11/12/2022
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12बल्ली बाबा के दर्शन
धर्मनगर से आप गुरुजी के पास लौट आए। रामदासजी से मिलने पर आपने अपनी सारी कहानी उन्हें सुनायी और बोले-- ‘आपलोग तो उग्रनाम साहबजी की बड़ी तारीफ करते थे, किन्तु मुझे तो उनमें कोई विशेषता नहीं नजर आयी।’
यह सुनकर वे बिगड़ गए और बोले –
“जाकी रही भावना जैसी ।
प्रभु मूरति देखी तिन तैसी ।।”
कुछ दिनों के बाद आपने दोनों मित्रों के संबंध में सुना कि अब वे ऐसे मत में चले गए हैं, जो गुरु को नहीं मानता। आपके मन में उन दोनों के प्रति और भी अविश्वास बढ़ गया कि गुरु को नहीं मानते हैं, तो कैसे काम चलेगा?
एक बार आपने एक कबीरपंथी साधु बल्ली बाबा की प्रसिद्धि सुनी। वे विचित्र ढंग के महात्मा थे। उनकी सिद्धि के अनेक चमत्कार लोगों ने देखे थे। पूर्णियाँ जिले के बरबन्ना गाँव में उनकी कुटी थी। कुछ दिन - उन्होंने वासुदेवपुर (बड़हरा) की कुटी में भी निवास किया था। यह कुटी श्री वंशी साहुजी ने बना दी थी और उनकी सेवा की सारी व्यवस्था भी साहुजी के द्वारा ही होती थी।
जहाँ कहीं भी आप सन्त या विशेष महात्मा होने की बात सुनते, आपकी ब्रह्म-जिज्ञासा खींचकर आपको वहाँ ले जाती। आपने कार्तिक मास में उनके दर्शन के लिए प्रस्थान किया। आकर धमदाहा थाने के दारोगाजी के यहाँ ठहरे। ये दारोगाजी पहले बरारी थाने में थे और जोतरामराय जाने-आने में आपसे घनिष्ठ परिचय हो गया था। नाम था कान्ह बिहारी प्रसाद ।
आप दारोगाजी के साथ ही बल्ली बाबा के दर्शन करने धमदाहा से बड़हरा आए और एक मारवाड़ी के यहाँ ठहर गए। प्रात:काल उनकी कुटी पर आप पधारे। आपने उन्हें विचित्र स्वभाववाला साधु पाया। आपने देखा कि बहुत-से लोग बाहर बैठे हुए हैं और बाबाजी कुटी के अन्दर से ही बातचीत कर रहे हैं। आपने भी बाहर बरामदे से ही बाबाजी को प्रणाम किया। बाबाजी बोले- ‘के छिको हो, गोसाँय छिको हो ।’
आपने कहा- ‘जी, हाँ ।’ फिर बाबाजी ने आपकी जाति पूछी। आपने अपना कुल बता दिया। इसके उपरान्त फिर कुछ नहीं पूछा। आप एकान्त-वार्तालाप करने की इच्छा से वापस लौट आए और लोगों से पूछने पर पता लगा कि दस बजे रात में वहाँ कोई नहीं रहता।
दस बजे रात को आप अपना आसन लेकर बाबाजी की कुटी पर पहुँच गए। आपके पहुँचने के पूर्व ही बाबाजी ने कुटी का दरवाजा बन्द कर लिया था और खिड़की पर भी परदा डाल दिया था। आपके पहुँचते ही कुत्ता जोर-जोर से भूँकने लगा, किन्तु निकट आते ही वह अनायास ही शान्त हो गया। आप कुटी के बरामदे पर अपना आसन बिछा कर बैठ गए और साधुजी को बाहर से ही प्रणाम किया। आपकी बोली उन्होंने पहचान ली और पूछा- ‘के छिको हो, गोसाँय छिको।’
आपने उत्तर दिया- ‘जी, हाँ।’
वे बोले- ‘यहाँ रात में कि कोय रहै छै। यहाँ हमरा पास की भोजन करभे! चल जा, बोध बाबू के बेटा भेल छैक, वोतै नाच-गान भै रहल छै। यहाँ से चल जा, नाच देखऽगऽ। आपने कहा- ‘महाराज! मैं यहीं रहूँगा।’ । कुछ देर बाद फिर वे बोले- ‘गेलो हो?’
आपने कहा- ‘जी, नहीं ।’ वे बोले- ‘हमरा ओते कि कुछ छैक, भोजन की करभे, चल जा, वोतै जाके रह ।’
आपने कहा- ‘नहीं महाराज! मैं यहीं रहूँगा। मैं भोजन करके आया हूँ।’ वे बोले- ‘गेलो हो?’
आपने कहा- ‘जी, नहीं।’ वे फिर बोले- ‘हो गोसाँय रहतिहत बात नै मानतिह, तू केहन गोसाँय छ ? यहाँ कि हमरा पास बिछौना छै, बिछैभे की ?’ .... आप बोले- ‘महाराज! मेरे पास आसन है। मैं आपके दर्शन चाहता हूँ।’ कुछ देर के बाद फिर वे बोले- ‘गेलो हो?’
आपने कहा- ‘जी नहीं।’
उन्होंने कहा- ‘हो, तू कैसन गोसाँय छ - हो ? गोसाँय के बात मानना चाही, अच्छा त जा, दूसर घर में जाकेऽ आराम करऽ ।’
आप बोले- ‘नहीं महाराज! मैं आपसे कुछ उपदेश लेने आया हूँ।’
इसपर उन्होंने खिड़की से हाथ निकाल कर आपको एक मुट्ठी जलेबी दी और कहा ‘जा, खाय के पानी पी ल, फिर दूसर घर में जाके आराम करऽ ।’
आपने जलेबी ले ली। ... उन्होंने फिर पूछा- ‘गेलो हो ?’
