंधी और बहरी होने के साथ-साथ 'विक्षिप्त' भी थी।
उसे कुछ नहीं सूझ रहा था , लेकिन वह उसे अनाथ आश्रम में नहीं रखना चाहता था। इसलिए उन्होंने संस्थान को यह पूछने के लिए लिखा कि क्या वे किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जो उनके घर आए और उनकी बेटी के साथ काम करे।
और इस तरह एनी सुलिवन हेलेन केलर की आजीवन साथी बन गईं।
जब हेलेन केलर को नोबेल पुरस्कार मिला, तो उनसे पूछा गया कि उनके जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव किसका था और उन्होंने कहा, "एनी सुलिवान।"
लेकिन एनी ने कहा, "नहीं हेलेन। जिस महिला का हम दोनों के जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव था, वह ट्यूक्सबरी की एक नौकरानी थी।

साहना सिंह की वाल पर उद्धृत आलेख का चलताऊ अनुवाद..

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