17/05/2023
🚩 भाटी राजपूत वंश 🚩
🚩🚩🚩 क्षत्रिय सिरदारों आज मै आपको उस राजपूत वंश की जानकारी प्राप्त कराना चाहता हूं जिसका वंश चंद्रवंशी है , यदु कुलपरंपरा है , लक्ष्मीनाथ जी कुलदेवता है , स्वांगिया कुलदेवी है , श्रीकृष्ण इष्टदेव है , युजुर्वेद वेद है , भगवा पीला रंग धवाज है , भँवर ढोल है , अग्नजोत नगाड़ा है , रतननाथ गुरु है , पुष्करणा ब्राम्हण पुरोहित है , वृक्ष पीपल व कदंब है , भाटी विजयराज चुंडाला पोलपात रतनू चरण है , यमुना नदी है , मांड राग है , वैजयंती माला है , जय श्रीकृष्णा अभिवादन है , एक ढाल पर दुर्ग की बुर्ज व एक योद्धा की नंगी भुजा में मुदा हुआ भाला आक्रमण करते हुए दिखाया गया है वह राजचिन्ह है , एकादशी व्रत है उस राजवंश का नाम भाटी राजवंश है जिनके द्वारा कालगणना के लिए अलग से अपना संवत चलाना उनके वैभव का प्रतीक है उनके अतीत की यह विशिष्ट पहचान शिलालेखों में वर्षों तक उत्कीर्ण होती रही है ।
👏 क्षत्रिय सिरदारों भाटी राजपूत जिसे बरगला भी कहा जाता है और चंद्रवंशी मूल के होने का दावा करते हैं। भाटी कभी-कभी अपने पुराने नाम यादवपती जो कृष्ण और यदु या यादव से उनके वंश को दर्शाते थे जिसका भी प्रयोग किया जाता है।राजस्थान के भाटी राजपूत जैसलमेर व बाड़मेर में ही अधिकतर जाने जाते है । भाटी वंश का इतिहास , भाटियों की मान्यताएं और उनके प्रतिक का सम्पूर्ण वर्णन विस्तार से आपको अवगत करा रहा हूं चंद्र - सर्वप्रथम इस बिंदु पर विचार किया जाना आवश्यक है कि भाटीयों की उत्पत्ति केसे हुयी और प्राचीन श्रोतों पर द्रष्टि डालने से ज्ञात होता है कि भाटी चंद्रवंशी है | यह तथ्य प्रमाणों से भी परिपुष्ट होता है इसमें कोई विवाद भी नहीं और न किसी कल्पना का ही सहारा लिया गया है अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि दूसरे कुछ राजवंशो की उत्पत्ति अग्नि से मानकर उन्हें अग्निवंशी होना स्वीकार किया है । सूर्यवंशी राठोड़ों के लिए यह लिखा मिलता है कि राठ फाड़ कर बालक को निकालने के कारण राठोड़ कहलाये व ऐसी किवदंतियों से भाटी राजवंश सर्वथा दूर है । श्रीमदभगवत पुराण में लिखा है कि चंद्रमा का जन्म अत्री ऋषि की द्रष्टि के प्रभाव से हुआ था । ब्रह्माजी ने उसे ओषधियों और नक्षत्रों का अधिपति बनाया । प्रतापी चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ किया और तीनो लोको पर विजयी प्राप्त की उसने बलपूर्वक ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण किया जिसकी कोख से बुद्धिमान 'बुध का जन्म हुआ । इसी के वंश में यदु हुआ जिसके वंशज यादव कहलाये । आगे चलकर इसी वंश में राजा भाटी का जन्म हुआ । इस प्रकार चद्रमा के वंशज होने के कारण भाटी चंद्रवंशी कहलाये । इस राजवंश की कुल परम्परा यदु भाटी यदुवंशी है जो पुराणों के अनुसार यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है । इसलिए इस वंश में भगवान् श्रीकृष्णा ने जन्म लिया तथा और भी अनेक प्रख्यात नृप इस वंश में हुए । इस राजवंश के कुलदेवता लक्ष्मीनाथजी है वैसे तो राजपूतों के अलग -अलग कुलदेवता रहे है उसी तरह से भाटियों ने लक्ष्मीनाथ को अपना कुलदेवता माना है । इस राजवंश की कुलदेवी स्वांगीयांजी जो भाटियों की कुलदेवी स्वांगयांजी ( आवड़जी ) है । उन्ही के आशीर्वाद और क्रपा से भाटियों को निरंतर सफलता मिली और घोर संघर्ष व् विपदाओं के बावजूद भी उन्हें कभी साहस नहीं खोया | उनका आत्मविश्वास बनाये रखने में देवी -शक्ति ने सहयोग दिया | इस राजवंश के. इष्टदेव श्रीकृष्णा है जो भाटियों के इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्णा है वे उनकी आराधना और पूजा करते रहे है । श्रीकृष्णा ने गीता के माध्यम से उपदेश देकर जनता का कल्याण किया था । महाभारत के युद्ध में उन्होंने पांडवों का पक्ष लेकर कोरवों को परास्त किया । इतना ही नहीं उन्होंने बाणासुर के पक्षधर शिवजी को परास्त कर अपनी लीला व शक्ति का परिचय दिया । ऐसी मान्यता है कि श्रीकृष्णा ने इष्ट रखने वाले भाटी को सदा सफलता मिलती है और उसका आत्मविश्वास कभी नहीं टूटता है । इस राजवंश का वेद