आप बोले- ‘जी नहीं, मैं यहीं रहूँगा। भक्ति के विषय में आप कुछ बताने की कृपा करें।
इसपर वे गाली बकने लगे और जोर-जोर से चिल्लाने लगे- ‘दौड़ऽ हो, हायरौ बाप! मारलक रौ, लूटलक रौ, दाँत तोडलक रौ ।’ ऐसे ही कितने शब्द बोलकर हल्ला करने लगे। इसके बाद आपको बेछूट (सतत) गाली देने लगे।किन्तु आप शान्त भाव से गाली सुनते हुए बरामदे पर डटे रहे। इस भाँति सबेरा हुआ और वंशी साहु की बहन आई। उसने बाबाजी से कहा- ‘दरवाजा खोल देल जाय सरकार !’
उन्होंने कहा- ‘जा, एखन चल जा ।’ इसपर वह बोली- ‘गन्दगी में कोना रहब सरकार ! साफ करके हम चल जायब।’ वे बोले- ‘गोसाँय बैसल छै, गन्ध लगतै-गन्ध ।’
आपने कहा- ‘नहीं महाराज ! गन्ध नहीं लगेगी।’
इसपर उन्होंने दरवाजा खोल दिया। बाबा जी रोटी पकाने के तवे में राख डालकर उसी में पाखाना फिरते थे और पेशाब के लिए एक दूसरा बर्तन था। उसने घर से दोनों बर्तन - निकालकर बाहर फेंक दिए और बाबाजी से कहने लगी- ‘सरकार! कई-एक दिन से घर साफ नै कैल गेल छैक, कमरा में झाडू दे दियै?’ बाबाजी बोले- ‘बाप रौ बाप, कतेक चीज घर में छैक, झाडू कोना लगैभैं ? जा चैल जा, चीज सब फोड़-फाड़ देभै ।’ यह सुनकर वह चली गयी। कुछ देर के बाद एक आदमी दूध लेकर आया और बोला- ‘बाबा ! दूध लै लेल जाय ।’ उन्होंने कहा- ‘दूध केकरा ले आनने छ ?’ उसने कहा- ‘बिल्ली के लिए।’
इसपर वे बोले- ‘बिल्ली दूध नै पिवैत छेक, चल जा ।’
फिर भीतर से ही कहा- ‘बाहर में गोसाँय के दे देहो ।”
फिर आपसे उन्होंने कहा- ‘ले गोसाँय दूध ल के पी ल ।’
आपने दूध ले लिया। पास में चीनी थी ही। दूध में पानी और चीनी मिलाकर पी लिया और रात में बाबा द्वारा बताये गए दूसरे मकान में अपना आसन लेकर चले आए। सूर्योदय के कुछ देर उपरान्त एक आदमी भंडार (रसोई) बनाने आया । बाबाजी ने उससे कहा- “जा गोसाँय के पूछऽ हमर भंडार बनायल ऊ ग्रहण करता ?’
उस आदमी ने आकर उनके कथनानुसार आपसे पूछा। आपने कहा- ‘बाबाजी वृद्ध हैं। उनसे कहिए, मैं ही भंडार बना दूँगा और दोनों आदमी भोजन कर लेंगे।’
यह कथन सुनकर बाबाजी ने कहा- ‘नै, हम अपनें भेजन बना लेब ।’
उन्होंने स्वयं रसोई बनाकर आपके लिए उसी मकान में भिजवा दिया।
फिर आपसे कहा-‘तू दासिन कर ले, दोनों भाय के सेवा करऽत ।’
सबेरे जो-जो आदमी उनके पास आए, सभी से उन्होंने कहा- ‘हो, ऐ गोसाँय के ले जा। रात में ई हमरा के मारलक ए, दाँत तोडलक ए।’ फिर आप तिवारीजी के दरवाजे पर जाकर रहे। दूसरे दिन प्रातः ही पुनः आप बाबाजी के पास आए। बाबाजी ने आपको देखते ही कहा–’छी ! छी! ! देह में की लगा के ऐल छऽक । जा, नहा लऽ।’ आपने कहा- ‘मैं स्नान करके आया हूँ।’ उन्होंने कहा- ‘अच्छा, तब बैठऽ।’ पुनः बोले- ‘हाँ, एक बात सुननें छह ।’
जैसे मृगा नाद सुनि धावै। मगन होय व्याधा ढिग आवै।।
चित कछु शंक न मानै सोई। देत शीश सो नहीं डराई।।
औ पतंग को जैसा भाऊ। ऐसा अनुरागी उर आऊ।।
(यह पद ‘अनुराग सागर’ का है)
यह पद कहकर वे बहुत जोर से हँसे और कहने लगे– ‘के कहले रहै, कबीर कहले रहै ।’
दूसरे दिन आप धमदाहा थाने पर लौट आए। वहाँ दारोगा श्री कान्ह बिहारीजी ने आपसे कहा- ‘आप जिज्ञासु हैं । आपको तो अवश्य ही प्राप्त हो जाएगा। प्राप्त होने पर आप हमको भी बता देंगे।’
कुछ दिनों के उपरान्त आप पुनः बल्ली बाबा के दर्शन करने गए, परन्तु वे तिवारीजी की हवेली में निवास कर रहे थे, अतः चुपचाप लौट आए। इसके बाद बल्ली बाबा ने अपने शरीर को त्याग दिया।
13जिज्ञासाकुल हृदय
१९०७ ईस्वी से ही प्रायः ऐसा होता रहा कि जब-जब आपने ग्रन्थों का वह अर्थ, जो आप नहीं समझ पाते थे, गुरुजी से पूछा करते। पहले तो उत्तर देने में असमर्थ होने से गुरुजी किसी भाँति टाल दिया करते, पर बारम्बार ऐसी जिज्ञासा करते रहने के कारण वे खीझकर आप पर बिगड़ने लग गए थे। १९०९ ईस्वी में आपकी जिज्ञासा का वेग पराकाष्ठा को स्पर्श करने लगा। समाधान नहीं होने पर इतनी बेचैनी हो जाती कि भोजन और नींद दोनों से अरुचि हो जाती थी। अतः विवश होकर ग्रन्थों का वह अर्थ, जो समझ में नहीं आता, गुरुजी से पूछ ही बैठते और गुरुजी बिगड़ ही जाते । मीरा की विह्वलता भी एक दिन संगीत की स्वर-लहरी बन गई थी
