31/01/2021
राजघाट मत जाना..
राजघाट जाकर मुझको अचरज ही हुआ। यह अचरज बुद्धि में दर्ज़ हुआ, जैसे पाठशाला की हाज़िरी। हृदय में भावना की वह वस्तु नहीं बना, जैसे गुदड़ी में धान का शोध। किंतु बुद्धि इतना तो बूझ ही गई कि सभी राजा, प्रधान, सामंत यहां आकर शीश क्यों नवाते हैं? यहां गांधी जी का समाधिलेख जो है। यहां गांधी जी के चरणचिह्न नहीं हैं।
राजघाट पर गांधी का कुछ नहीं है। ठीक वैसे ही, जैसे डाक-टिकट पर गांधी का कुछ नहीं, राष्ट्रीय मुद्रा पर कुछ नहीं, चौक बाज़ार की मूरत में नहीं, कार्यालय के चित्र में नहीं। वहां केवल अनुकूलताएं हैं। नुमाइंदगी का आरामदेह विचार है। विग्रह की पूजा सरल होती है। व्यक्ति का अनुशीलन दुर्निवार है। राजघाट शवसाधना का स्थल है। उसी रीति के गुणगाहकों को वह वहां बुलाता है। गांधी का चरखा जहां पड़ा है, वहीं दिल्ली में भला कोई क्यों कर जावै?
बड़ी भीड़। भारी चहल-पहल। ख़ूब चिल्ल-पौं। परिवार के जन नया कपड़ा पहनकर आते हैं। घास पर बैठकर तस्वीरें उतारते हैं। यहां लेकिन आप कुछ चना-चबैना नहीं खा सकते। खाने-पीने का सामान ले जाने की मनाही है। एक "धत्तेरे की!" जाने कितने मन में गूंजता होगा। चिप्स की प्लास्टिक थैली तो ले जाना सम्भव ही होना चाहिए ना। क्या ये छुट्टी मनाने की जगह नहीं?
प्रवेशद्वार पर एक मशीन यह जांचती थी कि आप अपने साथ कोई असलहा तो भीतर नहीं ले जा रहे। तीस जनवरी मार्ग पर इसी नाम की तारीख़ को सन् उन्नीस सौ अड़तालीस में तो किसी ने वैसी जांच नहीं की थी? किंतु मुझको रोक लिया गया।
-बैग में क्या ले जाते हैं, दिखलाइये।
-दूर-गांव से आया हूं, गांधी बाबा की समाधि पर माथा टेकना है, झोले में क्या होगा, सिवाय कपड़ा-लत्ता के।
-ये मिठाई का डिब्बा भीतर नहीं ले जा सकते।
-तो यहीं छोड़ जाऊं, लौटते समय लेता जाऊंगा।
-नहीं, यहां छोड़ नहीं सकते, न भीतर ले जा सकते हैं। आगे आप ख़ुद ही देख लीजिए।
ये भली मुसीबत। हम बाहर गए और जहां चाट-फुल्की के खोमचे थे, उनसे कहा- भैया, ये मिठाई का डिब्बा रख लीजिए, हम तनिक भीतर घूम आएं। गांधी जी के भगत हैं, उनकी समाधि देखना है। वो बोले- हम तो ये जवाबदेही वाला काम नहीं करते। हमने हाथ जोड़े। उन्होंने कहा- दस मिनट में आ जाइये, नहीं तो हम चले जाएंगे। हमने कहा- वह भी भला ही होगा। आपके बच्चे मिठाई खाएंगे। हमको दुआ देंगे। आगरे का पेठा है।
वो मुस्करा दिए। राज़ी हो गए। हम भीतर चले गए। हमसे बिड़ला हाउस पर तो वैसे किसी ने नहीं कहा? ना किसी मशीन ने हमें सूंघा। ना किसी जवान ने हमको टोका। ना किसी ने हमसे बस्ता रखवाया। मिठाई छुड़वाई।
जीवन में चौदह मर्तबा गांधी बाबा बिड़ला भवन में आकर रहे। फिर आख़िरी के एक सौ चवालीस दिन वहां बिताए। वही स्थान फिर गांधी बाबा का अंतिम प्रयाण सिद्ध हुआ। वहीं मरे। वहीं खपे। चप्पे-चप्पे पर चरण चिह्न। यहां चरखा पड़ा है। यहां जस्ते की लुटिया, जिससे पानी पीकर प्रार्थना सभा को गए थे। ये चरण पादुका, ये कमर घड़ी, ये चश्मे की कमानी। देरी हो रही थी तो इसी दरवाज़े से सभा को चले गए। यहां बैठकर प्रवचन करते थे। अंतिम दिन इस रास्ते से गए। यहां मुड़े। यहां उनको गोली मारी। यहां राम कहकर गिरे। यहां रक्त बहा।
राजघाट में क्या था, सिवाय भस्म के? भस्म पर बने स्तूप के? समाधि के शिलालेख के? और घास के, जिस पर बच्चे दौड़ते थे?
सरकार-बहादुर राजघाट जाती है। साहब लोग आते हैं, तो वहीं जाते हैं। परदेशी प्रधान आते हैं तो उनका ठौर भी वहीं। बिड़ला हाउस कोई नहीं जाता। जीवित आदमी से डर लगता है तो मरे हुए की अंगुलियों की छापें भी कम नहीं डरातीं। शिलालेख ठीक है। वह कुछ कहता नहीं, कुछ याद नहीं दिलाता। असहज कर देने वाले प्रश्नों से लज्जित नहीं करता। शिलालेख का पत्थर भी देखो तो कैसा चटखीला है। ज़रा फ़र्श देखो तो कैसा तो चमचमाता है। बरखा में यहां नंगे पांव चलो तो फिसलके गिर पड़ने का अंदेशा रहे, काई नहीं होने के बावजूद।
और इसके बावजूद मैं आपसे कहूंगा कि दिल्ली के किसी गांधी-धाम जाना हो तो राजघाट मत जाइयेगा। राजघाट पर प्रधान लोग जाते हैं। वो भी नित्यप्रति नहीं जाते, बस साल में दो दिन अर्ज़ी लगाते हैं। फूल चढ़ाते हैं। फ़ोटो खिंचाते हैं। सायरन बजाती पेशवाई फिर राजपथ को लौट जाती है। आप ऐसे मत जाना, आप ऐसे मत लौटना। आप राजघाट मत जाना, आप बिड़ला हाउस जाना।
आप वो चबूतरा देखना, जहां गांधी प्रवचन करता था। वो अहाता देखना, जहां गांधी का पांव पड़ा था। वो बरामदा देखना, जहां बूढ़े ने अपना आख़िरी फ़ाक़ा किया था। वो कमरा देखना, जहां वो सोता था। 29 की रात को भी सोया होगा, धरा के इस धाम पर यह अंतिम तंद्रा है, ऐ प्रभु, कौन जाने यही सोचकर।
दिल्ली के किसी गांधी-धाम जाना हो तो बिड़ला हाउस जाना। राजघाट मत जाना। राजघाट झूठा गौरव देता है। सच्ची लज्जा से नहीं भरता। भावुक नहीं करता। राजघाट बुद्धि की वस्तु है, हृदय की नहीं। राजघाट राजा के लिए है, प्रजा के लिए नहीं। प्रजा बनकर जाना।
प्रजावत्सल पिता का रक्त घास के जिस बित्ते पर गिरा, वहां दो घड़ी बैठना।
-सुशोभित
"गांधी की सुंदरता"