29/06/2023
संत सद्गुरु महर्षि मेंहीॅ परमहंस जी महाराज की संक्षिप्त जीवनी
संत की सुदीर्घ परंम्परा : भारत की संस्कृति ऋषियों और संतो की संस्कृति रही है। यहां समय-समय पर व्यास, वाल्मीकि, सुकदेव, नारद, याज्ञवल्क्य,जनक, वशिष्ठ, दधीचि, बुद्ध, महावीर, शंकर, रामानन्द, नानक, कबीर, सूर, तुलसी, विवेकानंद, रामतीर्थ, आदि -जैसे सन्त- मनीषी अवतरित होते हैं ही रहे हैं। इन्हीं ऋषियों और संतों की दीर्घकालीन अविच्छिन्न परम्परा की एक अद्भुत और गौरवमीय कङी के रूप में अवतरित हुए थे हमारे परम पूज्य आराध्यदेव संत सद्गुरु महर्षि मेंहीॅ परमहंस जी महाराज ।
माता- पिता, जन्म और बाल्यवस्था:
सद्गुरु महर्षि मेंहीॅ परमहंस जी महाराज का अवतरण विक्रम संवत् 1642 के वैशाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के उदाकिशुनगंज थाने के खोखशी-श्याम ( मछुआ ) नामक ग्राम में अपने नाना के यहां हुआ था। जन्म से ही इनके सिर मैं सात जटाएं थी, इन्हें प्रतिदिन कंघी से सुलझा ने पर भी दूसरे दिन प्रातः काल वे सातों जताएं यथावत् मिल जाते थी। लोगों ने समझा कि अवश्य ही किसी योगी महात्मा का प्रादुर्भाव हुआ है। ज्योतिषी ने इनका जन्म- राशि का नाम रामानुग्रहलाल दास रखा। बाद में इनके पिता के चाचा श्री भरतलाल दासजी ने इनका नाम बदलकर 'मेंहीॅ लाल' रख दिया। कालान्तर में इनके अंतिम सद्गुरुदेव परम
संत बाबा देवी साहब ने भी इनके इस नाम से ही सार्थकता का सहर्ष समर्थन किया।
महर्षि जी का पितृ ग्रह पूर्णिया जिला अंतर्गत बनमनखी थाने के सिकलीगर धरहरा नामक ग्राम में अवस्थित है। मैथिली कर्ण कायस्थ कुलोत्पन्न इनके पिता श्री बबूजनलाल दास जी यद्यपि आर्थिक दृष्टि से संपन्न थे, तथापि शौक से वर्षों तक बनेली राजा के एक कर्मचारी रहे । जब महर्षि जी को उनके पिता और इनकी बड़ी बहन झूलन दास जी ने इतने स्नेह और सुख- सुविधा पूर्ण वातावरण में पालीत- पोषित किया कि इन्हें माता का अभाव कभी नहीं खटका।
शिक्षा और अध्यात्मिक प्रवृत्ति -पाचं वर्ष की अवस्था में मुण्डन संस्कार होने के बाद अपने गांव की ही पाठशाला में इनकी प्रारंभिक शिक्षा शुरू हुई जिसमें इन्होंने कैथी लिपि के साथ-साथ देवनागरी लिपि में लिखी। प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करके इन्होंने 11 वर्ष की अवस्था में पूर्णिया जिला स्कूल में पुराने अष्टम वर्ग में अपना नाम लिखवाया। यहां उर्दू फारसी और अंग्रेजी के कक्षा की पाठ्य पुस्तकें पढ़ने के साथ-साथ पूर्व आध्यात्मिक संस्कार से प्रेरित होकर रामचरितमानस महाभारत सुखसागर आदि धर्मग्रंथों का भी अवलोकन करते और शिव को इष्ट मानकर उन्हें जल चढ़ाया करते इसी अवधि सन् 190 9 ई0 में इन्होंने जोतरामराय (जिला पूर्णिया) के एक दरिया पंथी साधु संत श्री रामानंद जी से मानस जप मांस ध्यान और खुले नेत्रों से किए जाने वाले त्राटक की दीक्षा ले ली और नियमित रूप से अभ्यास भी करने लगे योग- साधना की ओर बढ़ती हुई अभिरुचि के कारण अब यह पाठ्य पुस्तकों की ओर से उदासीन होने लगे और मन ही मन साधु-संतों के की संगति के अभिलाषी हो उठे
प्रबल वैराग्य:
1904में 3 जुलाई से आरंभ हुई मैट्रिक की परीक्षा के अंग्रेजी प्रश्न-पत्र में श्ठनपसकमतश् नामक कविता की जिन प्रारंभिक चार पंक्तियों उद्धत कर करके उनकी व्याख्या करके का निर्देश किया गया था, वह इस प्रकार थी
For the structure that we raise
Time with material 's field
Our today 's and yeasterday 's
Are the blocks with which we build.