मीरा मनमानी, सुरत शैल असमानी।।
जब-जब सुधि आवे वा घर की, पल-पल नैन में पानी।
ऐसी पीर विरह तन भीतर, जागत रैन बिहानी।।
दिन नहिं चैन रैन नहिं निंदिया, भावत अन्न न पानी।
ज्यों हिय पीर तीर सम सालत, कसक-कसक कसकानी।।
खोजत फिरौं भेद वा घर की, कोइ न राह बतानी।
रैदास संत मिलै मोहि सतगुरु, दिन्ही सुरत सहदानी।।
मैं मिल जाऊँ पाय पिय अपना, तब मोरि पीर बुझानी।
मीरा खाक खलक शिर डारी, मैं अपने घर जानी।।
१९०९ ईस्वी का अप्रैल मास। आज अपने प्रियतम का मिलन-पथ जानने के लिए हृदय विहल हो रहा है। किसी भाँति कहीं चैन नहीं मिलता। कहाँ, किनके पास जाऊँ ? सारी दुनिया छान डाली, कहाँ-कहाँ न भटकता फिरा, दुख को दुख नहीं समझा, जहाँ भी सन्त मिलन की संभावना जान पड़ी, वहाँ दौड़ा गया, पर क्या यह भारत-भूमि सन्तों से विहीन हो गई? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।
सन्त दरिया साहब की वाणी पढता हूँ। बिना ‘सारशब्द’ के कभी परमात्मा को पाया नहीं जा सकता, पर यह ‘सारशब्द है कहाँ। कैसे इसको पाया जाता है ? कौन विधि, कौन-सा रास्ता है इसे उपलब्ध करने का ? यह बात किनसे पूछूँ ? गुरुदेव से पूछता हूँ, तो वे बताने के बदले बिगड़ने ही लगते हैं , पर आज वे कितने ही क्यों न बिगड़ें, पूछे बिना नहीं रहूँगा।
इस विह्वल संवेग में आकर आपने सन्त दरिया साहब की उक्त वाणी का अर्थ पूछ ही दिया। उत्तर में गुरुजी आज इतने बिगड़े, जितने कभी नहीं बिगड़े थे। पर अब न सोना सुहाता है और न भोजन ही। रात बीती जा रही है, पर आँसुओं की धारा रुकती ही नहीं। बाहर निस्तब्ध है, हृदय सिसक रहा है। अन्तरात्मा हाहाकार कर रही है। ब्रह्म-मुहूर्त्त झाँकने लगा था। सहसा आप की चेतना नींद में प्रवेश कर जाती है। प्रभु की करुणा, आप स्वप्न देख रहे हैं- ‘दो साधु आए हैं । प्रसन्न और शान्त मुद्रा है। उनके हाथ आश्वासन देने के लिए ऊपर उठे हुए हैं। आकुल करनेवाले सारे प्रश्न आप उनके समक्ष रखते जा रहे हैं और उधर से तृप्तिदायी और शान्तिप्रसारक समाधान किया जा रहा है। विरह-ज्वाला से जलते तन-मन-प्राण में जैसे सुधा का संचार हो रहा हो। सहसा वे दोनों अन्तर्धान हो जाते हैं और आप विह्वल होकर कर रुदन करने लगते हैं।’
उसी समय आपके गुरुजी आपको उठा कर दूसरा गाँव अपना कोई खास कार्य करने के लिए भेज देते हैं, और आप अन्तर की व्यथा दबाए चुपचाप आदेश-पालन में तत्पर हो जाते हैं। स्वप्न-द्वारा आन्तर बेचैनी की शान्ति के कारण आपको नींद के झोंके आ रहे हैं । और आप आज्ञा-पालन के लिए ऊँघते हुए भी आगे बढ़ते जा रहे हैं। उस गाँव में पहुँचकर गुरुदेव का कार्य सम्पन्न कर उषा की अरुणिमाके स्निग्ध कोमल प्रकाश में सुषुप्ति या स्वप्न में भँसते हुए-से वापस लौट रहे हैं। विद्यालय के समीप आते-आते सूर्य की तीव्र किरण-धारा पलकों का उष्णिल चुम्बन करती है और आप देखते हैं- विद्यालय के प्रांगण में श्री रामदासजी खड़े हैं।
आपकी जानकारी मेंइतने सबेरे श्री रामदासजी कभी भी विद्यालय नहीं आए। वे आपको देखते ही समीप बुलाकर आदर से बैठा लेते हैं और आपको सुयोग्य पात्र जानकर सन्तमत-सिद्धान्त की बातें आपके आकुल मस्तिष्क एवं अशान्त हृदय में प्रवेश कराने का प्रयत्न करने लगते हैं। आपकी तर्क-प्रवण बुद्धि एवं सूक्ष्म अन्वेषी मन ने प्रथम ही यह सुदृढ़ धारणा उनके प्रति बना रखी थी कि ‘ये उग्रनाम साहब जैसे कबीरपन्थी को परखने में अयोग्य सिद्ध हुए और इनके वर्तमान मत में गुरु का कोई महत्त्व नहीं है। भला ऐसे व्यक्ति के द्वारा स्वीकार किए गए मत में शुद्ध-सही ज्ञान की बातें कैसे हो सकती हैं ?’
