Adim Vichar

Adim Vichar Journey of adiwasi Vichar

17/10/2023

जोहार 🙏
दसांई नृत्य

17/10/2023

#जोहार_जिंदगी
सभ्यता और मर्यादा ही,
इंसान को सुन्दर बनाती हैं..!!

21/01/2023
 #जोहार #जल -जंगल-ज़मीन का नारा देने वाले  #गोंडवाना के वीर क्रान्तिकारी  #कोमराम भीम के जन्मदिन पर उन्हें शत्-शत् नमन औ...
25/10/2022

#जोहार
#जल -जंगल-ज़मीन का नारा देने वाले #गोंडवाना के वीर क्रान्तिकारी #कोमराम भीम के जन्मदिन पर उन्हें शत्-शत् नमन और #क्रांतिकारी जोहार..! ✊🏽❤️💐

ये खूंटी के सुजीत मुंडा हैं। ब्लाइंड टी 20 क्रिकेट वर्ल्ड कप के लिए भारतीय टीम में इनका चयन हुआ है। सुजीत बुमराह से भी त...
24/10/2022

ये खूंटी के सुजीत मुंडा हैं। ब्लाइंड टी 20 क्रिकेट वर्ल्ड कप के लिए भारतीय टीम में इनका चयन हुआ है। सुजीत बुमराह से भी तेज गेंद फेंकते हैं। सुजीत के तीन भाई हैं। तीनों दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। मां 3 साल पहले चल बसी। सुजीत दिल्ली में ग्रेजुवेशन की पढ़ाई कर रहे हैं। वे कहते हैं सरकार की तरफ से मिलने वाला दिव्यांग पेंशन उनके लिए बहुत राहत देता है। लेकिन पिछले 6 महीने से वह भी नहीं मिला। सुजीत इससे पहले अमेरिका भी जा चुके हैं। मेडल जीत चुके हैं। वह चाहते हैं कि लोग नेत्रहीन क्रिकेट पर भी अपना प्यार-दुलार थोड़ा लुटाएं ताकि खिलाड़ियों का मनोबल बढ़े और उनकी स्थिति सुधरे। सुजीत एक बार मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मिलने की इच्छा रखते हैं।
सुजीत मुंडा जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

आदिवासी बाहुल्य इलाकों में इन दिनों सोहराय की झलक देखने को मिल रही है। इसकी तैयारियों को लेकर आदिवासी समाज के लोगों ने अ...
24/10/2022

आदिवासी बाहुल्य इलाकों में इन दिनों सोहराय की झलक देखने को मिल रही है। इसकी तैयारियों को लेकर आदिवासी समाज के लोगों ने अपने घरों को सजाना शुरु कर दिया है। ग्रामीण मिट्टी की दीवारों को मिट्टी से बने अलग-अलग रंगों से मनमोहक कलाकृतियां बनाते हैं। जिसे देखकर ऐसा लगता है कि किसी बड़े कलाकार ने इन्हें सजाया है। संथाल समाज सोहराय पर्व को प्रमुखता से मनाते हैं। पांच दिनों मनाए जाने वाला यह पर्व कृषि से जुड़ा हुआ है। घरों का रंग-रोगन करना व सजाना उनकी परंपरा है।

पांच दिवसीय पर्व के बारे में

पहले दिन गोट बोंगा के अवसर पर ग्रामीण अपने अपने गाय और बैलों को एकजुट कर इकट्ठा करते हैं।
शाम में उनके आगमन से पूर्व प्रवेश द्वार की साफ-सफाई कर सजाकर तैयार करते हैं।

दूसरे दिन गोड़ा बोंगा मनाया जाता है।

तीसरे दिन खुन्टो बोंगा मनाया जाएगा। इस दौरान लोग अपने पशुओं (गाय और बैलों के साथ) नृत्य करते हैं और खुशियां बांटते हैं।

चौथे दिन गांव की महिलाओं व पुरुषों द्वारा एक टोली बनाकर एक-दूसरे के घर बांसुरी या वाद्य यंत्र बजाते हैं।

पांचवें और अंतिम दिन प्रकृति के पुजारी अपने खेतों की नई फसल निकालकर, उसकी खिचड़ी बनाते हैं, जो सबसे पहले गाय और बैलों को खिलाई जाती है।

सोहराय पर्व के शुभ अवसर पर आप सबों को ढेर सारे शुभकामनाएं एवं बधाइयां 💐💐💐💐

21/10/2022

सागुन सोहराय.............
जोहार 🙏

"यदि जनजातियों को जीवित रहना है ,तो उनकी धर्म, सभ्यता, संस्कृति और परंपरा को जीवित रहना होगा ।"
21/10/2022

"यदि जनजातियों को जीवित रहना है ,तो उनकी धर्म, सभ्यता, संस्कृति और परंपरा को जीवित रहना होगा ।"

वह जमाना भी क्या था,आग में पड़ने से ही स्वादिष्ट हो जाता,न मसाला,न तेल जरूरत थी।।।।इस जादुई चुल्ह में बनने वाले पकवान,मज...
19/10/2022