इन चार पंक्तियों को उद्धत करके इनकी व्याख्या लिखते-लिखते इनमें वैराग्य की भावना भावना इतनी प्रबल हो गई कि इन्होंने अंत में रामचरितमानस की यह चौपाई
'देह धरे कर यही फल भाई । भजिय राम सब काम बिहाई।।
लिखकर परीक्षा -भवन का परित्याग कर कर दिया और यही इनके स्कूली शिक्षा का सदा के लिए अंत हो गया! इनके वैराग्य -उद्दीपन का आधार बना अंग्रेजी का यह दूसरा वाकश् सस उमद उनएज कपमण्श् जिसे उन्होंने बचपन की प्रारंभिक पाठ्यपुस्तक में पढ़ा था और जो इनके मस्तिष्क में बिजली की तरह कौंधता रहता था।
सच्चे सद्गुरु की तलाश इन्होंने धर्म ग्रंथों में पड़ा था कि मानव -जीवन में ही है! इसीलिए इन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहकर ईश्वर भक्ति में अपना समस्त जीवन बिता देने का संकल्प लिया। आरंभ में इन्होंने अपने गुरु स्वामी श्री रामानंदजी की कुटिया पर रहकर निष्ठापूर्वक उनकी सेवा की, किंतु जिज्ञासाएं शांत नहीं हुई। इसीलिए एक सच्चे और पूर्ण गुरु की खोज में ये निकल पड़े। इसी क्रम में इन्होंने भारत के अनेक तीर्थों की यात्राएं की, परंतु कहीं में इनके चित्त को समाधान नहीं मिला। अंत में इन्हें जब जोतरामराय- निवासी बाबू श्री धीरजलाल जी गुप्ता द्वारा मुरादाबाद- निवासी परम संत बाबा देवी साहब और उनकी संतमत- साधना -सम्बधी जानकारी मिली, जब इन्हें हृदय में सच्चे गुरु के मिल जाने की आशा बंध गई। बड़ी आतुरता से इन्होंने सन् 1909 ई0 में बाबा देवी साहब द्वारा निर्दिष्ट मार्ग, दृष्टियोग' की विधि भागलपुर नगर में मायागंज- निवासी बाबू श्री राजेंद्रनाथ सिंह जी से प्राप्त की, तो इन्हें बड़ा सहारा मिला। उसी वर्ष विजयदशमी के शुभ अवसर पर श्री राजेंद्रनाथ जी ने भागलपुर में ही बाबा देवी साहब से इनकी भेंट करवा दी और इनका हाथ सद्गुरु देव के हाथों में दे दिया और बोले कि मैं आपका गुरु नहीं, बाबा साहबही आपके गुरु है। मैं तो उनका आदेशपालक हूं बाबा देवी साहब जैसे महान संत सद्गुरु को पाकर यह निहाल हो गये। उनके दर्शन और प्रवचन से इन्हें बड़ी शांति मिली और तृप्ति का बोध हुआ।
स्वावलम्बी जीवन: कमाने की झंझट से मुक्त रहकर एकमात्र मधुकरी वृत्ति से जीवन -निर्वाह करने वाले इन युवा सन्यासी को बाबा देवी साहब ने परिश्रम पूर्वक अपनी कमाई के जीवन -यापन का आदेश दिया और कहा कि यदि 100 वर्ष तक जीवित रहोगे तो क्या खाओगे? एक सच्चा शिष्य गुरु की आज्ञा की अवहेलना कैसे करता? लेकिन महर्षि जी का कथन है कि हमारे देश में बहुत तरह के संत हुए हैं, उनमें से बहुतों ने भिक्षा मांगी, बहुतों ने नहीं भी मांगी, किंतु थे सभी संत! गो का बच्चा अपने तई दूध पीता है। उसे प्रकार पेट का धंधा करना सभी जानते हैं, लेकिन स्वाबलंबी होने से निश्चिंता रहती है। मुख्य बात भजन है। जो भजन ध्यान नहीं करता और केवल पेट के धंधों में ही लगा रहता है, वह बैल की तरह जीवन यापन करता है। वह झूठी प्रतिष्ठा और मान बड़ाई तथा माया के जाल में पड़कर जीवन बर्बाद करता है । बाबा देवी साहब का कथन है कि जवानी में अर्थात 40 वर्ष की अवस्था में इतना ईमानदारी से धन संग्रह कर लो कि बुढ़ापे में कमाने की आवश्यकता न पड़े। भजन करने हेतु घर का परित्याग कर एकांत साधना करो, जिससे जीवन का उद्देश्य पूरा हो। भगवान भिक्षा-वृत्ति को अपनी वंश- परंपरा बताते हैं( देखें पृष्ठ 121, राजा शुद्धोधन की कथा, धम्मपद)। सन्यासी लोग जितना लेते हैं, उससे कई गुना अधिक देश और समाज का उपकार करते हैं (पूर्णिया)और सिकलीगर धराहरा में क्रमशः अध्यापन और कृषि कार्य किया!
