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13/01/2025

"प्रथा" नै राजस्थानी में काँई केवै ?🤔

13/01/2025

"पीठ" इण नै राजस्थानी में काँई केवै ?

जान-पहचान के एक व्यक्ति ने 13 साल की नसीमा को किडनैप कर उन्हें तस्करी में ढकेल दिया; 10 महीने बाद उन्हें रेस्क्यू किया ग...
13/01/2025

जान-पहचान के एक व्यक्ति ने 13 साल की नसीमा को किडनैप कर उन्हें तस्करी में ढकेल दिया; 10 महीने बाद उन्हें रेस्क्यू किया गया। अपने घर लौटने के बाद उनके प्रति लोगों का नज़रिया बदल गया था।आज, वही नसीमा Human Trafficking की शिकार हुई सैंकड़ों लड़कियों को, उनकी ज़िंदगी सुधारने में मदद कर रही हैं।

बंगाल के मसलन्दपुर में जन्मीं नसीमा गैन का बचपन अच्छा था। वह बताती हैं, “साल 2009 था, मैं उस दिन बहुत खुश थी। मेरे स्कूल में पूजा थी। मेरे साथ धोखाधड़ी करने वाले शख़्स को मैं बचपन से जानती थी। वह हमारे गाँव का था।

उसने मुझसे और मेरी एक दोस्त से पूछा कि क्या हम कार में घूमना चाहेंगे। उसके साथ गाड़ी में एक शख़्स और था। उनके इरादों से अंजान हम गाड़ी में बैठ गए। उसने हमें एक सूनसान रास्ते पर ले जाकर वहां छोड़ दिया और कहा कि थोड़ी देर में हमे लेने आएगा। फिर एक और गाड़ी से कोई और आया और उसने कहा कि वह हमें घर छोड़ देगा; अंधेरा हो चुका था, हमने उसकी बात मान ली और इससे हमारी ज़िंदगी पलट गई।"

नसीमा और उनकी दोस्त को बेच दिया गया और वह बिहार पहुँच गईं।
"मुझे याद है वह हमें नाचना-गाना सिखाते थे। कोई बात ना मानने पर हमें मारते, टार्चर करते और भूखा रखते थे। हम उम्मीद खोने लगे थे।"

10 महीने बाद, बार-बार बेचे जाने के बाद, नसीमा और उनकी दोस्त को आखिरकार रेस्क्यू कर लिया गया। घर वापस गईं तो घरवाले बेटी को पाकर खुश हुए, लेकिन आस-पास के लोगों और गाँववालों ने उन्हें नहीं अपनाया।

हर कोई अब नसीमा को अलग नज़र से देखता। स्कूल में भी उन्हें वापस दाखिला नहीं मिला और नसीमा 5 सालों तक अपने घर में बंद होकर रह गईं। एक NGO की मदद से वह इस सब से बाहर आयीं।

इसके बाद उन्होंने 2016 में अपने जैसी लड़कियों के लिए Utthan Collective की शुरुआत की। उनकी यह संस्था आज Trafficking की शिकार लड़कियों को रेस्क्यू कर उनकी Training, Counselling और जीवन सुधारने में उनकी मदद करती है। वह अब तक 4,000 survivors की मदद कर चुकी हैं।

“एक सर्वाइवर को ज़रूरत होती है अपनेपन की, सपोर्ट और सम्मान की। उनके साथ जो होता है, वो उनकी हिम्मत और आत्मविश्वास को पूरी तरह तोड़ देता है। समाज भी उनको नहीं अपनाता, और कई लड़कियों के परिवार भी उन्हें बेसहारा छोड़ देते हैं। हम उन ज़रूरतमंदों को सहारा और आसरा देते हैं।

“मोगैम्बो खुश हुआ…”यह मात्र तीन शब्द का डायलॉग हिंदी सिनेमा के एक नायाब हीरे की पूरी ज़िंदगी को बयान करता है। एक विलेन जो...
13/01/2025

