Santmat prachar mani

Santmat prachar mani श्री सद्गुरु महाराज की जय"
मैं मणिकान्त यादव स्वागत करता हूँ आप सभी सत्संग प्रेमियो का "Santmat Prac

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03/05/2023

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LIVE:संतसद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज की139वीं पावन जयंती का Live प्रसारण संतमत सत्संग मंदिर सिमराही परसाही से
स्थानीय पता:-
A/T : PARSAHI SIMRAHI WARD NO:01
P/O:BHATNI
P/S KUMARKHAND
DIST:MADHEPURA (BIHAR)
पिन कोड (852112)

स्थानीय आश्रम निवासी:श्री फ़ैकु प्रसाद यादव

मुख्य आयोजक:DR BABLU YADAV

सहयोगी:-PARMOD YADAV
KESHAV KUMAR
RANJIT YADAV
RAJA YADAV
JYOTISH YADAV
SAFAL YADAV (BIJAL BHAY)
CHANCHAL KUMAR
PRIYANSHU KUMAR
RAHUL KUMAR
DEEPAK KUMAR
CHHOTU KUMAR
JAYKANT YADAV
SANTOSH YADAV
RAHUL YADAV

एवं समस्त ग्रामवासी सत्संग प्रेमी सिमराही परसाही

LIVE : Yadav Trailer

Live streamed:
Camera:-MANI YADAV

संतमत के वर्तमान आचार्य पूज्य पाद महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज अपने आवास में शिष्यों के साथ
16/02/2023

संतमत के वर्तमान आचार्य पूज्य पाद महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज अपने आवास में शिष्यों के साथ

पिछले 30 दिनों में मुझे अपनी पोस्ट पर 300 रिएक्शन रिएक्शन मिले हैं. आपके सपोर्ट के लिए, आप सभी का धन्यवाद. 🙏🤗🎉
23/01/2023

पिछले 30 दिनों में मुझे अपनी पोस्ट पर 300 रिएक्शन रिएक्शन मिले हैं. आपके सपोर्ट के लिए, आप सभी का धन्यवाद. 🙏🤗🎉

"कहावत है पंडितों का वेद, संतों का भेद । वेद नहीं पढ़े, केवल भेद जाने और करे, तो संत हो जायेगा । ईसामसीह कोई विशेष विद्वा...
24/12/2022

"कहावत है पंडितों का वेद, संतों का भेद । वेद नहीं पढ़े, केवल भेद जाने और करे, तो संत हो जायेगा । ईसामसीह कोई विशेष विद्वान नहीं थे। यहाँ कबीर, नानक क्या पढ़े लिखे थे? तुलसीदासजी भी बड़े-बड़े विद्वानों के सामने बहुत कम थे । संत पढ़े-अनपढ़े सब हो सकते हैं । किन्तु पंडित बिना पढ़े नहीं हो सकता है । पंडित अयोध्या प्रसाद ने कहा - "वेद का अर्थ आकाश में लिखा है ।" बाबा साहब कहते थे मैं वह पुस्तक पढ़ा हूँ, जिसमें १ पत्र, २ पृष्ठ और ४ अध्याय हैं । पढ़ते-पढ़ते थक जाता हूँ, अंत नहीं होता । भारी इतनी कि हज़ारों इंजिन नहीं खींच सकते । १ पत्र, २ पृष्ठ और ४ अध्याय क्या है? सारा विश्व (पिण्ड-ब्रह्माण्ड मिलाकर) एक पत्र है । सारा विश्व का अर्थ सारा प्रकृतिमण्डल । यदि कहें कि समस्त प्रकृति मंडल का संसार बन गया है, तो प्रकृति का विकृत रूप होकर और कितना बचा है, ठिकाना नहीं । ये ही प्रकृति एक पत्र है । दो पृष्ठ - एक स्थूल और दूसरा सूक्ष्म । अंधकार, प्रकाश, शब्द, निःशब्द - चार अध्याय हैं । यह पढ़ो, गुरु महाराज कहे थे । १९०९ ई. में मैं सत्संग में सम्मिलित हुआ था । धरती पर के किसी विश्वविद्यालय में यह पढ़ाई नहीं होती है । कोई प्रोफेसर और गुरूजी नहीं कह सकते, न पढ़ा सकते । वह तो चुप बैठेगा । अंतर में प्रवेश करेगा, जन्मों पढ़ेगा और अंत में समाप्त करेगा । यह आकाश में जो वेद का अर्थ लिखा है, सो पढ़ेगा । बाबा साहब इसी पुस्तक को पढ़ने कहते थे । और अन्य पुस्तकों का भी आदर करते थे - तुलसी साहब का घटरामायण, तुलसीदासकृत रामायण और भगवान बुद्ध का धम्मपद ।" - सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस

आगे पढ़ने के लिए अगला पोस्ट देखे19पूर्णियाँ जिला सन्तमत-सत्संग का प्रथम अधिवेशनएक महीने छपरा में सत्संग कर आप जोतरामराय ...
11/12/2022

