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11/04/2024

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and Punjabi theatre,Chandigarh,हिंदी और पंजाबी थिएटर,चंडीगढ़,ਹਿੰਦੀ ਅਤੇ ਪੰਜਾਬੀ ਥੀਏਟਰ,ਚੰਡੀਗੜ੍ਹ

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08/04/2024

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says there is no carrier in theatre, कौन कहता है थिएटर में करियर नहीं, ਕੌਣ ਕਹਿੰਦਾ ਥੀਏਟਰ ਵਿੱਚ ਕੈਰੀਅਰ ਨਹੀਂ

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07/04/2024

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theatre in theatre,नाटक में एनाउंसर या सूत्रधार का प्रयोग ਥੀਏਟਰ ਵਿੱਚ ਅਨਾਊਂਸਰ ਦਾ ਰੋਲRole of Announcer in theatre,नाटक में एन...

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06/04/2024

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in doing theatre.joy u get,मंचन की मुश्किलें.मिलने वाली खुशी,ਥੀਏਟਰ ਜੀਵਨ ਨੂੰ ਬਹੁਤ ਕੁਝ ਦਿੰਦਾ ਹੈBig theatre show but Char...

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06/04/2024

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Main bin Guru dekhe nind na Ave, Kiran Sachdev, Shabd kirtan, Gurbani kirtanमैं बिन गुर देखें नींद ना आवे, ਮੈਂ ਬਿਨ ਗੁਰ ਦੇਖੇ ਨੀਂਦ ਨਾ ਆਵੇMohali

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05/04/2024

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't try to be over smart in teamwork टीम के साथ मिलकर काम करना ਟੀਮ ਵਿੱਚ ਕੰਮ ਕਰਨ ਦਾ ਸੁਭਾਅ ਬਣਾਓ

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29/03/2024

One Minute Theatre

script aur screenplay, स्क्रिप्ट और स्क्रीनप्ले, ਸਕ੍ਰਿਪਟ ਅਤੇ ਸਕਰੀਨ ਪਲੇ continue...

12/08/2022

आज भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक विक्रम साराभाई का जन्मदिन है।

विक्रम साराभाई (जन्म- 12 अगस्त, 1919, अहमदाबाद; मृत्यु- 30 दिसम्बर, 1971, तिरुवनंतपुरम) को भारत के 'अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक' माना जाता है। इनका पूरा नाम 'डॉ. विक्रम अंबालाल साराभाई' था। इन्होंने भारत को अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में नई ऊँचाईयों पर पहुँचाया और अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर देश की उपस्थिति दर्ज करा दी। विक्रम साराभाई ने अन्य क्षेत्रों में भी समान रूप से पुरोगामी योगदान दिया। वे अंत तक वस्त्र, औषधीय, परमाणु ऊर्जा, इलेक्ट्रॉनिक्स और कई अन्य क्षेत्रों में लगातार काम करते रहे थे। डॉ. साराभाई एक रचनात्मक वैज्ञानिक, एक सफल और भविष्यदृष्टा उद्योगपति, सर्वोच्च स्तर के प्रर्वतक, एक महान् संस्थान निर्माता, एक भिन्न प्रकार के शिक्षाविद, कला के पारखी, सामाजिक परिवर्तन के उद्यमी, एक अग्रणी प्रबंधन शिक्षक तथा और बहुत कुछ थे।

डॉ. साराभाई का जन्म पश्चिमी भारत में गुजरात राज्य के अहमदाबाद शहर में 1919 को हुआ था। साराभाई परिवार एक महत्त्वपूर्ण और संपन्न जैन व्यापारी परिवार था। उनके पिता अंबालाल साराभाई एक संपन्न उद्योगपति थे तथा गुजरात में कई मिलों के स्वामी थे। विक्रम साराभाई, अंबालाल और सरला देवी के आठ बच्चों में से एक थे। अपनी इंटरमीडिएट विज्ञान की परीक्षा पास करने के बाद साराभाई ने अहमदाबाद में गुजरात कॉलेज से मेट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद वे इंग्लैंड चले गए और 'केम्ब्रिज विश्वविद्यालय' के सेंट जॉन कॉलेज में भर्ती हुए। उन्होंने केम्ब्रिज से 1940 में प्राकृतिक विज्ञान में ट्राइपॉस हासिल किया। 'द्वितीय विश्वयुद्ध' के बढ़ने के साथ साराभाई भारत लौट आये और बेंगलोर के 'भारतीय विज्ञान संस्थान' में भर्ती हुए तथा नोबेल पुरस्कार विजेता सी. वी. रामन के मार्गदर्शन में ब्रह्मांडीय किरणों में अनुसंधान शुरू किया। विश्वयुद्ध के बाद 1945 में वे केम्ब्रिज लौटे और 1947 में उन्हें उष्णकटिबंधीय अक्षांश में कॉस्मिक किरणों की खोज शीर्षक वाले अपने शोध पर पी.एच.डी की डिग्री से सम्मानित किया गया।