यजुर्वेद है । देखा जाय तो वेद संख्या ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,
सामवेद ,और अर्थवेद चार है इनमे प्रत्येक में संहिता ,ब्राहण, आरण्यक और उपनिषद चार भाग है । संहिता में देवताओं की स्तुति के मन्त्र दिए गए है तथा ब्राहण में ग्रंथो में मंत्रो की व्याख्या की गयी है और उपनिषदों में दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन मिलता है इनके रचयिता गृत्समद ,विश्वामित्र ,अत्री और वामदेव ऋषि थे । यह सम्पूर्ण साहित्य हजारों वर्षों तक गुरु-शिष्यपरम्परा द्वारा मौखिक रूप से ऐक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होता रहा । बुद्ध काल में इसके लेखन के संकेत मिलते है परन्तु वेदों से हमें इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं मिलती है । इसके बाद लिखे गए पुराण हमें प्राचीन इतिहास का बोध कराते है । भाटियों ने यजुर्वेद को मान्यता दी है । स्वामी दयानंद सरस्वती यजुर्वेद का भाष्य करते हुए लिखते है '' मनुष्यों ,सब जगत की उत्पत्ति करने वाला ,सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त सब सुखों के देने और सब विद्या को प्रसिद्ध करने वाला परमात्मा है |. लोगो को चाहिए की अच्छे अच्छे कर्मों से प्रजा की रक्षा तथा उतम गुणों से पुत्रादि की सिक्षा सदेव करें कि जिससे प्रबल रोग ,विध्न और चोरों का आभाव होकर प्रजा व् पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हो । यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की खान है । इश्वर आज्ञा देता है कि सब मनुष्यों को अपना दुष्ट स्वभाव छोड़कर विध्या और धर्म के उपदेश से ओरों को भी दुष्टता आदी अधर्म के व्यवहारों से अलग करना चाहिए ।इस प्रकार यजुर्वेद ज्ञान का भंडार है । इसके चालीस अध्याय में 1975 मंत्र है व इस राजवंश का.गोत्र अत्री कुछ लोग गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से मानने की भूल करते है | वस्तुत गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से नहीं है बल्कि ब्राहण से है जो वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कराता था । विवाह ,हवन इत्यादि शुभ कार्य के समय अग्नि की स्तुति करने वाला ब्राहण अपने पूर्व पुरुष को याद करता है इसलिए वह हवन में आसीन व्यक्ति को वेद के सूक्तों से जिन्होंने आपकी स्तुति की उनका मैं वंशज हूँ । यदुवंशियों के लिए अत्री ऋषि ने वेदों की रचना की थी । इसलिए इनका गोत्र अत्री कहलाया ।
👏 क्षत्रिय सिरदारों इस राजवंश का छत्र मेघाडम्बर है श्री कृष्णा का विवाह कुनणपुर के राजा भीष्मक की पुत्री रुकमणी के साथ हुआ ।श्रीकृष्ण जब कुनणपुर गए तब उनका सत्कार नहीं होने से वे कृतकैथ के घर रुके । उस समय इंद्र ने लवाजमा भेजा । जरासंध के अलावा सभी राजाओं ने नजराना किया । श्रीकृषण ने लवाजमा की सभी वस्तुएं पुनः लौटा दी परन्तु मेघाडम्बर छत्र रख लिया ।श्रीकृष्ण ने कहा की जब तक मेघाडम्बर रहेगा यदुवंशी राजा बने रहेंगे । अब यह मेघाडम्बर छत्र जैसलमेर के राजघराने की शोभा बढ़ा रहा है ।इस राजवंश का ध्वज भगवा पीला रंग जो पीला रंग समृद्वि का सूचक रहा है और भगवा रंग पवित्र माना गया है ।