किसको पता है कि इसी मित्र द्वय की चेतन आत्मा ही आपके स्वप्न के दोनों शान्ति-प्रदान करनेवाले साधु थे?
श्री रामदासजी ने विविध तर्कों, विधियों, विचारों एवं भावों के द्वारा सन्तमत की सुनिर्दिष्ट ज्ञान-पद्धति आपको अंगीकार कराने का प्रयत्न किया, पर आप उसे शंकाकुल मन से खण्डित करने में ही लगे रहे। जरा भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए।
श्री रामदासजी ने कहा- ‘आप कितना भी मानस जप और मानस ध्यान कीजिए, पर सारशब्द की प्राप्ति इससे नहीं हो सकती और बिना सारशब्द के परमात्मा की उपलब्धि सर्वथा असम्भव है।’
तर्क-वितर्क वाद-विवाद में बदल गया। वाद-विवाद गरमागरम बहस में, गरमागरम बहस आवेशित वाणी में और आवेशित वाणी क्रोध की अग्नि में परिणत हो गई।
रामदास ने कहा- ‘आपके गुरु सारशब्द से अनभिज्ञ हैं।’
आपने कहा- ‘खबरदार ! फिर जो कभी गुरु-निन्दा की!’ दोनों प्रतिकूल दिशा में चल पड़े। आपने सारी बातें अपने गुरुदेव से निवेदित कर दी। गुरुजी ने कहा- ‘मैं तो तुमसे पहले ही कहते आया हूँ कि किसी के पास मत बैठा करो।’ इस घटना के बाद रामदासजी से वार्तालाप होना बन्द हो गया और उन्होंने भी आपकी कुटी होकर आने-जानेवाले पथ से आवागमन परिवर्जित कर दिया। पर श्री रामदासजी ‘गुरु ग्रन्थ साहब’ का पाठ बड़े ही ऊर्ध्वसित एवं लय-माधुर्य-स्वर में किया करते थे। इनका पाठ बाबा देवी साहब को बड़ा पसन्द था। उन्होंने मुरादाबाद में इनको आदेश किया था- ‘जब मैं सन्तमत-सत्संग के प्रचारार्थ पंजाबादि प्रान्त भ्रमण करने निकलूंगा, तब तुम्हें बुलाऊँगा। तुम खबर मिलते ही यहाँ आ जाना ।’ इस आज्ञा को इन्होंने शिरोधार्य कर लिया था। समय पर बाबा साहब ने आपको पत्र लिखा और आप निर्देशानुसार भ्रमण में गुरुदेव की सेवा में संलग्न रहने लगे।
विरोध के बावजूद उनके चले जाने से आपको अभाव की अनुभूति हुई, जिससे आपके मन में कुछ उदासी-सी आ गई। आपके बाहरी मन ने अवश्य ही उनके विचारों को अमान्य कर दिया था, पर उनकी वाणी ने आपके आन्तर मन में सन्तमत के प्रति रुचि का बीज बो दिया, जो समय पाकर मिट्टी में ढंके बीज की भाँति अंकुरित होने लगा था।
14सन्तमत का अज्ञात आकर्षण
श्री रामदासजी के चले जाने से जोतरामराय निवासी श्री मोहनलाल चौधरीजी के दादा बाबू मंचन चौधरीजी ने श्री धीरजलाल गुप्तजी को
अपने गोले (अनाज और किराने की दूकान) का कार्य-भार संभालने एवं चलाने के लिए बुला लिया। इस समय तक बाबू शीतल प्रसाद चौधरी, बाबू यदुनाथ चौधरी तथा उनके परिवार के अन्यान्य महानुभावों ने सन्तमत ग्रहण कर लिया था और नियमित रूप से शीतल बाबू के गोले के अहाते के एक घर में सत्संग भी किया करते थे। श्री धीरजलालजी गोले का काम करते तथा सत्संग भी करवाते थे।
श्री रामदासजी के डाले गए बीज अन्तर से बाहर आने के लिए कसमसा रहे थे और एक दिन अवसर पाकर आप उनके मित्र श्री धीरजलालजी से आकर पूछने लगे- ‘आपलोग जिस सन्तमत की उद्घोषणा करते हैं, वह सन्तमत क्या है?’
श्री धीरजलालजी को रामदास से हुए वार्तालाप के संबंध में पूरा पता था ही, अत: प्रेम के साथ आपको उन्होंने बैठाया और सौम्य वाणी में समझाने का प्रयत्न करने लगे--
“संसार में जहाँ-कहीं भी जो सन्त हुए हैं, उनका जो मत है, वही सन्तमत है।” यह उत्तर आपको इतना पसन्द आया कि आपका हृदय आशापूर्ण उत्साह से भर उठा, जैसे चिरकाल के अन्वेषण की वस्तु ही मिल रही हो। आपने पूछा- ‘तब तो सन्तमत में सन्त दरिया साहब का भी मत समाविष्ट होगा?’