साराभाई को 'भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक' माना जाता है। वे महान् संस्थान निर्माता थे और उन्होंने विविध क्षेत्रों में अनेक संस्थाओं की स्थापना की या स्थापना में मदद की थी। अहमदाबाद में 'भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला' की स्थापना में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, केम्ब्रिज से 1947 में आज़ाद भारत में वापसी के बाद उन्होंने अपने परिवार और मित्रों द्वारा नियंत्रित धर्मार्थ न्यासों को अपने निवास के पास अहमदाबाद में अनुसंधान संस्थान को धन देने के लिए राज़ी किया। इस प्रकार 11 नवम्बर, 1947 को अहमदाबाद में विक्रम साराभाई ने 'भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला' (पीआरएल) की स्थापना की। उस समय उनकी उम्र केवल 28 वर्ष थी। साराभाई संस्थानों के निर्माता और संवर्धक थे और पीआरएल इस दिशा में पहला क़दम था। विक्रम साराभाई ने 1966-1971 तक पीआरएल की सेवा की।

संस्थानों की स्थापना
'परमाणु ऊर्जा आयोग' के अध्यक्ष पद पर भी विक्रम साराभाई रह चुके थे। उन्होंने अहमदाबाद में स्थित अन्य उद्योगपतियों के साथ मिल कर 'इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट', अहमदाबाद की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ. साराभाई द्वारा स्थापित कतिपय सुविख्यात संस्थान इस प्रकार हैं-

1.भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला (पीआरएल), अहमदाबाद
2.इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट (आईआईएम), अहमदाबाद
3.कम्यूनिटी साइंस सेंटर, अहमदाबाद
4.दर्पण अकाडेमी फ़ॉर परफ़ार्मिंग आर्ट्स, अहमदाबाद
5.विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र, तिरुवनंतपुरम
6.स्पेस अप्लीकेशन्स सेंटर, अहमदाबाद
7.फ़ास्टर ब्रीडर टेस्ट रिएक्टर (एफ़बीटीआर), कल्पकम
8.वेरिएबल एनर्जी साइक्लोट्रॉन प्रॉजेक्ट, कोलकाता
9.इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड(ईसीआईएल), हैदराबाद
10.यूरेनियम कार्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड(यूसीआईएल), जादूगुडा, बिहार

'इसरो' की स्थापना
'भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन' (इसरो) की स्थापना उनकी महान् उपलब्धियों में एक थी। रूसी स्पुतनिक के प्रमोचन के बाद उन्होंने भारत जैसे विकासशील देश के लिए अंतरिक्ष कार्यक्रम के महत्व के बारे में सरकार को राज़ी किया। डॉ. साराभाई ने अपने उद्धरण में अंतरिक्ष कार्यक्रम के महत्व पर ज़ोर दिया था-

"ऐसे कुछ लोग हैं, जो विकासशील राष्ट्रों में अंतरिक्ष गतिविधियों की प्रासंगिकता पर सवाल उठाते हैं। हमारे सामने उद्देश्य की कोई अस्पष्टता नहीं है। हम चंद्रमा या ग्रहों की गवेषणा या मानव सहित अंतरिक्ष-उड़ानों में आर्थिक रूप से उन्नत राष्ट्रों के साथ प्रतिस्पर्धा की कोई कल्पना नहीं कर रहें हैं, लेकिन हम आश्वस्त हैं कि अगर हमें राष्ट्रीय स्तर पर और राष्ट्रों के समुदाय में कोई सार्थक भूमिका निभानी है, तो हमें मानव और समाज की वास्तविक समस्याओं के लिए उन्नत प्रौद्योगिकियों को लागू करने में किसी से पीछे नहीं रहना चाहिए।"