वह जमाना भी क्या था,
आग में पड़ने से ही स्वादिष्ट हो जाता,
न मसाला,न तेल जरूरत थी।।।।
इस जादुई चुल्ह में बनने वाले पकवान,
मजा ही कुछ ओर था।।।।
जोहार 🙏

मातृभाषा पर गर्व करके ही श्रेष्ठ साहित्य रचा जा सकता है.....!!!!          जोहार 🙏🙏
18/10/2022

मातृभाषा पर गर्व करके ही श्रेष्ठ साहित्य रचा जा सकता है.....!!!!
जोहार 🙏🙏

जोहार,,,,,,,,,,,,,,,🙏
05/10/2022

जोहार,,,,,,,,,,,,,,,🙏

जिस महिषासुर का दुर्गा ने वध किया उन्हें आदिवासी अपना पूर्वज और भगवान क्यों मानते हैं04:14 PM Nov 22, 2019 | नीरज सिन्हा...
04/10/2022

जिस महिषासुर का दुर्गा ने वध किया उन्हें आदिवासी अपना पूर्वज और भगवान क्यों मानते हैं04:14 PM Nov 22, 2019 | नीरज सिन्हा

ग्राउंड रिपोर्ट: महिषासुर की याद में नवरात्र की शुरुआत के साथ दशहरा यानी दस दिनों तक असुर शोक मनाते हैं. इस दौरान किसी किस्म की रीति-रस्म या परपंरा को नहीं निभाया जाता. बड़े-बुज़ुर्गों के बताए गए नियमों के तहत उस रात एहतियात बरते जाते हैं जब महिषासुर का वध हुआ था.

महिषासुर. (फोटो साभार: दलित कैमरा)

देश भर में दुर्गोत्सव के साथ दशहरा की धूम है. पर झारखंड में गुमला की सुदूर पहाड़ियों पर बसने वाले आदिम जनजाति असुर दस दिनों से शोक में डूबे हैं. दरअसल महिषासुर को अपना पुरखा मानने वाले असुरों को इसका दुख है कि उनके पूर्वज को छल से मारा गया.

महिषासुर का शहादत दिवस झारखंड के सिंहभूम इलाके में भी मनाया जा रहा है. कई जगहों पर महिषासुर पूजे जाते रहे हैं.

इसी सिलसिले में नवरात्र के नवमी पूजन के दिन यानि शुक्रवार को चाकुलिया में आयोजित शहादत दिवस कार्यक्रम में आदिवासी संथाल, भूमिज, कुड़मी के साथ दलित समुदाय के लोग भी शामिल हुए.

महिषासुर को पूजे जाने की खबर झारखंड के अलावा पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के कई आदिवासी इलाकों से भी मिलती रही है. अलबत्ता बंगाल के काशीपुर में महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन बड़े पैमाने पर होने लगा है.

सखुआपानी गुमला की सुषमा असुर कहती हैं कि उनकी उम्मीदें बढ़ी है कि अब देश के कई हिस्सों में आदिवासी इकट्ठे होकर पुरखों को शिद्दत से याद कर रहे हैं.

झारखंड की राजधानी रांची से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर गुमला जिले के सखुआपानी, जोभापाट आदि पहाड़ी इलाके में असुर बसते हैं. इंटर तक पढ़ी सुषमा कथाकार हैं और वे आदिवासी रीति, पंरपरा, संस्कृति को सहेजे रखने के अलावा असुरों के कल्याण व संरक्षण पर काम करती हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक झारखंड में असुरों की आबादी महज 22 हजार 459 है. झारखंड जनजातीय शोध संस्थान के विशेषज्ञों का मानना है कि आदिम जनजातियों में असुर अति पिछड़ी श्रेणी में आते हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था न्यूनतम स्तर पर है. असुरों में कम ही लोग पढ़े-लिखे हैं.

यह भी पढ़ें: देश का एक तबका महिषासुर और रावण वध का जश्न मनाए जाने का विरोध क्यों कर रहा है?
जगन्नाथपुर कॉलेज में इतिहास विभाग के प्राध्यापक और आदिवासी विषयों के जानकार जगदीश लोहरा का कहना है कि असुरों के अलावा कई और आदिवासी समुदाय भी मानते हैं कि वे लोग महिषासुर के वंशज हैं. इन समुदायों को ये भी जानकारी मिलती रही है कि वह आर्यों-अनार्यों की लड़ाई थी. इसमें महिषासुर मार दिए गए. कई जगहों पर लोग महिषासुर को राजा भी मानते हैं.

आदिवासी विषयों के एक अन्य जानकार लक्ष्मीनारायण मुंडा के मुताबिक इसे आदिवासी समुदाय द्वारा उनके पुरखों के इतिहास को सामने लाने की कोशिश के तौर पर देखा जाना चाहिए. क्योंकि कथित तौर पर मिथकों के जरिए एक बड़े तबके की भावनाएं दबाई जाती रही हैं.

छल से मारे गए!

सुषमा असुर कहती हैं कि महिषासुर की याद में नवरात्र की शुरुआत के साथ दशहरा यानि दस दिनों तक वे लोग शोक मनाते हैं.