“मोगैम्बो खुश हुआ…”
यह मात्र तीन शब्द का डायलॉग हिंदी सिनेमा के एक नायाब हीरे की पूरी ज़िंदगी को बयान करता है। एक विलेन जो 100 हीरो पर भी भारी था, या फिर यूँ कहूँ कि इस विलेन को और उसके डायलॉग्स को फिल्म के हीरो- हिरोइन से ज़्यादा याद रखा जाता था।
आज बहुत से उम्दा कलाकार हैं हिंदी सिनेमा जगत में, पर शायद ही किसी में बात हो इस एक ‘खलनायक’ की विरासत को सहेजने की। करीब 400 फिल्मों में काम किया और हर बार उनका किरदार एकदम अलग लगता। उन्होंने अपने हर किरदार में ऐसे जान फूंक दी कि उनके असल नाम की बजाय कोई उन्हें मोगैम्बो के नाम से पुकारता है, तो कोई सिमरन के बाबूजी!
जी हाँ, वही ‘जा सिमरन जा… जी ले अपनी ज़िंदगी’ कहकर दर्शकों का दिल जीतने वाले ‘अमरीश पुरी’!
हिंदी सिनेमा का वो नाम जो मुंबई आये तो थे हीरो बनने पर पूरी दुनिया ने उन्हें विलेन के तौर पर जाना। अपने समय के दिग्गज फ़िल्मकार, चाहे श्याम बेनेगल (निशांत, भूमिका, जुबैदा), सुभाष घई (परदेश, मेरी जंग, ताल), यश चौपड़ा (दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगें) हों, या फिर हॉलीवुड के स्टीवन स्पीलबर्ग (इंडिआना जोंस एंड द टेम्पल ऑफ़ डूम), सभी ने उनके साथ काम किया और उनके सब किरदार ऐतिहासिक बन गये।
मजबूर पिता से लेकर खूंखार खलनायक तक, हर एक भूमिका में अमरीश पुरी अपने निर्देशकों और दर्शकों, दोनों की ही उम्मीदों पर खरे उतरे।
बॉलीवुड के मोगैम्बो से लेकर हॉलीवुड के मोला राम तक का सफ़र बिल्कुल भी आसान नहीं था या फिर यूँ कह लें कि अपने पीछे इतनी बड़ी विरसात छोड़कर जाने वाले अमरीश ने परदे की कहानियों में कदम रखने से पहले ज़िंदगी की कहानी में खुद को साबित किया।
22 जून 1932 को लाहौर (अब पाकिस्तान में है) में जन्मे अमरीश पुरी की ज़िंदगी एक लंबे समय तक दो नावों में सवार रही। घर चलाने के लिए उन्होंने करियर की शुरुआत लाइफ इंश्योरेंस एजेंट के तौर पर काम करते हुए की। एक जगह से दूसरी जगह जाना, लोगों से मिलना, उन्हें इंश्योरेंस के लिए राजी करना और न जाने क्या-क्या। पूरा दिन उनका अपने घर की आर्थिक संतुष्टि के लिए समर्पित था।
और फिर शाम में, वे अपने दिल की करते यानी कि थिएटर, जो उनकी आत्म-संतुष्टि के लिए था। सत्यदुबे थिएटर ग्रुप का वे अहम हिस्सा थे और स्टेज एक्टर के तौर पर अच्छे-खासे मशहूर थे। पर हिंदी सिनेमा में उन्हें आसानी से जगह नहीं मिली।
पृथ्वी थिएटर के साथ उनके काम ने उन्हें बहुत मशहूर कर दिया था। साल 1979 में उन्हें थिएटर में उनके उम्दा काम के लिए ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ मिला। इसके बाद उनकी थिएटर प्रसिद्धि के चलते उन्हें टीवी एड्स, फिल्म आदि में काम मिलना शुरू हुआ।
थिएटर में अमरीश की सक्रियता ने उन्हें श्याम बेनेगल से मिलाया, जो उस समय अपनी पहली फिल्म ‘अंकुर’ (1974) पर काम कर रहे थे।
“मेरे पास एक एक्टर था जिसका शरीर तो काफ़ी अच्छा था। पर जब मैंने उसे डायलॉग बोलने के लिए कहा तो उससे नहीं हुआ। उसके डायलॉग की डबिंग के लिए मैंने अमरीश को बुलाया। लेकिन बाद में मुझे लगा कि ‘मैं यह क्यों कर रहा हूँ?’ इसलिए जब मैंने निशांत बनाई तो मैंने अमरीश को उसमें बतौर एक्टर लिया और इसके बाद मैंने जो भी किया, अमरीश उसका हिस्सा रहा,” एक साक्षात्कार के दौरान श्याम बेनेगल ने कहा।
अमरीश और श्याम बेनेगल के बीच गहरी दोस्ती थी और निशांत और भूमिका जैसी फिल्मों में अमरीश की बहुत सराहना हुई। बस यहीं से उनकी सफलता का दौर शुरू हो गया।
साल 1985 में आई ‘हम पांच’ फिल्म की अपर सफलता ने अमरीश को हिंदी सिनेमा के कलाकारों की उस फ़ेहरिस्त में शामिल कर दिया, जहां से अब उन्हें कोई रिप्लेस नहीं कर सकता है।
अमरीश न सिर्फ़ अच्छे एक्टर थे, बल्कि वे बहुत ही संवेदनशील और अनुशासन-प्रिय भी थे। युवा कलाकारों को सेट पर मदद करना, उनका मार्गदर्शन करना और साथ ही, ज़रूरत के समय दोस्तों के काम आना, ये सभी वे बातें हैं जो उन्हें एक बहुत ही अच्छा इंसान बनाती हैं।
उनकी इस खूबी के बारे में बात करते हुए, एक बार श्याम बेनेगल ने बताया था कि अमरीश जिस भी फिल्म में काम करते थे, उस फिल्म की पूरी यूनिट को बहुत ही संगठित और ऑर्डर में रखते थे। उनके अनुशासन के नियम बहुत ही सख्त होते थे। मंथन फिल्म की शूटिंग के दौरान वे लोग संगंवा गाँव में थे, जो कि राजकोट से लगभग 45 किलोमीटर है। उस समय, अमरीश पूरी यूनिट को सुबह 5: 30 बजे उठा डदेते और उन्हें दौड़ पर लेकर जाते।
इससे सर्दी के मौसम में भी पूरा दिन यूनिट के लोग एक्टिव रहते। उनका यह अनुशासन टीम के बाकी लोगों में भी आ जाता और इससे टीम में अच्छा माहौल रहता था। खाने को लेकर भी अमरीश काफ़ी सजग रहते थे।
बेशक, अमरीश पुरी का कोई मुकाबला नहीं, वह एक्टर जिसने 30 साल से भी ज़्यादा अपने अलग-अलग खलनायकों वाले किरदारों के ज़रिए दर्शकों का मनोरंजन किया।