आगे पढ़ने के लिए अगला पोस्ट देखे
19पूर्णियाँ जिला सन्तमत-सत्संग का प्रथम अधिवेशन
एक महीने छपरा में सत्संग कर आप जोतरामराय चले आए। यहाँ के सभी सत्संगियों ने आपके आने के पूर्व ही इस गाँव में पूर्णियाँ जिला सन्तमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन करने का निर्णय कर लिया था। आपके आने पर उन्होंने निवेदन किया कि आप घूम-घूमकर सभी सत्संगी भाइयों को इस अधिवेशन में पधारने का अनुरोध करें। यह इसलिए अत्यावश्यक है कि संतमत-सत्संग के कट्टर विरोधियों की संख्या अत्यधिक है, वे अधिवेशन को नहीं होने देने की स्थिति लाने का प्रयत्न कर सकते हैं। अतः सत्संगियों को निर्भीक भाव से साहसपूर्वक इसमें सम्मिलित होने के लिए प्रेरण करना जरूरी है। अधिवेशन की तिथि माघ पूर्णिमा, १९१० ईस्वी निर्धारित हुई थी। आपको यह निवेदन उचित जान पड़ा और प्रचार-कार्य में निकल पड़े।
समैली पधारे। यहाँ सन्तमत-सत्संग के विरोधियों की कमी नहीं थी। प्रचार के दौरान में समैली गाँव के कबीरपंथी की जागोपंथी शाखा के प्रचारक से भेंट हो गई। ये महाशय सत्संगियों से कहा करते थे- ‘मैंने ‘घटरामायण’ को भली भाँति पढ़कर देख लिया है। उसमें सार कुछ भी नहीं है।’‘ इसी प्रकार संतमत के संबंध में और भी अनुचित बातें कहकर इसकी खिल्ली उडाया करते ।
‘घटरामायण’ तुलसी साहब कृत एक प्रसिद्ध पुस्तक है, जिसमें अपने घट में ही साधन करके ईश्वर तथा मोक्ष को पाने के भेदों का सुन्दर वर्णन है। इसे बाबा देवी साहब ने हाथरस के एक साधु से लिखवाकर नवल किशोर प्रेस, लखनऊ में छपवाया था ।
सत्संगियों द्वारा सारी बातें जानकर आपने उक्त प्रचारक को बुलवाया और उनसे निवेदन किया कि महाशयजी! सुनने में आया है कि आपने ‘घटरामायण’ का गम्भीर अध्ययन किया है और उसे अच्छी तरह समझ गए हैं। मैं नया आदमी हूँ। आप यदि मुझे भी ‘घटरामायण’ का सही अर्थ समझा देने की कृपा करें, तो मैं आपका चिर-अनुगृहीत होऊँ।
उक्त महाशय ने दो बजे दिन से आपको समझाना प्रारम्भ किया और सात बजे तक अबाध गति से समझाते रहे। जब आपने जान लिया कि ये कोरा बकवास कर रहे हैं और ‘घटरामायण’ के विषय-ज्ञान से एकदम शून्य है, तब आपने पहले उसे कुछ दुत्कारा और बाद में योग्यतापूर्वक ‘घटरामायण’ के वास्तविक मर्मों का उद्घाटन किया। आपका विशाल ज्ञान देखकर वह लज्जित और स्तब्ध हो गया । फिर रात को जब वह सत्संग में उपस्थित हुआ, तो मौन भाव से केवल सुनता रहा। फिर उसने कभी भी सत्संगियों के समक्ष ‘घटरामायण’ की चर्चा नहीं की।
प्रचार के सिलसिले में आपको एक बाह्मण पंडित से मुलाकात हुई। उन्होंने आपसे कहा–‘महाशयजी ! धर्म-प्रचार करना तो हम ब्राह्मण पंडितों का काम है, फिर आप जाति-पेशा छोड़कर यह प्रतिकूल काम क्यों कर रहे हैं ?
आपने तुरंत ही उत्तर दिया- ‘पंडितजी ! सचमुच यह, ब्राह्मण-जाति का ही काम था, परन्तु आपकी गद्दी खाली देखकर हमलोग उसपर बैठ गए हैं और आपके स्थान पर अब हमलोग आपका काम करने लगे हैं।’
उत्तर सुनकर पंडितजी की स्फुरणा गुम हो गई और वे शान्त भाव से चले गए।
इसके बाद आप कौशिकीपुर आकर प्रचार करने लगे। यहाँ के लोग सत्संगीगणों से यह कहकर असन्तुष्ट थे कि सत्संगी लोग देवी-देवताओं को नहीं मानते हैं और उनकी पूजा करनेवालों की निन्दा किया करते हैं। आपके पधारने पर गाँव के लोग आपके पास आए और शिकायत की कि आपके सत्संगी लोग हमारे देव-पूजन की निन्दा करते हैं कि मिट्टी को क्यों प्रसाद चढ़ाते हो? इससे क्या लाभ होगा?
इसपर सखीचन्दजी सत्संगी बोले- ‘नहीं, ऐसी बात नहीं है। कौशिकीपुर बस्ती के बाहर एक देव-स्थान है। वहाँ गाँव के लोग प्रतिवर्ष अपना-अपना प्रसाद अलग-अलग बर्तन में चढ़ाते हैं, किन्तु दूध को बर्तन में नहीं चढ़ाकर मिट्टी में ही डाल देते हैं। इसी पर मैंने बस्तीवालों से निवेदन किया था कि आपलोग मिट्टी में चढ़ाकर दूध बर्बाद नहीं करें। अन्य प्रसाद की भाँति उसे भी बर्तन ही में चढ़ावें, जिससे वह प्रसाद भी सभी को मिले।’
सखीचन्दजी की बात सुनकर आपने बस्तीवालों को प्रेम से समझा दिया कि ये ठीक ही तो कहते हैं। प्रसाद फेंकने की वस्तु नहीं, वरन् ग्रहण करने की चीज है। उसे फेंकना नहीं चाहिए। सभी शान्त हो गए। वहाँ का प्रचार-कार्य पूरा कर पुनः आप समैली लौट आए।
आपको पैदल चलने का पूराअभ्यास था। इसी भाँति घूम-घूमकर प्रचार करते हुए आप जोतरामराय वापस आ गए। निर्धारित समय पर पूर्णियाँ जिला-संतमत-सत्संग का प्रथम वार्षिक अधिवेशन प्रारम्भ हुआ। इसकी सूचना बाबा देवी साहब के पास भी भेज दी गई। इस अधिवेशन में कुल बत्तीस दीक्षित सत्संगी तथा अठारह सत्संग-प्रेमी, जो इन लोगों के साथ पधारे थे कुल पचास सज्जन सम्मिलित हुए। काढ़ागोला संगत के नानक शाही साधु लोग भी अधिवेशन देखने के लिए जोतरामराय आए। उनलोगों के साथ एक पंजाबी नानकपंथी उदासी साधु थे, जो बड़े लम्बे-तगड़े जवान थे। जोतरामराय के सम्पन्न लोग पहले नानकपंथी उसी संगत के सेवक थे, जिससे उनलोगों का आवागमन बराबर जोतरामराय हुआ करता था। अब अपनी शिष्य-मंडली के परिवारों को संतमत-सत्संग में सम्मिलित देखकर वे लोग चिढ़े हुए थे, अतः वे लोग अपनी पूरी तैयारी के साथ यहाँ वाक्-युद्ध ही करने के लिए आए थे। उनमें श्री मुक्ताराम उदासीजी भी थे, पर वे सदा शान्त रहते और कुछ नहीं बोलते थे। केवल पंजाबी नवागंतुक बाबा लालदास ही वाद-विवाद किया करते थे । उन्होंने बहुत सारे प्रश्न पूछे। सभी के उपयुक्त उत्तर आप देते रहे । अन्त में आपने पूछा- “अच्छा बाबा ! आप केवल ‘सत्नाम’ का अर्थ हमलोगों को समझा दीजिए।”
अपने में समझाने की योग्यता नहीं देख वे चुप हो गए। उनलोगों के साथ जोतरामराय के ब्रह्मदास नामक साधु भी थे, जो कुछ-कुछ पागल-से मालूम पड़ते थे। ये अपने स्थान से काढ़ागोला गए थे और उनलोगों के साथ ही लौटे थे। जब लालदासजी ने कुछ जवाब नहीं देकर चुप्पी साध ली, तब ब्रह्मा दासजी कहने लगे- ‘तुमलोग क्या बोलने आए हो? तुमलोगों ने जितन प्रश्न पूछे, सबके माकूल उत्तर उनलोगों ने दे दिए, पर तुमको चार अक्षरों का सवाल पूछा, तो उसका भी जवाब तुमलोगों से नहीं बन सका।’
फिर दूसरे दिन बाबू लक्ष्मीप्रसाद चौधरीजी (वर्तमान प्रधान मंत्री, अखिल भारतीय संतमत-सत्संग) के पूज्य पिता बाबू गेनालाल चौधरीजी के दरवाजे पर श्री धीरजलाल गुप्त, बाबू रामदास चौधरी, बाबू शीतल प्रसाद चौधरीजी प्रभृति सत्संगीगण तथा आप भी बुलाए गए। आज भी वे लोग ‘गुरु ग्रंथ साहब’ साथ लेकर विशेष रूप से वाद-विवाद करने आए थे। आते ही वाद-विवाद छेड़ दिया । वाद-विवाद के क्रम में ही उनलोगों ने ‘गुरु ग्रंथ साहब’ से कबीर साहब का यह शब्द पढ़ा- ‘कक्का किरण कमल में वास’ इत्यादि । आपने लालदास से कहा- ‘आप केवल इसी का अर्थ समझा दीजिए।’ समझाने की बात सुनते ही वे अगल-बगल झाँकने लगे। अन्त में बोले- ‘दूसरी बार आकर समझा देंगे।’ पर वे आजतक समझाने के लिए जोतरामराय नहीं आए।
20गुरु-आदेश से संन्यासी घर आए
अधिवेशन का काम सुसम्पन्न कर आप घर आ गए और आदरणीय पिताजी के चरणों में प्रणाम कर बाबा साहब की आज्ञा कह सुनाई। पिताजी आश्वस्त हुए और बोले- ‘तुम खेत पर जाकर काम करो, यह मुझे जरा भी पसन्द नहीं है। दरवाजे पर रहकर यहाँ के आवश्यक कामों की देख-भाल करते रहो।’ पिताजी के वात्सल्यपर्ण आदेश को पालन करते हुए आप घर में ही संन्यास-जीवन अतिवाहित करने लगे। आपके पिताजी ने अन्न रखने के लिए दो कमरे (मुनहर) बनवाए थे, जिनमें एक खाली ही पड़ा था। आपने उसी को साधन-कुटीर में परिणत कर अपनी उपासना को नियमित क्रम से चलाना आरम्भ कर दिया ।
पूर्व की भाँति इस बार भी गाँव के लोग आपसे मिलने नहीं आते थे। कुछ दिन की एकान्त साधना के उपरान्त सद्गुरु महाराज की इच्छा से एक गोप-बन्धु श्री रामीदासजी आपके पास आने लगे। आपकी मंगल और कल्याण करनेवाली सरल वाणी सुनकर दिनानुदिन इनका आकर्षण बढ़ने लगा। अब रामीदासजी जब गाँव के अन्य लोगों से मिलते, तो वे लोग कहने लगते कि तुम कैसे उस विचारहीन के पास जाकर बैठा करते हो, जिसको अपनी भी भलाई और उन्नति का ज्ञान नहीं और जिसकी जाति-पाँति का अब कोई ठौर-ठिकाना नहीं रह गया है। यह सुनकर रामीदासजी ने उनलोगों को समझाया- ‘केवल दूर-दूर से किसी के विषय में अटकल और अनुमान लगाना सच्ची हालत जानने का रास्ता नहीं है। आपलोग उनसे मिलकर बातें करें । मेरा विश्वास है, आपलोग उनकी ज्ञान-भरी बातें सुनकर स्वयं ही निर्णय कर लेंगे कि वे नासमझ हैं या विवेकशील साधु हैं।’
रामीदास के कथन से लोगों की उत्सुकता बढ़ी और उनसे मिलने के लिए मन उद्वेलित होने लगा। गाँव में कुछ कबीर-पंथी थे, जिनमें वयोवृद्ध श्री कालीचरण दासजी पर सभी को पूरी आस्था थी। आपकी चर्चा और प्रशंसा से प्रभावित होकर वे एक दिन दोपहर के उपरान्त आपसे मिलने के लिए आए। बहुत देर बैठकर उन्होंने आपसे साधना-संबंधी विविध विषयों पर वार्तालाप किया। इससे वे इतने मुग्ध हुए कि स्वयं आपकी महत्ता का बखान करने लग गए। अपने सभी कबीर-पंथी साथियों को बुलाकर उन्होंने गम्भीरता से कहा- ‘हमलोगों के गाँव में पहले भीमदास नामक एक अत्यन्त वृद्ध साधु रहते थे। वे कहते थे कि साधन-भजन करने की भी एक ‘जुगुत’ है । सो वह ‘जुगुत’ साधु में ही बाबा को किसी भेदी से मिल गई है। वे उसी ‘जुगुत’ के मुताबिक ही अपना भजन-ध्यान करते हैं। सो हमलोगों को भी अपना मनुष्य-जनम सुधारने के लिए उनसे मिलकर, उनकी सेवा-भक्ति कर वह ‘जुगुत’ सीख लेनी चाहिए।
उनकी बात सुनकर सभी बड़े प्रभावित हुए और उसी दिन से वृद्ध कालीचरणजी के साथ अन्य सज्जन भी सत्संग करने के लिए वहाँ जाने लगे। कुछ दिन सत्संग करने के उपरान्त वृद्ध कालीचरण दासजी, श्री लालीदासजी आदि कितने ही सज्जनों ने आपसे भजन-भेद प्राप्त कर लिया और बराबर सत्संग में आने लगे। इस भाँति सत्संगियों की संख्या बढ़ने लगी।
