Sarvesh Tiwari Shreemukh

Sarvesh Tiwari Shreemukh युगों युगों से विश्व का कल्याण हो की प्रार्थना करने वाली सभ्यता का वर्तमान हूँ मैं! मैं सर्वेश हूँ।
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फोटो विथ पंडिताज...है न सुन्दर?
12/05/2024

फोटो विथ पंडिताज...
है न सुन्दर?

वर्तमान पाकिस्तान में स्थित लुनागढ़ रियासत के पहले नवाब थे नवाब कल्लन मिर्जा। उनके बारे में प्रसिद्ध है कि वे अपने दौर के...
02/05/2024

वर्तमान पाकिस्तान में स्थित लुनागढ़ रियासत के पहले नवाब थे नवाब कल्लन मिर्जा। उनके बारे में प्रसिद्ध है कि वे अपने दौर के बेहतरीन लड़ाकू थे। जब वे गधे पर बैठ कर जंगे मैदान में उतरते तो आधे से अधिक दुश्मन उनकी लचकती कमर देख कर ही शहीद हो जाते थे।
उनकी आँखें बिल्कुल हिरनी जैसी थीं। ऐसी कि जो देख ले वो उसी में डूब कर मर जाय। वे अपनी रियासत के जिस हिस्से में चले जाते, उस हिस्से के लोग अपनी मर्जी से लगान दुगुना कर देते थे। यह उनकी करामाती आंखों का कमाल था।
एक बार लुनागढ़ पर अंग्रेजों ने आक्रमण कर दिया। अंग्रेज सेनापति डगलस टोंटी एक महानतम योद्धा था। उसके साथ दस लाख की फौज थी, और लगभग एक लाख तोपें थी। नवाब साहब को जब अंग्रेजों की इस हरकत का पता चला तो उनका चंगेजी खून खौल उठा। उन्होंने खुद लड़ाई में उतरने का फैसला कर लिया।
नवाब साहब के खानदान में किसी ने भी कभी लड़ाई में भाग नहीं लिया था। वे हमेशा भाड़े के सैनिकों से काम चलाते थे। पर मिर्जा कल्लन को यह रिकॉर्ड तोड़ना था। मिर्जा कल्लन अपनी डेढ़ करोड़ की सेना लेकर लाहौर के फुरफुरी मैदान में डट गए।
एक ओर अंग्रेजों की दस लाख की सेना तो दूसरी ओर नवाब साहब की डेढ़ करोड़ की सेना... एक तरफ डगलस टोंटी तो दूसरी ओर मिर्जा कल्लन। दुनिया खौफ में आ गयी। लगा कि आज ही कयामत आ जायेगी।
अचानक मिर्जा कल्लन अपनी मुमताज नाम की गधी पर सवार हो कर अकेले ही अंग्रेजों की ओर बढ़ने लगे। उनकी बलखाती कमर, लहराते बाल, मचलती आंखें, थरथराते होठ, थिरकते पांव दुश्मनों में एक अलग ही खौफ पैदा करने लगे। मुस्कुराते कल्लन ठीक डगलस टोंटी के सामने जा खड़े हुए। आश्चर्य में डूबा डगलस टोंटी मिर्जा की आंखों में देखने लगा। अचानक मिर्जा ने अपनी बायीं आँख से आँख मार दी।
महान इतिहासकार रंगीला थप्पड़ ने अपनी पुस्तक 'फर्जीनाम' में लिखा है कि नवाब साहब के एक बार आँख मारने भर से अंग्रेजों की आधी सेना बेहोश हो गयी। डगलस टोंटी गिड़गिड़ाने लगा। उसने तुरंत सुलह कर ली और शपथ लिया कि अंग्रेज फिर कभी लुनागढ़ पर आक्रमण नहीं करेंगे।
कल्लन मिर्जा ने अपने जीवन में डेढ़ लाख किले बनवाये थे। लाहौर के अनारकली बाजार में उनका बनवाया मशहूर किला झोलु महल अब भी है, जिसकी आठवीं मंजिल से कूदने पर आदमी जमीन पर आने के बाद उछल कर फिर आठवीं मंजिल पर पहुँच जाता है। हजारों साइंसदान वहाँ की खुदाई कर चुके हैं, पर वह रहस्य नहीं खुल पाया है।

मजदूरों के लिए लिखी गयी करुण कविताएं और मार्मिक आलेख अब नहीं रुचते मुझे। जिन्होंने अपने पसीने से ईंटों को जोड़ कर दुनिया ...
01/05/2024