इसके अतिरिक्त पीले रंग का सूत्र कृष्ण भगवान के पीताम्बर से और भगवा रंग नाथों के प्रती आस्था से जुड़ा हुआ है । इसलिए भाटी वंश के ध्वज में पीले और भगवा रंग को स्थान दिया गया है । इस राजवंश का ढोल भंवर है जिसे सर्वप्रथम महादेवजी ने नृत्य के समय 14 बार ढोल बजा कर 14 महेश्वर सूत्रों का निर्माण किया था । ढोल को सब वाध्यों का शिरोमणि मानते हुए पूजते आये है । महाभारत के समय भी ढोल का विशेष महत्व रहा है। ढोल का प्रयोग क और जहाँ युद्ध के समय योद्धाओं को एकत्र करने के लिए किया जाता था वही दुसरी और विवाह इत्यादि मांगलिक अवसरों पर भी इसे बजाया जाता है । भाटियों ने अपने ढोल का नाम भंवर रखा । इस राजवंश का नक्कारा अग्नजोत ( अगजीत) है जो नक्कारा अथवा नगारा (नगाड़ा ) ढोल का ही क रूप है । युद्ध के समय ढोल घोड़े पर नहीं रखा जा सकता था इसलिए इसे दो हिस्सो में विभक्त कर नगारे का स्वरूप दिया गया था । नगारा बजाकर युद्ध का श्रीगणेश किया जाता था । विशेष पराक्रम दिखाने पर राज्य की और से ठिकानेदारों को नगारा ,ढोल ,तलवार और घोडा आदी दिए जाते थे । ऐसे ठिकाने नगारबंद ठिकाने कहलाते थे । घोड़े पर कसे जाने वाले नगारे को 'अस्पी' , ऊंट पर रखे जाने वाले नगारे को सुतरी' और हाथी पर रखे जाने नगारे को ' रणजीत ' कहा गया है ।' भाटियों ने अपने नगारे का नाम अग्नजोत रखा है अर्थात ऐसा चमत्कारी नक्कारा जिसके बजने से अग्नि प्रज्वलित हो जाय ।अग्नि से जहाँ एक और प्रकाश फैलता है और ऊर्जा मिलती है वही अग्नि दूसरी और शत्रुओं का विनाश भी करती है । कुछ रावों की बहियों में इसका नाम '' अगजीत '' मिलता है , जिसका अर्थ है पापों पर विजय पाने वाला ,नगारा । इस राजवंश के .गुरु रतननाथ है जिसका नाथ सम्प्रदाय का सूत्र भाटी राजवंश के साथ जुड़ा हुआ है ।एक ओर नाथ योगियों के आशीर्वाद से भाटियों का कल्याण हुआ तो दूसरी ओर भाटी राजवंश का पश्रय मिलने पर नाथ संप्रदाय की विकासयात्रा को विशेष बल मिला । 9वीं शताब्दी के मध्य योगी रतननाथ को देरावर के शासक देवराज भाटी को यह आशीर्वाद दिया था कि भाटी शासकों का इस क्षेत्र में चिरस्थायी राज्य रहेगा । इसके बारे में यह कथा प्रचलित है कि रतननाथ ने एक चमत्कारी रस्कुप्पी वरीहायियों के यहाँ रखी ।वरीहायियो के जमाई देवराज भाटी ने उस कुप्पी को अपने कब्जे में कर उसके चमत्कार से गढ़ का निर्माण कराया । रतननाथ को जब इस बात का पता चला तो वह देवराज के पास गए और उन्होंने उस कुप्पी के बारे में पूछताछ की | तब देवराज ने सारी बात बतला दी । इस पर रतननाथ बहुत खुश हुए और कहा की '' तू हमारा नाम और सिक्का आपने मस्तक पर धारण कर । तेरा बल कीर्ति दोनों बढेगी और तेरे वंशजों का यहाँ चिरस्थायी राज्य रहेगा । राजगद्दी पर आसीन होते समय तू रावल की पदवी और जोगी का भगवा ' भेष ' अवश्य धारण करना ।' भाटी शासकों ने तब से रावल की उपाधि धारण की और रतननाथ को अपना गुरु मानते हुए उनके नियमों का पालन किया । इस राजवंश के पुरोहित पुष्करणा ब्राहण है जो भाटियों के पुरोहित पुष्पकरणा ब्राहण माने गए है । पुष्कर के पीछे ये ब्राहण पुष्पकरणा कहलाये । इनका बाहुल्य ,जोधपुर और बीकानेर में रहा है । धार्मिक अनुष्ठानो को किर्यान्वित कराने में इनका महतवपूर्ण योगदान रहता आया है ।इस राजवंश का पोळपात रतनू चारण है व भाटी विजयराज चुंडाला जब वराहियों के हाथ से मारा गया तो उस समय उसका प्रोहित लूणा उसके कंवर देवराज के प्राण बचाने में सफल हुए ।कुंवर को लेकर वह पोकरण के पास अपने गाँव में जाकर रुके । वराहियों ने उसका पीछा करते हुए वहां आ धमके ।उन्होंने जब बालक के बारे में पूछताछ की तो लूणा ने बताया की मेरा बेटा है । परन्तु वराहियों को विस्वाश नहीं हुआ । तब लूणा ने आपने बेटे रतनू को साथ में बिठाकर खाना खिलाया । इससे देवराज के प्राण बच गए परन्तु ब्राह्मणों ने रतनू को जाति से वंचित कर दिया । इस पर वह सोरठ जाने को मजबूर हुआ | जब देवराज अपना राज्य हस्तगत करने में सफल हुआ तब उसने रतनू का पता लगाया और सोरठ से बुलाकर सम्मानित किया और अपना पोळपात बनाया । रतनू साख मेंडूंगरसी ,रतनू ,गोकल रतनू आदी कई प्रख्यात चारण हुए है ।