अब आपका प्रभाव सिकलीगढ़ धरहरा तक ही सीमित नहीं रहा। दूसरे-तीसरे अनेक गाँवों के धर्मप्रेमी सज्जन लोग यहाँ आकर सत्संग में सम्मिलित होने लग गए। जो भी एक बार आपके सत्संग में आए, उन्होंने अपने सभी संबंधित व्यक्तियों से इसकी चर्चा की, फलतः सत्संगियों की संख्या का विस्तार बढ़ता ही गया। भजन-भेद लेनेवालों की संख्या भी बढ़ने लगी। उदारमना पिताजी ने मुनहर में इतने सत्संगियों का अटाव होता नहीं देखकर अलग में एक स्वतन्त्र सत्संग-कुटीर बनवा दिया । कुछ ही दिनों में वहाँ भी स्थान की कमी होने लगी। बाहर के सत्संग-प्रेमियों की असुविधा और कष्ट देखकर गाँव के सभी सत्संगियों ने मिलकर एक बड़ा-सा सत्संगभवन बनाने का संकल्प किया। गाँव के एक धर्मप्रेमी सज्जन श्री छुतहरू भगतजी ने सत्संग-भवन बनवाने के लिए अपनी दस कट्ठे जमीन सदा के लिए दान कर दी और बोले ‘मैंने सदा के लिए यह जमीन सत्संग-मंदिर को दे दी, कदाचित् बेचने का भी विचार हो जाय, तो आपके ही हाथ बेचेंगे।’
उसी जमीन में सभी ग्रामीण सत्संगियों ने मिलकर एक फूस का घर बना लिया। आप भी वहीं निवास करते हुए मुक्त भाव से संतमत-सत्संग का प्रचार-प्रसार करने लगे। वह जमीन वर्तमान सत्संग-मंदिर से पश्चिम है।।
इस समय आप केवल एक संध्या ही प्रतिदिन घर आकर भोजन कर आतेथे।
भोजन करने के बाद सदा सत्संग-भवन में ही निवास करते थे। एक संध्या भोजन करने के विचार और क्रम को आपने १९१७ ईस्वी में छोड़ दिया। घटना यह हुई कि सन् १९१७ ईस्वी में आप मुरादाबाद से राय साहब पंडित किशोरीलालजी, जो अब बाबा साहब के शिष्य तथा कश्मीर, ग्वालियर एवं जयपुर तीनों देशी रियासतों के फौजी कर्मचारी थे, के साथ जम्मू गए। वहाँ महाराज कश्मीर की फौज के जमादार साहब रहते थे, उन्होंने अपने निजी अनुभव की बात सुनाते हुए आपसे कहा- ‘एक ही संध्या भोजन करने से देह की आवश्यकता या भूख के कारण एक ही बार अधिक मात्रा में भोजन की सामग्री ग्रहण करनी पड़ती है, फलतः अँतड़ी और पाचन-यंत्र पर अधिक भार पड़ जाता है। इससे अंतड़ी कमजोर हो जाती है।’
इस कथन में सत्य का अंश था और यह बात आपको जँच गई। उसी दिन से पुनः आप दोनों समय भोजन करने लग गए।
१९१० ईस्वी में सत्संग-भवन में निवास करते हुए आपके माध्यम से संतमत-सत्संग का इतना अधिक प्रचार हुआ कि दूर-दूर के लोग आपके पास आकर सत्संग करने लगे और सत्संग-प्रेमी जनों ने दीक्षा या भजन-भेद भी लेना प्रारम्भ कर दिया।
१९११ ईस्वी में आप दस-बारह सत्संगियों के साथ बाबा साहब की सेवा में मुरादाबाद गए। वहाँ करीब एक सप्ताह तक उनकी सेवा तथा सत्संग करने का पवित्र अवसर मिला।
पूर्णिया जिले के वार्षिक अधिवेशन के संबंध में वे बोले– ‘तुमलोगों ने पूर्णियाँ जिल का वार्षिक सत्संगाधिवेशन करके बड़ा अच्छा किया।’
तदुपरान्त आपसे उन्होंने पूछा- ‘क्या तुम अपने पिताजी का काम करके उनका अन्न खाते हो ?’
आपने उत्तर में निवेदन किया- ‘पिताजी ने कोई काम मुझे नहीं दिया है।’
इसपर बाबा साहब निर्देश के स्वर में बोले- ‘मुफ्त भोजन करने से तुम्हारा खून खराब हो जाएगा।’
मुरादाबाद से और सब आदमी लौट गए और आप तीन साथियों-सहित दिल्ली, मथुरा, आगरा, हाथरस, इलाहाबाद, बनारस आदि नगरों का परिदर्शन करते हुए धरहरा आए ।
जब आप अपने पिताजी के दरवाजे पर ही रहकर सत्संग-भजन करते थे, उसी समय एक बार पूर्णिया जिले के खगहा ग्राम निवासी श्री बच्चीदासजी को साथ लेकर मनिहारी एवं नवाबगंज पधारे । यहीं बच्चीदास की ससुराल थी। यहाँ एक विद्यालय-भवन में आपने गाँववालों के साथ सत्संग किया। सत्संग के समय ही सहसा आपको ज्वर हो आया। इस ज्वर की दशा में ही दूसरे दिन आप शाम की गाड़ी से कटिहार चले आए। धरहरा के लालीदासजी आपके साथ थे। ज्वर की अधिकता के कारण आप कटिहार में ही ठहर गए। कटिहार के एक प्रेमी सत्संगी श्री मदनजी ने तन-मन-धन से आपकी पूरी सेवा की। अपने जानते उन्होंने कोई त्रुटी नहीं आने दी। दवा-दारू, चिकित्सक-चिकित्सा अन्य आवश्यक खर्च, व्यवस्था आदि का सम्पूर्ण भार वहन करते हुए। उन्होंने आपको नीरोग दशा में ला दिया, तभी आपके विशेष आग्रह पर उन्होंने आपको धरहरा जाने दिया।
धरहरा पहुँचते ही आपके मन में स्वाद लेने की विविध लालसाएँ जाग उठी। जिन चीजों को खाने की आप कभी भी इच्छा नहीं करते थे, वे ही वस्तुएँ खाने के लिए मन उद्विग्न होने लगा। इसी उद्वेग में एक दिन आपने लाल मिरचाई खा ली। ज्वर-निवारण के लिए अधिक मात्रा में आपको कुनैन खिलाया गया था, अतः लाल मिर्च का असर तुरत आपके शरीर पर हो गया। इस बार जडैया बुखार ने तीव्र वेग से आक्रमण किया।
कुनैन-सेवित शरीर से जडैया का निवारण करना दुष्कर होता ही है। इस पीड़ा ने आपको अधिक व्यथित कर दिया। एक रात ज्वर की दशा में ही आपको नींद आ गयी और स्वप्न देखने लगे-“आपको ज्ञात हुआ कि बाबा देवी साहब भागलपुर पधारे हैं । जानते ही भागलपुर जाने के लिए अन्तर छटपटाने लगा। (स्वप्न में भी ज्वर की याद ज्यों की त्यों थी।) सोचने लगे—’इस ज्वर की हालत में कैसे वहाँ जा सकूँगा? उसपर भी शरीर अत्यधिक कमजोर हो गया है। ट्रेन पकड़ने के लिए धरहरा से पूर्णियाँ तक पैदल ही जाना पड़ेगा, वहाँ भी एक गहरी नदी पार करनी पड़ेगी।” (उस समय मुरलीगंज से पूर्णियाँ जाने के लिए रेल-पथ नहीं बना था।) सद्गुरु-मिलन की तीव्र लालसा के कारण आप उस ज्वराक्रान्त दशा में ही भागलपुर पहुँचने के लिए चल पड़े। किसी भाँति चलते हुए आप पूर्णियाँ के निकटस्थ उस गहरी नदी के पश्चिमी तट पर पहुँच गए हैं । आपके पहुँचते-पहुँचते नाव खुल गईआप खड़े-खड़े पुनः नाव के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । उस पार के पथिकों को नाव पर चढ़ाकर मल्लाह ने नैया को खेवकर पुनः पश्चिमी तट पर लगा दिया है। यात्री उतर रहे हैं, पर दो व्यक्ति स्थिर भाव से नाव पर बैठे हैं । सभी के उतर जाने पर वे दोनों महानुभाव भी नाव से उतरकर सीधे आपके पास चले आते हैं ।
आप विस्फारित नेत्रों से देखने लगते हैं ये तो मुरादाबाद-निवासी बाबू रघुवरदयालजी तथा पूर्णियाँ जिला-स्कूल के शिक्षक एवं राधास्वामी-मत के सत्संगी श्री जंगबहादुरजी हैं। आपने उन्हें प्रणाम किया और ‘आप अचानक यहाँ कैसे ?’ यह आपके पूछने के प्रथम ही बाबू रघुवर दयालजी ने आपसे पूछ दिया–’तुम कहाँ जा रहे हो?’
आपने उत्तर दिया- ‘पूज्यपाद बाबा साहब के दर्शन करने के लिए भागलपुर जा रहा हूँ।’
यह सुनते ही बाबू रघुवरदयाल ने कहा–’तुम वापस लौट जाओ। बाबा साहब को यह मालूम हो गया है कि तुम बीमार हो। इसीलिए उन्होंने मुझे तुमको देखने के लिए भेजा है।’
सद्गुरुदेव की अहैतुकी करुणा और वात्सल्य की बात जानते ही आप प्रेमाकुल हो रोने लग गए। स्वप्न भंग हो गया और आँखें खुल गईं। आपने जगकर देखा, आँसू और पसीने से सारा शरीर और सारे वस्त्र भींग गए हैं । आपने उठकर सारे शरीर को सूखे वस्त्रों से पोंछा और भींगे वस्त्रों को उतार सूखे वस्त्र पहन लिए। उसी दिन से बहुत दिनों के लिए ज्वरासुर ने आपसे विदाई ले ली।
पिताजी के दरवाजे पर निवास करते समय ही एक बार एक कबीरपंथी साधु आपके पास आए। साधु-वेश के कारण आपने उनको आदरपूर्वक ठहराया। भोजनादि की सुख-सुविधा पाकर ये यहाँ अटक गए । इनका भोजन आपके पिताजी के ही घर से बनकर आता था। कभी-कभी अन्य सत्संगी भाई भी इन्हें खिला दिया करते ।
सोने के लिए आपके पिताजी ने एक खाट दी थी, जिसपर बाँस का चचार देकरं आप सोते थे । इसके सिवाय और दो छोटी-छोटी चौकियाँ थीं, जिन्हें सटाकर बिछाने से एक आदमी भली भाँति उसपर बैठकर ध्यान कर सकता था। साधु के रह जाने पर खाट तो आपने उनको शयन करने के लिए दे दी और स्वयं दोनों छोटी चौकियाँ बिछाकर घर की टट्टी से सटकर किसी भाँति सो लेते थे। अकर्मण्य और आलसी साधु ने सुख-सुविधापूर्ण आराम की व्यवस्था देखकर दो-ढाई महीने तक यहाँ से हटने का नाम नहीं लिया। यहाँ नित्यप्रति नियमित रूप से सत्संग हुआ करता, पर साधुजी महाराज खाट पर चार-चित लेटे-ही-लेटे सत्संग किया करते।
एक दिन दोपहर के समय सत्संग हो रहा था। साधुजी उसी भाँति चार-चित लेटकर ‘आराम के साथ’ सत्संग कर रहे थे। आज सत्संग समाप्त होने के उपरान्त संचित संक्षोभ ने वाणी का रूप धारण किया। आप बोले- ‘साधुजी महाराज ! आपके सामने एक गृहस्थाश्रमवाले श्रद्धापूर्वक बैठकर सत्संग करते हैं और आप विरक्त होकर भी सत्संग के समय खाट पर लेटे हुए आराम करते रहते हैं ? क्या ऐसा बरतते हुए आपको जरा भी संकोच नहीं होता ? आपमें तो भक्ति-भाव और उपासना एवं सत्संग के प्रति आस्था का एक कण-मात्र भी नहीं है। आपसे तो ये गृहस्थाश्रमी ही लाख गुना श्रेष्ठ हैं। आप यदि मुंडन कराकर गृहस्थ-वेश में आ जाते, तो साधु-समाज और साधु-वेश का कलंक धुल जाता ।’
सच्ची आलोचना के आघात से साधु तिलमिला उठे और तुरत ही वहाँ से भाग खड़े हुए और सर्वत्र यह प्रचार करने लगे कि ‘यह संतमतवाला साधु मेँहीँ मेरा सिर मुंडित करवाकर साधु-वेश उतरवाना चाहता था।’
उसी अवसर पर देवोत्तर ग्राम में कबीरपंथियों का एक भंडारा हुआ, जिसमें आपको भी आमंत्रित किया गया। आपने कहा- ‘भाई ! मैं तो भंडारे का निमंत्रण नहीं लेता हूँ, हाँ, जहाँ सत्संग होता है, वहाँ जाता हूँ।’ पीछे फिर खबर आई, हाँ, सत्संग भी होगा।
भंडारे में सम्मिलित होने की आपमें रुचि नहीं थी, पर धरहरा के सत्संगियों ने निवेदन किया कि नहीं जाने से वे लोग समझेंगे कि इनके पास अध्यात्म-पथ या संतों के मार्ग का सही उत्तर नहीं है, इसी डर से नहीं आए। अतः आप अवश्य ही चलने की कृपा करें। इस भाँति सभी का आग्रह मानकर आप दस-बारह सत्संगियों के साथ देवोत्तर गाँव गए। वहाँ उक्त साधु की बात पर विश्वास कर सभी आप पर यह दोषारोपण करने के लिए तुले हुए थे कि आप एक साधु का केश मुंडित करा उसे पथभ्रष्ट करना चाहते थे। वहाँ जाने पर यही विशेष प्रश्न आपसे पूछा गया ।
आपने उत्तर दिया-आपलोग पहलेउन साधु महाराज को ही बुलाकर पूछिए कि मैंने क्या कहा था ?’ पुनः आपने उन अकर्मण्य एवं आलसी साधु की पूरी कहानी सभी को कह सुनाई। आपने कहा- ‘जब ढाई महीने मेरे साथ रहकर भी उन्होंने एक दिन भी बैठकर सत्संग नहीं किया और न कभी ध्यान-भजन ही किया, तो एक दिन दोपहर के सत्संग में सदा की भाँति उन्हें खाट पर चार-चित देखकर मुझे क्षोभ हुआ और सत्संग समाप्त होने के उपरान्त मैंने उनसे कहा- ‘आप साधु-वेश को क्यों कलंकित करते हैं ? इससे सारे साधु समाज को लोग बदनाम करेंगे। अच्छा हो कि आप साधु-वेश छोड़कर गृहस्थ-वेश धारण कर लें।’ .
सच्ची बात सबके सामने प्रगट हो जाने से सभी साधु एवं अन्य लोग भी उन्हीं साधु को दुत्कारने लगे। बेचारे ने दूसरे पर दूषण लगाकर अपने को बड़ा भला साधु सिद्ध करने का प्रयत्न किया था, पर पासा पलट गया और सभी ने उनकी पूरी तौहिनी की।
