18/09/2023
जीवन धारा
विक्टर ई फ्रैंकल
मनुष्य की प्रधान चिंता यह नहीं कि वह सुख प्राप्त करे या खुद को पीड़ा से दूर रखे। वह तो सिर्फ अपने जीवन के लिए एक अर्थ पाना चाहता है। यही कारण है कि वह कष्ट झेलने को तैयार हो जाता है।
समस्याओं से जीवन को
बदलने की चुनौती मिलती हैभले ही हम जीवन में कितनी भी असहाय स्थिति का सामना क्यों न कर रहे हों या किसी ऐसी नियति को झेल रहे हों, जिसे बदलना नामुमकिन लग रहा हो, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे समय में भी हम जीवन में अर्थ ढूंढ सकते हैं। बल्कि ऐसे समय में तो अद्भुत मानवीय संभावना व प्रतिभा का साक्षी बनना और अधिक मायने रखता है। यह मानवीय संभावना व प्रतिभा ही एक निजी शोक में किए गए नाटक को जीत में, किसी के कष्ट को उपलब्धि में बदल देती है। जब हम किसी हालात को बदलने की स्थिति में नहीं होते, उसी समय हमें खुद को बदलने की चुनौती मिलती है। कैंसर जैसा असाध्य रोग इसी चुनौती का एक उदाहरण है।
एक बार एक अधेड़ चिकित्सक ने
अपनी उदासी से निजात पाने के लिए मुझसे सलाह मांगी। वह दो साल पहले अपनी पत्नी के निधन से पैदा हुए वियोग को सह नहीं पा रहे थे। अब ऐसे में मैं उसकी क्या सहायता कर सकता था? खैर, मैंने उसे दिलासा देने के बजाय सीधा सवाल पूछा, 'डॉक्टर, अगर आपकी पत्नी के स्थान पर आपका निधन हो गया होता, और आपकी पत्नी को आपके बगैर जीवित रहना पड़ता, तो?' उन्होंने कहा, 'ओह! उसके लिए तो यह सब सहन करना और भी मुश्किल होता।' तब मैंने कहा, 'देखा डॉक्टर! उसे इस कष्ट से आपने ही बचाया है। आज आप उसे याद करते हुए शोक मना रहे हैं और स्वयं कष्ट पा रहे हैं, पर अगर आपका निधन हुआ होता, तो यह सारी पीड़ा उसे भोगनी पड़ती।' उन्होंने एक भी शब्द नहीं कहा, मुझसे हाथ मिलाया और शांत भाव से ऑफिस से निकल गए।
जब पीड़ा को, उसके होने के मायने मिल जाते हैं, तो वह पीड़ा नहीं रह जाती है। जैसे कुछ लोगों के लिए उस पीड़ा का अर्थ बलिदान भी हो सकता है। सच तो यह है कि सही मायनों में उन्हें कोई उपचार दिया ही नहीं गया, क्योंकि उन्हें कोई रोग नहीं था। दूसरी बा