👏क्षत्रिय सिरदारों इस राजवंश की नदी यमुना है क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण की राजधानी यमुना नदी किनारे पर रही । इसी के कारण भाटी यमुना को पवित्र मानते है । इस राजवंश का वृक्ष पीपल और कदम्ब है जहां भगवान् श्री कृष्ण ने गीता के उपदेश में पीपल की गणना सर्वश्रेष्ठ वृक्षों में की है ।वेसे पीपल के पेड़ की तरह प्रगतिशील व् विकासशील प्रवर्ती के रहे है । जहाँ तक कदम्ब का प्रश्न है इसका सूत्र भगवान् श्री कृष्णा की क्रीड़ा स्थली यमुना नदी के किनारे कदम्ब के पेड़ो की घनी छाया में रही थी । इसके आलावा यह पेड़ हमेशा हर भरा रहता है इसलिए भाटियों ने इसे अंगीकार किया हे । वृहत्संहिता में लिखा है की कदम्ब की लकड़ी के पलंग पर शयन करना मंगलकारी होता है । चरक संहिता के अनुसार इसका फूल विषनीवारक् तथा कफ और वात को बढ़ाने वाला होता है । वस्तुतः अध्यात्मिक और संस्कृतिक उन्नयन में कदम्ब का जितना महत्व रहा है । उतना महत्व समस्त वनस्पतिजगत में अन्य वृक्ष का नहीं रहा है । इस राजवंश का .राग मांड है क्योंकि जैसलमेर का क्षेत्र मांड प्रदेश के नाम से भी जाना गया है । इस क्षेत्र में विशेष राग से गीत गाये जाते है जिसे मांड -राग भी कहते है । यह मधुर राग अपने आप में अलग पहचान लिए हुए है मूमल ,रतनराणा ,बायरीयो ,कुरंजा आदी गीत मांड राग में गाये जाने की ऐक दीर्धकालीन परम्परा रही है और इस वंश की माला वैजयन्ती है । भगवान् श्रीकृष्णा ने जब मुचुकंद इक्ष्वाकुवशी महाराजा मान्धाता का पुत्र जो गुफा में सोया हुआ था उसको दर्शन दिया , उस समय उनके रेशमी पीताम्बर धारण किया हुआ था और उनके घुटनों तक वैजयंती माला लटक रही थी । भाटियों ने इसी नाम की माला को अंगीकार किया । यह माला विजय की प्रतिक मानी जाती है व विरुद उतर भड़ किवाड़ भाटी सभी राजवंशो ने उल्लेखनीय कार्य सम्पादित कर अपनी विशिष्ट पहचान बनायीं और उसी के अनुरूप उन्हें विरुद प्राप्त हुआ । दुसरे शब्दों में हम कह सकते है कि विरुद '' शब्द से उनकी शोर्य -गाथा और चारित्रिक गुणों का आभास होता है ।ढोली और राव भाट जब ठिकानों में उपस्थित होते है तो वे उस वंश के पूर्वजों की वंशावली का उद्घोष करते हुए उन्हें विरुद सुनते है भाटियों ने उतर दिशा से भारत पर आक्रमण करने वाले आततायियों का सफलतापूर्ण मुकाबला किया था अतः वे उतर भड़ किवाड़ भाटी अर्थात उतरी भारत के रक्षक कहलाये । राष्ट्रिय भावना व् गुमेज गाथाओं से मंडित यह विरुद जैसलमेर के राज्य चिन्ह पर अंकित किया गया है व इस राजवंश का
अभिवादन जयश्री कृष्णा जो एक दुसरे से मिलते समय भाटी '' जय श्री कृष्णा '' कहकर अभिवादन करते है । पत्र लिखते वक्त भी जय श्री कृष्णा मालूम हो लिखा जाता है । इनका राजचिन्ह का ऐतिहासिक महत्व रहा है। प्रत्येक चिन्ह के अंकन के पीछे ऐतिहासिक घटना जुडी हुयी रहती हे । जैसलमेर के राज्यचिन्ह में एक ढाल पर दुर्ग की बुर्ज और एक योद्धा की नंगी भुजा में मुदा हुआ भाला आक्रमण करते हुए दर्शाया गया है ।श्री कृष्णा के समय मगध के राजा जरासंघ के पास चमत्कारी भाला था । यादवों ने जरासंघ का गर्व तोड़ने के लिए देवी स्वांगियाजी का प्रतिक माना गया है । ढाल के दोनों हिरण दर्शाए गए है जो चंद्रमा के वाहन है नीचे '' छ्त्राला यादवपती '' और उतर भड़ किवाड़ भाटी अंकित है । जैसलमेर -नरेशों के राजतिलक के समय याचक चारणों को छत्र का दान दिया जाता रहा है इसलिए याचक उन्हें '' छ्त्राला यादव '' कहते है । इस प्रकार राज्यचिन्ह के ये सूत्र भाटियों के गौरव और उनकी आस्थाओं के प्रतिक रहे है व भट्टीक सम्वत भाटी राजवंश की गौरव -गरिमा ,उनके दीर्धकालीन वर्चस्व और प्रतिभा का परिचयाक है जैसे चौहान ,प्रतिहार ,पंवार ,गहलोत ,राठोड़ और कछवाह आदी राजवंशों का इतिहास भी गौरवमय रहा है परन्तु इनमे से किसी ने अपने नाम से सम्वत नहीं चलाया । भाटी राजवंश द्वारा कालगणना के लिए अलग से अपना संवत चलाना उनके वैभव का प्रतीक है उनके अतीत की यह विशिष्ट पहचान शिलालेखों में वर्षों तक उत्कीर्ण होती रही है । भाटियों के मूल पुरुष भाटी थे । इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित करते हुए ओझा और दसरथ शर्मा ने आदी विद्वानों ने राजा भाटी द्वारा विक्रमी संवत 680 -81 में भट्टीक संवत आरम्भ किये जाने का अनुमान लगाया है ।