29/04/2024
कर्ण: नायक नहीं खलनायक हूं मैं
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सबसे बड़ा छल जो आने वाली पीढ़ियों के साथ किया जा सकता है, वह है कि हम बच्चों के मन में खलनायकों या प्रतिनायकों को नायक बना दें।
जब आप बच्चों के मन में गलत नायक का रोपण कर देते हैं, तो उनके कोमल मन का वह कोना जहां दैवीय नायकत्व को स्थान मिलना था, वहां कलुषित विकृति स्थान बना लेती है। यह विकृति फिर अन्य विकृतियों को जन्म देती है।
मुझे यह मानने में कोई संकोच नहीं कि मैं भी इस षड्यंत्र का शिकार हुआ। हम बात कर रहे हैं महाभारत के खल पात्र कर्ण की, और उसका महिमा मंडन करने वाले महाभारत पर अपनी कलम चलाने वाले 'नेहरूवियन रोमांटिसिज्म' से प्रभावित लेखकों की एक पूरी जमात की।
इस पूरे लेखन में 'जाति' का अपना एक अलग पक्ष है। कर्ण से सहानुभूति बिलकुल एक उसी तरह का 'फील' है, जैसी कि अमिताभ बच्चन के शुरुआती फिल्मों का जॉनर। गरीब सर्वहारा की क्रान्ति। जहां कुलीन होना या समृद्ध होना पाप है और 'कुली' 'तांगेवाला' या सूतपुत्र होना नायक होने की एकमात्र शर्त है।
यह 'संक्रमण' इतना गहरा होता है कि बालक मन इसके चपेट में आ ही जाता है। आपको बताऊं कि नौंवी कक्षा में मुझे पूरी 'रश्मिरथी' याद थी, आज भी है। इसमें कौतुक और रस उत्पन्न करने की क्षमता तो है ही। पर है यह झूठ का झुनझुना।
शिवाजी सावंत की पुस्तक मृत्युंजय, रामधारी सिंह दिनकर की रश्मिरथी ( इसके प्रचार का एक कारण इसका माध्यमिक शिक्षा के सिलैबस में बतौर खंडकाव्य शामिल होना भी है), वेदप्रकाश काम्बोज की कुन्ती पुत्र कर्ण, चित्रा बनर्जी की लिखी पुस्तक " द पैलेस ऑफ इल्यूजन्स", रंजीत देसाई की 'राधे' और कविता केन की किताब " कर्ण्स वाइफ: द आऊटकास्ट क्वीन" इन सबने मिलकर कर्ण के मूल चरित्र से हटकर एक तरह के नये "कृत्रिम नायकत्व" को गढ़ दिया । रही सही कसर बंबईया धारावाहिकों ने पूरी कर दी।
मृत्युंजय और रश्मिरथी दोनों ऐसा लगता है जैसे इन्हें कृष्णार्जुन से द्वेष है, पांडवों से द्वेष है, द्रोण विदुर भीष्म से द्वेष है। मूल महाभारत ठहर कर पढ़िए तो यह छल स्पष्ट होता है।
रश्मिरथी तो झूठ से ही शुरू होती है। कर्ण को माने ऐसा बताते हैं कि बिना गुरु के ही धनुर्वेद का ज्ञाता हो गया है। ध्यान रहे कि धनुर्वेद एक उपवेद है। वेद, उपवेद, वेदांग यथा ज्योतिष तथा आगम आदि बिना गुरु के नहीं ग्रहण किए जा सकते।
महाभारत के महत्वपूर्ण 'क्रक्स मटीरियल्स' में यह तत्व भी सर्वत्र उपस्थित है। कौन सा तत्व? गुरु शिष्य संबंध! सुयोग्य गुरु अथवा शिष्य प्राप्त कर लेने की उत्कंठा। यह परशुराम, भीष्म, कृष्ण, अर्जुन, एकलव्य, कर्ण, अभिमन्यु, द्रौपदी सभी के जीवन चरित्र में प्रतिभासित है।
दिनकर ने भारतीय गुरु परम्परा के देदीप्यमान नक्षत्र द्रोणाचार्य को कैसा प्रदर्शित किया है-
'सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँगा इस प्रचण्डतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा'
कहां है भैय्या यह प्रकरण महाभारत में। लेखकीय स्वतंत्रता कम से कम ऐतिहासिक और पौराणिक चरित्रों के संदर्भ में तो न ही लीजिए।