फिर तो बड़ी धूमधाम से सत्संग प्रारम्भ हुआ। सभी साधुगण एवं अन्य श्रोता निस्तब्ध होकर आपके प्रवचन सुनते रहे। सुनकर सभी मन्त्र-मुग्ध-से हो गए आर सन्तमत-सत्संग के प्रति सभी को पूरी श्रद्धा और विश्वास हो गया।
एक बार जब आप मुरादाबाद गए, तो धरहरा के कुछ दुर्जनों ने यह अफवाह फैलाने का प्रयत्न किया कि सत्संगी लोग रात में सत्संग-घर में दुष्कर्म करते हैं । आप जब लौट कर आए, तो यह सुनकर बड़े दुःखी हुए। श्री जयलाल दासजी को, जो जाड़ा, बरसात और गर्मी में कभी सत्संग में अनुपस्थित नहीं रहते थे, ऐसी बात सुनकर बडा क्रोध हुआ। उन्होंने गाँव के प्रमुख जनों से जाकर निवेदन किया कि ऐसा झूठा अपवाह फैलानेवालों पर ग्रामपंचायत से शासन होना चाहिए। प्रमुख जनों ने कल पंचायत करने की बात स्थिर की।
रात में एक नारी को दुर्जनों का सिखाया भूत लगा। वह बयान करने लगा कि मुझे इस स्त्री पर मेँहीँ साधु के चेले जयलाल ने भेजा है। इसपर उसका पति क्रोध से एक लाठी लेकर चिल्लाने लगा- ‘अभी जाकर हम मेँहीँ और उसके चेले को ठीक करते हैं ।’
कुछ सत्संगियों ने ये सारी बातें सुनकर आपसे कहा और आपकी रक्षा के लिए सत्संग-भवन में रहने की इच्छा प्रगट की।
आपने सभी से कहा- ‘आपलोग सभी घर चले जाइये। मारपीट करने के लिए जब वे लोग आ जाएँगे, तब देखा जाएगा।’
सत्संगियों ने पूछा- ‘कल गाँव के लोग पूछेगे, तो हम क्या उत्तर देंगे?’
आपने कहा- ‘जो इच्छा हो, ‘उत्तर दे देना।’
पुनः उनलोगों ने पूछा- ‘सत्संग करने के लिए हमलोग आवें कि नहीं ?’
आपने उत्तर दिया- ‘आने की इच्छा हो, तो आइए, नहीं इच्छा हो, तो नहीं आइए ।’
पुनः लोगों ने पूछा- ‘कल पंचायत बैठावें कि नहीं?’
आप बोले- ‘जब भूत भी दोषारोपण करता है, तो मनुष्यों की बात ही क्या, अतः पंचायत कराने की कोई जरूरत नहीं है।’
प्रात:काल श्री अमृतदासजी नामक एक ग्रामीण भूत-लीलावाले के दरवाजे पर गए । वहाँ की सारी कहानी सुनकर वे खूब हँसे और उनलोगों की नासमझी पर दया भी आयी। उन्होंने उनलोगों को फटकारा और समझाया ‘महात्मा मेँहीँ जी तो केवल परमात्मा की भक्ति, भजन एवं सत्संग की बातें कहते-सुनते हैं। वहाँ यन्त्र, मन्त्र, ओझा-डायन की कैसे तुम लोग कल्पना कर लेते हो ! जरा सत्संग में जाकर एक दिन सुन भी तो आओ और श्री जयलालजी, जो कि सत्संग के लिए जान देते हैं, भला इस ओछे काम की ओर कैसे ख्याल कर सकते हैं ?’ सभी पर इनके कहने का सम्यक प्रभाव पड़ा और वे लोग शान्त हो गए। शाम के सत्संग में ये सारी चर्चाएँ आपको भी सत्संगियों के द्वारा मालूम हुई। लोगों की अज्ञान दशा-निवारण के लिए आप विचारते रहे।
एक बार आपकी अनुपस्थिति में धमदाहा थाने से दारोगाजी वहाँ आए। सत्संग-विरोधी लोगों ने उनसे शिकायत की ‘सत्संगी लोग रात को सत्संग-भवन में बैठकर गुप्त मंत्रणा किया करते हैं, न जाने वे लोग ऐसा करके एक दिन गाँववालों की कोई नुकसानी नहीं कर डालें, अतः उनके एकान्त षड्यंत्र को रोका जाना चाहिए।’
ऐसी बात सुनकर दारोगाजी ने सत्संग करनेवालों को बुलाया और पूछा- ‘रात को तुमलोग सत्संग-भवन में क्या सब बातें करते हो?’
सत्संगी लोगों ने उत्तर में कहा- ‘हमलोग रात में निश्चिन्त होकर परमात्मा को पाने, उनकी भक्ति, भजन एवं ध्यान करने के संबंध में चर्चा करते हैं तथा चोरी, जारी, नशा, हिंसा एवं झूठ को छोड़ देने का संकल्प करते हैं ।’
सत्संगीगणों की बात सुनकर दारोगाजी बोले- ‘ये लोग खूब अच्छा काम कर रहे हैं ।’ यह सुनकर विरोधी लोग निराश होकर चले गए।
सन्तमत-सत्संग के विरोध में ऐसे छोटे-बड़े अनेकों काण्ड रचे गए और वे एक-एक कर समाप्त होते गए। ऐसी कितनी ही कहानियाँ है ।
इन घटनाओं के आघात-प्रतिघात से आपकी बौद्धिक प्रखरता, कोमल विनयशीलता, निर्भीक-नि:संकोच स्पष्टवादिता और विचार-वाणी की एकता के स्वरूप और भी अधिक प्रकाश में आते गए। संयत और संतुलित वार्ता और कार्य आप विशेष पसन्द करते हैं।
21सद्गुरु की सेवा में
१९१२ ईस्वी के अन्त में पूज्यपाद बाबा साहब नन्दन साहब को साथ लेकर भागलपुर पधारे। आप अन्य प्रेमी सत्संगीगणों के संग उनकी सेवा में उपस्थित हुए। सत्संग का पूर्णियाँ जिले में प्रचार-प्रसार करने के लिए आपने समय प्रदान करने की गुरु-चरणों में प्रार्थना की। प्रार्थना सानन्द स्वीकृत कर ली गयी। कुछ दिन भागलपुर में ही सत्संग किया गया और इसी अवसर पर पूज्य बाबा देवी साहब ने वार्षिक सन्तमत-सत्संगाधिवेशन का सुन्दर संविधान तैयार कर दिया और नियत समय पर पूर्णियाँ पधारे । पूर्णियाँ के मधुबनी मुहल्ले में उनलोंगों के निवास का प्रबन्ध किया गया। तीन दिनों तक नियमित रूप से यहाँ सत्संग हुआ। इसमें साम्प्रदायिक भेद और विद्वेष की भावना छोड़कर सभी वर्गों, जातियों एवं सम्प्रदायों के लोग सम्मिलित हुए। अज्ञात आध्यात्मिक प्रभाव से खींचकर सभी लोग सत्संग में सम्मिलित होते और बाबा साहब के दिव्य दर्शन के लिए भीड़ लगाए रहते ।
इस बार पूज्य बाबा साहब तथा उनके साथ रहनेवाले सभी सत्संगी भाइयों के चौके एवं भंडार का सम्पूर्ण भार आपने उत्साह से अपने ही ऊपर ले लिया था। रसोई तैयार कर भोजन कराना, उनलोगों के जूठे बर्तनों को अपने ही हाथों से साफ करना, उच्छिष्ट भोजन को उठाकर चौका लगाना आदि सारे कार्यों को पूरी प्रसन्नता और उत्साह से करने में लगे ही रहते । इसमें किसी के सहयोग की जरा भी अपेक्षा या आशा नहीं रखते थे।
बाबा साहब पूर्णियाँ के उपरान्त कटिहार पधारे। यहाँ भी तीन दिनों तक उत्साह और शान्ति से सत्संग सम्पन्न हुआ। फिर सभी सत्संगियों के साथ बाबा साहब जोतरामराय आए। यहाँ बाबू शीतल प्रसाद चौधरीजी के गोले में सभी के निवास की व्यवस्था की गयी। यहाँ पर्याप्त संख्या में लोगों के बैठने के लिए स्थान था। बाबू मंचन चौधरी, बाबू धीरज लाल गुप्त, बाबू यदुनाथ चौधरी एवं अन्य सत्संगीगणों के प्रेमानुरोध से बाबा साहब ने पन्द्रह दिन ठहरकर प्रतिदिन नियमित रूप से यहाँ सत्संग कराया। इनके गुप्त प्रभाव से सभी वर्गों के लोग पर्याप्त संख्या में प्रति दिन उपस्थित होते रहे। इस बार कटिहार में बाबा देवी साहब की अध्यक्षता में सम्पन्न होनेवाले इस त्रिदिवसीय पवित्र सत्संग को पूर्णियाँ जिले का वार्षिक सन्तमत-सत्संगाधिवेशन मान लिया गया ।
पूर्णियाँ से जोतरामराय तक भोजन-प्रबन्ध संबंधी कार्यावली आपने बडी ही योग्यता के साथ पूरी की और सेवा के किसी भी कार्य का त्रुटि होने का अवसर नहीं आने दिया, पर सद्गुरु की लीला विचित्र है। एक दिन सभी के भोजन कर लेने के बाद बाबा साहब बोले- ‘आज लाला ने इतनी मीठी दाल बनायी कि सभी ने अघाकर खायी।
आपने इस वाणी का रहस्य नहीं समझा। सबके भोजन कर चुकने पर जब आपने दाल खायी, तब उक्त संकेत का मर्म आपने समझा । स्मरण-शक्ति पर आज अपना संयमन नहीं रहने से दाल में दुबारा नमक आपने डाल दिया था। आपको अपनी इस भूल के लिए बड़ा पश्चात्ताप और ग्लानि हुई, पर सदा सचेत और सावधान मन को आज किसने विस्मृति से आच्छादित कर दिया था ?
जोतरामराय में अपनी अन्तर्हित शक्ति से आयोजित सन्तमत-सत्संगाधिवेशन को पूर्ण कर बाबा देवी साहब लक्ष्मीपुर (भागलपुर) आ गए और यहाँ श्री सुरजूदास एवं श्री चेथरू दासजी के मकान पर ठहरकर तीन दिनों तक सत्संग कराया। ये दोनों सत्संगी परस्पर मित्र थे तथा लक्ष्मीपुर एवं निकट के गाँवों में संतमत-सत्संग के प्रचार में संलग्न रहा करते थे।
श्री सुरजूदासजी को बाबा साहब ‘महन्थ’ कहा करते थे।
लक्ष्मीपुर में सत्संग कराने के बाद बाबा साहब सीधे मायागंज (भागलपुर) के सत्संग-मंदिर में आ गए। प्लेग के भय से सारा मुहल्ला सूना हो गया था। सभी घर छोड़कर बगीचे में झोपड़ा बनाकर रह रहे थे। बाबा साहब ने आते ही श्री राजेन्द्र बाबू को बुलाया और बोले- “मुहल्ले में प्लेग होने के कारण क्या तुमने भी डरकर बगीचे का आवास अपना लिया ? क्या ‘देवी’ मर गया है ?”
आश्वासन-वाणी को सुनते ही राजेन्द्र बाबू के साथ सभी सत्संगीगण तथा मुहल्ले वाले भी निर्भीक होकर अपने-अपने घर आ गए। इस घटना ने अनेक लोगों का ध्यान अनायास ही सत्संग की ओर आकर्षित कर लिया।
बाबू श्री राजेन्द्रनाथ सिंहजी, बी॰ए॰, बी॰ एल॰, बाबू खूबलालदासजी, बाबू मिट्ठूलाल दासजी, बाबू रामदासजी, बाबू सन्तकुमार दासजी आदि सत्संगीगण सत्संग-प्रचार में तत्पर रहा करते थे और इनमें श्री राजेन्द्र बाबू तो एक विशेष प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। बिहार प्रान्त में सत्संग-प्रचार-कार्यों का संचालन इन्हीं के द्वारा होता था और आपका बौद्धिक मार्ग-दर्शक गुरु बनने का सौभाग्य भी इन्हीं को उपलब्ध हुआ था।
लगातार सेवा में तत्पर और व्यस्त रहने के कारण भागलपुर आते-आते आपकी परिश्रांति अधिक बढ़ गयी थी। इस अत्यधिक थकावट के कारण ही एक दिन आप सत्संग में विनती करने के उपरान्त दीवार से उठँग गए और आपकी बाह्य चेतना सहसा ही निद्रा में प्रवेश कर गई। आरती-गान के समय आप जागे और मन में डर हुआ कि इस असँभाल के कारण बाबा साहब आप पर बिगड़ेंगे, पर उस दिन उन्होंने आपसे कुछ नहीं कहा। सद्गुरु के मूक वात्सल्य ने किसी हृदय को अनुप्रेरित कर दिया और उसी दिन से जोगसर मुहल्ले के श्री यदुलाल गुप्तजी ने रसोई तथा तत्संबंधी सभी आवश्यक सेवाओं में आपको सहयोग देना प्रारम्भ कर दिया। यद्यपि अब भी सेवा का उत्तरदायित्व और कार्यभार आप ही वहन एवं सम्पन्न करते थे, फिर भी इनके सहयोग से उतनी थकावट नहीं हो पाती और कुछ विश्राम मिल जाता था।
मायागंज सत्संग-मंदिर में कई दिनों तक सत्संग कराने के बाद बाबू सन्तोषीरामजी के प्रेमाग्रह से बाबा साहब कोरका (संतालपरगना) चले आए और यहाँ सन्तोषीरायजी के घर पर रहकर तीन दिनों तक सत्संग कराया।
सद्गुरु के मार्ग-दर्शन के रूप कभी-कभी बड़े विचित्र हुआ करते हैं। एक दिन कोरका में आपने सभी के लिए भात, दाल एवं साग बनाया। चावल नया था। भात गीला नहीं होने देने के लिए आपने उसमें पहले और फिर भात होने के उपरान्त उपयुक्त मात्रा में घी मिला दिया था। बाबा साहब ने आज दाल और शाक तो खा लिया, पर भात को ज्यों-का-त्यों छोड़ दिया । भात छोड़ देने का कोई कारण समझ में नहीं आ रहा था और न उनसे पूछने की ही हिम्मत होती थी। सायंकाल खीर बाँटते समय पूज्य बाबा साहब ने बिना पूछे ही कहा- ‘आज तुमने मेरे लिए परोसे गए भात में पूरा घी डाल दिया था। यह देखकर मेरे मन में विचार हुआ कि तुमने मुझे विशेष जानकर