उन्होंने कहा- ‘अवश्य ।’
आप दरिया साहब के ग्रन्थों का अध्ययन करते समय जब-जब अन्तर्नाद के संबंध में पढ़ते, उसे जानने की उत्कण्ठा तब-तब आपको व्याकुल कर देती। आपको इसी जानने की व्याकुलता ने ही इतने स्थानों का भ्रमण कराया तथा अनेक साधुओं की सेवा और संगति करने का अवसर जीवन में ला उपस्थित किया। इसी की जानकारी के लिए आप गुरुदेव से पूछ-पूछकर उनका बिगड़ना-रंज हो जाना भी सहन करते रहे। आज उसे जानने की संभावना उपस्थित पाकर आप अगाध प्रसन्नता से भर रहे थे। आपने पूछा- ‘तो क्या आप दरिया साहब के ग्रंथों का भी अर्थ समझा सकते हैं ?
उन्होंने कहा– ‘अवश्य ।’ आपने उस समय सन्तमत में ‘घटरामायण’ की सुप्रसिद्धि सुन रखी थी, अत: आपने उनसे ‘घट-रामायण’ पढ़ने के लिए मांगा।
परन्तु उन्होंने कहा- “अभी ‘घटरामायण’, नहीं, आप पूज्य बाबा साहब का टीका किया हुआ ‘बाल का आदि और उत्तर का अन्त’ मानस रामायण ले जाइये। उसी को शान्त चित्त से अध्ययन-मनन कीजिए।”
आपने बड़ी उत्सुकता से उस ग्रन्थ को -लाकर मनोयोग-सहित अध्ययन किया, पर बारम्बार पढ़कर भी उसे नहीं समझ सके। फिर समझने में अपने को असमर्थ जानकर - आपने वह ग्रंथ कुछ दिन के बाद वापस कर दिया और धीरजलालजी से बोले- ‘यह पुस्तक तो मेरी समझ में कुछ भी नहीं आई, वरंच मेरा संशय और भी बढ़ ही गया। आप कब मुझे समय देंगे।
उन्होंने कहा- ‘आप सत्संग में आइए।’
आपने कहा- ‘सत्संग में आने का समय मुझे नहीं मिल सकेगा। मेरा बारह बजे रात तक का समय तो गुरु की परिचर्या में ही बीत जाता है। आप उसके बाद का समय दें।’ वे बोले- ‘आपकी जब इच्छा हो, चले आवें।’
उसी दिन से कुटी और गुरु-परिचर्या का सब काम समाप्त कर बारह बजे निशीथ में आप धीरजलालजी के निवास पर चले आते और दो-ढाई-तीन बजे तक ग्रन्थों का अर्थ, सन्तमत-साधना की विधि, उसके संयमन, सभी सन्तों द्वारा प्रगट किए गए विचारों की एकता सामंजस्य, आत्मकल्याण और संसार के मंगल के संबंध में उसका दृष्टिकोण आदि एक-एक बात आप उनसे पूछते और वे अपनी प्राप्त चेतना के प्रकाश में उसका उत्तर देते। आपके शंकाशील मन और पुराने विचारों के संचित प्रभाव को उचित दिशा में ले जाने का शांत प्रेरण करते ।
एकान्त और गंभीर भाव से सत्संग कर जब आप वापस अपनी कुटी जाते, तो वहाँ अपने गुरुदेव को जगे हुए या टहलते हुए पाते। आपकी सेवा और सदाचार से गुरुदेव इतने मुग्ध और प्रसन्न थे कि आपको इस विषय में कभी भी कुछ नहीं कहा ।
आप प्रतिदिन उस गंभीर निस्तब्ध निशा में जब श्री धीरजलालजी के यहाँ पधारते, तो उन्हें बराबर जगा हुआ-पढ़ने-लिखने में तल्लीन पाते या कभी-कभी लेटे भी रहते तो जगे हुए ही रहते। सम्भवतः वे चुपचाप आपकी प्रतीक्षा करते रहते थे और जैसे ही आप पहुँचते, तुरत उठकर बैठ जाते और आपसेवार्तालाप करने में निमग्न हो जाते।
तीन बजे आपके चले जाने के उपरान्त ये अपनी ध्यानोपासना के नियमित क्रम को पूरा करने में लग जाते और दिन भर गोले तथा सत्संग को सुनियमित ढंग से चलाते रहने के कार्यों में संलग्न रहते । आप भी तीन बजे यहाँ से जाकर अपने नित्य कर्म एवं ध्यान-भजन को पूरा कर कुटी की व्यवस्था तथा गुरुदेव की परिचर्या करने में लग जाते। इस भाँति मई, १९०९ ईस्वी से जुलाई, १९०९ ईस्वी तक लगातार तीन महीने आप दोनों कभी नहीं सोये। इस भाँति सत्संग करते हुए आपका मन क्रमशः सन्तमत की ओर आकर्षित होता चला गया और अन्ततः आप श्री धीरजलालजी से भजन-भेद देने का आग्रह करने लगे। नींद सभी के निज विश्राम के लिए प्यारी दशा है। माता के तरल वात्सल्य और तरुण मोहासक्ति के तीक्ष्ण आवेग में क्या इसे वर्जित करने की सामर्थ्य है ?