जब भी मेरे दोस्त हमारे चाय के ठेले के पास से गुज़रते, मैं छिप जाता था। लेकिन एक बार किसी ने मुझे देख लिया और मज़ाक उड़ान...
13/01/2025

जब भी मेरे दोस्त हमारे चाय के ठेले के पास से गुज़रते, मैं छिप जाता था। लेकिन एक बार किसी ने मुझे देख लिया और मज़ाक उड़ाना शुरू कर दिया। मुझे 'चायवाला' कहा जाने लगा। बुरा लगता था, लेकिन मैंने उस ओर ध्यान देने के बजाय पढ़ाई पर ध्यान लगाया और जब भी समय मिला पापा की मदद की। हम मिलकर अपना घर चलाने के लिए रोज़ाना 400 रुपये कमा लेते थे, लेकिन मेरे सपने बड़े थे।
- IAS हिमांशु गुप्ता अपनी कहानी बताते हुए कहते हैं।

अक्सर लोग कहते हैं कि जिसके पास कोचिंग में खर्च करने के लिए अच्छे-खासे पैसे हैं, वही IAS बन पाते हैं। गरीबी से जूझ रहे या कम पैसों में चल रहे घर के बच्चों के लिए यह करना मुश्किल है। असल में ऐसा नहीं है; और यह साबित किया है हिमांशु गुप्ता ने, जिनके पिता मजदूरी करते थे और जो खुद एक चायवाले थे। आज वह एक IAS ऑफिसर हैं। हिमांशु गुप्ता की कहानी हर उस उम्मीदवार को प्रेरित करती है जो परेशानियों और कठनाइयों के बीच पढ़ाई छोड़ने के बारे में सोच लेते हैं।

हिमांशु ने बचपन बेहद गरीबी में काटा, स्कूल जाने के लिए रोज़ाना 70 किमी का सफ़र किया। इतना ही नहीं, पिता का हाथ बंटाने के लिए चाय की दुकान पर काम भी किया।

UPSC क्लियर कर IAS बनने वाले हिमांशु गुप्ता के पैरेंट्स स्कूल ड्रॉपआउट हैं। पिता दिहाड़ी मजदूरी करते थे। कमाने के लिए वह चाय का ठेला भी लगाते थे लेकिन उन्होंने कभी भी अपने बेटे की पढ़ाई से समझौता नहीं किया।

लेकिन मेरे सपने बड़े थे। मैं शहर में रहने और अपने परिवार के लिए एक बेहतर जीवन बनाने का सपना देखता था। पापा अक्सर कहते थे, 'सपने सच करने हैं तो पढ़ाई करो!' तो मैंने यही किया। मुझे पता था कि अगर मैं कड़ी मेहनत से पढ़ूंगा, तो मुझे एक अच्छी यूनिवर्सिटी में एडमिशन तो मिल ही जाएगा। लेकिन मुझे अंग्रेजी नहीं आती थी, इसलिए मैं अंग्रेजी मूवी की DVD खरीदता था और उन्हें सीखने के लिए देखता था।

हिमांशु गुप्ता ने साल 2018 में पहली बार UPSC Exam क्लियर किया, तब उनका चयन भारतीय रेलवे यातायात सेवा (IRTS) के लिए हुआ। उन्होंने 2019 में फिर से परीक्षा दी और दूसरे प्रयास में भारतीय पुलिस सेवा (IPS) के लिए चयन हुआ। और फिर 2020 में अपने तीसरे प्रयास में वह भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) में सेलेक्ट हो गए।

सपनों के पीछे भागकर उनको हासिल करना सिखाते हैं हिमांशु। क्या आपको उनसे प्रेरणा मिलती है?