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11/12/2022

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12बल्ली बाबा के दर्शन
धर्मनगर से आप गुरुजी के पास लौट आए। रामदासजी से मिलने पर आपने अपनी सारी कहानी उन्हें सुनायी और बोले-- ‘आपलोग तो उग्रनाम साहबजी की बड़ी तारीफ करते थे, किन्तु मुझे तो उनमें कोई विशेषता नहीं नजर आयी।’
यह सुनकर वे बिगड़ गए और बोले –
“जाकी रही भावना जैसी ।
प्रभु मूरति देखी तिन तैसी ।।”
कुछ दिनों के बाद आपने दोनों मित्रों के संबंध में सुना कि अब वे ऐसे मत में चले गए हैं, जो गुरु को नहीं मानता। आपके मन में उन दोनों के प्रति और भी अविश्वास बढ़ गया कि गुरु को नहीं मानते हैं, तो कैसे काम चलेगा?
एक बार आपने एक कबीरपंथी साधु बल्ली बाबा की प्रसिद्धि सुनी। वे विचित्र ढंग के महात्मा थे। उनकी सिद्धि के अनेक चमत्कार लोगों ने देखे थे। पूर्णियाँ जिले के बरबन्ना गाँव में उनकी कुटी थी। कुछ दिन - उन्होंने वासुदेवपुर (बड़हरा) की कुटी में भी निवास किया था। यह कुटी श्री वंशी साहुजी ने बना दी थी और उनकी सेवा की सारी व्यवस्था भी साहुजी के द्वारा ही होती थी।
जहाँ कहीं भी आप सन्त या विशेष महात्मा होने की बात सुनते, आपकी ब्रह्म-जिज्ञासा खींचकर आपको वहाँ ले जाती। आपने कार्तिक मास में उनके दर्शन के लिए प्रस्थान किया। आकर धमदाहा थाने के दारोगाजी के यहाँ ठहरे। ये दारोगाजी पहले बरारी थाने में थे और जोतरामराय जाने-आने में आपसे घनिष्ठ परिचय हो गया था। नाम था कान्ह बिहारी प्रसाद ।
आप दारोगाजी के साथ ही बल्ली बाबा के दर्शन करने धमदाहा से बड़हरा आए और एक मारवाड़ी के यहाँ ठहर गए। प्रात:काल उनकी कुटी पर आप पधारे। आपने उन्हें विचित्र स्वभाववाला साधु पाया। आपने देखा कि बहुत-से लोग बाहर बैठे हुए हैं और बाबाजी कुटी के अन्दर से ही बातचीत कर रहे हैं। आपने भी बाहर बरामदे से ही बाबाजी को प्रणाम किया। बाबाजी बोले- ‘के छिको हो, गोसाँय छिको हो ।’
आपने कहा- ‘जी, हाँ ।’ फिर बाबाजी ने आपकी जाति पूछी। आपने अपना कुल बता दिया। इसके उपरान्त फिर कुछ नहीं पूछा। आप एकान्त-वार्तालाप करने की इच्छा से वापस लौट आए और लोगों से पूछने पर पता लगा कि दस बजे रात में वहाँ कोई नहीं रहता।
दस बजे रात को आप अपना आसन लेकर बाबाजी की कुटी पर पहुँच गए। आपके पहुँचने के पूर्व ही बाबाजी ने कुटी का दरवाजा बन्द कर लिया था और खिड़की पर भी परदा डाल दिया था। आपके पहुँचते ही कुत्ता जोर-जोर से भूँकने लगा, किन्तु निकट आते ही वह अनायास ही शान्त हो गया। आप कुटी के बरामदे पर अपना आसन बिछा कर बैठ गए और साधुजी को बाहर से ही प्रणाम किया। आपकी बोली उन्होंने पहचान ली और पूछा- ‘के छिको हो, गोसाँय छिको।’
आपने उत्तर दिया- ‘जी, हाँ।’
वे बोले- ‘यहाँ रात में कि कोय रहै छै। यहाँ हमरा पास की भोजन करभे! चल जा, बोध बाबू के बेटा भेल छैक, वोतै नाच-गान भै रहल छै। यहाँ से चल जा, नाच देखऽगऽ। आपने कहा- ‘महाराज! मैं यहीं रहूँगा।’ । कुछ देर बाद फिर वे बोले- ‘गेलो हो?’
आपने कहा- ‘जी, नहीं ।’ वे बोले- ‘हमरा ओते कि कुछ छैक, भोजन की करभे, चल जा, वोतै जाके रह ।’
आपने कहा- ‘नहीं महाराज! मैं यहीं रहूँगा। मैं भोजन करके आया हूँ।’ वे बोले- ‘गेलो हो?’
आपने कहा- ‘जी, नहीं।’ वे फिर बोले- ‘हो गोसाँय रहतिहत बात नै मानतिह, तू केहन गोसाँय छ ? यहाँ कि हमरा पास बिछौना छै, बिछैभे की ?’ .... आप बोले- ‘महाराज! मेरे पास आसन है। मैं आपके दर्शन चाहता हूँ।’ कुछ देर के बाद फिर वे बोले- ‘गेलो हो?’
आपने कहा- ‘जी नहीं।’
उन्होंने कहा- ‘हो, तू कैसन गोसाँय छ - हो ? गोसाँय के बात मानना चाही, अच्छा त जा, दूसर घर में जाकेऽ आराम करऽ ।’
आप बोले- ‘नहीं महाराज! मैं आपसे कुछ उपदेश लेने आया हूँ।’
इसपर उन्होंने खिड़की से हाथ निकाल कर आपको एक मुट्ठी जलेबी दी और कहा ‘जा, खाय के पानी पी ल, फिर दूसर घर में जाके आराम करऽ ।’
आपने जलेबी ले ली। ... उन्होंने फिर पूछा- ‘गेलो हो ?’
आप बोले- ‘जी नहीं, मैं यहीं रहूँगा। भक्ति के विषय में आप कुछ बताने की कृपा करें।
इसपर वे गाली बकने लगे और जोर-जोर से चिल्लाने लगे- ‘दौड़ऽ हो, हायरौ बाप! मारलक रौ, लूटलक रौ, दाँत तोडलक रौ ।’ ऐसे ही कितने शब्द बोलकर हल्ला करने लगे। इसके बाद आपको बेछूट (सतत) गाली देने लगे।किन्तु आप शान्त भाव से गाली सुनते हुए बरामदे पर डटे रहे। इस भाँति सबेरा हुआ और वंशी साहु की बहन आई। उसने बाबाजी से कहा- ‘दरवाजा खोल देल जाय सरकार !’
उन्होंने कहा- ‘जा, एखन चल जा ।’ इसपर वह बोली- ‘गन्दगी में कोना रहब सरकार ! साफ करके हम चल जायब।’ वे बोले- ‘गोसाँय बैसल छै, गन्ध लगतै-गन्ध ।’
आपने कहा- ‘नहीं महाराज ! गन्ध नहीं लगेगी।’
इसपर उन्होंने दरवाजा खोल दिया। बाबा जी रोटी पकाने के तवे में राख डालकर उसी में पाखाना फिरते थे और पेशाब के लिए एक दूसरा बर्तन था। उसने घर से दोनों बर्तन - निकालकर बाहर फेंक दिए और बाबाजी से कहने लगी- ‘सरकार! कई-एक दिन से घर साफ नै कैल गेल छैक, कमरा में झाडू दे दियै?’ बाबाजी बोले- ‘बाप रौ बाप, कतेक चीज घर में छैक, झाडू कोना लगैभैं ? जा चैल जा, चीज सब फोड़-फाड़ देभै ।’ यह सुनकर वह चली गयी। कुछ देर के बाद एक आदमी दूध लेकर आया और बोला- ‘बाबा ! दूध लै लेल जाय ।’ उन्होंने कहा- ‘दूध केकरा ले आनने छ ?’ उसने कहा- ‘बिल्ली के लिए।’
इसपर वे बोले- ‘बिल्ली दूध नै पिवैत छेक, चल जा ।’
फिर भीतर से ही कहा- ‘बाहर में गोसाँय के दे देहो ।”
फिर आपसे उन्होंने कहा- ‘ले गोसाँय दूध ल के पी ल ।’
आपने दूध ले लिया। पास में चीनी थी ही। दूध में पानी और चीनी मिलाकर पी लिया और रात में बाबा द्वारा बताये गए दूसरे मकान में अपना आसन लेकर चले आए। सूर्योदय के कुछ देर उपरान्त एक आदमी भंडार (रसोई) बनाने आया । बाबाजी ने उससे कहा- “जा गोसाँय के पूछऽ हमर भंडार बनायल ऊ ग्रहण करता ?’
उस आदमी ने आकर उनके कथनानुसार आपसे पूछा। आपने कहा- ‘बाबाजी वृद्ध हैं। उनसे कहिए, मैं ही भंडार बना दूँगा और दोनों आदमी भोजन कर लेंगे।’
यह कथन सुनकर बाबाजी ने कहा- ‘नै, हम अपनें भेजन बना लेब ।’
उन्होंने स्वयं रसोई बनाकर आपके लिए उसी मकान में भिजवा दिया।
फिर आपसे कहा-‘तू दासिन कर ले, दोनों भाय के सेवा करऽत ।’
सबेरे जो-जो आदमी उनके पास आए, सभी से उन्होंने कहा- ‘हो, ऐ गोसाँय के ले जा। रात में ई हमरा के मारलक ए, दाँत तोडलक ए।’ फिर आप तिवारीजी के दरवाजे पर जाकर रहे। दूसरे दिन प्रातः ही पुनः आप बाबाजी के पास आए। बाबाजी ने आपको देखते ही कहा–’छी ! छी! ! देह में की लगा के ऐल छऽक । जा, नहा लऽ।’ आपने कहा- ‘मैं स्नान करके आया हूँ।’ उन्होंने कहा- ‘अच्छा, तब बैठऽ।’ पुनः बोले- ‘हाँ, एक बात सुननें छह ।’
जैसे मृगा नाद सुनि धावै। मगन होय व्याधा ढिग आवै।।
चित कछु शंक न मानै सोई। देत शीश सो नहीं डराई।।
औ पतंग को जैसा भाऊ। ऐसा अनुरागी उर आऊ।।
(यह पद ‘अनुराग सागर’ का है)
यह पद कहकर वे बहुत जोर से हँसे और कहने लगे– ‘के कहले रहै, कबीर कहले रहै ।’
दूसरे दिन आप धमदाहा थाने पर लौट आए। वहाँ दारोगा श्री कान्ह बिहारीजी ने आपसे कहा- ‘आप जिज्ञासु हैं । आपको तो अवश्य ही प्राप्त हो जाएगा। प्राप्त होने पर आप हमको भी बता देंगे।’
कुछ दिनों के उपरान्त आप पुनः बल्ली बाबा के दर्शन करने गए, परन्तु वे तिवारीजी की हवेली में निवास कर रहे थे, अतः चुपचाप लौट आए। इसके बाद बल्ली बाबा ने अपने शरीर को त्याग दिया।
13जिज्ञासाकुल हृदय