इसका ख्याल करते हुए जब सोचते हैं, तो लगता है- भावी ऋषियों, सन्तों या भक्तों के विशाल और महान् हृदय में जिस प्रेम का अवस्थान होता है, वह अवश्य ही अपने प्रच्छन्न अस्तित्व में असीम, सर्वसमर्थ, व्यापक और प्रतिक्षण सर्वस्व उत्सर्ग करने की भावनावाला होता है। क्या किसी सांसारिक प्रेम में ऐसी प्रचण्डता, असीमता एवं सर्वसमर्थता हो सकती है ? भगवान बुद्ध उनचास दिनों तक उसी प्रेम के कारण बिना खाए और बिना सोए उपासना करते रहे और आप नब्बे दिनों तक अपने सर्वोच्च लक्ष्य को पाने के लिए सभी सुख-सुविधा, आराम एवं नींद का विसर्जन कर नीरव निशा में धीरजलालजी के साथ सत्संग करते रहे।
तीन महीने तक आपने इतनी तत्परता से कष्ट सहन-पूर्वक महानुभाव श्री धीरजलालजी के साथ एकान्त सत्संग किया, पर अभी तक आपको अपने इष्ट को उपलब्ध करने के मार्गों का पता नहीं लग सका था। फिर प्रियतम तो अभी दूर है। यह सोचकर आपकी बेकली (व्याकुलता) इतनी बढ़ गई कि आपने नींद को तो छोड़ा ही था, अब भोजन का भी परित्याग करने पर तुल गए, पर बिना आहार दिए शरीर से गुरुदेव की परिचर्या का कार्य कैसे सम्पन्न हो पाता, यही सोचकर नाममात्र का भोजन कर लिया करते थे।
मन-गगन में शैशव काल से आजतक की सारी कार्यावली चलचित्र की भाँति चक्करकाट रही थी- ‘घर-परिवार, पिता, पढ़ना-लिखना, सुख-वैभव आदि सभी से संबंध तोड़कर जिस वस्तु के लिए मारा-मारा फिरा, समाज से उपेक्षित हुआ, जिसके लिए सब कुछ सहा-सब कुछ किया, हाय ! आज भी वह मुझसे कितनी दूर है ? यहाँ तक कि उसे उपलब्ध करने की सदयुक्ति का भी मुझे कोई ज्ञान नहीं।’ यह सोचकर आप विह्वल आग्रहपूर्वक श्री धीरजलालजी से भजन-भेद देने की प्रार्थना करने लगे।
श्री धीरजलालजी ने जब महर्षिजी को सन्तमत की ओर आकर्षित और अनुकूल पाया, तब इन्होंने श्री रामदासजी को पंजाब के पते से पत्र लिख दिया। वे इस समय बाबा साहब के साथ सन्तमत के प्रचार-कार्य में संलग्न थे। बराबर पत्राचार होते रहने के कारण उनका पता ये सदैव अवगत करते रहते थे।
वहाँ से श्री रामदासजी का पत्र आया, जिसमें आपके संबंध में यह वाक्य उन्होंने लिखा था- ‘आप जानते ही हैं कि मुझसे और उनसे सन्तमत समझाने-समझने में विवाद हो गया था। आप उनको भजन-भेद नहीं बतावें। वे अपने वर्तमान गुरु के बड़े कट्टर भक्तों में से हैं । दूसरे की कुछ सुनते ही नहीं हैं ।’
महानुभाव धीरजलालजी ने वह पत्र आपको पढ़ने के लिए दे दिया और आपसे अनुरोध किया कि आप भी एक पत्र उनको सन्तमत के प्रति अपनी आस्था के संबंध में लिख दें, तब उन्हें विश्वास हो जाएगा।
श्री धीरजलालजी के अनुरोध से आपने श्री रामदासजी को पत्र लिखा- ‘मैं आपके सन्तमत से सहमत हूँ। अतः यदि बाबा साहब की आज्ञा हो, तो मैं जाकर उनके चरणकमलों के दर्शन करूँ और उनकी सेवा करता रहूँ।’ महानुभाव श्री धीरजलालजी ने भी आपके संबंध में विस्तृत-पूर्ण विवरण-सहित पत्र लिखा । इन दोनों को पढ़कर श्री रामदासजी को आपके प्रति पूरा विश्वास हो गया और उन्होंने पूज्यपाद बाबा देवी साहब से आपके जीवन की पूरी कहानी सुनाकर निवेदन किया कि यदि सरकार की आज्ञा हो, तो उन्हें श्री चरण-सेवा में बुला लिया जाय। श्री रामदासजी का सारा निवेदन सुनकर बाबा साहब उस समय कुछ भी नहीं बोले, पर दूसरे दिन अपने-आप उनसे कहने लगे– ‘अरे, तुमने किस मेँहीँ लाल का नाम कल ले लिया, जो मेरा मन रह-रहकर उसी के विषय में विचार करने लगता है और मैं उसको प्रत्यक्ष की भाँति देखने लगता हूँ।’
फिर बोले- ‘अच्छा, अभी तो उसे यहाँ मत बुलाओ। धीरज को लिख दो किवह उसको भजनभेद बतला देगा। मैं विजया दशमी में भागलपुर जाऊँगा, वह वहीं आकर मुझसे मिलेगा।
श्री रामदासजी ने सारी बातें स्पष्टतः लिखकर पत्र श्री धीरजलालजी के पास भेज दिया। वह पत्र आपने भी पढ़ा। पढ़कर हृदय आश्वस्त हुआ और सोचा- “अब सदयुक्ति तो मिल ही जाएगी।” पर धीरजलालजी अपने को गृहस्थाश्रमी जानकर एक वैरागी को भजन-भेद देने में सकुचाने लगे।
श्री धीरजलालजी को भजन-भेद देने में संकोच करते देख आपने उनसे कहा- “आपको यह विचार करके संकोच होता है कि मैं गृहस्थाश्रम में रहकर कैसे एक वैरागी-संन्यासी को दीक्षा प्रदान करूँ, परन्तु मुझे तो एक कुत्ता - भी सही रास्ता बता दे, तो मैं उसे भी गुरु मानने के लिए तैयार हूँ और आपने तो मेरा असीम उपकार किया है; अपना बहुत समय दिया है, कष्ट उठाया है और मुझे सन्तमत समझा दिया है। आपको तो मैं गुरु ही मानता हूँ।”