परमाणु विज्ञान कार्यक्रम
भारतीय परमाणु विज्ञान कार्यक्रम के जनक के रूप में व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त डॉ. होमी जहाँगीर भाभा ने भारत में प्रथम राकेट प्रमोचन केंद्र की स्थापना में डॉ. साराभाई का समर्थन किया। यह केंद्र मुख्यतः भूमध्य रेखा से उसकी निकटता की दृष्टि से अरब महासागर के तट पर, तिरुवनंतपुरम के निकट थुम्बा में स्थापित किया गया। अवसंरचना, कार्मिक, संचार लिंक और प्रमोचन मंचों की स्थापना के उल्लेखनीय प्रयासों के बाद 21 नवम्बर, 1963 को सोडियम वाष्प नीतभार सहित उद्घाटन उड़ान प्रमोचित की गयी।

अन्य योगदान

डॉ. साराभाई विज्ञान की शिक्षा में अत्यधिक दिलचस्पी रखते थे। इसीलिए उन्होंने 1966 में सामुदायिक विज्ञान केंद्र की स्थापना अहमदाबाद में की। आज यह केंद्र 'विक्रम साराभाई सामुदायिक विज्ञान केंद्र' कहलाता है। 1966 में नासा के साथ डॉ. साराभाई के संवाद के परिणामस्वरूप जुलाई, 1975 से जुलाई, 1976 के दौरान 'उपग्रह अनुदेशात्मक दूरदर्शन परीक्षण' (एसआईटीई) का प्रमोचन किया गया। डॉ. साराभाई ने भारतीय उपग्रहों के संविरचन और प्रमोचन के लिए परियोजनाएँ प्रारंभ कीं। इसके परिणामस्वरूप प्रथम भारतीय उपग्रह आर्यभट्ट, रूसी कॉस्मोड्रोम से 1975 में कक्षा में स्थापित किया गया।

मृत्यु

अंतरिक्ष की दुनिया में भारत को बुलन्दियों पर पहुँचाने वाले और विज्ञान जगत में देश का परचम लहराने वाले इस महान् वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई की मृत्यु 30 दिसम्बर, 1971 को कोवलम, तिरुवनंतपुरम, केरल में हुई।

पुरस्कार
1.शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार (1962)
2.पद्मभूषण (1966)
3.पद्मविभूषण, मरणोपरांत (1972)

महत्त्वपूर्ण पद

1.भौतिक विज्ञान अनुभाग, भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष ([1962)
2.आई.ए.ई.ए., वेरिना के महा सम्मलेनाध्यक्ष (1970)
3.उपाध्यक्ष, 'परमाणु ऊर्जा का शांतिपूर्ण उपयोग' पर चौथा संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (1971)

सम्मान
रॉकेटों के लिए ठोस और द्रव नोदकों में विशेषज्ञता रखने वाले अनुसंधान संस्थान, विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र (वीएसएससी) का नामकरण उनकी स्मृति में किया गया, जो केरल राज्य की राजधानी तिरूवनंतपुरम में स्थित है। 1974 में सिडनी में अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ ने निर्णय लिया कि सी ऑफ़ सेरिनिटी में स्थित 'चंद्रमा क्रेटर बेसेल' (बीईएसएसईएल) डॉ. साराभाई क्रेटर के रूप में जाना जाएगा। चंद्रयान 2 के लैंडर का नाम विक्रम है।

02/07/2022

I remind myself that my inner and outer life are based on the labor of other men , living and dead and that I must exert myself in order to give in the same measure as I have received and I m still receiving

Albert Einstein

जैसे जैसे ये बैल गमले में बढ़ रही थी …….. कुछ मेरे अंदर भी ग्रो हो रहा था…….  ये बेलें हमारे अंदर मनुष्य को बचा कर रखती ...
13/06/2022