इस दौरान किसी किस्म की रीति-रस्म या परपंरा का निर्वहन नहीं होता. बड़े-बुजुर्गों के बताए गए नियमों के तहत उस रात एहतियात बरते जाते हैं जब महिषासुर का वध हुआ था. मूर्ति पूजक नहीं हैं, लिहाजा महिषासुर को दिल में रखते हैं.

पिछले साल झारखंड के पंचपरगना इलाके में एक कार्यक्रम में महिषासुर को पूजते लोग.

बकौल सुषमा किताबों में भी पढ़ा है कि देवताओं ने असुरों का संहार किया, जो हमारे पूर्वज थे. सुषमा का जोर इस बात पर है कि वह कोई युद्ध नहीं था.

वो बताती हैं कि महिषासुर का असली नाम हुडुर दुर्गा था. वह महिलाओं पर हथियार नहीं उठाते थे. इसलिए दुर्गा को आगे कर उनकी छल से हत्या कर दी गई.

वाकिफ कराने की चुनौती

इस असुर महिला के मुताबिक आने वाली पीढ़ी को पुरखों के द्वारा बताई गई बातों तथा परंपरा को सहेजे रखने के बारे में जानकारी देने की चुनौती है. कई युवा लिखने-पढ़ने को आगे बढ़े भी, पर पिछली कतार में रहने की वजह से जिंदगी की मुश्किलों के बीच ही वे उलझ जा रहे हैं. वे खुद भी कठिन राहों से गुजरती रही है.

इसी इलाके से मिलन असुर को विश्वास है कि उनके पुरखों का नरसंहार किया गया. इसलिए शोक मनाना लाजिम है और इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए , जबकि नरसंहारों के विजय की स्मृति में दशहरा मनाया जाता है.

यह भी पढ़ें: महिषासुर भारतीय इतिहास का ऐतिहासिक नायक है
गौरतलब है कि साल 2008 में विजयादशमी के मौके पर झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने रांची के मोराबादी मैदान में होने वाले रावण दहन समारोह में शामिल होने से इनकार कर दिया था. उनका कहना था कि रावण आदिवासियों के पूर्वज हैं. वे उनका दहन नहीं कर सकते.

जबकि पिछले दिनों तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्‍मृति ईरानी ने महिषासुर को ‘शहीद’ के तौर पर बताए जाने पर काफी नाराजगी जताई थी.

पुरखे-परंपरा के लिए संघर्ष

झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति ‘अखड़ा’ की अगुआ वंदना टेटे कहती हैं कि आप इसे पूर्वज-पंरपरा को याद रखने के तौर पर देख सकते हैं. बेशक आदिवासियों को अपने रूट्स में जाने की जरूरत है, ताकि एक ठोस नतीजे पर पहुंचा जा सके, क्योंकि कई चीजें गुम होती जा रही है और कई विषयों को अलग-अलग तरीके से उनके सामने रखा जाता रहा है.

झारखंड के चाकुलिया में शुक्रवार को महिषासुर पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया. (फोटो: दिलीप महतो)

बकौल वंदना वे अक्सर असुरों के बीच जाती रही हैं. वाकई में वे लोग महिषासुर को अपना पूर्वज मानते रहे हैं साथ ही कई मौके पर भाषा, संस्कृति, पंरपरा और पुरखौती अधिकारों के लिए सृजनात्मक संघर्ष करने के लिए खड़े होते हैं.

दसाई और काठी नृत्य

उधर झारखंड के चाकुलिया में देशज संस्कृति रक्षा मंच के बैनर तले महिषासुर शहादत दिवस मनाने वालों में कपूर टुडू ऊर्फ कपूर बागी बताते हैं कि दशहरा के मौके पर संथाल समाज के लोग दशकों से नृत्य-गीत के माध्यम से महिषासुर के मारे जाने पर दुख जताते हैं.

इसे दसाई और कांठी नाच कहा जाता है. इन समुदायों में शोक गीत के बोल-‘ हर रे हय रे हय ओकार नमरे हय, ओकाय नमरे हुदुड़ दर्गी’… लोकप्रिय हैं.

उनका जोर है कि आदिवासियों को विश्वास है कि महिषासुर फिर लौटेंगे, क्योंकि उनके राजा को छल-कपट से मारा गया. रावण वध जैसी पौराणिक घटनाओं को भी मिथकीय रूप दिया जाता रहा है.

रावण दहन क्यों?

सिहंभूम इलाके के कुमारचंद्र मार्डी कहते हैं कि महिषासुर वीर पुरूष थे और छल से ही मारे गए. बुराई पर अच्छाई की जीत बताकर और रावण का पुतला बनाकर जलाये जाने को भी वे लोग सहज तौर पर नहीं लेते, क्योंकि रावण भी हमारे पूर्वज थे.

झारखंड के जोभीपाट नेतरहाट गांव में असुर समाज के लोग बैठक करते हुए. (फोटो: वंदना टेटे)

मार्डी के मुताबिक इस पूरे मामले में बड़ा इतिहास है, जिसे जानने की जरूरत है.मार्डी इस मुहिम को सकारात्मक बताते हैं कि कुड़मी-भूमिज समेत कई समाज-समुदाय के लोग भी इस मसले पर उनका साथ देते रहे हैं.