परन्तु महानुभाव धीरजलालजी संकोच का परित्याग कर आपको भजन-भेद नहीं प्रदान कर सके। सम्भवतः उन्होंने और भी कुछ सोचा हो कि बिना अनुभव किए सदयुक्ति बताने की पद्धति उपयुक्त नहीं। चाहे जो भी कारण रहा हो, पर उन्होंने आपको भजन-भेद नहीं देकर कहा- ‘आप भागलपुर जाइए। मैं वहाँ के श्री राजेन्द्रनाथ सिंहजी, वकील के नाम एक पत्र लिखकर आपको दे दूँगा और पत्र पढ़कर वे आपको भजन-भेद बता देंगे।’
आप इसको भगवदिच्छा समझकर तैयार हो गए। मन में परिस्थिति-संबंधी आलोचना चलने लगी- ‘आखिर धीरजलाल जी मेरे सदयुक्ति - बतानेवाले गुरु क्यों नहीं बन सके? उन्हें भजन-भेद बताने का आदेश भी प्राप्त था, उन्हीं के निरन्तर समझाने-बुझाने से मैं सन्तमत को ग्रहण करने के लिए तैयार भी हो सका, फिर ऐसी स्थिति क्यों उत्पन्न हुई? गुरु के बताए निर्देश को नि:शंक हृदय से स्वीकार कर लेना चाहिए, पर मैं महानुभाव श्री धीरजलालजी द्वारा बताये गए कतिपय पद्यों के अर्थ और भाष्यों से पूर्ण रूपेण सन्तुष्ट और निःशंक नहीं हो सका था और वह बात अभी भी मेरे अन्तर में स्थित है। इसीलिए यह दूसरी सम्भावना निर्मित हो गई है। सम्भव है, उन (श्री राजेन्द्र बाबू ) से ग्रन्थों का अर्थ ठीक-ठीक समझकर मेरी शंका पूर्ण रूपेण नष्ट हो जाय।’ यह सोचकर आप भागलपुर जाने के लिए प्रस्तुत हो गए। इस बार गुरुजी से बिना आदेश लिए यह शुभ यात्रा करना आपने अच्छा नहीं समझा। गुरु-भाई और आपमें परस्पर बड़ा स्नेहिल सौहार्द था। आपने भागलपुर यात्रा-संबंधी सम्पूर्ण विवरण उन्हें सुना दिया। एक दिन आप ब्राह्म वेला में सब नित्य कर्मों से निवृत्त हो भागलपुर जाने के लिए सब सामान दुरुस्त कर तैयार हो गए।
अरुणोदय हो रहा था। आप गुरुजी के पास गए और चरण-वन्दना कर निवेदन किया ‘शुभादेश मिले, तो मैं जिज्ञासा के लिए भागलपुर जाऊँ ?’
गुरुदेव मुँह ढाँककर लेटे हुए थे। यह विनय सुनते ही कहने लगे- ‘क्यों व्यर्थ इधर-उधर भटकेगा ? सबके साथ मन नहीं लगे, तो मेरे बगीचे के एकान्त स्थल में निवास करो। वहीं तुम्हारे रहने की सारी सुव्यवस्था कर देता हूँ। इतना कहते-कहते ममता या वात्सल्य से उनकी आँखों से अविरल आँसू की धारा बहने लगी। उसे देख आपकी आँखों से भी प्रेम-भक्ति की धारा बह चली और इस बार की यात्रा स्थगित रह गई। आपको विश्वास हो गया कि गुरुदेव का आदेश प्राप्त कर भागलपुर जाने की संभावना नहीं है। सर्वोच्च मंगलमयता का विश्वस्त पथ प्राप्त करने की व्यग्रता एक क्षण के लिए भी चैन नहीं लेने दे रही थी। आपने अपनी अन्तर्व्यथा गुरु-पुत्र श्री सन्त प्रसादजी से कह सुनाई। अति भ्रातृ-स्नेहवश ये आपके लिए सबकुछ सहने को तैयार रहते थे।
आज अज्ञात मंगल मुहूर्त है। चिरआबद्ध सरिता (दरिया) आज मुक्त होकर सागर से मिलने के लिए चल पड़ेगी और समय की अवधि पूरी कर वह समुद्र से मिलकर एक हो जाएगी। फिर दरिया के कगारों की सीमा में उसका अटाव असम्भव हो जाएगा। कगार टूटने के भय से कोई स्रोतस्विनी भी इसे ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत नहीं होगी। समुद्र अब सदा के लिए समुद्र ही रह जाएगा, कभी नदी का रूप नहीं ग्रहण कर सकेगा।
आज जोतरामराय से तीन कोस दूर कान्तनगर में एक आवश्यक कार्य सम्पन्न करने के लिए श्री गुरुदेवजी आपको भेज रहे हैं। आपने अपने गुरुभाई सन्तप्रसादजी से स्पष्ट कह दिया है कि यह यात्रा भागलपुर की ही शुभ यात्रा है। स्नेहिल गुरुभाई ने आपकी मंगलमयी यात्रा को सुविधापूर्ण बनाने के लिएमार्ग-व्यय के साथ अपनी सद्भावना भी प्रदान कर दी है। कान्तनगर में गुरुदेव का काम भली भाँति पूरा करके आप वहाँ से चलकर काढ़ागोला रोड स्टेशन चले आए। टिकट कटाकर आप भागलपुर पधारे।
15सन्तमत के महाद्वार में प्रवेश
भागलपुर स्टेशन से आप सीधे मायागंज श्री राजेन्द्र बाबू के निवास स्थान पर आ गए। उनके पूज्य वृद्ध पिताजी भीतर के कमरे में बैठे हुए थे। वे स्वयं भी वकील थे। आपने उन्हीं से पूछा- ‘राजेन्द्र बाबू का यही मकान है?’ वे बोले- ‘हाँ, क्या काम है?’ आपने उत्तर दिया- ‘मैं उनसे मिलना चाहता हूँ।’ यह सुनकर उन्होंने राजेन्द्र बाबू को पुकारा । पुकार सुनते ही वे बाहर आए और आपने आते ही चरण छूकर प्रणाम किया। प्रणाम करते समय वे यह कहकर रोकने लगे-- ‘साधु होकर आप क्यों मेरा पैर छू रहे हैं?’