और, यह भारतीय परम्परा तो नहीं कि किसी एक का चरित्र निर्माण करने के लिए दूसरे व्यक्ति का चरित्र हनन किया जाए।
इस विषय में महाभारत का सच यह है कि कर्ण धनुर्विद्या सीखने के लिए परशुराम, द्रोण और कृपाचार्य इन तीनों के पास जाता है। जबकि वह जिसे प्रतिद्वंद्वी मानता है, उनके केवल एक गुरु हैं धनुर्वेद के।
अब देखें, जैसे बार बार अपने इष्ट देवता बदलना व्यभिचारिणी भक्ति कहलाती है, वैसे ही आध्यात्मिक विषयों में बार बार गुरु बदलना भी बहुत उत्तम नहीं मानते। कर्ण की स्थिति को समझिए।
उधर शिवाजी सावंत जिसे अपराजेय मानते हैं, वह कर्ण महाभारत में अनेकों बार पराजित हुआ है-
१) द्रुपद ने हराया एक बार – (आदि पर्व /१३७ )
२) अर्जुन से पाँच बार –
क) द्रौपदी स्वयंवर (आदिपर्व /१८९ ),
ख) विराट युद्ध (विराट पर्व / ६० ),
ग) कुरुक्षेत्र (द्रोण पर्व / १५९ ),
घ) कुरुक्षेत्र (द्रोण पर्व/145)
ङ) कुरुक्षेत्र (कर्ण पर्व / ९१ )
३) गन्धर्व चित्रसेन से एक बार- (वन पर्व /२४१)
४) भीमसेन से चार बार (द्रोण पर्व /१२९, १३१, १३४,१३६, कर्ण पर्व / ५० )
५। युधिष्ठिर से एक बार ( (कर्ण पर्व /४९ )
६। अभिमन्यु से एक बार (द्रोण पर्व /४० )।
७। अर्जुन के शिष्य सात्यकि से एक बार (द्रोण पर्व /१४७ )
सावंत, काम्बोज, दिनकर कर्ण को मनुष्यता का पोषक बताते हुए उसे कृष्ण, इन्द्र, भीष्म आदि के मुख से प्रशंसित कराते हैं, जबकि कर्ण किसी अन्य की पत्नी को बलपूर्वक छीनने के प्रयत्न का दोषी है। कृष्णा को निर्वस्त्र करने का विचार इसी के मन में फूटता है। भीम को विष देने का प्रयत्न करता है।
आश्चर्यजनक है कि जिसे महर्षि व्यास ने स्पष्टतः 'अधर्मपरायण' कहा है, उसे नायक बनाने की इतनी ललक। कहते हैं कि 'कर्ण जैसा मित्र नहीं हुआ'! भाई मेरे, अठारह दिन युद्ध हुआ और प्रारम्भ के दस दिन यह अर्द्धरथी लड़ने ही नहीं आया। यह कैसी मित्रता? मित्रता पर भी अहंकार हावी है कि नहीं?
अब इनकी दानशीलता देख लें। इन्द्र को कवच कुंडल दिया तो 'एकघ्नी' की शर्त पर। जिससे वीर घटोत्कच को मारा। यह दान है या 'विनिमय'। आप निर्णय करें। कुन्ती मांगने आती है, तो अपनी मां से भी सौदा करता है।
एक महत्वपूर्ण अध्याय कर्ण की कथा का ' अश्वसेन ' है। अश्वसेन को कर्ण भगा देता है। दिनकर ने इस बात के लिए कर्ण का खूब महिमामण्डन किया है। किन्तु दिनकर इस बात को छिपा जाते हैं कि वह अश्वसेन को दूसरी बार भगाता है। एक बार तो अश्वसेन कर्ण की बाण पर बैठकर चला ही जाता है। कर्ण पर्व – नवतितमोघ्याय -श्लोक-४३-४८ –
लाक्षागृह, हलाहल, द्यूत, चीरहरण, गौओं की रक्षा के लिए न्यायार्थ आए ब्राह्मणों को मना कर देना, याज्ञसेनी को लेकर कुत्सित भाव, प्रतिशोध, पराकाष्ठा तक प्रतियोगी मन यही उस पूर्वजन्म से शापित स्वेदज, जाति को लेकर असहज कर्ण के मूल लक्षण हैं। वह धर्म धुरी नहीं 'अधर्म-परायण" है।
तो अब दूसरा प्रश्न कि ठीक है अगर कर्ण खलनायक है तो असली नायक कौन?
निस्संदेह कृष्ण अखिल ब्रह्माण्ड नायक हैं। परन्तु महाभारत का दूसरा सबसे बड़ा 'हीरो' जिसे बच्चे सहर्ष स्वीकार करेंगे वह है "वीरवर धर्मात्मा अर्जुन '!
