15/12/2024
धर्माराधना द्वारा अपनी आत्मा को मित्र बनाए मानव : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण
अपने आराध्य को विदा करने उमड़ा वडोदरा, जन-जन को आशीष देने में लगे कई घंटे
12 कि.मी. का विहार कर आचार्यश्री का कोयली में पावन पदार्पण
स्वयं की आत्मा को मित्र बनाने को आचार्यश्री ने किया अभिप्रेरित
15.12.2024, रविवार, कोयली, वड़ोदरा (गुजरात) , संस्कारी नगरी वडोदरा में आध्यात्मिकता की अलख जगाने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी रविवार को प्रातः जब वडोदरा से विहार के लिए तत्पर हुए तो श्रद्धालु जनता मानों अपने आराध्य से निवेदन कर उठी, गुरुदेव! कुछ दिन और कृपा कराओ। इस भावना को लेकर मानों वडोदरा का जन-जन आध्यात्मिक अनुशास्ता को विदाई देने के लिए प्रातःकाल से ही अपने-अपने स्थानों पर करबद्ध नजर आ रहा था। भावविभोर जनता की भावनाओं पर कृपा कराते हुए, जन-जन पर आशीष वृष्टि करते हुए गंतव्य की ओर बढ़ते जा रहे थे, लेकिन जनभावना का प्रवाह मानों आज ज्योतिचरण को जकड़े हुए था। आचार्यश्री वडोदरा के तेरापंथ भवन में पधारे और वहां उपस्थित जनता को मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। इसके उपरान्त भी आचार्यश्री वडोदरा में अनेक स्थानों पर उपस्थित श्रद्धालुओं को आशीष और मंगलपाठ प्रदान किया, इस कारण विहार में विलम्ब हुआ।
वडोदरा से बाहर निकले से पूर्व ही मुनि उदितकुमारजी तथा अन्य संत जो बहिर्विहार में जाने वाले थे, आचार्यश्री से विदा ली। ़युगप्रधान आचार्यश्री लगभग बारह किलोमीटर का विहार कर कोयली गांव में स्थित राजकीय विद्यालय में पधारे। रविवार का दिन होने के कारण आसपास सैंकड़ों की संख्या में श्रद्धालु अपने आराध्य की सन्निधि में उपस्थित थे।
विद्यालय परिसर में सम्मुख उपस्थित श्रद्धालु जनता को शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन संबोध प्रदान करते हुए कहा कि दुनिया में मित्र भी होते हैं। बच्चे और बड़े सभी के जीवन में मित्र होते हैं। मित्र आदमी के जीवन के सुख-दुःख में काम आते हैं और जीवन में सहयोगी बनते हैं। मित्रता का अनुबंध कई जन्मों तक भी चल सकता है। शुत्रता का संबंध भी कई जन्मों तक चलने वाला हो सकता है। शास्त्र में एक बात बताई गई कि आदमी के जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण मित्र भी स्वयं की आत्मा और सबसे बड़ी शत्रु भी स्वयं की आत्मा होती है। इस संदर्भ में यह भी कहा गया कि हे पुरुष! तुम्हीं तुम्हारे मित्र हो। निश्चय की भूमिका यह बहुत बढ़िया बात है। दूसरे मित्र भला कितने दुःख को दूर कर सकते हैं। कुछ दुःख और तकलीफ ऐसे होते हैं जो कि मित्र और परिजनों के होते हुए भी स्वयं को ही सहन करना पड़ता है।
आदमी अपनी आत्मा को मित्र बना ले तो सुख की प्राप्ति भी संभव हो सकती है। आदमी की आत्मा जब अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि में रमती है तो वह आत्मा आदमी की मित्र बनती है और जब वह आत्मा हिंसा, चोरी, झूठ, कपट, छल, व्यभिचार आदि की ओर ले जाती है तो वह आत्मा आदमी की शत्रु बन जाती है। गुस्सा करने से आत्मा शत्रु और शांति व क्षमा में रहने से आत्मा मित्र बनती है। संक्षेप में कहें तो जहां धर्म का आचरण होता है, वहां आत्मा मित्र बनती है और जहां पाप से युक्त आचरण होता है, वही आत्मा उसकी दुश्मन बन जाती है। इसलिए आदमी को अहिंसा, ईमानदारी, सच्चाई व शांति में रहते हुए अपनी आत्मा को मित्र बनाने का प्रयास करना चाहिए। आत्मा शत्रु न बने, इसलिए आदमी को धर्म के पथ पर चलने का प्रयास करना चाहिए। पूर्व के पुण्यकर्मों से वर्तमान जीवन में सुख प्राप्त हो रहा है, लेकिन आगे के लिए भी आदमी को धर्म-ध्यान के माध्यम से सुख प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। त्याग, तपस्या, साधना, स्वाध्याय आदि के द्वारा आदमी को अपनी आत्मा को मित्र बनाने का प्रयास करना चाहिए। श्रावक जीवन भी त्याग, संयम, सामायिक भी अपनी आत्मा को मित्र बनाने का उपाय हो सकता है। मानव धर्माराधना के द्वारा अपनी आत्मा को मित्र बनाने का प्रयास करे।