13/01/2025
“मोगैम्बो खुश हुआ…”
यह मात्र तीन शब्द का डायलॉग हिंदी सिनेमा के एक नायाब हीरे की पूरी ज़िंदगी को बयान करता है। एक विलेन जो 100 हीरो पर भी भारी था, या फिर यूँ कहूँ कि इस विलेन को और उसके डायलॉग्स को फिल्म के हीरो- हिरोइन से ज़्यादा याद रखा जाता था।
आज बहुत से उम्दा कलाकार हैं हिंदी सिनेमा जगत में, पर शायद ही किसी में बात हो इस एक ‘खलनायक’ की विरासत को सहेजने की। करीब 400 फिल्मों में काम किया और हर बार उनका किरदार एकदम अलग लगता। उन्होंने अपने हर किरदार में ऐसे जान फूंक दी कि उनके असल नाम की बजाय कोई उन्हें मोगैम्बो के नाम से पुकारता है, तो कोई सिमरन के बाबूजी!
जी हाँ, वही ‘जा सिमरन जा… जी ले अपनी ज़िंदगी’ कहकर दर्शकों का दिल जीतने वाले ‘अमरीश पुरी’!
हिंदी सिनेमा का वो नाम जो मुंबई आये तो थे हीरो बनने पर पूरी दुनिया ने उन्हें विलेन के तौर पर जाना। अपने समय के दिग्गज फ़िल्मकार, चाहे श्याम बेनेगल (निशांत, भूमिका, जुबैदा), सुभाष घई (परदेश, मेरी जंग, ताल), यश चौपड़ा (दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगें) हों, या फिर हॉलीवुड के स्टीवन स्पीलबर्ग (इंडिआना जोंस एंड द टेम्पल ऑफ़ डूम), सभी ने उनके साथ काम किया और उनके सब किरदार ऐतिहासिक बन गये।
मजबूर पिता से लेकर खूंखार खलनायक तक, हर एक भूमिका में अमरीश पुरी अपने निर्देशकों और दर्शकों, दोनों की ही उम्मीदों पर खरे उतरे।
बॉलीवुड के मोगैम्बो से लेकर हॉलीवुड के मोला राम तक का सफ़र बिल्कुल भी आसान नहीं था या फिर यूँ कह लें कि अपने पीछे इतनी बड़ी विरसात छोड़कर जाने वाले अमरीश ने परदे की कहानियों में कदम रखने से पहले ज़िंदगी की कहानी में खुद को साबित किया।
22 जून 1932 को लाहौर (अब पाकिस्तान में है) में जन्मे अमरीश पुरी की ज़िंदगी एक लंबे समय तक दो नावों में सवार रही। घर चलाने के लिए उन्होंने करियर की शुरुआत लाइफ इंश्योरेंस एजेंट के तौर पर काम करते हुए की। एक जगह से दूसरी जगह जाना, लोगों से मिलना, उन्हें इंश्योरेंस के लिए राजी करना और न जाने क्या-क्या। पूरा दिन उनका अपने घर की आर्थिक संतुष्टि के लिए समर्पित था।
और फिर शाम में, वे अपने दिल की करते यानी कि थिएटर, जो उनकी आत्म-संतुष्टि के लिए था। सत्यदुबे थिएटर ग्रुप का वे अहम हिस्सा थे और स्टेज एक्टर के तौर पर अच्छे-खासे मशहूर थे। पर हिंदी सिनेमा में उन्हें आसानी से जगह नहीं मिली।
पृथ्वी थिएटर के साथ उनके काम ने उन्हें बहुत मशहूर कर दिया था। साल 1979 में उन्हें थिएटर में उनके उम्दा काम के लिए ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ मिला। इसके बाद उनकी थिएटर प्रसिद्धि के चलते उन्हें टीवी एड्स, फिल्म आदि में काम मिलना शुरू हुआ।
थिएटर में अमरीश की सक्रियता ने उन्हें श्याम बेनेगल से मिलाया, जो उस समय अपनी पहली फिल्म ‘अंकुर’ (1974) पर काम कर रहे थे।
“मेरे पास एक एक्टर था जिसका शरीर तो काफ़ी अच्छा था। पर जब मैंने उसे डायलॉग बोलने के लिए कहा तो उससे नहीं हुआ। उसके डायलॉग की डबिंग के लिए मैंने अमरीश को बुलाया। लेकिन बाद में मुझे लगा कि ‘मैं यह क्यों कर रहा हूँ?’ इसलिए जब मैंने निशांत बनाई तो मैंने अमरीश को उसमें बतौर एक्टर लिया और इसके बाद मैंने जो भी किया, अमरीश उसका हिस्सा रहा,” एक साक्षात्कार के दौरान श्याम बेनेगल ने कहा।
अमरीश और श्याम बेनेगल के बीच गहरी दोस्ती थी और निशांत और भूमिका जैसी फिल्मों में अमरीश की बहुत सराहना हुई। बस यहीं से उनकी सफलता का दौर शुरू हो गया।
साल 1985 में आई ‘हम पांच’ फिल्म की अपर सफलता ने अमरीश को हिंदी सिनेमा के कलाकारों की उस फ़ेहरिस्त में शामिल कर दिया, जहां से अब उन्हें कोई रिप्लेस नहीं कर सकता है।
अमरीश न सिर्फ़ अच्छे एक्टर थे, बल्कि वे बहुत ही संवेदनशील और अनुशासन-प्रिय भी थे। युवा कलाकारों को सेट पर मदद करना, उनका मार्गदर्शन करना और साथ ही, ज़रूरत के समय दोस्तों के काम आना, ये सभी वे बातें हैं जो उन्हें एक बहुत ही अच्छा इंसान बनाती हैं।
उनकी इस खूबी के बारे में बात करते हुए, एक बार श्याम बेनेगल ने बताया था कि अमरीश जिस भी फिल्म में काम करते थे, उस फिल्म की पूरी यूनिट को बहुत ही संगठित और ऑर्डर में रखते थे। उनके अनुशासन के नियम बहुत ही सख्त होते थे। मंथन फिल्म की शूटिंग के दौरान वे लोग संगंवा गाँव में थे, जो कि राजकोट से लगभग 45 किलोमीटर है। उस समय, अमरीश पूरी यूनिट को सुबह 5: 30 बजे उठा डदेते और उन्हें दौड़ पर लेकर जाते।
इससे सर्दी के मौसम में भी पूरा दिन यूनिट के लोग एक्टिव रहते। उनका यह अनुशासन टीम के बाकी लोगों में भी आ जाता और इससे टीम में अच्छा माहौल रहता था। खाने को लेकर भी अमरीश काफ़ी सजग रहते थे।
बेशक, अमरीश पुरी का कोई मुकाबला नहीं, वह एक्टर जिसने 30 साल से भी ज़्यादा अपने अलग-अलग खलनायकों वाले किरदारों के ज़रिए दर्शकों का मनोरंजन किया।