18/12/2023
ग्लोबल थिंकिंग, विश्वगुरुत्व और अंतरराष्ट्रीय आकांक्षाएं भारत मे जन्म ले चुकी है, इसका विश्वास तब कीजिएगा...
जब तारासिंह, ट्रक से तिब्बत पार कर बीजिंग जाये। और पीएलए को ठोककर, हैंडपंप उखाड़कर xin xhiiana नामक सुंदरी को उठा लाये।
ओ मैं निकला , गड्डी लेके
रस्ते में, थेंन आँनमन चौक आया
मैं उत्थे दिल छोड़ आया..
फिर जरूरी ये, कि ऐसी कल्पना वाली फ़िल्म देखने मे आपकी विलेज प्रस्फटित न हो।
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महसूस करता हूँ कि चीन को लेकर आम भारतीय में भय है। आलम यह है कि लोग भी उस पर बात रखने से घबराते हैं ।
चीन पर लिखो, तो उसके आगे पीछे की बकवास पोस्ट पर हिहि-हाहा की पहुँच तेज होती है। मगर चीन का विषय कोई छूना नही चाहता।
पाकिस्तान से लड़ने या प्रेम करने वाली बात कर दो तो हजारों लोग ओपिनियन देने कूद पड़ते है।
पाकिस्तान से डर नही लगता साहब
चीन से लगता है।
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कोको आइलैंड, नेहरू ने म्यांमार को दिया ( झूठ है) सुनकर रोष होता है। POK जीतने की बात सुनकर जोश होता है। ये रोष और जोश, उत्साह और आत्मविश्वास का द्योतक है।
पर अरुणाचल और अक्साई चिन की बात सुनकर, हम कुंठित होते है। कुंठा अशक्तता की द्योतक है, लैक ऑफ कॉन्फिडेंस है।
तो हमारे कवि रावलपिंडी पर चढ़ जाने की कविताएं सुनाते है, महफ़िल लूट लेते हैं। कभी देखा कि उन्होंने बीजिंग पर चढ़ाई करने की कविता सुनाई हो ??
न। पता है तालियां नही बजेंगी। उल्टे, सन्नाटा छा जाएगा। ठंडी लहर दौड़ जाए। कवि चीन पर कविताएं नही सुनाता।
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नेता भी सर्जिकल स्ट्राइक पाकिस्तान और म्यांमार में करता है। चीन पर तो बस- सांत्वना देता है - न कोई घुसा है, न कोई आया है।
जनता इस झूठ को जानते बूझते हुए भी गले उतार लेती है। 20 फौजियों की लाशें, सम्भवतः आत्महत्या की वजह से आई होंगी, मानने को वो तैयार है।
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इस स्टेट ऑफ माइंड पहले नही था।
ये ताजा है।
जो पीढ़ी चीन से हारी, वो तो 5 साल में उबर गयी। फिर हमने 1967 में मात दी।
हमने 1987 में मात दी। फिर तो 30 साल चीन ने हिमाकत नही की। उसके बाद फिर क्या हुआ कि हम डर गए??
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नही। कोई घटना नही हुई।
ये तो बस, ये डर की एक नई संस्कृति है।
पहली बार गलवान घाटी में मनमोहन ने हिचक दिखाई, मामला लम्बा खींचा। उनकी एप्रोच ओवरकाँशियस थी, अंदाज लो प्रोफ़ाइल था,
दूसरे शव्दों में- डिफिटिस्ट था।
इस दौर में हम चीन का आर्थिक उभार देखते रहे। साउथ चाइना सी में अमेरिका समेत पूरे वर्ल्ड को आँखें दिखाते देखते रहे। उसके वैश्विक एलायंस, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव, उसके उभार की खबरे देखते रहे।
जिसने 62 की ग्रंथि को उभार दिया।
तो डोकलाम और अब लद्दाख में हम सरेंडर मुद्रा में थे। हमारा तो विदेश मंत्री सार्वजनिक माध्यम पर खुलेआम कहता है कि 5 गुना बड़ी इकॉनमी से कैसे लड़ें।
पीएम टीवी रोज नेहरू की याद दिलाता है। उसने जमीन खोई, तो भला मै भी क्यो न खोऊँ??
जानो मानो हर पीएम को एक स्वेच्छाधीन कोटा है चीन को जमीन देने का। एक हार नेहरू ने हासिल की। एक दो हार पे ये भी डिस्काउंट चाहता है।
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पर प्रधानमंत्री और विदेशमंत्री का दोष नही। वो भी हमारे समाज से निकले हुए लोग हैं।
जैसे हम डरे हुए है, हमारा नेता भी बीच डरा हुआ है। उसको खुदा मानने वाला मास बेस, डरा हुआ है। ब्यूरोक्रेसी डरी है, और मुझे लगता है कि शायद फ़ौज भी डरी हुई है।
( यह लाइन लिखी कि ट्रोल करने तो आओ, कम से कम)
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डरने की ये संस्कृति बड़ी सफाई से बुनी गई थी। एक आदमी को मसीहा बताने के लिए तरह तरह के डर दिखाए गए है।
फिर वो मसीहा भी अपनी ताकत से हमे डराने में लगा है। डराने वाला लोकप्रिय है।
डरने डराने में इज्जत है। तो डर अब हमारी लोकभाषा का स्वभाविक हिस्सा है।
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हम डर की इस सँस्कृति से, खतरे में हैं।
निडरता लड़ने के लिए चाहिए, पर शांति के लिए भी वैसी ही निडरता चाहिए। आप बांग्लादेश को निडर होकर जमीन देते हैं। भय और शर्म नही, गर्व से देते है, ग्रांट करते है।
आप यह पाकिस्तान के साथ भी कर लेंगे। उससे हमे डर जो नही लगता।
नेहरू, इंदिरा, अटल जिन्होंने कश्मीर का समाधान खोजने की कोशिश की, तो फाइनल पॉइंट यही था कि LOC को बॉर्डर का स्टेटस दिया जाए।
स्टेट्समैन जानते है कि युद्ध से टेटेटरी जीती जा सकती है, कब्जाई नही जा सकती। वरना 71 के बाद, बांग्लादेश भारत में विलय क्यो नही होता??
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तो कोई समझौता, लैंण्ड स्वेपिंग, लेन देन से होता है। दो देश, एक दूसरे पर भरोसे, या अपनी ताकत के आत्मविश्वास, और निडरता की वजह से कर पाते है।
डरा हुआ देश, शांति नही ला सकता। इस डर से निकलने की जरूरत है। देश को डर की संस्कृति से बचाने की जरूरत है।
गुनगुनाने की जरूरत है।
ओ मैं निकला , गड्डी लेके
रस्ते में, थेंन आँनमन चौक आया
मैं उत्थे दिल छोड़ आया
Reborn Manish sir