मार्डी कहते हैं कि अब उत्तर भारत में भी महिसासुर का शहादत दिवस मनाया जाने लगा है.

असलियत पर बहस

देशज संस्कृति रक्षा मंच से ही जुड़े दिलीप महतो बताते हैं कि कुड़मी समाज में इस तरह की परंपरा रही है. वे लोग किसी देवी की पूजा या उत्सव का विरोध नहीं करते, लेकिन जिस तरह से महिषासुर का वध दर्शाया जाता है, वह आहत करता रहा है.

इस बारे में असलियत सामने लाये जाने की जरूरत है. क्योंकि इतिहास को गलत तरीके से दर्शाया जा रहा है. हालांकि इस विषय पर बहसें होती रही है.

इस बीच असुर आदिवासी विजडम डॉक्यूमेटेंशन इनीसियेटिव में खंडवा मध्य प्रदेश की आदिवासी महिला सुंगधी वीडियो के मार्फत यह बताने की कोशिश कर रही हैं वे लोग असुरों की संतान हैं तथा मेघनाद को पूजते हैं.

लिहाजा नस्लीय भेदभाव और इंसानी गरिमा के हनन की कोशिशों के खिलाफ वे आवाज मुखर करना चाहती हैं.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं)

क्या दलित और आदिवासी दोनों एक है ?-------------------------------------------राजनीतिक संघर्ष के तकाजे से इन दोनों का नाम...
04/10/2022

क्या दलित और आदिवासी दोनों एक है ?
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राजनीतिक संघर्ष के तकाजे से इन दोनों का नाम एक साथ लिया जाता है, लेकिन ऐतिहासिक, समाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से दोनों बिल्कुल दो अलग अलग समुदाय है। दलित और आदिवासी एक नहीं है इन दोनों का भेद वास्तव में विकास की ऐतिहासिक अवस्थाओं का भेद है। दलित हिंदू समाज, संस्कृति और उसके धर्म के ढांचे में है या उसके साथ है, जबकि आदिवासी पूर्ण रूपेण उनसे अलग धर्म,संस्कृतिवाला समाज है। एक आदिवासी के विचार और संस्कार सामंती या पूंजीवादी समाज के सदस्यों के विचारों और संस्कारों से बिल्कुल अलग किस्म के होते हैं; क्योंकि दोनों इतिहास के विकास की अलग अलग मंजिलों पर है।

यह असुर आदिवासी अखड़ा रेडियो है इसकी शुरुआत 19 जनवरी 2020 को कोट्या बाजार, नेतरहाट से हुई। इस असुर आदिवासी मोबाइल रेडियो...
03/10/2022

यह असुर आदिवासी अखड़ा रेडियो है इसकी शुरुआत 19 जनवरी 2020 को कोट्या बाजार, नेतरहाट से हुई। इस असुर आदिवासी मोबाइल रेडियो का उद्देश्य अपनी भाषा-संस्कृति को लोकप्रिय बनाना तथा उसे भविष्य की पीढ़ियों के लिए संरक्षित करना है। आदिवासी स्वशासन और जल जंगल जमीन पर पुरखौती अधिकारों की बहाली असुर अखड़ा रेडियो का प्राथमिक लक्ष्य है। असुर आदिवासी रेडियो की शुरुआत ‘असुर आदिवासी लूर अखड़ा’ द्वारा नेतरहाट क्षेत्र के असुर समुदाय और झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा के सहयोग से की गई है।

https://redcircle.com/shows/asur-akhra-radio

03/10/2022

छत्तीसगढ़ का हसदेव अरण्य जंगल उजड़ जाएगा। हिमालय, किलिमंजारो पर विस्तृत बर्फ पिघल जाएगी। अमेजन, सुंदरवन के घने जंगल खो जाएँगे। धरती का रक्षाकवच ओजोन का आवरण खत्म हो जाएगा। अमेजन, नील व गंगा जलहीन हो जाएँगी। हम चाँद और मंगल पर कुछ खोज रहे है। वो बंजर थे और बंजर रहेंगे।

"खुद वो बदलाव बनिए जो आप दुनिया में देखना चाहते हैं।"                            महात्मा गांधी                          ...
02/10/2022

"खुद वो बदलाव बनिए जो आप दुनिया में देखना चाहते हैं।"
महात्मा गांधी
हुल जोहार 🙏🙏

संताली के पुरखा कवि रामदास टुडू "रेसका"-----------------------------------------------------------------------संताली साह...
02/10/2022