मजदूरों के लिए लिखी गयी करुण कविताएं और मार्मिक आलेख अब नहीं रुचते मुझे। जिन्होंने अपने पसीने से ईंटों को जोड़ कर दुनिया की छत को सौ मंजिल ऊंचा कर दिया हो, वे इतने निरीह नहीं लगते कि उनके ऊपर ऐसा आलेख लिखूं कि पढ़ कर रो दे कोई!
मेरे गाँव में मुसहरों के लगभग सौ घर हैं, और सभी दैनिक मजदूरी ही करते हैं। यदि बात पैसे की हो तो वे अवश्य गरीब हैं, पर गाँव के अमीर वर्ग के पास ऐसा कुछ भी नहीं जिसके बल पर यह कहा जा सके कि वे मुसहरों से अधिक सुखी या प्रसन्न हैं।
वे रोज पाँच सौ रुपये की दिहाड़ी करते हैं, और शाम को अपना पसंदीदा चिकेन खरीद कर घर आते हैं। कथित सम्पन्न वर्ग लाख रुपये कमाता है, पर अपने मन का नहीं खरीद पाता... वे कल की चिंता पर थूक कर अपने "आज" को जी लेते हैं, हम 'कल' के लोभ में रोज ही अपने 'आज' को मार देते हैं।हम गाँव में अच्छा घर होने के बाद भी शहर में घर लेने के लोभ में कर्जे से दब कर रोज सिसक रहे हैं, वे गाँव में ही अपना एक कमरे का मकान ले कर रोज शाम को फगुआ-चइता गा लेते हैं। उन्हें न अवसाद है, न अनिद्रा, न मानसिक थकान, न कोई कुंठा... कुंठा तो यूँ भी पढ़े लिखों का आभूषण है।
उनके बच्चे हमारी तरह किताबें नहीं पढ़ पाते, पर जिंदगी को हमसे ज्यादा पढ़ समझ लेते हैं। उनकी पत्नियां नहीं पहनती बारह हजार की बनारसी साड़ी, पर यह उनके लिए शोक का विषय नहीं। वे बारह सौ की पहन कर चमक उठती हैं, जबकि बारह हजार वाली अपनी ही किसी सखी को पन्द्रह हजार की पहने देख ले तो सूख जाती है।
वे गाँव में रहें तो गढ़ते हैं ऊंची बिल्डिंग, उगाते हैं लहलहाती फसल, बनाते हैं समतल सड़क! वे दिल्ली जाएं तो बनाते हैं नया संसद भवन, गुजरात में पहुँचे तो खड़ा करते हैं रिलाएंस की बड़ी कम्पनी, मुम्बई में जा कर गढ़ते हैं असंख्य आलीशान टावर, और दुबई जाएं तो बनाते हैं बुर्ज खलीफा... और फिर अपनी मजूरी ले कर बिना लोभ, ईर्ष्या, द्वेष या कुंठा के चुपचाप लौट आते हैं अपने गाँव! वे निरीह या अशक्त कहाँ हैं?
आप कह सकते हैं कि वे स्वयं के लिए तो नहीं बना पाते आलीशान महल, वातानुकूलित कमरे, लक्जरी गाड़ी, या गोआ बैंकॉक का कोई टूर... पर यह स्वीकार करना तनिक कठिन है फिर भी सत्य है कि ये सारे संसाधन सुख नहीं ही देते। ये देते हैं बेचैनी, अवसाद, जलन, घृणा... सुख अब भी विपन्न वर्ग के पास ही है।
ऐसा नहीं है कि उनके जीवन में पीड़ा या शोक नहीं है, पर वह पीड़ा और शोक तो सबके जीवन का हिस्सा है। और अब तक ऐसा कोई साधन नहीं बन पाया जिससे इस पीड़ा से मुक्ति पायी जा सके। बल्कि यह भी सच है समय की एक बराबर चोट किसी गरीब को कम दुख और बेचैनी देती है और सम्पन्न को अपेक्षाकृत अधिक देती है।
हाँ यह अवश्य है कि कथित सभ्य और सम्पन्न वर्ग कभी कभी मजदूरों को यथोचित सम्मान नहीं दे पाता। पर इसमें भी उनकी कमजोरी नहीं, यह तो सभ्यों की असभ्यता हुई न? मजदूर तो कहीं से कमजोर सिद्ध नहीं होते...
अब तो हर व्यक्ति भी मजदूर ही है, सो बेहतर है कि सभी एक दूसरे का सम्मान करना सीख लें। दुनिया तनिक और सुंदर हो जाएगी। है न?😊

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

तस्वीर पुरानी है। तब से अब तक दुनिया असंख्य बार घूम चुकी, बदल चुकी है।

30/04/2024

ज्ञान प्रकाश आकुल दादा की कविता। सीधे अयोध्या से...
#अयोध्या #ज्ञान_प्रकाश_आकुल #राम #सीता #रामयम

कर्ण: नायक नहीं खलनायक हूं मैं______________________________सबसे बड़ा छल जो आने वाली पीढ़ियों के साथ किया जा सकता है, वह...
29/04/2024

कर्ण: नायक नहीं खलनायक हूं मैं
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सबसे बड़ा छल जो आने वाली पीढ़ियों के साथ किया जा सकता है, वह है कि हम बच्चों के मन में खलनायकों या प्रतिनायकों को नायक बना दें।
जब आप बच्चों के मन में गलत नायक का रोपण कर देते हैं, तो उनके कोमल मन का वह कोना जहां दैवीय नायकत्व को स्थान मिलना था, वहां कलुषित विकृति स्थान बना लेती है। यह विकृति फिर अन्य विकृतियों को जन्म देती है।

मुझे यह मानने में कोई संकोच नहीं कि मैं भी इस षड्यंत्र का शिकार हुआ। हम बात कर रहे हैं महाभारत के खल पात्र कर्ण की, और उसका महिमा मंडन करने वाले महाभारत पर अपनी कलम चलाने वाले 'नेहरूवियन रोमांटिसिज्म' से प्रभावित लेखकों की एक पूरी जमात की।

इस पूरे लेखन में 'जाति' का अपना एक अलग पक्ष है। कर्ण से सहानुभूति बिलकुल एक उसी तरह का 'फील' है, जैसी कि अमिताभ बच्चन के शुरुआती फिल्मों का जॉनर। गरीब सर्वहारा की क्रान्ति। जहां कुलीन होना या समृद्ध होना पाप है और 'कुली' 'तांगेवाला' या सूतपुत्र होना नायक होने की एकमात्र शर्त है।