उस समय आप साधु-वेश में एक उजला लम्बा कुरता धारण किए हुए थे, जो गले से घुटने तक लटक रहा था।
राजेन्द्र बाबू आपको अपने घर के निकटवर्ती नवनिर्मित सत्संग-मंदिर में ले गए, जिसके पूर्ण निर्माण में जहाँ-तहाँ कार्य करना बाकी था। उनकी आँखें उठ आयी थीं, अत: रंगीन चश्मा धारण किए हुए थे। वहीं आपने श्री धीरजलालजी द्वारा लिखित पत्र उन्हें दिया । पढ़कर उन्होंने वहीं आपके निवास की व्यवस्था कर दी।
तीन दिवस तक अपनी सूक्ष्म एवं तर्कप्रवण बुद्धि, शंकाशील-मन एवं जिज्ञासु हृदय को पूरा सावधान कर आपने राजेन्द्र बाबू के साथ सत्संग किया। श्री धीरजलालजी के जिन-जिन पदों और उनके अर्थों एवं रहस्यों का संतोंषकारी समाधान और उद्घाटन नहीं हुआ था, उन सभी को एक-एक करके आपने उनके सामने रखा और उनके द्वारा सही और जँचनेवाला उत्तर प्राप्त कर परितृप्त हो गए। वे बड़े शान्ति, प्रेम और अनुक्रमिक ढंग से आपको समझाते थे। शौचादि नित्य कर्म, भोजन एवं शयन के अतिरिक्त रात-दिन दोनों साथ ही रहकर सत्संग करते रहे। सन्त-वाणी की सुन्दर व्याख्या के साथ विशेष में आपको बाबा देवी साहब की विशेषता, उनके गुण, प्रभाव और अद्भुत योग्यता की बातें सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मन-ही-मन आपने संतमत और बाबा साहब पर अपने-आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया।
तीसरे दिन सान्ध्यकालीन उपासना-वेला में आपको श्री राजेन्द्र बाबू ने दृष्टियोग की भजन-भेद-विधि बतला दी। भजन-भेद लेने के उपरान्त आपने उनका चरण स्पर्श करके प्रणाम किया, परन्तु उन्होंने आपका हाथ पकड़ लिया और बोले- ‘आप साधु होकर मुझे क्यों प्रणाम करते हैं ? आपका गुरु मैं नहीं, बल्कि बाबा देवी साहब हैं।’
आपने उत्तर दिया- ‘अभीतक तो मैंने बाबा साहब के दर्शन भी नहीं कर पाए हैं, और भजन करने की युक्ति तो मुझे आपसे मिली है, इसीलिए अभी मैं आपको ही गुरु मानता हूँ।आपके आदेश के अनुसार अवश्य ही वे मेरे गुरु हैं तथा अन्य सब लोगों के भी। फिर आपने पूछा- ‘दरियापंथी गुरुदेव से मुझे मानस जप और मानस ध्यान करने का निर्देश मिला था, क्या वह भी करता रहूँ ?’
श्री राजेन्द्र बाबू ने कहा- ‘हाँ, वह भी किया कीजिए। इसमें कोई प्रतिकूलता और हर्ज नहीं है।’ इसके उपरान्त आप मिरजानहाट पनहट्टा के एक वृद्ध दरियापंथी साधु के पास चले गए और वहाँ एक महीने तक विधिवत ध्यानाभ्यास करते हुए सन्त दरिया साहब के ग्रन्थों की प्रतिलिपि तैयार करते रहे। सन्त दरिया साहब के कई ग्रन्थ आपके पुराने गुरुदेव के पास नहीं थे। इसीलिए उन पुस्तकों की प्रतिलिपि करना आपको आवश्यक जान पड़ा। वृद्ध साधुजी बड़े दयालु थे। आपके साथ उनका व्यवहार बड़ा ही भद्रतापूर्ण रहा। वहाँ बढ़ईकुल के एक भक्त थे, जो बड़े ही सज्जन और उदार थे। उक्त सत्संग-मंदिर का सारा खर्च वे ही वहन करते थे और सदा साधु-सन्तों की सेवा में तत्पर रहते थे। एक महीने के बाद जब आप वहाँ से चलने लगे, तो वे आपको और भी कुछ दिन ठहराने का प्रयत्न करने लगे और बोले- ‘इतनी जल्दबाजी क्यों कर रहे हैं ? कुछ दिन और भी ठहर जाने की कृपा कीजिए।’
आपने बड़े प्रेम से उनको समझाया और वहाँ से मायागंज के लिए प्रस्थान किया। एक साधु आपको मायागंज तक पहुँचाने के लिए आए थे। यहाँ आपने एक दिन निवास कर सत्संग किया और दूसरे दिन आप नए पूज्य गुरुदेव को प्रणाम कर जोतरामराय चले आए।
16पुराने गुरु के भाव बदल गए
यहाँ आकर आप धीरजलाल गुप्त प्रभृति संतमत-सत्संगियों से मिलकर पुराने गुरुजी के पास जाकर रहने लगे। छ