१९०७ ईस्वी से ही प्रायः ऐसा होता रहा कि जब-जब आपने ग्रन्थों का वह अर्थ, जो आप नहीं समझ पाते थे, गुरुजी से पूछा करते। पहले तो उत्तर देने में असमर्थ होने से गुरुजी किसी भाँति टाल दिया करते, पर बारम्बार ऐसी जिज्ञासा करते रहने के कारण वे खीझकर आप पर बिगड़ने लग गए थे। १९०९ ईस्वी में आपकी जिज्ञासा का वेग पराकाष्ठा को स्पर्श करने लगा। समाधान नहीं होने पर इतनी बेचैनी हो जाती कि भोजन और नींद दोनों से अरुचि हो जाती थी। अतः विवश होकर ग्रन्थों का वह अर्थ, जो समझ में नहीं आता, गुरुजी से पूछ ही बैठते और गुरुजी बिगड़ ही जाते । मीरा की विह्वलता भी एक दिन संगीत की स्वर-लहरी बन गई थी
मीरा मनमानी, सुरत शैल असमानी।।
जब-जब सुधि आवे वा घर की, पल-पल नैन में पानी।
ऐसी पीर विरह तन भीतर, जागत रैन बिहानी।।
दिन नहिं चैन रैन नहिं निंदिया, भावत अन्न न पानी।
ज्यों हिय पीर तीर सम सालत, कसक-कसक कसकानी।।
खोजत फिरौं भेद वा घर की, कोइ न राह बतानी।
रैदास संत मिलै मोहि सतगुरु, दिन्ही सुरत सहदानी।।
मैं मिल जाऊँ पाय पिय अपना, तब मोरि पीर बुझानी।
मीरा खाक खलक शिर डारी, मैं अपने घर जानी।।
१९०९ ईस्वी का अप्रैल मास। आज अपने प्रियतम का मिलन-पथ जानने के लिए हृदय विहल हो रहा है। किसी भाँति कहीं चैन नहीं मिलता। कहाँ, किनके पास जाऊँ ? सारी दुनिया छान डाली, कहाँ-कहाँ न भटकता फिरा, दुख को दुख नहीं समझा, जहाँ भी सन्त मिलन की संभावना जान पड़ी, वहाँ दौड़ा गया, पर क्या यह भारत-भूमि सन्तों से विहीन हो गई? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।
सन्त दरिया साहब की वाणी पढता हूँ। बिना ‘सारशब्द’ के कभी परमात्मा को पाया नहीं जा सकता, पर यह ‘सारशब्द है कहाँ। कैसे इसको पाया जाता है ? कौन विधि, कौन-सा रास्ता है इसे उपलब्ध करने का ? यह बात किनसे पूछूँ ? गुरुदेव से पूछता हूँ, तो वे बताने के बदले बिगड़ने ही लगते हैं , पर आज वे कितने ही क्यों न बिगड़ें, पूछे बिना नहीं रहूँगा।
इस विह्वल संवेग में आकर आपने सन्त दरिया साहब की उक्त वाणी का अर्थ पूछ ही दिया। उत्तर में गुरुजी आज इतने बिगड़े, जितने कभी नहीं बिगड़े थे। पर अब न सोना सुहाता है और न भोजन ही। रात बीती जा रही है, पर आँसुओं की धारा रुकती ही नहीं। बाहर निस्तब्ध है, हृदय सिसक रहा है। अन्तरात्मा हाहाकार कर रही है। ब्रह्म-मुहूर्त्त झाँकने लगा था। सहसा आप की चेतना नींद में प्रवेश कर जाती है। प्रभु की करुणा, आप स्वप्न देख रहे हैं- ‘दो साधु आए हैं । प्रसन्न और शान्त मुद्रा है। उनके हाथ आश्वासन देने के लिए ऊपर उठे हुए हैं। आकुल करनेवाले सारे प्रश्न आप उनके समक्ष रखते जा रहे हैं और उधर से तृप्तिदायी और शान्तिप्रसारक समाधान किया जा रहा है। विरह-ज्वाला से जलते तन-मन-प्राण में जैसे सुधा का संचार हो रहा हो। सहसा वे दोनों अन्तर्धान हो जाते हैं और आप विह्वल होकर कर रुदन करने लगते हैं।’
उसी समय आपके गुरुजी आपको उठा कर दूसरा गाँव अपना कोई खास कार्य करने के लिए भेज देते हैं, और आप अन्तर की व्यथा दबाए चुपचाप आदेश-पालन में तत्पर हो जाते हैं। स्वप्न-द्वारा आन्तर बेचैनी की शान्ति के कारण आपको नींद के झोंके आ रहे हैं । और आप आज्ञा-पालन के लिए ऊँघते हुए भी आगे बढ़ते जा रहे हैं। उस गाँव में पहुँचकर गुरुदेव का कार्य सम्पन्न कर उषा की अरुणिमाके स्निग्ध कोमल प्रकाश में सुषुप्ति या स्वप्न में भँसते हुए-से वापस लौट रहे हैं। विद्यालय के समीप आते-आते सूर्य की तीव्र किरण-धारा पलकों का उष्णिल चुम्बन करती है और आप देखते हैं- विद्यालय के प्रांगण में श्री रामदासजी खड़े हैं।
आपकी जानकारी मेंइतने सबेरे श्री रामदासजी कभी भी विद्यालय नहीं आए। वे आपको देखते ही समीप बुलाकर आदर से बैठा लेते हैं और आपको सुयोग्य पात्र जानकर सन्तमत-सिद्धान्त की बातें आपके आकुल मस्तिष्क एवं अशान्त हृदय में प्रवेश कराने का प्रयत्न करने लगते हैं। आपकी तर्क-प्रवण बुद्धि एवं सूक्ष्म अन्वेषी मन ने प्रथम ही यह सुदृढ़ धारणा उनके प्रति बना रखी थी कि ‘ये उग्रनाम साहब जैसे कबीरपन्थी को परखने में अयोग्य सिद्ध हुए और इनके वर्तमान मत में गुरु का कोई महत्त्व नहीं है। भला ऐसे व्यक्ति के द्वारा स्वीकार किए गए मत में शुद्ध-सही ज्ञान की बातें कैसे हो सकती हैं ?’
किसको पता है कि इसी मित्र द्वय की चेतन आत्मा ही आपके स्वप्न के दोनों शान्ति-प्रदान करनेवाले साधु थे?
श्री रामदासजी ने विविध तर्कों, विधियों, विचारों एवं भावों के द्वारा सन्तमत की सुनिर्दिष्ट ज्ञान-पद्धति आपको अंगीकार कराने का प्रयत्न किया, पर आप उसे शंकाकुल मन से खण्डित करने में ही लगे रहे। जरा भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए।
श्री रामदासजी ने कहा- ‘आप कितना भी मानस जप और मानस ध्यान कीजिए, पर सारशब्द की प्राप्ति इससे नहीं हो सकती और बिना सारशब्द के परमात्मा की उपलब्धि सर्वथा असम्भव है।’
तर्क-वितर्क वाद-विवाद में बदल गया। वाद-विवाद गरमागरम बहस में, गरमागरम बहस आवेशित वाणी में और आवेशित वाणी क्रोध की अग्नि में परिणत हो गई।
रामदास ने कहा- ‘आपके गुरु सारशब्द से अनभिज्ञ हैं।’
आपने कहा- ‘खबरदार ! फिर जो कभी गुरु-निन्दा की!’ दोनों प्रतिकूल दिशा में चल पड़े। आपने सारी बातें अपने गुरुदेव से निवेदित कर दी। गुरुजी ने कहा- ‘मैं तो तुमसे पहले ही कहते आया हूँ कि किसी के पास मत बैठा करो।’ इस घटना के बाद रामदासजी से वार्तालाप होना बन्द हो गया और उन्होंने भी आपकी कुटी होकर आने-जानेवाले पथ से आवागमन परिवर्जित कर दिया। पर श्री रामदासजी ‘गुरु ग्रन्थ साहब’ का पाठ बड़े ही ऊर्ध्वसित एवं लय-माधुर्य-स्वर में किया करते थे। इनका पाठ बाबा देवी साहब को बड़ा पसन्द था। उन्होंने मुरादाबाद में इनको आदेश किया था- ‘जब मैं सन्तमत-सत्संग के प्रचारार्थ पंजाबादि प्रान्त भ्रमण करने निकलूंगा, तब तुम्हें बुलाऊँगा। तुम खबर मिलते ही यहाँ आ जाना ।’ इस आज्ञा को इन्होंने शिरोधार्य कर लिया था। समय पर बाबा साहब ने आपको पत्र लिखा और आप निर्देशानुसार भ्रमण में गुरुदेव की सेवा में संलग्न रहने लगे।
विरोध के बावजूद उनके चले जाने से आपको अभाव की अनुभूति हुई, जिससे आपके मन में कुछ उदासी-सी आ गई। आपके बाहरी मन ने अवश्य ही उनके विचारों को अमान्य कर दिया था, पर उनकी वाणी ने आपके आन्तर मन में सन्तमत के प्रति रुचि का बीज बो दिया, जो समय पाकर मिट्टी में ढंके बीज की भाँति अंकुरित होने लगा था।
14सन्तमत का अज्ञात आकर्षण
श्री रामदासजी के चले जाने से जोतरामराय निवासी श्री मोहनलाल चौधरीजी के दादा बाबू मंचन चौधरीजी ने श्री धीरजलाल गुप्तजी को
अपने गोले (अनाज और किराने की दूकान) का कार्य-भार संभालने एवं चलाने के लिए बुला लिया। इस समय तक बाबू शीतल प्रसाद चौधरी, बाबू यदुनाथ चौधरी तथा उनके परिवार के अन्यान्य महानुभावों ने सन्तमत ग्रहण कर लिया था और नियमित रूप से शीतल बाबू के गोले के अहाते के एक घर में सत्संग भी किया करते थे। श्री धीरजलालजी गोले का काम करते तथा सत्संग भी करवाते थे।
श्री रामदासजी के डाले गए बीज अन्तर से बाहर आने के लिए कसमसा रहे थे और एक दिन अवसर पाकर आप उनके मित्र श्री धीरजलालजी से आकर पूछने लगे- ‘आपलोग जिस सन्तमत की उद्घोषणा करते हैं, वह सन्तमत क्या है?’
श्री धीरजलालजी को रामदास से हुए वार्तालाप के संबंध में पूरा पता था ही, अत: प्रेम के साथ आपको उन्होंने बैठाया और सौम्य वाणी में समझाने का प्रयत्न करने लगे--
“संसार में जहाँ-कहीं भी जो सन्त हुए हैं, उनका जो मत है, वही सन्तमत है।” यह उत्तर आपको इतना पसन्द आया कि आपका हृदय आशापूर्ण उत्साह से भर उठा, जैसे चिरकाल के अन्वेषण की वस्तु ही मिल रही हो। आपने पूछा- ‘तब तो सन्तमत में सन्त दरिया साहब का भी मत समाविष्ट होगा?’
उन्होंने कहा- ‘अवश्य ।’
आप दरिया साहब के ग्रन्थों का अध्ययन करते समय जब-जब अन्तर्नाद के संबंध में पढ़ते, उसे जानने की उत्कण्ठा तब-तब आपको व्याकुल कर देती। आपको इसी जानने की व्याकुलता ने ही इतने स्थानों का भ्रमण कराया तथा अनेक साधुओं की सेवा और संगति करने का अवसर जीवन में ला उपस्थित किया। इसी की जानकारी के लिए आप गुरुदेव से पूछ-पूछकर उनका बिगड़ना-रंज हो जाना भी सहन करते रहे। आज उसे जानने की संभावना उपस्थित पाकर आप अगाध प्रसन्नता से भर रहे थे। आपने पूछा- ‘तो क्या आप दरिया साहब के ग्रंथों का भी अर्थ समझा सकते हैं ?