जैसे जैसे ये बैल गमले में बढ़ रही थी …….. कुछ मेरे अंदर भी ग्रो हो रहा था……. ये बेलें हमारे अंदर मनुष्य को बचा कर रखती है , सम्भाल कर रखती है 🥰🥰

अगर आप को रात को जमकर नींद आती है और दिन में तबियत से भूख लगती है , सच जानिए आप जो कर रहे है वो बहुत अच्छा काम कर रहे है...
10/06/2022

अगर आप को रात को जमकर नींद आती है और दिन में तबियत से भूख लगती है , सच जानिए आप जो कर रहे है वो बहुत अच्छा काम कर रहे है । आप एक सफल इंसान है और आपका psychic , biology और consciousness सब ठिकाने पर है ….

और आप अगर सो नहीं पा रहे है और भूख नहीं लग रही है! आप एक असफल इंसान है , जो भी कर रहे है तुरंत रोक दे और सोचे क्या ग़लत कर रहे है 🥰🥰

बिक रहा पानी, बिक रही हवा!बिक रहा  पानी बिक रही हवासैलाब मरीजों का, नहीं है दवा।वो हरे राम अल्लाह करते रहेयहां एक साथ जल...
01/06/2022

बिक रहा पानी, बिक रही हवा!

बिक रहा पानी बिक रही हवा

सैलाब मरीजों का, नहीं है दवा।

वो हरे राम अल्लाह करते रहे

यहां एक साथ जल रही चिता।

ऐसे छोड़ दिया किसके भरोसे

जब जगह जगह काल छिपा।

अब न भरोसा इस दुनिया पर

टूटे दिल से हम भी हो जायेंगे फना

कसमें मां भारती की खायी तूने

तुझसे हो गई वो अब खफा।

काल के आगोश में सांसें बेचैन

ज़िन्दगी बूढ़ा गई मौत हो रही जवां।

हमने देखा उनको हरकतें उनकी

रेमडेसिवर का उन्हें खूब चढ़ा!

(‘धूप की लकीरें’ पुस्तक में से)

कई वर्षों की तपस्या, संघर्ष और प्रेममयी जीवन से उपजी कविताएं आपके समक्ष ‘‘धूप की लकीरें’’ के रूप में आपके हाथों में है।

पिताजी के लिये आये दिन रात-बिरात उठना, लालटेन जलाना और उनकी रचनाओं को कागज पर लिख कर सो जाना; इसी क्रम में नन्ही सी उम्र में ही कविता का अंकुरण हो चुका था जीवन में। फिर पढ़ते-पढ़ते कुछ लिख देना आदत सी हो गई। जीवन को अलग नजरिये से देखना, पंक्तिबद्ध कर देना और फिर अपनी सांसारिक गतिविधियों में लग जाना, यह नियम चलता रहा परन्तु कहीं चुपके से अंतर्मन में कविता अपना घर बसा चुकी थी। तीस वर्षों से अधिक समय से किताब लिखने की इच्छा मन में घर किये रही पर कहते हैं, हर कार्य का समय होता है और इसीलिए अब जाकर अपनी यह इच्छा पूरी कर पाई।

मैंने अपनी कविताओं में एक अन्तहीन यात्रा, स्वयं की खोज या कहें स्वयं की यात्रा को बार-बार उकेरित किया है। संसार और अध्यात्म कतई अलग-अलग नहीं हैं या कहिये कि अन्दर बाहर कतई अलग नहीं है। मैं अपने अनुभव से कह सकती हूं कि संसार का एक बेहतर अनुभव करने के लिये अध्यात्म जरूरी है और अध्यात्म तो अपने आप में निहित एक आवश्यकता है जो हर व्यक्ति में होती है। पर, यह जरूर कहना चाहूंगी कि ध्यान योग और प्राणायाम हमें उन्नति की ओर ले जाते हैं या यूं कहिये इनकी संगत से हम समृद्ध होते हैं। जब से ‘द आर्ट ऑफ लिविंग’ से जुड़कर सुदर्शन क्रिया सीखी; जीवन बाधारहित हो गया। जीवन आनन्द से भर गया या कहिये दुःख छू भी नहीं पाता मुझे। मुझमें करूणा, मुदिता, कण्ठकूप, कूर्मा नाड़ी, ज्योतिष्मणी की यात्रा से निकल कर दिव्य स्रोत प्रवाहित हुऐ और मेरी कविताओं ने एक किताब का रूप ले लिया।