यह 'संक्रमण' इतना गहरा होता है कि बालक मन इसके चपेट में आ ही जाता है। आपको बताऊं कि नौंवी कक्षा में मुझे पूरी 'रश्मिरथी' याद थी, आज भी है। इसमें कौतुक और रस उत्पन्न करने की क्षमता तो है ही। पर है यह झूठ का झुनझुना।

शिवाजी सावंत की पुस्तक मृत्युंजय, रामधारी सिंह दिनकर की रश्मिरथी ( इसके प्रचार का एक कारण इसका माध्यमिक शिक्षा के सिलैबस में बतौर खंडकाव्य शामिल होना भी है), वेदप्रकाश काम्बोज की कुन्ती पुत्र कर्ण, चित्रा बनर्जी की लिखी पुस्तक " द पैलेस ऑफ इल्यूजन्स", रंजीत देसाई की 'राधे' और कविता केन की किताब " कर्ण्स वाइफ: द आऊटकास्ट क्वीन" इन सबने मिलकर कर्ण के मूल चरित्र से हटकर एक तरह के नये "कृत्रिम नायकत्व" को गढ़ दिया । रही सही कसर बंबईया धारावाहिकों ने पूरी कर दी।

मृत्युंजय और रश्मिरथी दोनों ऐसा लगता है जैसे इन्हें कृष्णार्जुन से द्वेष है, पांडवों से द्वेष है, द्रोण विदुर भीष्म से द्वेष है। मूल महाभारत ठहर कर पढ़िए तो यह छल स्पष्ट होता है।

रश्मिरथी तो झूठ से ही शुरू होती है। कर्ण को माने ऐसा बताते हैं कि बिना गुरु के ही धनुर्वेद का ज्ञाता हो गया है। ध्यान रहे कि धनुर्वेद एक उपवेद है। वेद, उपवेद, वेदांग यथा ज्योतिष तथा आगम आदि बिना गुरु के नहीं ग्रहण किए जा सकते।

महाभारत के महत्वपूर्ण 'क्रक्स मटीरियल्स' में यह तत्व भी सर्वत्र उपस्थित है। कौन सा तत्व? गुरु शिष्य संबंध! सुयोग्य गुरु अथवा शिष्य प्राप्त कर लेने की उत्कंठा। यह परशुराम, भीष्म, कृष्ण, अर्जुन, एकलव्य, कर्ण, अभिमन्यु, द्रौपदी सभी के जीवन चरित्र में प्रतिभासित है।

दिनकर ने भारतीय गुरु परम्परा के देदीप्यमान नक्षत्र द्रोणाचार्य को कैसा प्रदर्शित किया है-
'सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँगा इस प्रचण्डतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा'

कहां है भैय्या यह प्रकरण महाभारत में। लेखकीय स्वतंत्रता कम से कम ऐतिहासिक और पौराणिक चरित्रों के संदर्भ में तो न ही लीजिए।

और, यह भारतीय परम्परा तो नहीं कि किसी एक का चरित्र निर्माण करने के लिए दूसरे व्यक्ति का चरित्र हनन किया जाए।
इस विषय में महाभारत का सच यह है कि कर्ण धनुर्विद्या सीखने के लिए परशुराम, द्रोण और कृपाचार्य इन तीनों के पास जाता है। जबकि वह जिसे प्रतिद्वंद्वी मानता है, उनके केवल एक गुरु हैं धनुर्वेद के।

अब देखें, जैसे बार बार अपने इष्ट देवता बदलना व्यभिचारिणी भक्ति कहलाती है, वैसे ही आध्यात्मिक विषयों में बार बार गुरु बदलना भी बहुत उत्तम नहीं मानते। कर्ण की स्थिति को समझिए।

उधर शिवाजी सावंत जिसे अपराजेय मानते हैं, वह कर्ण महाभारत में अनेकों बार पराजित हुआ है-

१) द्रुपद ने हराया एक बार – (आदि पर्व /१३७ )
२) अर्जुन से पाँच बार –
क) द्रौपदी स्वयंवर (आदिपर्व /१८९ ),
ख) विराट युद्ध (विराट पर्व / ६० ),
ग) कुरुक्षेत्र (द्रोण पर्व / १५९ ),
घ) कुरुक्षेत्र (द्रोण पर्व/145)
ङ) कुरुक्षेत्र (कर्ण पर्व / ९१ )
३) गन्धर्व चित्रसेन से एक बार- (वन पर्व /२४१)
४) भीमसेन से चार बार (द्रोण पर्व /१२९, १३१, १३४,१३६, कर्ण पर्व / ५० )
५। युधिष्ठिर से एक बार ( (कर्ण पर्व /४९ )
६। अभिमन्यु से एक बार (द्रोण पर्व /४० )।
७। अर्जुन के शिष्य सात्यकि से एक बार (द्रोण पर्व /१४७ )

सावंत, काम्बोज, दिनकर कर्ण को मनुष्यता का पोषक बताते हुए उसे कृष्ण, इन्द्र, भीष्म आदि के मुख से प्रशंसित कराते हैं, जबकि कर्ण किसी अन्य की पत्नी को बलपूर्वक छीनने के प्रयत्न का दोषी है। कृष्णा को निर्वस्त्र करने का विचार इसी के मन में फूटता है। भीम को विष देने का प्रयत्न करता है।

आश्चर्यजनक है कि जिसे महर्षि व्यास ने स्पष्टतः 'अधर्मपरायण' कहा है, उसे नायक बनाने की इतनी ललक। कहते हैं कि 'कर्ण जैसा मित्र नहीं हुआ'! भाई मेरे, अठारह दिन युद्ध हुआ और प्रारम्भ के दस दिन यह अर्द्धरथी लड़ने ही नहीं आया। यह कैसी मित्रता? मित्रता पर भी अहंकार हावी है कि नहीं?