संताली के पुरखा कवि रामदास टुडू "रेसका"
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संताली साहित्य के पुरखा कवि रामदास टुडू का जन्म काड़वाकाटा गांव के सीताराम टुडु के साधारण परिवार में 2 अक्टूबर,1854 ईं. को हुआ था। यह गांव पूर्वी सिंहभूम जिला के धालभूमगढ़ थाना के अंतर्गत है,जो घाटशिला सबडिविजन में पड़ता है। रामदास टुडू अपने माता पिता की एकमात्र संतान थे। गांव के अन्य संथाल आदिवासी परिवार कि तरह इनके परिवार के भरण पोषण का मुख्य आधार कृषि ही था। उस समय गांव के अमीर परिवार में सिर्फ नटवर नामक जुलाहा का परिवार था।
एक दिन की घटना है — उस गांव में कुछ महावत हाथी घुमाने लाए थे महावत को अमीर नटवर तांती का घर देखकर "गोपाल भोग दान" लेने की इच्छा जगी। महावतों ने नटवर से पांच पैला अरवा चावल एवं पांच रुपए मांगा, लेकिन अमीर नटवर ने उन्हें दान देने से इन्कार कर दिया। इस पर महावर नटवर तांती से उलछ गए,उसी क्रम में कवि टुडू वहां आए और कहा कि वे लोग झगड़ा नही करें। अगर नटवर दान नहीं देता है, तो वे दान देने के लिए तैयार हैं। इसके बाद रामदास ने घर जाकर बीज के लिए रखे धान पुड़ा से चावल निकाले और अपनी हैसियत अनुसार महावतो को तीन पैला अरवा चावल तथा तीन रुपए दिए। इससे महावत बहुत खुश हो गए और रामदास जी को आशीर्वाद देते हुए बोले —"जाओ तुम इस देश में महान व्यक्ति बनोगे ओर नटवर तांती का इस गांव में चिन्ह भी नहीं रहेगा। " इसके कुछ सालों बाद नटवर तांती का परिवार गरीब हो गया और इधर कवि रामदास टुडू का बगान फल फूल से परिपूर्ण हो गया। यह आशीर्वाद का फल था या प्रकृति का प्रभाव, इसे तो वे ही जान सकते हैं,जो इस संसार को चलाते हैं, लेकिन प्रथमतः यही कहा जा सकता है कि आशीर्वाद का प्रभाव था।
रामदास टुडू का वह बगान अभी लोगों में सिदोपाड़/सिदोबगान के नाम से विख्यात है। सिदोपाड़ में सबसे पहले कवि टुडू के चाचा बदरो ने रहने के लिए एक कुबां (पुआल का झोपड़ी) बनाया और वहां खेती की शुरुआत की थी। बगान बेहड़ा नदी के किनारे है। बगान की उत्तर दिशा में बेहड़ा नदी पूर्व दिशा से पश्चिम की ओर बहती है। यह बगान आम, जामुन, सखुआ , आंवला, अमरूद, कटहल , कुसुम तथा लत्तर आदि तरह तरह के पेड़ पौधों से भरा पड़ा था। लत्तर इतना था कि बगान घने अंधाकार से घिरा रहता था और डरावना लगता था। दिन के समय में भी लोग बगान में अकेले जाने से डरते थे।
चाचा बदरो के मरने के बाद कवि रामदास दुसरी पत्नी के साथ गांव छोड़कर बगान में ही रहने लगे। यहीं रहते रहते कुसुम पेड़ के नीचे बैठकर "खेरवाड़ वंश धरम पुथी" नामक पुस्तक लिखी, जो प्राकशित है। उनकी लिखी एक दुसरी पुस्तक "धरम नाट" जो कि नाटक है,अभी तक अप्रकाशित है ।
खेरवाड़ बंश धरम पुथी पुस्तक का प्रथम संस्करण श्याम सुंदर भट्टाचार्य, वेदांत प्रेस,14 रामचन्द्र मित्र लेन, कलकत्ता से अनुमानतः 1800 के आस पास प्रकाशित हुआ था। पुस्तक में प्रकाशन वर्ष नही होने से इस पुस्तक का निश्चित प्रकाशन वर्ष बताना कठिन है। इस पुस्तक में 68 पृष्ठ है। पुस्तक बंगला लिपि, किंतु संताली भाषा में छपी है। दुसरे संस्करण के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुनीति कुमार चटटोपाध्याय की पुस्तक देखने और कवि टुडू से मिलने की इच्छा जगी। बाद में टुडू के साथ मिलकर उन्होंने पुस्तक का दूसरा संस्करण निकाले जाने की इच्छा व्यक्त की। प्रो चट्टोपाध्याय धालभूम महाराजा जगदीश चंद्रदेव धवलदेव बहादुर के मैनेजर बंकिमचंद्र चक्रवर्ती से मिले और पुस्तक का द्वितीय संस्करण छापने के लिए अनुरोध किया। महाराजा ने अपनी सहमति दे दी। महाराजा के राजी होने पर 22 सितंबर,1947 को टुडू और चक्रवर्ती प्रो. चट्टोपाध्याय के घर मिलेने कलकत्ता गए। उस समय टुडू की उम्र 90 के आस पास थी। वही कविवर टुडू की मुलाकात महान् साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन के साथ हूई। सांकृत्यायन उसी दिन विदेश से लौटे थे। उन्होंने दोबारा लिखना शुरू किया और इस तरह खेरवाड़ बंश धरम पुथी का दूसरा संस्करण सन् 1951 ईं को Dhalbhum Traders $ Industries LTD press घाटशिला से संताली भाषा एवं बंगला लिपि में छपी। 264 पृष्ठों के इस संस्कारण में 42 चित्र शामिल थे और इसका मूल्य सिर्फ पांच रुपए था। इसके बाद इसका तृतीय संस्करण 1994 ईं को झाड़ग्राम पं. बंगाल से प्रकाशित हुआ।
पुस्तक में संतालों की जन्म से मृत्यु तक के संस्कारों तथा बिनती, पर्व त्यौहार, पुजा पाठ के मंत्र एवं मांदर के थापों आदि को लिखा है। जैसे —
बाबा ईश्वर आमाक् हुकुम ते,
आलिञ बाबा हांस हांसली चेंडें बिली रे।
आलिञ बाबा लिञ जानाम लेन दो,
आमगे बाबा माराड. बुरु
सागाक् बुटा जानुम धुन्द,
हिहिडी रे पिपिडी़ रेको आगू केत लिञ।
तेहेञ बाबा मारग. बुरु,
आरे माहारे आतनाक् साकाम रे आतागं काते।