मैं अपने पिता डॉ. अम्बिका प्रसाद ‘‘फानि’’ जो मशहूर शायर और कवि थे तथा अपनी मां जिन्हें मैं ‘जीजी’ कहती थी और भाई-बहनों की विशेष आभारी हूं जिन्होंने ग्रामीण परिवेश में भी मुझे शिक्षित करने के संपूर्ण प्रयास किये। मुझे उच्च शिक्षा दिलवाई और वकालत के पेशे से मैं अपनी मां का सपना पूरा कर रही हूं कि बालिकाओं के शिक्षित और जागरूक होने से ही हम समाज में महिलाओं की स्थिति को मजबूत कर सकते हैं।

विशेष आभार श्री श्री रविशंकर जी मेरे गुरूदेव का जिन्हें मैं गुरूजी कहती हूं; जिनका आर्शीवाद सदा मेरे साथ हैं। ‘‘धूप की लकीरें।’’ गुरूदेव श्री श्री रविशंकर जी को समर्पित। जय गुरूदेव!

बहुत दिनों बाद🙏
13/07/2021

बहुत दिनों बाद🙏

न्यूटन का एकान्त..आइज़ैक न्यूटन का एकान्त लगभग दुर्भेद्य था। उसमें किसी को प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। उसका पूरा बचपन ...
01/04/2021

न्यूटन का एकान्त..

आइज़ैक न्यूटन का एकान्त लगभग दुर्भेद्य था। उसमें किसी को प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। उसका पूरा बचपन तनहाई में बीता था (जन्म से पहले पिता की मृत्यु हो गई, तीन वर्ष की अवस्था में माँ दूसरा विवाह करके उसे त्याग गई), और अपनी पूरी किशोरावस्था और युवावस्था में वह अंतर्मुखी, संकोची, निस्संग रहा। उसका कोई संगी था ना साथी। उसने कभी किसी स्त्री से प्रेम नहीं किया। या बेहतर होगा अगर कहें किसी स्त्री ने उससे कभी प्रेम नहीं किया (इन दोनों बातों में बहुत भेद है)। इससे निजता और एकान्त में जिससे सबसे गहरी सेंध लगती है, अंतर्मन के उस कोने को न्यूटन ने बाँध की तरह अभेद बना दिया था। उसकी एकाग्रता सम्पूर्ण थी, कोई उसको अपने काम करने की मेज़ से डिगा नहीं सकता था। कालान्तर में, जब वो प्रौढ़ हुआ, तो वो अनेक सार्वजनिक भूमिकाओं में गया, जैसे- मेम्बर ऑफ़ पार्लियामेंट, रॉयल सोसायटी का प्रेसिडेंट, कैम्ब्रिज में गणित का प्राध्यापक, मिन्ट का प्रमुख- और उसने अपने समय के अनेक ख्यातनाम व्यक्तियों से ख़तो-किताबत भी की, किंतु दूसरों और अपने बीच एक बेमाप फ़ासला उसने हमेशा क़ायम रखा। सहकर्मियों से वह किंचित रूखाई से पेश आता, और अपने मातहतों के लिए वो सुदूर के किसी देवता से कम नहीं था। उसका आत्माभिमान अप्रतिहत था, जो औरों को आतंकित करता था। उसके जीवन में भावनात्मक सम्बंधों के लिए एक गहरी अरुचि थी।