अब इनकी दानशीलता देख लें। इन्द्र को कवच कुंडल दिया तो 'एकघ्नी' की शर्त पर। जिससे वीर घटोत्कच को मारा। यह दान है या 'विनिमय'। आप निर्णय करें। कुन्ती मांगने आती है, तो अपनी मां से भी सौदा करता है।

एक महत्वपूर्ण अध्याय कर्ण की कथा का ' अश्वसेन ' है। अश्वसेन को कर्ण भगा देता है। दिनकर ने इस बात के लिए कर्ण का खूब महिमामण्डन किया है। किन्तु दिनकर इस बात को छिपा जाते हैं कि वह अश्वसेन को दूसरी बार भगाता है। एक बार तो अश्वसेन कर्ण की बाण पर बैठकर चला ही जाता है। कर्ण पर्व – नवतितमोघ्याय -श्लोक-४३-४८ –

लाक्षागृह, हलाहल, द्यूत, चीरहरण, गौओं की रक्षा के लिए न्यायार्थ आए ब्राह्मणों को मना कर देना, याज्ञसेनी को लेकर कुत्सित भाव, प्रतिशोध, पराकाष्ठा तक प्रतियोगी मन यही उस पूर्वजन्म से शापित स्वेदज, जाति को लेकर असहज कर्ण के मूल लक्षण हैं। वह धर्म धुरी नहीं 'अधर्म-परायण" है।

तो अब दूसरा प्रश्न कि ठीक है अगर कर्ण खलनायक है तो असली नायक कौन?

निस्संदेह कृष्ण अखिल ब्रह्माण्ड नायक हैं। परन्तु महाभारत का दूसरा सबसे बड़ा 'हीरो' जिसे बच्चे सहर्ष स्वीकार करेंगे वह है "वीरवर धर्मात्मा अर्जुन '!

अर्जुन के नायकत्व को सूक्ष्मता और गहनता से समझने के लिए हम कुछ सूक्ष्म 'उपकरणों' का सहारा लेंगे।

अर्जुन अवतारी हैं, अवतारी कर्ण भी है ( पढ़ें रक्तज और स्वैदज की कथा)। भगवान विष्णु के चौथे अवतार के रूप में धर्म और रुचि के दो जुड़वां पुत्र हुए थे नर-नारायण। इनमें से नर ऋषि के अंश से उत्पन्न हैं अर्जुन।

इन्द्र के अंश हैं, धर्म समर्थित हैं और सबसे बढ़कर गीता स्वयं ईश्वर के मुख से सुनने के अधिकारी हैं। क्या सौभाग्य कि श्रीमद्भगवद्गीता अर्जुन को ही सम्बोधित है। क्या सौभाग्य कि कृष्ण इनके रथ के सारथी हैं।

सौभाग्य कि भगवान इनको 'महाभागवत' मानते हैं!
"प्रह्लादनारदपराशरपुण्डरीकव्यासाम्बरीषशुकशौनकभीष्मदाल्भ्यान्।रुक्मांगदार्जुनवसिष्ठविभिषणादीन्पुण्यानिमान् परमभागवतान् नमामि ॥”

जैसे भगवान का जन्म और कर्म दिव्य है, वैसे ही अर्जुन के भी जन्म और कर्म दिव्य हैं।

अर्जुन के जन्म के एक तकनीकी पक्ष के तरफ लेकर चलें आपको? यह समझते हुए कि औसत भारतीय व्यक्ति ज्योतिष की एक समझ तो रखता ही है, और लगभग सब इसकी शब्दावली से भी परिचित हैं।

आप कितने जातकों को जानते हैं जिनका जन्म नक्षत्र- सन्धि में हुआ हो?
संभवतः एक भी नहीं या इक्का दुक्का। कारण यह है कि राशि -संधि, भाव-सन्धि और लग्न-संधि तो फलित ज्योतिष में सामान्य घटनाएं हैं, पर नक्षत्र सन्धि सच में दुर्लभ है। अर्जुन का जन्म नक्षत्र सन्धि का है।

अर्जुनी! अर्जुन के नाम का ऐसा प्रभाव काल और कालगणना पर कि दो फाल्गुनी नक्षत्रों के योग को ही यह नाम दे दिया गया।
ज्योतिष के सूक्ष्म और गंभीर जानकार इस शब्द से परिचित होंगे। पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी मिलकर अर्जुनी कहलाते हैं। पूर्वाफाल्गुनी पूरी तरह सिंह राशि में आती है जबकि उत्तराफाल्गुनी का केवल प्रथम पाद सिंह में, शेष कन्या राशि में।

एस्ट्रोनॉमी जिसे ' डेल्टा लियोनिस़' कहती है उसका ही एक बड़ा भाग 'अर्जुनी' है। इसके जो दो नक्षत्र हैं एक परम्परा में पूर्वा का देवता भग और उत्तरा का देवता अर्यमा है। जबकि तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार "आर्यमन : पूर्वे फाल्गुनी"!