अर्जुन के नायकत्व को सूक्ष्मता और गहनता से समझने के लिए हम कुछ सूक्ष्म 'उपकरणों' का सहारा लेंगे।
अर्जुन अवतारी हैं, अवतारी कर्ण भी है ( पढ़ें रक्तज और स्वैदज की कथा)। भगवान विष्णु के चौथे अवतार के रूप में धर्म और रुचि के दो जुड़वां पुत्र हुए थे नर-नारायण। इनमें से नर ऋषि के अंश से उत्पन्न हैं अर्जुन।
इन्द्र के अंश हैं, धर्म समर्थित हैं और सबसे बढ़कर गीता स्वयं ईश्वर के मुख से सुनने के अधिकारी हैं। क्या सौभाग्य कि श्रीमद्भगवद्गीता अर्जुन को ही सम्बोधित है। क्या सौभाग्य कि कृष्ण इनके रथ के सारथी हैं।
सौभाग्य कि भगवान इनको 'महाभागवत' मानते हैं!
"प्रह्लादनारदपराशरपुण्डरीकव्यासाम्बरीषशुकशौनकभीष्मदाल्भ्यान्।रुक्मांगदार्जुनवसिष्ठविभिषणादीन्पुण्यानिमान् परमभागवतान् नमामि ॥”
जैसे भगवान का जन्म और कर्म दिव्य है, वैसे ही अर्जुन के भी जन्म और कर्म दिव्य हैं।
अर्जुन के जन्म के एक तकनीकी पक्ष के तरफ लेकर चलें आपको? यह समझते हुए कि औसत भारतीय व्यक्ति ज्योतिष की एक समझ तो रखता ही है, और लगभग सब इसकी शब्दावली से भी परिचित हैं।
आप कितने जातकों को जानते हैं जिनका जन्म नक्षत्र- सन्धि में हुआ हो?
संभवतः एक भी नहीं या इक्का दुक्का। कारण यह है कि राशि -संधि, भाव-सन्धि और लग्न-संधि तो फलित ज्योतिष में सामान्य घटनाएं हैं, पर नक्षत्र सन्धि सच में दुर्लभ है। अर्जुन का जन्म नक्षत्र सन्धि का है।
अर्जुनी! अर्जुन के नाम का ऐसा प्रभाव काल और कालगणना पर कि दो फाल्गुनी नक्षत्रों के योग को ही यह नाम दे दिया गया।
ज्योतिष के सूक्ष्म और गंभीर जानकार इस शब्द से परिचित होंगे। पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी मिलकर अर्जुनी कहलाते हैं। पूर्वाफाल्गुनी पूरी तरह सिंह राशि में आती है जबकि उत्तराफाल्गुनी का केवल प्रथम पाद सिंह में, शेष कन्या राशि में।
एस्ट्रोनॉमी जिसे ' डेल्टा लियोनिस़' कहती है उसका ही एक बड़ा भाग 'अर्जुनी' है। इसके जो दो नक्षत्र हैं एक परम्परा में पूर्वा का देवता भग और उत्तरा का देवता अर्यमा है। जबकि तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार "आर्यमन : पूर्वे फाल्गुनी"!
संस्कृत से अनभिज्ञता और कुछ गीता प्रेस की प्रतिष्ठा से जलन के कारण किसी किसी को भ्रम हुआ कि अर्जुन का जन्म संधि न होकर उत्तराफाल्गुनी है।
इस भ्रम के पालन के लिए महाभारत के ही एक श्लोक का आश्रय लेते हैं लोग। यह बहुत सूक्ष्मता से समझने की बात है।
वह श्लोक है-
सुपुष्पितवने काले प्रवृत्ते मधुमाधवे।
पूर्णे चतुर्दशे वर्षे फल्गुनस्य च धीमतः।।
यस्मिन्नृक्षे समुत्पन्नः पार्थस्तस्य च धीमतः।
तस्मिन्नुत्तरफल्गुन्यां प्रवृत्ते स्वस्तिवाचने।।
संबंधित पंक्ति का अर्थ है कि अर्जुन का चौदहवां जन्मदिवस था, इस उपलक्ष्य में जब ब्राह्मण लोग स्वस्तिवाचन कर रहे थे तब चंद्र उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में था।
कॉमन सेंस की बात? क्या चौदहवें या पन्द्रहवें या चालीसवें किसी भी जन्मदिवस पर चंद्रमा बिलकुल उसी नक्षत्र में होता है जिस नक्षत्र में जन्म के समय था।
उत्तर है "नहीं"।
उधर व्यास स्वयं कह रहे कि नक्षत्र संधि है। अर्जुन ने कुमार उत्तर को विराट पर्व में अपने मुख से कहा है। पर ऐतिहासिक तथ्य यह है कि प्रारम्भ में चीनियों ने आदि पर्व और विराट पर्व को प्रक्षिप्तांश कहना शुरू किया था। उनकी देखा-देखी भारत में भी ऐसा मानने वाले हुए।
सवाल यह भी है कि अर्जुन के जन्म नक्षत्र को संधि बताकर गीता प्रेस या हनुमान प्रसाद पोद्दार या जयदयाल गोयन्दका जी को क्या मिला होगा। यह तो ऋषितुल्य प्रज्ञा और सत्य के आग्रही लोग थे।
'ग्रह' शब्द यह ग्रहण से बना है। ग्रह जिस नक्षत्र से अभी अभी गुजरा है उसके कुछ गुण कुछ गन्ध अभी ' कैरी' करेगा। उत्तरा फाल्गुनी में जाकर भी पूर्वा फाल्गुनी के कुछ गुण उसमें रहेंगे।
यही कारण है कि अर्जुन सबसे अधिक पत्नियों वाले 'पांडव' हैं। गुडाकेश हैं, निद्रा पर विजय। यही गुण तो चाहिए विद्यार्थियों को। कैसे निद्रा पर विजय कि पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी दोनों का संबंध 'खाट' जैसी संरचना से।
अर्जुन परम नैतिक है। गुरूजनों पर बाण नहीं चलाता। एक बार कृष्ण के कहने पर अपने बड़े भाई को कुछ कठोर वचन कह दिया तो आत्महत्या पर उतारू हो गये। यही तो है अर्जुनी!
