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21/12/2024
भारतीय परंपरा में महावर का हमेशा से एक खास महत्व रहा है। ऐसा कहा जाता है कि जब महिलाओं के महावर से सजे पैर अशोक के पेड़ को छूते थे, तो उस पर कलियाँ खिल उठती थीं, और वसंत का स्वागत होता था। लेकिन आज की नई पीढ़ी के लिए महावर एक पुरानी चीज़ बन गई है, जैसे किसी अजायबघर में रखा कोई ऐतिहासिक अवशेष।
पहले सादा जीवन और उच्च विचार भारतीय संस्कृति की पहचान हुआ करते थे, लेकिन अब ये परिभाषा बदल चुकी है। आज के समय में ब्यूटी पार्लर में सज-संवर कर तैयार होना, लिपस्टिक और नेलपॉलिश लगाना, कटे-लहराते बाल और आधुनिक कपड़े पहनना ‘स्टाइलिश’ होने की पहचान बन गए हैं। दूसरी ओर, पारंपरिक साड़ी, बिंदी, चूड़ी, लंबी चोटी या जूड़ा, महावर, और बिछुआ अब पुराना और पिछड़ा हुआ माना जाता है। इन चीज़ों को अपनाने वाली महिलाओं को ‘बहनजी’ कहकर मजाक उड़ाया जाता है, और हिंदी में बोलना तो पूरी तरह से देहाती माना जाने लगा है।
इस बदलाव का अनुभव मुझे तब हुआ जब मुझे दिल्ली के एस्कोर्ट्स हार्ट सेंटर में एंजियोग्राफी के लिए भर्ती होना पड़ा। इसके कुछ दिन पहले मैं अपनी सास के गांव गई थी, जहाँ दीवाली के त्योहार पर सभी सुहागिनें महावर लगवा रही थीं। सास की बात मानकर मैंने भी महावर लगवा लिया। लेकिन अस्पताल जाने से पहले मन में यह डर था कि वहां महावर लगाकर जाना ठीक रहेगा या नहीं।
अस्पताल में मुझे गाउन और पायजामा पहनना पड़ा। बिना मेकअप के मैं चोटी बनाकर तैयार हो गई। जब डॉक्टर ने मेरी जांच की, तो मेरे पैरों में महावर देखकर हैरान रह गया।
आधुनिकता की इस दौड़ में हमारी परंपराएं और पहचान कहीं पीछे छूटती जा रही हैं।
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