संस्कृत से अनभिज्ञता और कुछ गीता प्रेस की प्रतिष्ठा से जलन के कारण किसी किसी को भ्रम हुआ कि अर्जुन का जन्म संधि न होकर उत्तराफाल्गुनी है।

इस भ्रम के पालन के लिए महाभारत के ही एक श्लोक का आश्रय लेते हैं लोग।‌ यह बहुत सूक्ष्मता से समझने की बात है।‌

वह श्लोक है-
सुपुष्पितवने काले प्रवृत्ते मधुमाधवे।
पूर्णे चतुर्दशे वर्षे फल्गुनस्य च धीमतः।।
यस्मिन्नृक्षे समुत्पन्नः पार्थस्तस्य च धीमतः।
तस्मिन्नुत्तरफल्गुन्यां प्रवृत्ते स्वस्तिवाचने।।

संबंधित पंक्ति का अर्थ है कि अर्जुन का चौदहवां जन्मदिवस था, इस उपलक्ष्य में जब ब्राह्मण लोग स्वस्तिवाचन कर रहे थे तब चंद्र उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में था।

कॉमन सेंस की बात? क्या चौदहवें या पन्द्रहवें या चालीसवें किसी भी जन्मदिवस पर चंद्रमा बिलकुल उसी नक्षत्र में होता है जिस नक्षत्र में जन्म के समय था।

उत्तर है "नहीं"।

उधर व्यास स्वयं कह रहे कि नक्षत्र संधि है। अर्जुन ने कुमार उत्तर को विराट पर्व में अपने मुख से कहा है। पर ऐतिहासिक तथ्य यह है कि प्रारम्भ में चीनियों ने आदि पर्व और विराट पर्व को प्रक्षिप्तांश कहना शुरू किया था। उनकी देखा-देखी भारत में भी ऐसा मानने वाले हुए।
सवाल यह भी है कि अर्जुन के जन्म नक्षत्र को संधि बताकर गीता प्रेस या हनुमान प्रसाद पोद्दार या जयदयाल गोयन्दका जी को क्या मिला होगा। यह तो‌ ऋषितुल्य प्रज्ञा और सत्य के आग्रही लोग थे।

'ग्रह' शब्द यह ग्रहण से बना है। ग्रह जिस नक्षत्र से अभी अभी गुजरा है उसके कुछ गुण कुछ गन्ध अभी ' कैरी' करेगा। उत्तरा फाल्गुनी में जाकर भी पूर्वा फाल्गुनी के कुछ गुण उसमें रहेंगे।

यही कारण है कि अर्जुन सबसे अधिक पत्नियों वाले 'पांडव' हैं। गुडाकेश हैं, निद्रा पर विजय। यही गुण तो चाहिए विद्यार्थियों को। कैसे निद्रा पर विजय कि पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी दोनों का संबंध 'खाट' जैसी संरचना से।

अर्जुन परम नैतिक है। गुरूजनों पर बाण नहीं चलाता। एक बार कृष्ण के कहने पर अपने बड़े भाई को कुछ कठोर वचन कह दिया तो आत्महत्या पर उतारू हो गये। यही तो है अर्जुनी!

!अघषु हन्यन्ते अर्जुन्यो: परिउध्यते!

उत्तराफाल्गुनी का जन्म अभिमन्यु का है।
खूब पढ़ेंगे तो समझ आएगा।

पूर्वाफाल्गुनी अधोमुखी नक्षत्र है। स्वयंवर में मछली की आंख भेदने का जो रूपक है, वह इस रहस्य से जुड़ता है।

अर्जुन का भाग्य, अर्जुन का पराक्रम, अर्जुन का धैर्य, उनका शील , उनकी अप्रतिम गुरु भक्ति, कृष्ण के प्रति अनन्य भाव। यह सब मिलकर नायकत्व के विशिष्ट आलोक की संरचना करते हैं।

चित्ररथ को हराना, शिव को संतुष्ट करना, गुरु की प्रतिष्ठा के लिए द्रुपद को बांध लेना, खाण्डव वन में देवताओं से युद्ध कर अग्नि को संतुष्ट करना, सदेह स्वर्ग जाना, उर्वशी प्रकरण। विचित्र वैविध्य लिए हुए अद्भुत नायकत्व है अर्जुन का।

उधर यह कर्ण मघा नक्षत्र का जन्मा है। सामान्यतया यह बड़े डील डौल का शरीर देता है परन्तु प्राणवायु रूकने, गति रूकने से मृत्यु भी देता है। कर्ण की भी गति रूक गयी थी। अन्धविरोध गति रोक देता है।

देवरहा बाबा अर्जुन के गौरक्षक रूप के परम भक्त थे। मैं उन्हें अर्जुन और महाराज पृथु के स्तर का गौरक्षक मानता हूं।

यह मेरा परम सौभाग्य है कि मेरे पितामह उनके शिष्य रहे, कि मेरा नामकरण समर्थ गुरु देवरहवा बाबाजी ने किया।

गौरक्षा के लिए किया गया उनका प्रयोग अद्भुत था। जितनी स्मृति है, उस आधार पर यह प्रयोग कहता हूं।