एकान्त के प्रति उसके व्यक्तित्व के इस चुम्बकीय खिंचाव ने ही उससे वैसे उद्यम करवा लिए, जिन्हें अतिमानवीय कहा जाता है और ये माना जाता है कि वो किसी साधारण मनुष्य के बूते की बात नहीं थी। वर्ष 1665 में इंग्लैंड में प्लेग की महामारी फैली। तब न्यूटन कैम्ब्रिज में छात्र था। महामारी से बचाव के लिए उसे उसके गाँव वूल्सथोर्प भेज दिया गया, जहाँ वो पूरे समय अपने कमरे में सिमटा रहता। विज्ञान के इतिहास में इसे न्यूटन का मिरेकल-ईयर कहा जाता है। वैसा ही मिरेकल-ईयर फिर अल्बर्ट आइंष्टाइन के जीवन में भी आया, वर्ष 1905, जब उसने दुनिया को बदल देने वाली स्थापनाएँ सामने रखीं। वूल्सथोर्प में न्यूटन ने डिफ्रेंशियल कैलकुलस की ईजाद की। उसने प्रिज़्म की सहायता से रौशनी के रेशे-रेशे खोलकर देखे और स्पेक्ट्रम के सात रंगों को दुनिया के सामने रख दिया। उसने यूनिवर्सल ग्रैविटेशन पर अपनी थ्योरियों का सूत्रपात भी उसी कालखण्ड में किया और दृढ़ता से यह कहा कि जो चीज़ सेब को धरती पर गिराती है, वही आकाश में ग्रहों और पिण्डों को टिकाए हुए है, इस रहस्यमयी चीज़ का नाम है- ग्रैविटी- पदार्थ में एक चिरंतन महाचेतना का करस्पर्श। वर्ष 1666 तक न्यूटन दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण नेचरल फ़िलॉस्फ़र, भौतिकविद्, गणितज्ञ और वैज्ञानिक बन चुका था, अलबत्ता उसे ख़ुद ही इसकी भनक तक ना थी। भला कैसे होती, तब उसकी उम्र कुलजमा 24 साल ही तो थी!

न्यूटन जितना बड़ा वैज्ञानिक और गणितज्ञ था, उतना ही महान रहस्यदर्शी भी था। धर्म और विज्ञान के बीच स्वर्णिम मध्यमार्ग उसने तलाश लिया था और भौतिकी के अनुल्लंघ्य नियमों को वह एक दैवीय-उपक्रम की अभिव्यक्ति की तरह देखता था। पदार्थ में उसे विश्वचेतना की छाँह दिखलाई देती थी। उसने अल्केमी और थियोलॉजी के क्षेत्र में गणित और भौतिकी से कम काम नहीं किया। जॉन मेनार्ड कीन्स ने न्यूटन को 'द लास्ट ऑफ़ मैजिशियन एंड बेबीलोनियन' कहा था। वहीं न्यूटन की बायोग्रैफ़ी लिखने वाले पीटर एक्रॉयड ने महाकवि विलियम ब्लेक को उद्धृत करते हुए उसे 'द वर्जिन श्राउडेड इन स्नो' कहकर पुकारा था। इस पुकार में एक गहरी विडम्बना निहित थी, क्योंकि विलियम ब्लेक न्यूटन पर आरोप लगाता था कि उसने प्रकृति में कविता की भावना को क्षति पहुँचाकर गणित के नियमों को प्रतिष्ठित कर दिया था। लेकिन न्यूटन की ज़िंदगी में कविता के लिए कोई जगह नहीं थी। या अगर आप चाहें तो उसके काम में पोयट्री ऑफ़ मैथेमैटिक्स ज़रूर खोज सकते हैं। युवल हरारी के स्मरणीय शब्दों में- न्यूटन ने हम सबको यह दिखलाया था कि प्रकृति की किताब गणित की भाषा में लिखी गई है।

कैम्ब्रिज में छात्र से प्राध्यापक बनने में न्यूटन ने ज़्यादा समय नहीं लिया। वो कैम्ब्रिज के इतिहास के सबसे युवा प्राध्यापकों में शुमार है, क्योंकि वो उसके समय के दूसरे शिक्षकों से कहीं अधिक मेधावी था। लेकिन जिस घोर एकान्त में उसने बचपन से लेकर अब तक का अपना जीवन बिताया था, और उसकी देदीप्यमान प्रतिभा आगे चलकर उसके लिए जिस यशस्वी जीवन का दुशाला बुन रही थी, उससे पेश आने वाली दुविधाओं ने उसे चिंतित भी बहुत किया। 1670 के दशक में गणितज्ञ जॉन कोलिन्स को लिखे एक ख़त में उसने विनती की कि उसके द्वारा भेजे गए शोधपत्र को उसके नाम के बिना ही छाप दिया जाए, क्योंकि अगर यह उसके नाम से छपा तो लोगों का ध्यान उसकी तरफ़ खिंचेगा, जो वो हरगिज़ नहीं चाहता था। प्रसिद्धि से एकान्त में ख़लल पड़ सकता था, किंतु न्यूटन जैसी सूर्यदीप्त प्रतिभा के सामने छुपकर रहने का कोई विकल्प नहीं था। कालान्तर में 'प्रिंसिपिया मैथेमैटिका' के प्रकाशन के बाद उसे वैश्विक ख्याति मिली और उसने पहले से अधिक आत्मविश्वास और किंचित आत्ममुग्धता के साथ उसे अंगीकार किया, किंतु मृत्युशैया पर अपनी निजता पर संकट के पुराने भय ने उसे फिर से इतना ग्रस लिया था कि उसने मरने से पहले अपनी अनेक महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियाँ और पत्र जला दिए थे।