गंभीर साधना और साक्षात्कार -सन 1912 ईस्वी में बाबा देवी साहब ने स्वेच्छा से इन्हें शब्द योग की विधि बतलाते हुए कहा कि अभी तुम 10 वर्ष तक केवल दृष्टि योग का अभ्यास करते रहना। दृष्टि योग में पूर्ण हो जाने पर ही शब्द योग का अभ्यास करना शब्द योग की क्रिया अभी मैंने तुम्हें इसीलिए बतला दी कि यह तुम्हारी जानकारी में रहे। सन् 1918 ईस्वी में सिकलिगढ -धारहरा में इन्होंने जमीन के नीचे एक ध्यानकूप बनाया और उसमें लगातार 3 महिनो तक एकांत में रहकर तपस्या पूर्ण साधना की, जिसमें इनका शरीर अत्यंत छीन हो गया सन् 1919 ईस्वी को 19 जनवरी को बाबा देवी साहब के परिनिवृत हो जाने के बाद इनके मन में इसी जीवन में मोक्ष प्राप्त कर लेने का प्रबल संवेग सतत् उठता रहा। सन 1933 -34 ई० में इन्होंने पूर्ण तत्परता के साथ 18 महीने तक भागलपुर की कुप्पाघाट की गुफा में शब्दयोग की अत्यंत गंभीर साधना की, फलस्वरूप येआत्म- साक्षात्कार में सफल हो गए
संतमत का प्रचार प्रसार: अब इनका ध्यान संतमत- सत्संग के प्रचार-प्रसार की ओर विशेष रूप से गया इन्होंने सत्संग की एक विशेष नियमावली तैयार की! फिर क्या था? अखिल भारतीय स्तर पर तीन दिनों के लिए और जिला स्तर पर दो दिनों के लिए निर्धारित तिथियों पर जगह-जगह वार्षिक अधिवेशन होने लगे। इनके अतिरिक्त प्रखण्ड स्तर पर एक दिन के लिए मासिक सत्संग का आयोजन होने लगा कहीं-कहीं यथावसर सत्संग के साथ- साथ सामूहिक मास- ध्यान- साधना भी होने लगी! पुस्तकों के प्रचार का सबसे बड़ा माध्यम समझ कर इन्होंने लेखन की ओर ध्यान दिया! यह अपनी साहित्यिक रचनाओं और प्रवचनों द्वारा यह सिद्ध करने लगे की सभी संतो के विचार मूलतः एक है और संतमत वेद, उपनिषद, गीता आदि ग्रंथों के विचारों पर ही आधारित है। इन्होंने संतमत के सस्त्वरूप को उजागर किया। लोग इनके विचारों से अत्यंत प्रभावित होते गये। आज भारत के विभिन्न राज्यों तक विदेशों (नेपाल, जापान, रूस, अमेरिका, स्वीडेन आदि) में फैले हुए उनके शिष्यों की संख्या अगणित। है
सर्वविदित है कि धर्म प्रचारकों को अपने जीवन में अनेक चुनौतियां का सामना करना पड़ा है। सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज को भी संतमत सत्संग के प्रचार प्रसार में अनेक चुनौतियां कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। इन पर मनगदंड दोषारोपण हुए, अनेक अफवाहों की आंधियां चलीं। मीरा की तरह छल से विश दिया गया रात में भूस की कुटिया में अग्नि प्रचलित कर इन्हें जिन्दा जला देने की कोशिश की गई, तलवार से सिर कलम कर देने के लिए एक क्रूर हाथ उठाया गया और इन्हें विचलित करने के लिए आश्रम मैं डाका डाला गया•, परंतु धरती की क्षमाशीलता, आकाश