- प्रथम तो बाबाजी का यह कहना था कि मनुष्य के रोग, पाप, विषमताओं, ताप की सभी औषधियां गौ के भीतर हैं। दूसरे कि जब गौ रूग्ण होगी, तो उसके रोग का कारण या अंश मानव के भीतर भी होगा।

ग्रामीण बारह बार देवरहा बाबा का प्रिय मंत्र पाठ करते थे। वह महामंत्र था
"ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने॥प्रणत: क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:॥"
अब ग्रामीण पहुंचे मचान के पास। वहां मंत्रपूत 'गेरू' का ढेर रखा है।

गेरू को मंत्र सिद्ध किया गया है। उसी अर्जुन की सौगंध से जो साक्षात नर ऋषि के अवतार हैं, जो दुर्गा और शिव से प्रशंसित हैं, जो गुड़ाकेश हैं।
अर्जुनः फल्गुनो जिष्णुः किरीटी श्वेतवाहनः ||बीभत्सुर्विजयः कृष्णः सव्यसाची धनञ्जयः।

गेरू गौ के पूरे शरीर पर लगाया जाता। खूंटे पर भी, नाद पर भी।

गौ निरोगी हो जाती थी। जबकि कर्ण गौरक्षा में प्रमाद कर गया था। उस गौ के शाप से ही गौ के खुर जितने गड्ढे में उसका रथ धंसा।

अर्जुन है हमारा नायक न कि कर्ण!
अर्जुन है परंतप अर्जुन है वास्तविक महाभारत। अर्जुन है भारतीय युवा का आदर्श।

क्रमशः

नर ऋषि को प्रणाम नारायण को प्रणाम

डॉ मधुसूदन पाराशर
अवध
वैसाख कृष्ण पंचमी
वि. सं. २०८१

आप इतिहास की किताबों में समूचा मध्यकाल भले खिलजी, सैयद, लोदी या मुगल नाम से पढ़ लें, पर समूचे मध्यकाल में आपको एक भी बाहर...
26/04/2024

आप इतिहास की किताबों में समूचा मध्यकाल भले खिलजी, सैयद, लोदी या मुगल नाम से पढ़ लें, पर समूचे मध्यकाल में आपको एक भी बाहरी योद्धा ऐसा नहीं मिलेगा जिसने अपने जीवन मे दस बड़ी लड़ाइयां लड़ी हों। यहाँ तक कि गजनवी जैसे लुटेरे भी योद्धा कहे जाते हैं जो चोरों की तरह घुसते और तेजी से लूट पाट कर हवा की तरह गायब हो जाते थे।
इस पूरे कालखंड के बीच में बस एक नाम स्वर्ण की तरह चमकता है, जिसकी तलवार बार बार विजय का इतिहास रचती रही। जिसका नाम स्वयं में जीत का पर्याय हो गया, जो उत्तर से दक्षिण तक अपने शौर्य का ध्वज लहराते हुए दिग्विजय करता रहा है। वो बीस साल तक लड़ता रहा, जीतता रहा। तबतक, जबतक कि अंतिम विश्राम का समय न आ गया। मध्यकाल का सर्वश्रेष्ठ योद्धा पेशवा बाजीराव बल्लाळ!
उस योद्धा को मुगल वंश का अंत करने का श्रेय मिलना चाहिए था, क्योंकि वही था जिसके कारण औरंगजेब का विशाल राज्य एक दिन चांदनी चौक से पालम तक सिमट कर रह गया। वही था जिसने दक्षिण में विधर्मी सत्ता के तेवर का ठंढा किया। वही था जिसने आज के लगभग समूचे भारत को एक भगवा ध्वज के नीचे ला खड़ा किया। पर इतिहास की किताबें उसके साथ न्याय नहीं करतीं। स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक दशकों में जैसे लोगों को शिक्षा मंत्री बनाया गया, उस हिसाब से हम न्याय की उम्मीद कर भी नहीं सकते।
पेशवा की मस्तानी बाई से प्रेम कहानी की चर्चा सुनता हूँ तो लगता है, "बीस वर्ष में चालीस बड़ी लड़ाइयां लड़ने और जीतने वाले योद्धा को प्रेम के लिए क्या ही समय मिला होगा। पर साहित्य और सिनेमा जगत के धुरंधर जो न लिख दें, दिखा दें..."
मराठा साम्राज्य का प्रधानमंत्री रहते हुए बीस वर्षों तक जिस योद्धा ने साम्राज्य की सीमाओं को बढ़ाने में अपना दिन रात एक कर दिया, उस योद्धा को उचित सम्मान मिलना ही चाहिये। और यह सत्ता से अधिक समाज का कार्य है। यह उस महान योद्धा का अधिकार है कि यह देश कहावतों में कहे- जो जीता, वो बाजीराव!
भीषण गर्मी और लू के प्रचंड प्रहार के बीच उस महान योद्धा ने आज ही के दिन मध्यप्रदेश के रावड़खेड़ी में अंतिम सांस ली थी। हर वर्ष कुछ उत्साही लोग उस पुण्यभूमि पर जा कर उस अमर योद्धा को अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं। इस वर्ष भी गए हैं... मैं हर बार सोचता हूँ, पर नहीं जा पाता। खैर! अगली बार...
पर आपको आज का दिन याद रहना चाहिये। याद रहना चाहिये रावड़खेड़ी। और याद रहना चाहिये, "जो जीता वही बाजीराव..."