चर्चित न्यूटन-आइंष्टाइन द्वैत का एक आयाम यह भी था कि जहाँ आइंष्टाइन के स्वभाव में बड़ी सहज विनोदप्रियता थी, वहीं न्यूटन की गम्भीरता कांसे की मूरत की तरह खरी और सुठोस थी। कह लीजिये कि जहाँ आइंष्टाइन भौतिकी की दुनिया का मोत्सार्ट था तो न्यूटन उसका बीथोवन था। बचपन में माँ के द्वारा अकेला छोड़ दिए जाने के दंश से वो कभी उबर नहीं पाया था। उसके व्यक्तित्व में रोष, ग्लानि, महत्वाकांक्षा और आत्माभिमान गहरे तक पैठ गए थे। पीटर एक्रॉयड ने न्यूटन की बायोग्रैफ़ी में उसके द्वारा किशोरावस्था में लिखी जाने वाली डायरियों का हवाला दिया है, जिसमें न्यूटन अपने पापों का ब्योरा लिखता था। ये पाप क्या थे? चेरी के फल चुराना, आज्ञा का उल्लंघन करना, ग़ुस्से में आकर किसी के टोप में कील रख देना, स्कूल में संगियों से लड़ बैठना- अपने इन 'पापों' को न्यूटन ने नोटबुक में दर्ज किया है और बहुत शिद्दत से उनका पछतावा किया है। कुछ और जगहों पर उसने नाच-गाने के प्रति गहरी अरुचि जताई है और अपने जीवन-प्रयोजन के बारे में गम्भीर चिंता प्रकट की है। वो ख़ुद से पूछता है कि मैं क्यों हूँ, किसलिए हूँ, दुनिया में क्या करने के लिए आया हूँ? वो एकान्त में बैठकर रोता रहता था। तब उसकी आयु उन्नीस वर्ष थी। महज़ पाँच-छह साल बाद ही उसने अपने मिरेकल-ईयर की बदौलत दुनिया के इतिहास को बदल देना था। आज सर आइज़ैक न्यूटन की गणना विश्व के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों में की जाती है। संशय और ग्लानि से भरे उस उन्नीस साल के नौजवान को दूर-दूर तक इसका अंदाज़ा नहीं था।

यह कैसे हुआ था? सम्भवतया एक महान नियति ने उसे अपने माध्यम की तरह चुन लिया था। किंतु इसकी एक शर्त थी। जैसा जीवन दूसरे बिताते हैं, वैसा जीवन उसके भाग्य में नहीं था और उसे स्वयं को एक दूसरे ही प्रयोजन में झोंक देना था। अपने एकान्त की पूरी निष्ठा से रक्षा किए बिना यह सम्भव नहीं हो सकता था। न्यूटन का जीवन कइयों के लिए आज भी एक पहेली बना हुआ है। यह पहेली कभी सुलझाई नहीं जा सकेगी, क्योंकि न्यूटन अपने पीछे वो युक्तियाँ नहीं छोड़ गया है, जिनकी मदद से उस तक पहुँचा जा सके। उसने दुनिया और अपने बीच के सारे पुल जला दिए थे। और वैसे जीवन में मैत्री, प्रेम, सुख, विश्राम और संतोष के लिए भला कोई जगह कैसे हो सकती थी?

सुशोभित

20/02/2021

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18/02/2021

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