04/08/2024
प्राचीन विमान मैं पहने जाने वाले विशेष वस्त्र किस विधि द्वारा तैयार किए जाते थे।
यन्तृप्रावरणीयौ पृथक् पृथगृतुमेदात् ॥
वस्त्रप्रबोधकपदान्यन्तृ णामृतुभेदतः ।
उक्तानि त्रीणि सूत्रेस्मिन् तेषामयों विविच्यते ॥१॥
धारणाच्छादनवस्त्रप्रमेदो यन्तृणा क्रमात् ।
सूत्रादिमपदेनोक्त द्वितीयपदतस्तथा ॥ २ ॥
तेषा सस्कारतद्वर्णगुणजात्पादय स्मृता ।
सूत्रतृतीयपदत कालभेदो निरूपित ॥ ३ ॥
इत्य सूत्रार्थमुक्त्वाय विशेषार्थी निरूप्यते ।
अनन्तसूर्यकिरणशक्तिवैचित्रधभेदत वसन्ताद्याप्यतव यजुराण्यके ॥ ४ ॥
प्रभवन्त्यदितेर्मु खात् । सूर्यानन्तत्वप्रतिपादने ॥५॥
यद् द्याव इन्द्र ते । शतमितिवाक्याच्छ्र तिर्जगौ ।
ऋतुभेद से विमानचालक यात्रियों के वस्त्रों के प्रबोधक पद तीन सूत्र में कहे हैं उनके अर्थ का विवेचन किया जाता है। यात्रियों के पहनने और ओढने का वस्त्रभेद क्रम से सूत्र के आदिम पद से कहा दूसरे पद से संस्कार उसके वर्ण गुण जाति आदि कहे हैं, तीसरे पद से काल भेद कहा है इस प्रकार सूत्रार्थ कह कर विशेष अर्थ निरूपित्त किया जाता है, अदिति-व्याप्त अग्नि के मुख से एवं अनन्त सूर्यकिरण शक्तियों की विचित्रता के भेद से वसन्त आदि छ ऋतुएं होती हैं। यजुर्वेद के आरण्यक में सूर्य किरणों की अनन्तता प्रतिपादन होने से "बद् द्याव इन्द्र ते शतम्" (तै० श्र० १। ७।५) हे इन्द्र सूर्य तेरी किरणें सैकड़ों सहस्रों हैं।। इस प्रकार वाक्य श्रुति ने गान किया-कहा है ॥ १-५
तस्मादनन्तसूर्याणामशुशक्तिसमाकुलात्
विषामृतविभागेन भिद्यन्ते ऋतुशक्तय ॥ ६ ॥ छेदिनो रक्तपामेधस्सिरा हा रादय कमात् ।
पञ्चविशतिसख्याका ऋतूना विषशक्तय ।। ७ ।। त्वड् मासमेधामज्जास्थिस्नायुरक्तरसादिकान् । वेरवीजान् नश्यन्ति खपथे यानयन्तृ णाम् ॥ ८ ॥
तस्मात्तद्वेरबीजादिरक्षणार्थ कपादिना 1 ऋतुशक्तयनुसारेण वस्त्रभेदा निरूपिता ॥ ६ ॥
अत. अनन्त सूर्यो के शक्तिसमूह से विष और अमृत के विभाग से ऋतुशक्तियां भिन्न-भिन्न हो जाती हैं। छेदिनी अङ्गछेदन करनेवाली, रक्तपा-रक्त पीनेवाली, मेधा-मद मांस चिकनाई सिरा आहार वाली क्रम से सख्या में ऋतुओं की विषशक्तियां है जो कि आकाशमार्ग में विमानयात्रियों के त्वचा मांस मेद मज्जा-चर्बी हड्डी नाडो रक्त सिरा आदि बेर बोजों-शरीर के तत्त्वों को नष्ट करती हैं। अत शरीर के तत्त्वों की रक्षा के अर्थ कपर्दी ने ऋतुशक्ति के अनुसार वस्त्रों के भेद निरूपित किये हैं। ६-६।
उक्तं हि पटसंस्काररत्नाकरे- कहा हो है पटसंस्कार रत्नाकर ग्रन्थ में-
पट्टकार्पासशैवाललोमा भ्रकत्वगादिकान् ।
सप्तविशतिसस्कारशुद्धानत्रकवारिणा ।। १० ।।
क्षालयित्वाथ तान् सर्वान् यन्त्रे सन्धाय शाक्षत ।
गालवोक्तविधानेन तन्तून् सम्यक् प्रकल्पयेत् ।। ११ ।। केतकीवटतालार्कनारिकेलशणादय ।
एकोनविशत्स स्कारैस्सस्कृत्य विधिवत् क्रमात् । तत्तद्वल्कलमादाय यन्त्रे तन्तुमुखाभिधे (दे') ।॥ १३ ॥ समग्रेणाथ सन्धार्य तन्तून् कृत्वा यथाविधि । गालवोक्तेन मार्गेण कुर्याद वस्त्राण्यथाक्रमम् ॥ १४ ॥
तत्तच्छुद्धिप्रकारेण शोधायित्वाष्टवारत ॥ १२॥