#जो_जीता_वह_बाजीराव
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

मुम्बई और चेन्नई के मैच को सामान्य से थोड़े अधिक दर्शक मिल जाते होंगे। उनमें अधिकांश वे लोग हैं जो मेरी तरह यह सोच कर देख...
15/04/2024

मुम्बई और चेन्नई के मैच को सामान्य से थोड़े अधिक दर्शक मिल जाते होंगे। उनमें अधिकांश वे लोग हैं जो मेरी तरह यह सोच कर देखने बैठ जाते हैं कि यह धोनी और रोहित का मैच है। धोनी हों, रोहित हों या विराट! अपने कैरियर के अंतिम वर्षों में खेल रहे इन खिलाड़ियों को खेलते देखने का अवसर फिर मिले ना मिले...
हर बड़े खिलाड़ी के प्रशंसक उसके रिटायरमेंट के बाद अनेक वर्षों तक उसे दुबारा खेलते देखने की चाह लिए घूमते हैं, और उनका दुर्भाग्य होता है कि यह चाह कभी पूरी नहीं होती। एक बार रिटायर हो जाने के बाद न लक्ष्मण द्रविड़ के कलात्मक शॉट्स ही देखने को मिले, न सहवाग की धुंआधार परियां मिलीं। न सचिन मिले, न दादा, न श्रीनाथ मिले के कुंबले... यही होता है, यही होगा। यही जीवन है।
रोहित या विराट अब खेल के उस पड़ाव पर हैं जब हर मैच में उनके नाम कुछ रिकार्ड जुड़ जाते हैं। अब तो वे शून्य पर भी आउट हो जाँय तो एक रिकॉर्ड बढ़ जाएगा। यही बात सिद्ध करती है कि वे कितने बड़े खिलाड़ी हैं। वैसे बारह साल के बाद आईपीएल में शतक लगाने वाले रोहित कल भारत की ओर से 20-20 में 500 छक्के लगाने वाले पहले बल्लेबाज बन गए। वैसे भी, रोहित के प्रशंसक उनके छक्के देखने के लिए ही फील्ड में जाते हैं शायद!
ताश के खेल में कभी कभी सबसे मजबूत पत्ता गुलाम सबसे कमजोर 'सत्ते' से भी कट जाता है। कल के मैच में हमने रोहित की सेंचुरी को धोनी के तीन छक्कों से हारते देखा। यह थोड़ा अजीब तो लगता है, पर ऐसा जीवन के हर क्षेत्र में होता रहता है। ऐसी पराजयों को स्वीकार करने का धैर्य होना चाहिये आदमी में। कब जिंदगी आपको औकात बताने लगे, कोई नहीं जानता। खैर... धोनी अब भी अपने प्रशंसकों का ध्यान रख पा रहे हैं, यह अद्भुत है।
आईपीएल जैसे टूर्नामेंट हार जीत से अलग विशुद्ध मनोरंजन के लिए हैं। बस धुंआधार रन बनें, चौके-छक्के लगें, हल्ला-गुल्ला हो, धड़ाधड़ विकेट गिरें... बस मनोरंजन होता रहे, दर्शकों का जोश बना रहे। मुम्बई भले हार गई, पर रोहित मनोरंजन का भरपूर डोज दे कर गए। उनका यह शतक याद रहेगा।
रोहित से अभी ढेर सारे शतकों और अनेक धुंआधार परियों की उम्मीद है, और उम्मीद यह भी है कि वे फैन्स की उम्मीदों का ध्यान रखेंगे। जय हो

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

बाबा रामदेव एकबार फिर चर्चा में हैं। वैसे तो वे हमेशा चर्चा में ही रहते हैं, पर इस बार सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाए गए फटका...
13/04/2024