की अनन्तहृदयता, सागर की गम्भीरता, हिमालय की अटलता को धारण किए महर्षि जी प्रचार- मार्ग से कभी विचलित नहीं हुए। दिनों दिन इनका व्यक्तित्व आग में तपाए गये सोने की तरह निखरता ही गया इनके पवित्र यस केवल चांदनी फैलती ही गई। अन्ततः प्रबल विद्वैषी भी एक दिन इन्हीं की शरण में आये और सबों ने इनकी गुरुता स्वीकार की। इस प्रकार सारी आपदाओं को सहन करते हुए इन्होंने संतमत का प्रचार प्रसार किया।
महर्षि जी की साहित्यिक रचनाएं एवं आश्रम व शिष्यगण: अखिल भारतीय संतमत सत्संग की ओर से यह प्रकाशित होने वाली हिंदी मासिक पत्रिका 'शांति सन्देश लगभग 50 वर्षों से जन-जन में संतमत के सूक्ष्म विवेचना कर रही है, जिसके द्वारा ऋषियों,मुनियों, साधु- संतों महात्माओं और विद्वानों के लोग हितकारी वचनों को जन- सुलभ कराने का महत्कार्य संपन्न हो रहा है। इसके अतिरिक्त महर्षि मेंहीॅ विरचित व संगृहीत 14 सारगर्भित पुस्तकों का प्रकाशन किया गया है। उनके नाम है:- 1. सत्संग- योग (चारों भाग), 2. वेद -दर्शन योग, 3. विनय- पत्रिका- सार सटीक,4. रामचरितमानस सार सटीक, 5. श्रीगीता- योग- प्रकाश, 6. महर्षि मेंही- पदावली, 7. संतवाणी सटीक,8. भावार्थ- सहित घटरामायण पदावली, 9. सत्संग- सुधा (प्रथम भाग), 10. सत्संग- सुधा (द्वितीय भाग), 11. महर्षि मेंही- वचनामृत (प्रथम भाग), 12. मोक्ष- दर्शन 13. ज्ञानयोगयुक्त ईश्वर- भक्ति, 14. ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्त, 15. महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर। इन समस्त रचनाओं का गंभीरता से अध्ययन करने पर अध्यात्मिक ज्ञान की सही जानकारी प्राप्त हो जाती है
सद्गुरु महर्षि मेंही कभी-कभी अपने प्रवचनों में कहा करते थे कि "सन्तों का विचार मेरा प्राणधार है। मैं इस विचार में इतना ढृढ हूं कि मुझे कोई डुला नहीं सकता। मेरी रचित पुस्तकों जो पढेंगे वह भी दृढ़ होंगे, ऐसा मेरा विचार है। संपूर्ण भारत को विदेश मिलाकर आपके लाखों लाख शिष्य होंगे जो ईश्वर भक्ति का भेद लेकर साधना कर रहे हैं। देश भर में आपके द्वारा और आपके नाम पर संस्थापित लगभग 500 से ज्यादा आश्रम होंगे सन्यासी वैराग्य शिष्य में हजारों की संख्या में होंगे संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज 8 जून 1986 ईस्वी रविवार को जीवन के 101 वर्ष पूरे करके इस संसार से महाप्रयाण गये गुरुदेव हमारी आंखों से ओझल हुए, किंतु हमें आस्वस्थ कर गए कि मैं मोक्ष नहीं चाहता हूं तुम लोगों के उद्धार के लिए पुनः आऊंगा
🌸🙏🏵️श्री सद्गुरु महाराज की जय 🏵️🙏💐
आप सभी गुरु भक्तों के अंदर बैठे उस परमात्मा को प्रणाम करता हूं 🏵️💐🙏🌸🏵️
🌸🙏🌷श्री सद्गुरु महाराज की जय🏵️🙏💐