पश्चाद् वस्त्रान् समाहृत्य पश्चतैलैस्तु पाचयेत् ।
अतसीतुलसीधात्रीशमीमालूरुचक्रिका ॥ १५ ॥
रेशम, रूई, जलकाई, बाल, अभ्रकपरत आदि को २७ संस्कार शुद्ध करे हुओं को अभ्रक - जल या कपूरजल या नागरमोथे के जल से प्रक्षालित करके सबको शास्त्र से यन्त्र में रखकर गालव की विधि से धागों को बनावे। केतकी केवड़ा, (बांस केवड़ा) वह, ताड़, यख, नारियल, सण आदि उस उसके शुद्धिप्रकार से ८ बार शोध कर १६ संस्कारों से विधिवत् करके उसके उस उसके वकल लेकर तन्तुमुख नामक यन्त्र में रखकर तन्तुओं को बनाकर गालब के कहे मार्ग से त्रस्त्र यथाक्रम करे पश्चात् वस्त्रों को लेकर पांच तैलों से पकावे जो कि पांच तैल हैं अलसी, तुलसी, आमला, शमी, मालु- काली तुलसी, रुचिका-सरसों ॥ १०-१५ ॥
एतदोषधिवीजाना तैलात् सप्ताहमातपे ।
प्रत्यंह पञ्चधातप्त्वा शुष्क कृत्वा तत गोपीलाक्षाचण्डमुखीमधुपिष्टाभ्रक्रास्समम् ।
परम् ।। १६ ।।
सम्मेल्य एणाक्षारेण बृहन्मुषामुखे क्रमात् ॥ १७ ॥
सम्पूर्य विधिवत् सर्व कूर्मव्यासटिकान्तरे ।
निधाय त्रिमुखीभस्त्राद् ध्मनेच्छिञ्जीरवेगत ॥ १८ ॥ तन्मध्येगस्तिपत्राणा रसप्रस्थाष्टक न्यसेत् । ।। १६ ।। माक्षिकाभ्रकसिञ्जीरवज्रटगुणवाकुटे तैलमाहृत्य विधिवत् तस्मिन् पश्चान्नियोजयेत् । पश्चात् सगृह्य तत्काञ्ज गर्भता पनयन्त्रके ॥ २० ॥
सन्ताप्य तत्तैललिप्तवस्त्राण्यथ समाहरेत् ।[ २७
इन औषधियों के बीजों के तेल से सप्ताहभर धूप में प्रतिदिन पांच बार तपाकर सुखाकर गोपी-गोपिका-कृष्ण सारिवा, लाख चण्डमुखी-इमली, मधु, पिष्ट-तिल की खल, अभ्रक ये समान लेकर एणक्षार ?-ऐणाक्षार हरिणश्टङ्ग भस्म के क्षार से मिला कर बड़ी मूषा (कृत्रिम बोतल के मुख में भर कर कुर्भव्यासटिका-कछवे के आकारवाले कुण्ड के अन्दर रखकर तीन मुखवाली भस्त्रा से सिब्ज़ीर? के वेग से धमन करे। उसके मध्य मे अगस्त्य वृत्त के पत्तों का सेर रस डाल दे स्वर्णमाक्षिक अभ्रक सिञ्जीर ? थूहर, सुहागा, वाकुट त्राकुची? या वाकुन-अकुत्त का फत्त वस्तुओं से विधिवत् तेल लेकर उस में डाल दे पश्चात् लेकर भर्भरात यन्त्र में उनके काव्ज ?- रस तपाकर उस तैल से लिप्त वस्त्र लेले ॥१६-२०
अग्निमित्रोक्तविधिना पटजात्यनुमारत
ऋतुधर्मानुसारेण कवचादीन् प्रकत्पयेत् ॥ २१ ॥
तत्तत्कालोचितान् वस्त्रकवचादीन् यथाक्रमम् ।
यानयन्तृत्वाधिकारवरिष्ठेभ्यो मनोहरान् ॥ २२ ॥
दत्त्वा स्वस्त्ययन कृत्वा रक्षाकरणपूर्वकम् ।
पश्चात् सम्प्रेषयेद् यानयन्त्रकर्माणि हर्षत ॥ २३ ॥
सर्वदोषविनाशस्स्यात् तत्पट्ट बलवर्धनम् ।
मेघोवृद्धिर्षातुवृद्धिरङ्गपुष्टिरजाड्यता
॥ २४ ॥
अग्निमित्र की कही विधि में पट जाति के अनुसार ऋतु धर्मानुसार कवच आदि बनावें, उस उस काल के योग्य वस्त्र कवच आदि यथाक्रम मनोहर विमानचालन अधिकार में श्रेष्ठों के लिये देकर स्वरूपयन रक्षाकरणपूर्वक करके उन्हें हर्ष से विमानचालन के कार्य में प्रेरित करे, सर्व दोषों का विनाश हो उन वस्त्रों से विमानयात्रियों का बल बढ़े, मेधा बढे, धातु वृद्धि हो अङ्ग पुष्टि स्फुर्ति अङ्गरक्षण आदि हो । २१-२४ ।।....✍️
- अंकित खटकड़