परन्तु भाटी से लेकर 1075 ई. के पूर्व तक प्रकाश में आये शिलालेख में भट्टीक संवत का उल्लेख नहीं है । यदि राजा भाटी इस संवत का पर्वर्तक होते तो उसके बाद के राजा आपने शिलालेखों में इसका उल्लेख जरुर करते । भट्टीक संवत का प्राचीनतम उल्लेख देरावर के पास चत्रेल जलाशय पर लगे हुए स्तम्भ लेख में हुआ है जो भट्टीक संवत 452 ( 1075 ई= वि.सं.1132 ) है इसके बाद में कई शिलालेख प्रकाश में आये जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि भट्टीक सम्वत का उल्लेख करीब 250 वर्ष तक होता रहा । खोजे गए शिलालेखों के आधार पर यह तथ्य भी उजागर हुआ है कि भट्टीक सम्वत के साथ साथ वि. सं. का प्रयोग भी वि. सं,. 1418 से होने लगा ।इसके बाद के शिलालेखों में वि. सं, संवत के साथ साथ भट्टीक संवत का भी उल्लेख कहीं कहीं पर मिलता है अब तक प्राप्त शिलालेखों में अंतिम उल्लेख वि. सं. 1756 ( भट्टीक संवत 1078 ) अमरसागर के शिलालेख में हुआ है | ऐसा प्रतीत होता है की परवर्ती शासकों ने भाटियों के मूल पुरुष राजा भाटी के नाम से भट्टीक संवत का आरम्भ किया गया । कालगणना के अनुसार राजा भाटी का समय वि. संवत 680 में स्थिर कर उस समय से हि भट्टीक संवत 1 का प्रारंभ माना गया है और उसकी प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए भट्टीक संवत का उल्लेख कुंवर मंगलराव और दुसज तथा परवर्ती शासकों ने शिलालेखों में करवाया । बाद में वि.सं. और भट्टीक संवत के अंतर दर्शाने के लिए दोनों संवतों का प्रयोग शिलालेखों में होने लगा | एंथोनी ने विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर भट्टीक संवत आदी शिलालेखों कि खोज की है | उसके अनुसार अभी तक 231 शिलालेख भट्टीक संवत के मिले है जिसमे 173 शिलालेखों में सप्ताह दिन ,तिथि ,नक्षत्र ,योग आदी पर्याप्त जानकारियां मिली है | भट्टीक संवत 740 और 899 के शिलालेखों में सूर्य राशियों स्पष्ट रूप से देखि जा सकती है । यह तथ्य भी उजागर हुआ है की मार्गशीर्ष सुदी 1 से नया वर्ष और अमावस्या के बाद नया महिना प्रारंभ होता है । भट्टीक सम्वत का अधिकतम प्रयोग 502-600 अर्थात 1124 -1224 ई. के दोरान हुआ जिसमे 103 शिलालेख है जबकि 1224 -1352 ई. के मध्य केवल 66 शिलालेख प्राप्त हुए है | 1222 से 1250 ई और 1133 से 1352 के मध्य कोई शिलालेख नहीं मिलता है | जहाँ तह सप्ताह के दिनों का महत्व का प्रसन्न है 1124 - 1322 के शिलालेखों में रविवार की आवृति बहुत अधिक है परन्तु इसके बाद गुरुवार और सोमवार का अधिक प्रयोग हुआ है । मंगलवार और शनिवार का प्रयोग न्यून है भाटियो का राव वंश वेलियो ,सोरम घाट ,आत्रेस गोत्र ,मारधनी साखा ,सामवेद ,गुरु प्रोहित ,माग्न्यार डगा ,रतनु चारण तीनपरवर ,अरनियो ,
अपबनो ,अगोतरो ,मथुरा क्षेत्र ,द्वारका कुल क्षेत्र ,कदम वृक्ष ,भेरव ढोल ,गनादि गुणेश ,भगवां निशान ,भगवी गादी ,भगवी जाजम ,भगवा तम्बू ,मृगराज ,सर घोड़ों अगनजीत खांडो ,अगनजीत नगारों ,यमुना नदी ,गोरो भेरू ,पक्षी गरुड़ ,पुष्पकर्णा पुरोहित ,कुलदेवी स्वांगीयाजी ,अवतार श्री कृष्णा ,छत्र मेघाडंबर ,गुरु दुर्वासा रतननाथ ,विरूप उतर भड किवाड़ ,छ्त्राला यादव ,अभिवादन जय श्री कृष्णा ,व्रत एकादशी है भाटी शासक का शासन काल 5000 आज तक भारत के राजवंशो में किसी भी राजवंश का क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा हुआ है । केवल यदुवंश भाटी ही ऐसा वंश है जो 5000 साल लगातार भारत भूमि पर कही न कही शासन करते चले आ रहे है । इतने लम्बे समय में उनकी राजधानिया एंड काल इस प्रकार रहे । राजधानी का नाम काल काशी 900 साल द्वारिका 500 साल मथुरा 1050 साल गजनी 1500 साल लाहोर 600 साल हंसार 160 साल भटनेर 80 साल मारोट 140 साल तनोट 40 साल देरावर 20 साल लुद्र्वा 180 साल जैसलमेर 791 साल इतिहास में 5000 साल के लम्बे समय में 49 