!अघषु हन्यन्ते अर्जुन्यो: परिउध्यते!
उत्तराफाल्गुनी का जन्म अभिमन्यु का है।
खूब पढ़ेंगे तो समझ आएगा।
पूर्वाफाल्गुनी अधोमुखी नक्षत्र है। स्वयंवर में मछली की आंख भेदने का जो रूपक है, वह इस रहस्य से जुड़ता है।
अर्जुन का भाग्य, अर्जुन का पराक्रम, अर्जुन का धैर्य, उनका शील , उनकी अप्रतिम गुरु भक्ति, कृष्ण के प्रति अनन्य भाव। यह सब मिलकर नायकत्व के विशिष्ट आलोक की संरचना करते हैं।
चित्ररथ को हराना, शिव को संतुष्ट करना, गुरु की प्रतिष्ठा के लिए द्रुपद को बांध लेना, खाण्डव वन में देवताओं से युद्ध कर अग्नि को संतुष्ट करना, सदेह स्वर्ग जाना, उर्वशी प्रकरण। विचित्र वैविध्य लिए हुए अद्भुत नायकत्व है अर्जुन का।
उधर यह कर्ण मघा नक्षत्र का जन्मा है। सामान्यतया यह बड़े डील डौल का शरीर देता है परन्तु प्राणवायु रूकने, गति रूकने से मृत्यु भी देता है। कर्ण की भी गति रूक गयी थी। अन्धविरोध गति रोक देता है।
देवरहा बाबा अर्जुन के गौरक्षक रूप के परम भक्त थे। मैं उन्हें अर्जुन और महाराज पृथु के स्तर का गौरक्षक मानता हूं।
यह मेरा परम सौभाग्य है कि मेरे पितामह उनके शिष्य रहे, कि मेरा नामकरण समर्थ गुरु देवरहवा बाबाजी ने किया।
गौरक्षा के लिए किया गया उनका प्रयोग अद्भुत था। जितनी स्मृति है, उस आधार पर यह प्रयोग कहता हूं।
- प्रथम तो बाबाजी का यह कहना था कि मनुष्य के रोग, पाप, विषमताओं, ताप की सभी औषधियां गौ के भीतर हैं। दूसरे कि जब गौ रूग्ण होगी, तो उसके रोग का कारण या अंश मानव के भीतर भी होगा।
ग्रामीण बारह बार देवरहा बाबा का प्रिय मंत्र पाठ करते थे। वह महामंत्र था
"ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने॥प्रणत: क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:॥"
अब ग्रामीण पहुंचे मचान के पास। वहां मंत्रपूत 'गेरू' का ढेर रखा है।
गेरू को मंत्र सिद्ध किया गया है। उसी अर्जुन की सौगंध से जो साक्षात नर ऋषि के अवतार हैं, जो दुर्गा और शिव से प्रशंसित हैं, जो गुड़ाकेश हैं।
अर्जुनः फल्गुनो जिष्णुः किरीटी श्वेतवाहनः ||बीभत्सुर्विजयः कृष्णः सव्यसाची धनञ्जयः।
गेरू गौ के पूरे शरीर पर लगाया जाता। खूंटे पर भी, नाद पर भी।
गौ निरोगी हो जाती थी। जबकि कर्ण गौरक्षा में प्रमाद कर गया था। उस गौ के शाप से ही गौ के खुर जितने गड्ढे में उसका रथ धंसा।
अर्जुन है हमारा नायक न कि कर्ण!
अर्जुन है परंतप अर्जुन है वास्तविक महाभारत। अर्जुन है भारतीय युवा का आदर्श।
क्रमशः
नर ऋषि को प्रणाम नारायण को प्रणाम
डॉ मधुसूदन पाराशर
अवध
वैसाख कृष्ण पंचमी
वि. सं. २०८१