कवि टुडू वृद्धावस्था में भी नाच गान में बहुत रुचि लेते थे। नगाड़ा बजाने में उन्हें महारत हासिल थी। वे रसिक व्यक्ति थे, जहां भी जाते अपने साथ केद्री (बनाम) तथा चमड़े की जिलदवाली खेरवाड़ बंश धरम पुथी को जरूर साथ ले जाते। लोगों से अपनी पुस्तक के बारे में चर्चा करते और मौखिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आस्थाओं की कथाओं को लिपिबद्ध करने पर जोर देते । उनका कथन था कि मौखिक परंपराओं में मौजूद बहुमूल्य समाजिक संस्कृतिक धरोहर को अगर लिपिबद्ध नहीं किया गया तो यह धीरे धीरे विलुप्त हो जाएगा। इसी तरह यह पुरखा संताली कवि लोगों को आजीवन जगाता रहा। अपनी रचनाओं से समाज को प्रेरित करता रहा। बिखरे सांस्कृतिक जीवन मूल्यों को समेटता रहा, उन्हें लिपिबद्ध करता रहा।
वे बहुत पढ़ें लिखे नही थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा दिक्षा घर रहते हुए "नरसिंहगढ़ स्कूल" मे हुई थी पर जीवन को देखने समझने की उनकी दृष्टि अत्यंत व्यापक थी। उन्हें उनकी विशिष्ट साहित्यिक उपल्ब्धि के लिए डी. लिट कि मानद उपाधि से नवाजा गया। उम्र भर संताली समाज को नया सवेरा देखने के लिए प्रेरित करनेवाले इस महान आत्मा ने 30 जून ,1951 ईं को अपना नश्वर शरीर त्याग दिया।

Reference:-

1. "ट्रांसक्रिप्ट से" ट्रांस-स्क्रिप्ट ": सेमियोटिक मीडिया में रोमनकृत संताली"
2. पुस्तक:- झारखंड के साहित्यकार और नए साक्षात्कार
लेखक:- वंदना टेटे

 # # दसाई नृत्य का इतिहास  # # # # पहली कहानी  # #यह प्रसंग संतालों की मौखिक परंपरा का हिस्सा है, जिससे इतिहास की कडियां...
01/10/2022

# # दसाई नृत्य का इतिहास # #

# # पहली कहानी # #

यह प्रसंग संतालों की मौखिक परंपरा का हिस्सा है, जिससे इतिहास की कडियां खोजने का प्रयास किया जाता है. पुराने समय में संताल चाय गाढ़ चम्पा गाढ़ में रहते थे. जैसा की वे गाते हैं कि सात नदियों के देश में एक चाय गाढ़ चम्पा गाढ़ था. तुड़ुक (यही प्रचलित शब्दावली है) अर्थात ‘आर्य’ संतालों की खुशहाली और वैभव से जलते थे. इसलिए उनकी बहुत बार तुड़ुक अर्थात ‘आर्य’ से मुठभेड़ हो चुकी थी. तुड़ुक हमेशा ही संतालों को हराने में नाकाम रहे क्योंकि संताल बहादुर योद्धा थे और महिलाएं भी बहुत बहादुर हुआ करती थीं. वो समय काल कौन सा था, अभी तक की जानकारी के मुताबिक ज्ञात नहीं है. इन लोगों ने इस रहस्य का पता लगाने की कोशिश की कि ये संताल हमेशा क्यों जीत जाते हैं. पता लगाने पर उनको रहस्य मालूम हुआ कि ‘आइनोम’ और ‘काजोल’ (किवंदितियों में यही नाम प्रचलित है) दो देवियां थीं और वो जो हथियार देती थीं, वो कभी बेकार नहीं जाता था. कुछ प्रसंग के अनुसार वे दोनों सबसे बहादुर योद्धा थीं. संताल योद्धाओं का लोक कथाओं में होना इतिहास का हिस्सा है, जैसे सिदो कान्हू के समबन्ध में निम्नलिखित गाना है:

“सिदो कान्हू खुड़खुड़ी भितोरे,

चांद भैरो घोड़ा उपोरे”