युद्ध भारत भूमि की रक्षा के लिए शत्रुओं से लड़े गए उनका क्रमबद्ध वर्णन किया गया है । जिसमे 10 युद्ध गजनी पर हुए इस इतिहास में आदिनारायण से वर्तमान महारावल बृजराज सिंह तक । जैसलमेर के महारावल शालिवाहन 167 के बीच युद्ध हुआ जिसमे महारावल विजयी हुए । भटनेर के तीन शाके तनोट पर एक शाका जिसमे 350 क्षत्रानियो ने जोहर किया रोह्ड़ी का शाका , जैसलमेर के ढाई शाके इस प्रकार कुल साढ़े ग्यारह शाके यदुवंशी भाटियो द्वारा किये गए प्रस्तुत इतिहास में 36 वंशों के नाम यदुवंशियों की 11 शाखाए भाटियो की 150 शाखाएं व उनकी जागीरे भाटियो द्वारा कला साहित्य संगीत चित्रकला स्थापत्य कला जैसलमेर की स्थापना जैसलमेर का राज्य चिन्ह भाटी मुद्रा टोल जैसलमेर के दर्शनीय स्थान सामान्य ज्ञान पटुओ का इतिहास राठौर व परमारों की ख्याति का भी वर्णन है ।
👏 क्षत्रिय सिरदारों यदुवंश का परिचय व इतिहास विस्तृत रुप से भंडार भरा हुआ है । भारत की समस्त जातियों में यदुवंश बहुत प्रसिद्ध है । माना जाता है कि इस वंश की उत्पत्ति श्रीकृष्ण के चन्द्रवंश से हुई है। यदु को सामान्य जदु भी कहते हैं तथा ये पूरे भारत में बसे हुए हैं। श्रीकृष्ण के पुत्रों प्रद्युम्न तथा साम्ब के ही वंशज यादव कहलाये। इन्हीं के वंशज जावुलिस्तान तक गए और गजनी तथा समरकन्द के देशों को बसाया। इसके बाद फिर भारत लौटे और पंजाब पर अधिकार जमाया, उसके बाद मरुभूमि यानी राजस्थान आये, और वहाँ से लङ्गधा, जोहिया और मोहिल आदि जातियों को निकालकर क्रमशः तन्नोट, देराबल और सम्वत् 1212 में जैसलमेर की स्थापना की।जैसलमेर में इसी वंश में ‘भाटी’ नामक एक प्रतापी शासक हुआ। इसी के नाम से यहाँ का यदुवंश भाटी कहलाया। भाटी के पुत्र ‘भूपति’ ने अपने पिता के नाम से ‘भटनेर’ की स्थापना की।यदुवंश के नाम को धारण करने वाले करौली के नरेश हैं। यदुकुल की यह शाखा अपने मूल स्थान शूरसेनी (मथुरा के आसपास का क्षेत्र) के निकट ही स्थित है। इनके अधिकार में पहले बयाना था परन्तु वहां से निष्कासित कर दिए जाने के बाद ,इन्होंने चम्बल के पश्चिम में करौली और पूर्व में सबलगढ़ (यदुवाटी) स्थापित किए।यदुवंश की आठ शाखाएं हैं- यदु करौली के राजा , भाटी जैसलमेर के राजा , जाडेजा
कच्छभुज के राजा , समेचा - सिन्ध के निवासी , मुडैचा , विदमन अज्ञात बद्दा , सोहा है एक शाखा ‘जाडेजा’ जाति है। जाडेजा की दो शाखाएं सम्मा और सुमरा है । सम्मा अपने को श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब का वंशज बताते हैं। कच्छ भुज का राजवंश जाडेजा था। समेचा सिन्ध के मुसलमान हो गए। इस जाति के लोग कई कारणों से सिन्ध के मुसलमानों से ऐसे मिलजुल गये हैं कि अपना जाति अभिमान सर्वथा खो दिया है। यह साम से जाम बन गये हैं। जाडेजों के रीति रिवाज मुसलमानों से मिलते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक वे मुसलमानों का बनाया खाना खाते थे। अब वे पुनः हिन्दुओं की रीति-नीति पर चलने लगे हैं। भाटी - श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युमन के वंशजों में भाटी नामक एक प्रसिद्ध शासक हुआ । उसी के वंशज भाटी कहलाये ।भाटियों की मुख्य रियासत जैसलमेर थी और बीकानेर राज्य में पूगल इनका बड़ा ठिकाना था । यहाँ पहले जैसलमेर से पूर्व जैसलमेर की स्थापना के बाद के रावलों से निकास होने वाली भाटी खांपों का वर्णन किया जाएगा । अभोरिया भाटी जो भाटी के बाद क्रमश भूपति,भीम,
सातेराव,खेमकरण,नरपत,गज,लोमनराव,रणसी,भोजसी, व अभयराव हुए । बालबन्ध अर्थात बालद के पुत्र व राजा भाटी के अनुज अभयराज के वंशज अभोरिया भाटी कहलाये जो वर्तमान में पंजाब में हूं ।गोगली भाटी भोजजी के पुत्र मंगलराव के बाद क्रमशःमंडनराव,सूरसेन,रघुराव,मूलराज,उदयराज व मझबराव हुए । मझबराव के पुत्र गोगली के वंशज गोगली भाटी हुए ।बीकानेर राज्य में जेगली गाँव इनकी जागीर में था | ये भाटी आज भी यहाँ है । सिंधराव भाटी मझबराव के भाई सिंधराव के वंशज सिंधराव भाटी हुए |पूगल क्षेत्र में जोधासर मोतीगढ़,मकेरी,सिधसर,पंचकोला आदि इनकी जागीर थी । बाद में रियासर,चौगान,डंडी,सपेराज व लद्रासर इनकी जागीर रही । लडुवा भाटी मझबराव के पुत्र मूलराज के पुत्र लडवे के वंशज हुए व चहल भाटी मूलराज के पुत्र चूहल के वंशज है व