उन्होंने कहा– ‘अवश्य ।’ आपने उस समय सन्तमत में ‘घटरामायण’ की सुप्रसिद्धि सुन रखी थी, अत: आपने उनसे ‘घट-रामायण’ पढ़ने के लिए मांगा।
परन्तु उन्होंने कहा- “अभी ‘घटरामायण’, नहीं, आप पूज्य बाबा साहब का टीका किया हुआ ‘बाल का आदि और उत्तर का अन्त’ मानस रामायण ले जाइये। उसी को शान्त चित्त से अध्ययन-मनन कीजिए।”
आपने बड़ी उत्सुकता से उस ग्रन्थ को -लाकर मनोयोग-सहित अध्ययन किया, पर बारम्बार पढ़कर भी उसे नहीं समझ सके। फिर समझने में अपने को असमर्थ जानकर - आपने वह ग्रंथ कुछ दिन के बाद वापस कर दिया और धीरजलालजी से बोले- ‘यह पुस्तक तो मेरी समझ में कुछ भी नहीं आई, वरंच मेरा संशय और भी बढ़ ही गया। आप कब मुझे समय देंगे।
उन्होंने कहा- ‘आप सत्संग में आइए।’
आपने कहा- ‘सत्संग में आने का समय मुझे नहीं मिल सकेगा। मेरा बारह बजे रात तक का समय तो गुरु की परिचर्या में ही बीत जाता है। आप उसके बाद का समय दें।’ वे बोले- ‘आपकी जब इच्छा हो, चले आवें।’
उसी दिन से कुटी और गुरु-परिचर्या का सब काम समाप्त कर बारह बजे निशीथ में आप धीरजलालजी के निवास पर चले आते और दो-ढाई-तीन बजे तक ग्रन्थों का अर्थ, सन्तमत-साधना की विधि, उसके संयमन, सभी सन्तों द्वारा प्रगट किए गए विचारों की एकता सामंजस्य, आत्मकल्याण और संसार के मंगल के संबंध में उसका दृष्टिकोण आदि एक-एक बात आप उनसे पूछते और वे अपनी प्राप्त चेतना के प्रकाश में उसका उत्तर देते। आपके शंकाशील मन और पुराने विचारों के संचित प्रभाव को उचित दिशा में ले जाने का शांत प्रेरण करते ।
एकान्त और गंभीर भाव से सत्संग कर जब आप वापस अपनी कुटी जाते, तो वहाँ अपने गुरुदेव को जगे हुए या टहलते हुए पाते। आपकी सेवा और सदाचार से गुरुदेव इतने मुग्ध और प्रसन्न थे कि आपको इस विषय में कभी भी कुछ नहीं कहा ।
आप प्रतिदिन उस गंभीर निस्तब्ध निशा में जब श्री धीरजलालजी के यहाँ पधारते, तो उन्हें बराबर जगा हुआ-पढ़ने-लिखने में तल्लीन पाते या कभी-कभी लेटे भी रहते तो जगे हुए ही रहते। सम्भवतः वे चुपचाप आपकी प्रतीक्षा करते रहते थे और जैसे ही आप पहुँचते, तुरत उठकर बैठ जाते और आपसेवार्तालाप करने में निमग्न हो जाते।
तीन बजे आपके चले जाने के उपरान्त ये अपनी ध्यानोपासना के नियमित क्रम को पूरा करने में लग जाते और दिन भर गोले तथा सत्संग को सुनियमित ढंग से चलाते रहने के कार्यों में संलग्न रहते । आप भी तीन बजे यहाँ से जाकर अपने नित्य कर्म एवं ध्यान-भजन को पूरा कर कुटी की व्यवस्था तथा गुरुदेव की परिचर्या करने में लग जाते। इस भाँति मई, १९०९ ईस्वी से जुलाई, १९०९ ईस्वी तक लगातार तीन महीने आप दोनों कभी नहीं सोये। इस भाँति सत्संग करते हुए आपका मन क्रमशः सन्तमत की ओर आकर्षित होता चला गया और अन्ततः आप श्री धीरजलालजी से भजन-भेद देने का आग्रह करने लगे। नींद सभी के निज विश्राम के लिए प्यारी दशा है। माता के तरल वात्सल्य और तरुण मोहासक्ति के तीक्ष्ण आवेग में क्या इसे वर्जित करने की सामर्थ्य है ?
इसका ख्याल करते हुए जब सोचते हैं, तो लगता है- भावी ऋषियों, सन्तों या भक्तों के विशाल और महान् हृदय में जिस प्रेम का अवस्थान होता है, वह अवश्य ही अपने प्रच्छन्न अस्तित्व में असीम, सर्वसमर्थ, व्यापक और प्रतिक्षण सर्वस्व उत्सर्ग करने की भावनावाला होता है। क्या किसी सांसारिक प्रेम में ऐसी प्रचण्डता, असीमता एवं सर्वसमर्थता हो सकती है ? भगवान बुद्ध उनचास दिनों तक उसी प्रेम के कारण बिना खाए और बिना सोए उपासना करते रहे और आप नब्बे दिनों तक अपने सर्वोच्च लक्ष्य को पाने के लिए सभी सुख-सुविधा, आराम एवं नींद का विसर्जन कर नीरव निशा में धीरजलालजी के साथ सत्संग करते रहे।
तीन महीने तक आपने इतनी तत्परता से कष्ट सहन-पूर्वक महानुभाव श्री धीरजलालजी के साथ एकान्त सत्संग किया, पर अभी तक आपको अपने इष्ट को उपलब्ध करने के मार्गों का पता नहीं लग सका था। फिर प्रियतम तो अभी दूर है। यह सोचकर आपकी बेकली (व्याकुलता) इतनी बढ़ गई कि आपने नींद को तो छोड़ा ही था, अब भोजन का भी परित्याग करने पर तुल गए, पर बिना आहार दिए शरीर से गुरुदेव की परिचर्या का कार्य कैसे सम्पन्न हो पाता, यही सोचकर नाममात्र का भोजन कर लिया करते थे।
मन-गगन में शैशव काल से आजतक की सारी कार्यावली चलचित्र की भाँति चक्करकाट रही थी- ‘घर-परिवार, पिता, पढ़ना-लिखना, सुख-वैभव आदि सभी से संबंध तोड़कर जिस वस्तु के लिए मारा-मारा फिरा, समाज से उपेक्षित हुआ, जिसके लिए सब कुछ सहा-सब कुछ किया, हाय ! आज भी वह मुझसे कितनी दूर है ? यहाँ तक कि उसे उपलब्ध करने की सदयुक्ति का भी मुझे कोई ज्ञान नहीं।’ यह सोचकर आप विह्वल आग्रहपूर्वक श्री धीरजलालजी से भजन-भेद देने की प्रार्थना करने लगे।
श्री धीरजलालजी ने जब महर्षिजी को सन्तमत की ओर आकर्षित और अनुकूल पाया, तब इन्होंने श्री रामदासजी को पंजाब के पते से पत्र लिख दिया। वे इस समय बाबा साहब के साथ सन्तमत के प्रचार-कार्य में संलग्न थे। बराबर पत्राचार होते रहने के कारण उनका पता ये सदैव अवगत करते रहते थे।
वहाँ से श्री रामदासजी का पत्र आया, जिसमें आपके संबंध में यह वाक्य उन्होंने लिखा था- ‘आप जानते ही हैं कि मुझसे और उनसे सन्तमत समझाने-समझने में विवाद हो गया था। आप उनको भजन-भेद नहीं बतावें। वे अपने वर्तमान गुरु के बड़े कट्टर भक्तों में से हैं । दूसरे की कुछ सुनते ही नहीं हैं ।’
महानुभाव धीरजलालजी ने वह पत्र आपको पढ़ने के लिए दे दिया और आपसे अनुरोध किया कि आप भी एक पत्र उनको सन्तमत के प्रति अपनी आस्था के संबंध में लिख दें, तब उन्हें विश्वास हो जाएगा।
श्री धीरजलालजी के अनुरोध से आपने श्री रामदासजी को पत्र लिखा- ‘मैं आपके सन्तमत से सहमत हूँ। अतः यदि बाबा साहब की आज्ञा हो, तो मैं जाकर उनके चरणकमलों के दर्शन करूँ और उनकी सेवा करता रहूँ।’ महानुभाव श्री धीरजलालजी ने भी आपके संबंध में विस्तृत-पूर्ण विवरण-सहित पत्र लिखा । इन दोनों को पढ़कर श्री रामदासजी को आपके प्रति पूरा विश्वास हो गया और उन्होंने पूज्यपाद बाबा देवी साहब से आपके जीवन की पूरी कहानी सुनाकर निवेदन किया कि यदि सरकार की आज्ञा हो, तो उन्हें श्री चरण-सेवा में बुला लिया जाय। श्री रामदासजी का सारा निवेदन सुनकर बाबा साहब उस समय कुछ भी नहीं बोले, पर दूसरे दिन अपने-आप उनसे कहने लगे– ‘अरे, तुमने किस मेँहीँ लाल का नाम कल ले लिया, जो मेरा मन रह-रहकर उसी के विषय में विचार करने लगता है और मैं उसको प्रत्यक्ष की भाँति देखने लगता हूँ।’
फिर बोले- ‘अच्छा, अभी तो उसे यहाँ मत बुलाओ। धीरज को लिख दो किवह उसको भजनभेद बतला देगा। मैं विजया दशमी में भागलपुर जाऊँगा, वह वहीं आकर मुझसे मिलेगा।
श्री रामदासजी ने सारी बातें स्पष्टतः लिखकर पत्र श्री धीरजलालजी के पास भेज दिया। वह पत्र आपने भी पढ़ा। पढ़कर हृदय आश्वस्त हुआ और सोचा- “अब सदयुक्ति तो मिल ही जाएगी।” पर धीरजलालजी अपने को गृहस्थाश्रमी जानकर एक वैरागी को भजन-भेद देने में सकुचाने लगे।
श्री धीरजलालजी को भजन-भेद देने में संकोच करते देख आपने उनसे कहा- “आपको यह विचार करके संकोच होता है कि मैं गृहस्थाश्रम में रहकर कैसे एक वैरागी-संन्यासी को दीक्षा प्रदान करूँ, परन्तु मुझे तो एक कुत्ता - भी सही रास्ता बता दे, तो मैं उसे भी गुरु मानने के लिए तैयार हूँ और आपने तो मेरा असीम उपकार किया है; अपना बहुत समय दिया है, कष्ट उठाया है और मुझे सन्तमत समझा दिया है। आपको तो मैं गुरु ही मानता हूँ।”