एक बार ‘आइनोम’ और ‘काजोल’ अपनी सहेलियों के साथ पानी भरने (कुछ कहानियों के अनुसार नहाने) जाती हैं, वहां से तुड़ुक उन्हें अगवा कर ले जाते हैं. उनकी सहेलियां घर वापस लौट कर भाइयों को उनके अगवा होने की खबर देती हैं. कुछ कहानियों के अनुसार सिर्फ वे दोनों नदी गयी थी और चरवाहों ने उनके अगवा होने की सूचना दी. संख्या में कम होने की वजह से वो दोनों को बचा नहीं पाए थे. कुछ प्रसंग के अनुसार संतालो के दो युवा योद्धा ‘दिबी’ और ‘दुर्गा’ ने तुड़ुक लोगों का पीछा किया लेकिन नाकाम रहे. वो बरसात का समय था, और नदियों में पानी भरा हुआ था तो उसे पार कर जाना मुश्किल था. फिर संतालों ने फैसला किया कि हम बरसात के बाद (संताली में दाक् + साय जिससे दसाई शब्द आया) ‘आइनोम’ और ‘काजोल’ की खोज करेंगे. इसी आधार पर संताल ‘दसाई’ महीने (सामान्यत: सितंबर) में गांव गांव घूम कर अगले सात दिनों तक ‘आइनोम’ और ‘काजोल’ की तलाश करते हैं. संतालों ने स्त्रियों के तरह वेश भूषा बनाकर छद्मवरण धारण किया और उनकी तलाश में निकल पड़े. इसी विश्वास के साथ संताल आज भी गांव में हर दरवाज़े पर जाते हैं कि उन्हें ‘आइनोम’ और ‘काजोल’ मिल जाएगी

दसाई में प्रयुक्त वाद्य यंत्र वास्तव में सिर्फ वाद्य यंत्र नहीं थे, जैसा कि कहा जाता है. पगड़ी में खोंसा हुआ मोर पंख वास्तव में तीर था जो छुपाया गया था. बुआङ जो धनुष के तरह दिखता है वो धनुष ही था और तीर को कद्दू (Bottle Gourd) में छुपाया गया था. बांसुरी में एक सिरे कुल्हाड़ी (अर्थात संताली में ‘कपि’ or Axe) बांधा गया था. गिटार सरीखा वाद्ययंत्र (संताली में बानाम) का व्यवहार गदा के तरह किया जाना था, और जिस छड़ी से उसे बजाना है वो वास्तव में तलवार था. ये संतालों के लिए जश्न का वक़्त नहीं है जैसा समझा जाता है. इसी लिए ‘हाय-रे हाय’ कर के संताल घर से ‘आइनोम’ और ‘काजोल’ की तलाश करने निकलते हैं.

# # दूसरी कहानी: # #

संताल चाय गाढ़ चम्पा गाढ़ में रहा करते थे. मान्यता के अनुसार ये जगह खुशियों से भरी (Land of Happiness) थी. संताल बहुत समृद्ध हुआ करते थे, जैसा वे जिक्र करते हैं. उस वक़्त ‘हुदूड़ दुर्गा’ संतालो का राजा/सरदार था जो बहुत बहादुर था. तुड़ुक अर्थात ‘आर्य’ के पास उनके बराबर कोई योद्धा नहीं था. संतालों के पूर्वज महिलाओं पर हथियार नहीं उठाते थे. उन लोगों ने संतालों के सरदार की इसी कमजोरी को उसके विरुद्ध इस्तेमाल किया. आक्रांताओं ने षड़यंत्र के तहत ‘हुदूड़ दुर्गा’ का विवाह एक महिला से करवाया जो वास्तव में एक गुप्तचर थी. उसकी मदद से संतालों के सरदार को मार दिया गया. संतालों का सरदार मारा जा चूका था और शत्रुओं का सामना करने में सक्षम नहीं रह गए थे. इसलिए संतालों ने उस जगह को छोड़ने का फैसला किया. रास्ते में भी उन्होंने किसी महिला पर हथियार नहीं उठाने का प्राण जारी रखा. उन्होंने स्त्रियों का वेशभूषा बनाया और उस जगह को छोड़ कर निकल पड़े. कहा जाता है कि दसाई ‘हुदूड़ दुर्गा’ के पहले भी मनाया जाता था लेकिन तब ये ख़ुशी का त्यौहार था, लेकिन इसके बाद ये स्मरण का त्यौहार है जिसे संताल ‘हाय-रे हाय’ गाकर प्रकट करते हैं.

References:

https://youtu.be/ET1EV2GN8j8, Intangible Cultural Heritage, Jharkhand

https://youtu.be/zGZl-lrpkDk

https://aainanagar.com/2017/05/20/hudur-durga/

https://law.utexas.edu/wp-content/uploads/sites/31/2018/05/dutta_of_sex_workers.pdf

Disclaimer: This story is part of the oral tradition of Santals which is linked to Santals' history. Some parts or chronological order may be missing, which can be added with proper justification. Instead of citing this note, cite original resources. I tried to refer to credible resources based on my personal judgment.