खंगार भाटी मझबराव के पुत्र गोगी के पुत्र खंगार के वंशज है व धूकड़ भाटी गोगी के पुत्र धूकड़ के वंशज है । बुद्ध भाटी मझबराव के पुत्र संगमराव के पुत्र राजपाल और राजपाल का पुत्र बुद्ध हुआ | इस बुद्ध के बुद्ध भाटी हुए व धाराधर भाटी बुद्ध के पुत्र कमा के नौ पुत्रों के वंशज धाराधर स्थान के नाम से धाराधर भाटी हुए ।कुलरिया भाटी मझबराव के पुत्र गोगी के पुत्र कुलर के वंशज (गोगी के कुछ वंशज अभेचड़ा मुसलमान हैं | )लोहा भाटी मझबराव के पुत्र मूलराज के पुत्र लोहा वंशज है व उतैराव भाटी :-मझबराव के बड़े पुत्र केहर के पुत्र उतैराव के वंशज ।चनहड़ भाटी केहर के पुत्र चनहड़ के वंशज थे व खपरिया भाटी रावल केहर के पुत्र खपरिया के वंशज थे । थहीम भाटी रावल केहर के पुत्र थहीम के वंशज हुए । जैतुग भाटी रावल केहर के पुत्र तनु (तनु के पिता के पुत्र जाम के वंशज साहूकार व्यापारी है । तनु के पुत्र माकड़ के माकड़ सूथार,देवास के वंशज रैबारी,राखेचा के राखेचा,ओसवाल,
डूला,डागा और चूडा के क्रमशः डूला,अदग व चांडक महेश्वरी हुए व घोटक भाटी तनु के पुत्र घोटक के वंशज हुए ।चेदू भाटी तनु के पुत्र विजयराज के पुत्र देवराज हुए | देवराज के पुत्र चेदू के वंशज चेदू भाटी कहलाये और गाहड़ भाटी तनु के पुत्र विजयराज के पुत्र गाहड़ के वंशज कहलाये व पोहड़ भाटी विजयराज के बाद क्रमशः मूध,राजपाल व पोहड़ हुए व छेना भाटी पोहड़ भाई के छेना के वंशज हुए व अटैरण भाटी पोहड़ के भाई अटेरण के वंशज कहलाये व लहुवा भाटी पोहड़ के भाई लहुवा के वंशज हुए व लापोड़ भाटी पोहड़ के भाई लापोड़ के वंशज व पाहु भाटी विजयराज के बाद क्रमशः
देवराज,मूंध,बच्छराज,बपेराव व पाहु हुए | इसी पाहु के वंशज पाहु भाटी कहलाये । जैसलमेर राज्य में चझोता,कोरहड़ी,
सताराई आदि इनके गांव थे । पूगल ठिकाने में रामसर इनकी जागीर था व इणधा भाटी विजयराज के बाद क्रमशःदेवराज,
मूंध,बच्छराज व इणधा हुए ।इसी इणधा के वंशज इणधा भाटी हुए व मूलपसाव भाटी जो इणधा के भाई मूलपसाव के वंशज हुए व धोवा भाटी मूलपसाव के पुत्र धोवा के वंशज व पावसणा भाटी रावल बच्छरा (जैसलमेर) के बाद दुसाजी रावल हुए | दुसाजी के वंशज पाव के पुत्र पावसना भाटी कहलाये व अबोहरिया भाटी रावल दुसाजी के पुत्र अभयराव के वंशज व राहड़ भाटी रावल दुसाजी के पुत्र रावल विजयराज लांजा (विजयराज लांजा के एक वंशज मागलिया के वंशज मांगलिया मुसलमान हुए व हटा भाटी रावल विजयराज के पुत्र हटा के वंशज हुए ।
👏 क्षत्रिय सिरदारों भींया भाटी रावल विजयराज लांजा के पुत्र भीव के वंशज व बानर भाटी विजयराज लांजा के भाई जैसल के पुत्र रावल शालिवाहन द्वितीय हुए । इसी शालिवाहन के पुत्र बानर के वंशज भाटी हुए व पलासिया भाटी रावल शालिवाहन के पुत्र हंसराज हुए व हंसराज के पुत्र मनरूप के वंशज पलास के पलासिया भाटी हुए । हिमाचल प्रदेश में नाहन,सिरमौर,महेश्वर पलासिया भाटियों के राज्य थे ।मनरूप का एक पुत्र नूंनहा और पलासिया भाटियों की दो शाखाएं हिमाचल प्रदेश में हैं व मोकल भाटी शालिवाहन द्वितीय के पुत्र मोकल के वंशज व मनरूप का एक वंशज वधराज नाहम गोद गया व महाजाल भाटी रावल शालिवाहन पुत्र सातल के वंशज महाजाल के वंशल महाजाल भाटी हुए व जसोड़ भाटी रावल शालिवाहन द्वितीय के चाचा तथा रावल जैसल के पुत्र केलण थे । केलण के पुत्र पाहलण के पुत्र जसहड़ के वंशज जसोड़ भाटी हुए । पूगल ठिकाने का बराला गांव इनकी जागीर में रहा व जयचंद भाटी जसहड़ के भाई जयचंद के वंशज व सीहड़ भाटी जयचंद के पुत्र कैलाश के पुत्र करमसी के पुत्र सीहड़ हुआ इसी सीहड़ के पुत्र सिहड़ भाटी हुए व बड़ कमल भाटी जयचंद भाटी के भाई आसराव के पुत्र भड़कमल के वंशज व जैतसिंहोत भाटी रावल केलण (जैसलमेर) के बाद क्रमशः चाचक,तेजसिंह व जैतसिंह हुए । इसी जैतसिंह के वंशज जैतसिंहोत भाटी हुए व चरड़ा भाटी :-रावल जैतसिंह के भाई कर्णसिंह के क्रमशः लाखणसिंह,पुण्यपाल व चरड़ा हुए । इसी चरड़ा के वंशज चरड़ भाटी हुए व लूणराव भाटी जैसलमेर के रावत कर्णसिंह के पुत्र सतरंगदे के पुत्र लूणराव के वंशज व कान्हड़ भाटी रावल जैतसिंह के पुत्र कान्हड़ के वंशज व ऊनड़ भाटी कान्हड़ के भाई ऊनड़ के वंशज व सता भाटी कान्हड़ के भाई ऊनड़ के वंशज व कीता भाटी सता के भाई कीता के वंशज व गोगादे भाटी कीता के भाई गोगादे के वंशज व हम्मीर भाटी :-गोगादे के भाई हम्मीर के वंशज व हम्मीरोत भाटी जैसलमेर के रावल जैतसिंह के बाद क्रमशः मूलराज,देवराज व हम्मीर हुए इसी हम्मीर के वंशज हम्मीरोत भाटी कहलाते हैं जैसलमेर राज्य में पहले पोकरण इनकी थी मछवालों गांव भी इनकी जागीर में था । जोधपुर राज्य में पहले खींवणसर पट्टे में था । नागौर के गांव अटबड़ा व खेजड़ला इनकी जागीर में था जोधपुर राज्य में बहुत से गांव में इनकी जागीर थी और अर्जुनोत भाटी हम्मीर के पुत्र अर्जुन अर्जुनोत भाटी हुए और केहरोत भाटी रावल मूलराज के पुत्र रावल केहर के वंशज और सोम भाटी रावल केहर के पुत्र मेहजल के वंशज हुए व मेहाजलहर गांव (फलोदी) इनका ठिकाना था व रूपसिंहोत भाटी सोम के पुत्र रूपसिंह के वंशज व मेहजल भाटी सोम के पुत्र मेहजल के वंशज हुए व मेहाजलहर गांव (जैसलमेर राज्य) इनका ठिकाना रहा है और जैसा भाटी रावल केहर के पुत्र कलिकर्ण के पुत्र जैसा के वंशज जैसा भाटी हुए । जैसा चित्तौड़ गए । वहां ताणा 140 गांवों सहित मिला था ।इनके वंशज नीबा राव मालदेव जोधपुर के पास रहे थे । जोधपुर राज्य में इनकी बहुत से गांवों की जागीर थी | इनमें लवेरा (25 गांव) बालरणा (15 गांव), तीकूकोर आदि मुख्य ठिकाने थे ।बीकानेर राज्य में कुदसू तामजी ठिकाना था व सॉवतसी भाटी कलिकर्ण के पुत्र सांवतसिंह के वंशज | कोटडी (जैसलमेर) इनका मुख्य ठिकाना था और एपिया भाटी सांवतसिंह के पुत्र एपिया के वंशज व तेजसिंहोत भाटी रावल केहर के पुत्र तेजसिंह के वंशज हुए और साधर भाटी रावल केहर के बाद क्रमशः तराड़,कीर्तसिंह, व साधर हुए | इसी साधर के वंशज साधर भाटी कहलाये । गोपालदे भाटी रावल केहर के पुत्र तराड़ के पुत्र गोपालदे के वंशज हुए व लाखन (लक्ष्मण) भाटी रावल केहर के पुत्र रावल लाखन (लक्ष्मण) के वंशज कहलाये ।राजधर भाटी रावल लाखन के पुत्र राजधर के वंशज हुए जैसलमेर राज्य मेंधमोली,सतोई,पूठवास,धधड़िया,सुजेवा आदि ठिकाने थे व परबल भाटी रावल लाखन के पुत्र शार्दूल के पुत्र पर्वत के वंशज कहलाये व इक्का भाटी रावल लाखन के बाद क्रमशःरूपसिंह,
मण्डलीक व जैमल हुए जैमल ने भागते हुए हाथी को दोनों हाथों से पकड़ लिया अतः बादशाह ने इक्का (वीर) की पदवी दी | इन्हीं के वंशधर इक्का भाटी कहलाये | ये भाटी पोकरण तथा फलौदी क्षेत्र में हैं व कुम्भा भाटी रावल लाखन के पुत्र कुम्भा के वंशज | दुनियापुर गांव इनकी जागीर में था ।। केलायेचा भाटी रावल लाखन के बाद क्रमशः बरसी,अगोजी व कलेयेचा हुए । इन्हीं केलायेचा के वंशज केलायेचा भाटी कहलाये व भैसड़ेचा भाटी रावल लाखन के पुत्र रावल बरसिंह के पुत्र मेलोजी के वंशज व सातलोत भाटी रावल बरसी के पुत्र रावल देवीदास के पुत्र मेलोजी के वंशज व मदा भाटी रावल देवीदास के पुत्र मदा के वंशज हुए व ठाकुरसिंहोत भाटी रावल देवीदास के पुत्र ठाकुरसिंहोत के वंशज हुए व देवीदासोत भाटी रावल देवीदास के पुत्र रामसिंह के वंशज हुए व देवीदास दादा के नाम से देवीदासोत भाटी कहे जाने लगे सणधारी (जैसलमेर राज्य) इनका ठिकाना था व दूदा भाटी रावल देवीदास के पुत्र दूदा के वंशज व जैतसिंहोत भाटी रावल देवीदास के पुत्र रावल जैतसिंह के पुत्र मण्डलीक के वंशज जैतसिंह के नाम से जैतसिंहोत भाटी कहलाये व बैर