यह विश्वनाथ हैं, पिछले पांच साल से वाराणसी के घाटों पर रह रहे हैं। जब से उनके बच्चों ने उन्हें छोड़ दिया है। वह हर दिन, ...
13/01/2025

यह विश्वनाथ हैं, पिछले पांच साल से वाराणसी के घाटों पर रह रहे हैं। जब से उनके बच्चों ने उन्हें छोड़ दिया है। वह हर दिन, सुबह-सुबह अपनी एक weighing scale लेकर बैठ जाते हैं, इसी उम्मीद से कि कोई रुकेगा और उनकी मदद करेगा। कभी कोई रुकता है, तो कभी कोई भी नहीं आता।
सर्दियों के दौरान इस घाटों पर पड़ने वाली ठंड, इंसान को बर्फ की तरह जमा देती है। विश्वनाथ भी इसी ठंड का सामना करते हैं। लेकिन उनको पता है उनकी किस्मत तय है।
जब हमने उससे पूछा कि क्या उन्हें सर्दियों में कंबल चाहिए, तो उन्होंने हंसकर कहा, "मैं हफ्तों तक एक ही कपड़े पहनता हूं, और आप मुझसे कंबल के बारे में पूछ रहे हैं! मुझे नहीं लगता कि मैं कभी इतना कमा पाऊंगा कि कंबल खरीद सकूं।"

इस सर्दी में, आइए विश्वनाथ जैसे लोगों की जिंदगी में थोड़ी उम्मीदें भरें, आप एक छोटी सी मदद करके उन्हें अपसाइकल कपड़ों से बना कंबल दे सकते हैं।

मुहीम के साथ हमारे साथ जुड़ें और सर्दी के इन दिनों में वाराणसी के ऐसे कई जरूरतमंदों की मदद के लिए आगे आएं। मदद के लिए इस लिंक पर जाएं

https://www.donatekart.com/Elderly/Donate-Blanket-to-needy

 #स्वभाव 🙂
13/01/2025

#स्वभाव 🙂

 #अफवाह 😂😅
13/01/2025

#अफवाह 😂😅

💯✅
13/01/2025

💯✅

 #पैसे 💰
13/01/2025

#पैसे 💰

अंधेरों में साथ...
12/01/2025

अंधेरों में साथ...

12/01/2025

गायत्री शक्ति पीठ द्वारा विशाल विवेकानंद जयंती पर प्रोग्राम लाइव 🚩

ये किसानों के लिय महल हैं...... इससे वो धूप, बारिस, ठण्ड से खुद का बचाव करता हैं खुले खेतों में रहते हुए... इसे हमारी स्...
12/01/2025

ये किसानों के लिय महल हैं...... इससे वो धूप, बारिस, ठण्ड से खुद का बचाव करता हैं खुले खेतों में रहते हुए... इसे हमारी स्थानीय भाषा में छपरिया कहते हैं..... छपरे का छोटा रूप...... इसे हमारी तरफ पियार या जोड़ई (ज्वार ) के पूरे (धान और ज्वार की फसल को उपर से काटने के बाद नीचे का बचा हिस्सा ) से बनाते हैं पहले बांस या लकड़ियों का ढांचा बनाया फिर उपर से पूरे से ढंक दिया....किसान रात इसी में बिताता हैं जिससे वो रात में खेतों को जंगली जानवरों और छुट्टा जानवरों से रक्षा करता हैं..... इस महल में एक खाट, एक टॉर्च, रज़ाई और एक मटका और एक लोटा..... ये किसान की जरूरत का समान अवश्य मिल जाएगा.....

नानी के घर के ठीक सामने सेर का कुआं के बग़ल में बाथम नाना की कच्छबाइ थी उसमें भी ऐसे ही छपरिया बनी रहती थी और हम सब बच्चे ताक में रहते थे कि वो घर जाये और हम सब खेत पर धावा बोल दे...... और कई बार खेत मालिक इसमे एक तरफ छुप कर बैठकर हम सबको पकड़ लेते थे 🥰

 #उम्मीद 🫤
12/01/2025

#उम्मीद 🫤

 #दिन 🙂
12/01/2025

#दिन 🙂

 #समय ⏳
12/01/2025

#समय ⏳

11/01/2025

अब लगता है मारवाड़ में बीजेपी हनुमान बेनीवाल और रविंद्र सिंह भाटी को परेशान करने के लिए कुछ भी कर सकती है ऐसे में इन दोनों नेताओं को एक साथ आना चाहिए

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