जोहार 🙏🙏❣️
30/09/2022

जोहार 🙏🙏❣️

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त लोकप्रिय आदिवासी बौद्धिक, शिक्षाविद, लेखक, गीतकार, रचनाकार,बांसुरी वादक झारखंड के ...
30/09/2022

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त लोकप्रिय आदिवासी बौद्धिक, शिक्षाविद, लेखक, गीतकार, रचनाकार,बांसुरी वादक झारखंड के पुरोधा एवं आंदोलनकारी तथा संगीत नाटक अकादमी प्राप्त #पद्मश्री डा० रामदयाल मुण्डा जी की पुण्यतिथि पर उन्हें कोटि कोटि नमन एवं बिनम्र श्रद्धांजलि।

PADMASHRI Dr. RAMDAYAL MUNDA

23 August, 1939
Village :Deuri, P. O. Tamar, Ranchi, Jharkhand,


1. Lutheran Mission School, Amlesa, Tamar, Ranchi, 1946-53.
2. S.S High School, Khunti, Ranchi, 1953-57.
3. Ranchi University, Ranchi, 1957-63,M.A.(Anthropology).
4. University of Chicago, USA, 1963-70,M.A.Phd(Linguistic).
And TRANNING
1. Research Assistant, South Asian Language and Civilization, University of Chicago, 1963-70.
2. Assistant Professor--Associate Professor, South Asian Studies, University Of Minnesota, Minneapolis, 1970-81.
3. University Professor, Australian National University, Canberra, 1983.
4. Visiting Professor,Syracuse University, New York, 1996.
5. Visiting Professor. Tokyo University Of Foreign Studies, 2001.

1. American Institute Of Indian Studies, 1977-78.
2.United States Education Foundation in India, 1996.
3. Japan Foundation, Tokyo, 2001.
Filed of Research And Teaching
4.Indian Languages And Literatures.
Tribal Peoples of India.
5.World Indigenous Movement.
5.Jharkhand Movement.
6.Reconstruction Jharkhand. SERVICES
1. Pro Vice-Chancellor, Ranchi University, 1985-86.
2. Vice-Chansellor, Ranchi University, 1986-88.
IN NATIONAL COMMITTEESS
1. Committee on Jharkhand Matters, Govt. Of India, 1989-95.
2. Anthropological Survey of India, 1989-95.
3. National Education Policy Review Committee, 1990.
4. Steering Group, Planning Commission, 1996-2000.
5. Expert Committee, National Commission, Women, 1997-2000.
6. Indian Confederation of Indigenous and Tribal Peoples, 2000-08(Chief President).
7. National Advisory Board, International Labour Organization, 1997-2000.
8. Executive Committee, Jaharlal Nehru University, 1990-1995.
9. Executive Committee, North Eastern Hill University, 1993-1996.
10. Jharkhand Peoples Party, 1991-98(Chief President).
11. Adim Jati Seva Mandal, 1990(President).
12. Jharkhand Sanskritik Morcha, 1998(President).
13. Ranchi University PG Teacher's Association, 1998-2000(President).
14. Bhartiya Sahitya Vikas Nyas, 1998(President).
15. Binari Institute of Research And Action, 1997(President).
16. Standing Committee, Human Rights Education University Grant Commission, 1998-2001.
17. Nation Committee for Promotion for Social & Economic Welfare, 1998-2001.
18. Expert Committee, Sahitya Academy, 1999.
19. National Council for Teachers 20.Education, 2000-2003.
21. Working Group on Empowerment of Schedule Tribe, planning Commission, 2000-2005.(Chairman).
22. All India Literary Forum, (President, 2005).
23. Teachical Support Group for Formulation of Rules to Operationalies the Schedule Tribe and Others Traditional Forest Dwellers(Recognition of Forest Rights) Act, 2006,Ministry of Tribal Affairs, Govt. Of India, 2007,(Member).
24. Committee to setup Central Tribal University, 2007,(Member).
IN INTERNATIONAL CONFERENCE
1. Festival Of India In USSR, 1987(Leader of the Delegation).
2. International Music Workshop, Bali, Indonesia, 1988.
3. International Dance Alliance, Manila, Philippines, 1989.
4. International Folk Dance Festival, Taipei, 1990.
5. Adibasi Campaign In Europe, 1993.
Dalit Campaign In Europe, 1994.
6. International Conference on Indigenous Economy, Copenhagen, Denmark, 1997.
7. United Nations Working Group on Indigenous Population, Geneva, 1987(Leader Of Delegation).
8. International Alliance for Indigenous Peoples of the Tropical Forests, Nagpur, 1998.
9. Asian Indigenous People's Conference On UN Permanent Forum on Indigenous Peoples, Indore, 1999.
10. International Conference on Hunting and Games, Berlin, 2000.
11. International Conference on Indigenous Peoples, Upsala, Sweden, 2002.
12. Asian Indigenous Peoples Conference on UN Permanent Forum On Indigenous Issue, Bangkok, 2002.
13.The UN Permanent Forum on Indigenous Issues, New York, 2002.


Gunjal Ikir Munda

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