परन्तु महानुभाव धीरजलालजी संकोच का परित्याग कर आपको भजन-भेद नहीं प्रदान कर सके। सम्भवतः उन्होंने और भी कुछ सोचा हो कि बिना अनुभव किए सदयुक्ति बताने की पद्धति उपयुक्त नहीं। चाहे जो भी कारण रहा हो, पर उन्होंने आपको भजन-भेद नहीं देकर कहा- ‘आप भागलपुर जाइए। मैं वहाँ के श्री राजेन्द्रनाथ सिंहजी, वकील के नाम एक पत्र लिखकर आपको दे दूँगा और पत्र पढ़कर वे आपको भजन-भेद बता देंगे।’
आप इसको भगवदिच्छा समझकर तैयार हो गए। मन में परिस्थिति-संबंधी आलोचना चलने लगी- ‘आखिर धीरजलाल जी मेरे सदयुक्ति - बतानेवाले गुरु क्यों नहीं बन सके? उन्हें भजन-भेद बताने का आदेश भी प्राप्त था, उन्हीं के निरन्तर समझाने-बुझाने से मैं सन्तमत को ग्रहण करने के लिए तैयार भी हो सका, फिर ऐसी स्थिति क्यों उत्पन्न हुई? गुरु के बताए निर्देश को नि:शंक हृदय से स्वीकार कर लेना चाहिए, पर मैं महानुभाव श्री धीरजलालजी द्वारा बताये गए कतिपय पद्यों के अर्थ और भाष्यों से पूर्ण रूपेण सन्तुष्ट और निःशंक नहीं हो सका था और वह बात अभी भी मेरे अन्तर में स्थित है। इसीलिए यह दूसरी सम्भावना निर्मित हो गई है। सम्भव है, उन (श्री राजेन्द्र बाबू ) से ग्रन्थों का अर्थ ठीक-ठीक समझकर मेरी शंका पूर्ण रूपेण नष्ट हो जाय।’ यह सोचकर आप भागलपुर जाने के लिए प्रस्तुत हो गए। इस बार गुरुजी से बिना आदेश लिए यह शुभ यात्रा करना आपने अच्छा नहीं समझा। गुरु-भाई और आपमें परस्पर बड़ा स्नेहिल सौहार्द था। आपने भागलपुर यात्रा-संबंधी सम्पूर्ण विवरण उन्हें सुना दिया। एक दिन आप ब्राह्म वेला में सब नित्य कर्मों से निवृत्त हो भागलपुर जाने के लिए सब सामान दुरुस्त कर तैयार हो गए।
अरुणोदय हो रहा था। आप गुरुजी के पास गए और चरण-वन्दना कर निवेदन किया ‘शुभादेश मिले, तो मैं जिज्ञासा के लिए भागलपुर जाऊँ ?’
गुरुदेव मुँह ढाँककर लेटे हुए थे। यह विनय सुनते ही कहने लगे- ‘क्यों व्यर्थ इधर-उधर भटकेगा ? सबके साथ मन नहीं लगे, तो मेरे बगीचे के एकान्त स्थल में निवास करो। वहीं तुम्हारे रहने की सारी सुव्यवस्था कर देता हूँ। इतना कहते-कहते ममता या वात्सल्य से उनकी आँखों से अविरल आँसू की धारा बहने लगी। उसे देख आपकी आँखों से भी प्रेम-भक्ति की धारा बह चली और इस बार की यात्रा स्थगित रह गई। आपको विश्वास हो गया कि गुरुदेव का आदेश प्राप्त कर भागलपुर जाने की संभावना नहीं है। सर्वोच्च मंगलमयता का विश्वस्त पथ प्राप्त करने की व्यग्रता एक क्षण के लिए भी चैन नहीं लेने दे रही थी। आपने अपनी अन्तर्व्यथा गुरु-पुत्र श्री सन्त प्रसादजी से कह सुनाई। अति भ्रातृ-स्नेहवश ये आपके लिए सबकुछ सहने को तैयार रहते थे।
आज अज्ञात मंगल मुहूर्त है। चिरआबद्ध सरिता (दरिया) आज मुक्त होकर सागर से मिलने के लिए चल पड़ेगी और समय की अवधि पूरी कर वह समुद्र से मिलकर एक हो जाएगी। फिर दरिया के कगारों की सीमा में उसका अटाव असम्भव हो जाएगा। कगार टूटने के भय से कोई स्रोतस्विनी भी इसे ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत नहीं होगी। समुद्र अब सदा के लिए समुद्र ही रह जाएगा, कभी नदी का रूप नहीं ग्रहण कर सकेगा।
आज जोतरामराय से तीन कोस दूर कान्तनगर में एक आवश्यक कार्य सम्पन्न करने के लिए श्री गुरुदेवजी आपको भेज रहे हैं। आपने अपने गुरुभाई सन्तप्रसादजी से स्पष्ट कह दिया है कि यह यात्रा भागलपुर की ही शुभ यात्रा है। स्नेहिल गुरुभाई ने आपकी मंगलमयी यात्रा को सुविधापूर्ण बनाने के लिएमार्ग-व्यय के साथ अपनी सद्भावना भी प्रदान कर दी है। कान्तनगर में गुरुदेव का काम भली भाँति पूरा करके आप वहाँ से चलकर काढ़ागोला रोड स्टेशन चले आए। टिकट कटाकर आप भागलपुर पधारे।
15सन्तमत के महाद्वार में प्रवेश
भागलपुर स्टेशन से आप सीधे मायागंज श्री राजेन्द्र बाबू के निवास स्थान पर आ गए। उनके पूज्य वृद्ध पिताजी भीतर के कमरे में बैठे हुए थे। वे स्वयं भी वकील थे। आपने उन्हीं से पूछा- ‘राजेन्द्र बाबू का यही मकान है?’ वे बोले- ‘हाँ, क्या काम है?’ आपने उत्तर दिया- ‘मैं उनसे मिलना चाहता हूँ।’ यह सुनकर उन्होंने राजेन्द्र बाबू को पुकारा । पुकार सुनते ही वे बाहर आए और आपने आते ही चरण छूकर प्रणाम किया। प्रणाम करते समय वे यह कहकर रोकने लगे-- ‘साधु होकर आप क्यों मेरा पैर छू रहे हैं?’
उस समय आप साधु-वेश में एक उजला लम्बा कुरता धारण किए हुए थे, जो गले से घुटने तक लटक रहा था।
राजेन्द्र बाबू आपको अपने घर के निकटवर्ती नवनिर्मित सत्संग-मंदिर में ले गए, जिसके पूर्ण निर्माण में जहाँ-तहाँ कार्य करना बाकी था। उनकी आँखें उठ आयी थीं, अत: रंगीन चश्मा धारण किए हुए थे। वहीं आपने श्री धीरजलालजी द्वारा लिखित पत्र उन्हें दिया । पढ़कर उन्होंने वहीं आपके निवास की व्यवस्था कर दी।
तीन दिवस तक अपनी सूक्ष्म एवं तर्कप्रवण बुद्धि, शंकाशील-मन एवं जिज्ञासु हृदय को पूरा सावधान कर आपने राजेन्द्र बाबू के साथ सत्संग किया। श्री धीरजलालजी के जिन-जिन पदों और उनके अर्थों एवं रहस्यों का संतोंषकारी समाधान और उद्घाटन नहीं हुआ था, उन सभी को एक-एक करके आपने उनके सामने रखा और उनके द्वारा सही और जँचनेवाला उत्तर प्राप्त कर परितृप्त हो गए। वे बड़े शान्ति, प्रेम और अनुक्रमिक ढंग से आपको समझाते थे। शौचादि नित्य कर्म, भोजन एवं शयन के अतिरिक्त रात-दिन दोनों साथ ही रहकर सत्संग करते रहे। सन्त-वाणी की सुन्दर व्याख्या के साथ विशेष में आपको बाबा देवी साहब की विशेषता, उनके गुण, प्रभाव और अद्भुत योग्यता की बातें सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मन-ही-मन आपने संतमत और बाबा साहब पर अपने-आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया।
तीसरे दिन सान्ध्यकालीन उपासना-वेला में आपको श्री राजेन्द्र बाबू ने दृष्टियोग की भजन-भेद-विधि बतला दी। भजन-भेद लेने के उपरान्त आपने उनका चरण स्पर्श करके प्रणाम किया, परन्तु उन्होंने आपका हाथ पकड़ लिया और बोले- ‘आप साधु होकर मुझे क्यों प्रणाम करते हैं ? आपका गुरु मैं नहीं, बल्कि बाबा देवी साहब हैं।’
आपने उत्तर दिया- ‘अभीतक तो मैंने बाबा साहब के दर्शन भी नहीं कर पाए हैं, और भजन करने की युक्ति तो मुझे आपसे मिली है, इसीलिए अभी मैं आपको ही गुरु मानता हूँ।आपके आदेश के अनुसार अवश्य ही वे मेरे गुरु हैं तथा अन्य सब लोगों के भी। फिर आपने पूछा- ‘दरियापंथी गुरुदेव से मुझे मानस जप और मानस ध्यान करने का निर्देश मिला था, क्या वह भी करता रहूँ ?’
श्री राजेन्द्र बाबू ने कहा- ‘हाँ, वह भी किया कीजिए। इसमें कोई प्रतिकूलता और हर्ज नहीं है।’ इसके उपरान्त आप मिरजानहाट पनहट्टा के एक वृद्ध दरियापंथी साधु के पास चले गए और वहाँ एक महीने तक विधिवत ध्यानाभ्यास करते हुए सन्त दरिया साहब के ग्रन्थों की प्रतिलिपि तैयार करते रहे। सन्त दरिया साहब के कई ग्रन्थ आपके पुराने गुरुदेव के पास नहीं थे। इसीलिए उन पुस्तकों की प्रतिलिपि करना आपको आवश्यक जान पड़ा। वृद्ध साधुजी बड़े दयालु थे। आपके साथ उनका व्यवहार बड़ा ही भद्रतापूर्ण रहा। वहाँ बढ़ईकुल के एक भक्त थे, जो बड़े ही सज्जन और उदार थे। उक्त सत्संग-मंदिर का सारा खर्च वे ही वहन करते थे और सदा साधु-सन्तों की सेवा में तत्पर रहते थे। एक महीने के बाद जब आप वहाँ से चलने लगे, तो वे आपको और भी कुछ दिन ठहराने का प्रयत्न करने लगे और बोले- ‘इतनी जल्दबाजी क्यों कर रहे हैं ? कुछ दिन और भी ठहर जाने की कृपा कीजिए।’
आपने बड़े प्रेम से उनको समझाया और वहाँ से मायागंज के लिए प्रस्थान किया। एक साधु आपको मायागंज तक पहुँचाने के लिए आए थे। यहाँ आपने एक दिन निवास कर सत्संग किया और दूसरे दिन आप नए पूज्य गुरुदेव को प्रणाम कर जोतरामराय चले आए।
16पुराने गुरु के भाव बदल गए
यहाँ आकर आप धीरजलाल गुप्त प्रभृति संतमत-सत्संगियों से मिलकर पुराने गुरुजी के पास जाकर रहने लगे। छ

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