बाबा रामदेव एकबार फिर चर्चा में हैं। वैसे तो वे हमेशा चर्चा में ही रहते हैं, पर इस बार सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाए गए फटकार के कारण चर्चा में हैं।
आप राजनैतिक कारणों से उनके विरोधी भले हो जाँय, पर इस बात में किसी को संदेह नहीं कि चिकित्सा जगत में योग और आयुर्वेद को पुनः प्रतिष्ठा दिलाने में बाबा रामदेव का योगदान अविस्मरणीय है। भारत के बाहर यूरोप तक योग को घर घर मे पहुँचाने में उनकी भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता।
बाबा रामदेव पर मामला है कि उनकी कम्पनी ने भ्रामक विज्ञापन बनाये हैं। भारत में इससे अधिक हास्यास्पद मामला कोई हो ही नहीं सकता। इस देश की किस कम्पनी के विज्ञापन फर्जी नहीं होते? फेयर एंड लवली और लक्स वाले पिछले पचास वर्षों से हर सांवले व्यक्ति को गोरा बना रहे हैं, कितने लोग गोरे हो गए? 'दर्द का अंत तुरंत' और 'छह सेकेंड में एसिडिटी का काम तमाम' की टैगलाइन के साथ आज भी अंग्रेजी दवाइयां बेची जा रही हैं। क्या ये विज्ञापन भ्रामक नहीं है?
कोरोना के दिनों में रेमडी... (जाने क्या नाम था) जैसी अनावश्यक दवाइयाँ बीस बीस हजार में बेची गयीं, जबकि यह सिद्ध हुआ कि उपचार में उसका कोई खास रोल नहीं था। फिर पतंजलि के कोरोनिल से क्या दिक्कत है भाई?
कोर्ट ने सरकार से प्रश्न करते हुए पूछा कि जब पतंजलि के लोग हर कस्बे में तक प्रचार कर रहे थे कि कोविड वैक्सीन से कोई लाभ नहीं, तो सरकार सोई थी क्या? कितना हास्यास्पद है न यह? कुछ पूर्व मुख्यमंत्रियों समेत इस देश के सैकड़ों बड़े नेताओं ने बार बार कोविड वैक्सीन पर प्रश्न खड़ा किया और उनके लाखों समर्थकों ने भी उनकी बातों को फैलाया। पर कोर्ट को उनसे कोई आपत्ति नहीं। कोर्ट को दिक्कत है तो केवल बाबा रामदेव से। दोमुंहेपन की ऊँचाई यह है कि कल तक जो लोग कोविड वैक्सीन के विरुद्ध बोलते थे, आज वही लोग कह रहे हैं कि बाबा ने वैक्सीन पर अविश्वास क्यों जताया था।
बाबा में कुछ मानवीय कमजोरियां हैं। वे गाँव देहात के सामान्य जन की तरह बोलते बोलते कभी कभी कुछ अधिक बोल जाते हैं। पिछले दिनों ही उन्होंने मजाकिया अंदाज में स्वयं को ब्राह्मण बताते कुछ कहा तो बवाल हो गया। मजा यह कि उनकी बात पर ब्राह्मणों ने आपत्ति नहीं की, बल्कि वे ही आपत्ति कर रहे थे जो कहते हैं कि ब्राह्मणों ने उन्हें ज्ञान से दूर रखा है।
बाबा रामदेव ने डाबर और हिंदुस्तान लिवर जैसी विदेशी कम्पनियों की कमर तोड़ी है, यह सत्य है। पतंजलि के उत्पाद जब भारतीय घरों में स्थान बनाने लगे तो इन्ही विदेशी कम्पनियों के उत्पादों को डस्टबिन में जाना पड़ा था। इस तरह बाबा रामदेव राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों के प्रिय हुए और इसी कारण सदैव बहुतों के निशाने पर रहते हैं।
आजादी के बाद का इतिहास यही है कि यदि किसी ने भी विदेशी कम्पनियों या मिशनरियों के हितों को नुकसान पहुँचाने की कोशिश की तो वह समाप्त हो गया। बाबा रामदेव इकलौते हैं जो यह कर के भी डटे हुए हैं। हालांकि यह भी सत्य है कि यदि 2014 में नई सरकार नहीं आयी होती तो बाबा भी नप ही गए होते।
कोर्ट कुछ भी कहे, इससे बाबा का कोई विशेष नुकसान होने वाला नहीं। हां यह स्पष्ट है कि राष्ट्रवादी शक्तियां अब भी निशाने पर हैं।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

विप्र धेनु सुर संत हित...     माता गौरी ने कहा, "प्रभु! भगवान श्रीराम के अवतार का मूल कारण क्या है? वे किस उद्देश्य के ल...
09/04/2024

विप्र धेनु सुर संत हित...

माता गौरी ने कहा, "प्रभु! भगवान श्रीराम के अवतार का मूल कारण क्या है? वे किस उद्देश्य के लिए धरा धाम पर अवतरित हो रहे हैं? क्या अत्याचारी रावण का वध करना ही मूल उद्देश्य है प्रभु?
भगवान भोलेनाथ बोले- ईश्वर लोक में देवत्व की स्थापना के लिए आते हैं देवी! असुरत्व का विनाश तो यूँ ही हो जाता है। रावण का अंत करना उनके अवतार का हेतु नहीं है। ईश्वर इतने छोटे काज के लिए अवतार नहीं लेते। राम का आना यूँ ही रावण के अंत का सूचक है। राम धर्म की स्थापना के लिए लोक में भ्रमण करेंगे और इसी बीच कभी रावण का अंत भी कर देंगे।
माता ने कहा, "तो महादेव! तब इस महान अवतार का क्या कारण है?"
भोलेनाथ मुस्कुराए। कहा, "कोई भी युग हो, धर्म और अधर्म दोनों साथ चलते हैं। कभी धर्म प्रभावी होता है तो कभी अधर्म। जब अधर्म प्रभावी होता है तो साधारण मनुष्य का देव और देवत्व से विश्वास टूटने लगता है। उनके मन में यह प्रश्न स्थान बना लेता है कि यदि ईश्वर हैं तो हमारी रक्षा क्यों नहीं कर रहे? अत्याचारियों का प्रभाव इतना बढ़ता क्यों जा रहा है? साधारण मनुष्य के मन में ऐसे प्रश्न उठना सहज ही है। तब हम त्रिदेवों का कर्तव्य हो जाता है कि मानवता के कल्याण के लिए अंशावतार या पूर्णावतार ले कर धरा धाम पर आएं और देवत्व की स्थापना करें। प्रभु का लक्ष्य बस यही तो है।
- प्रभु! यदि देवत्व की स्थापना आप सब का कर्तव्य है तो फिर आप अधर्म को प्रभावी होने ही क्यों देते हैं? धार्मिक मनुष्य के जीवन में पीड़ा आने ही क्यों देते हैं? संसार कितना सुंदर हो जाता यदि किसी के जीवन में दुख आता ही नहीं।
- यह उचित नहीं होगा देवी। मैंने कहा न कि धर्म और अधर्म सदैव बने रहेंगे। यदि जीवन में केवल सुख ही रहे तो मनुष्य के पुरुषार्थ की क्या आवश्यकता रह जायेगी? क्या वह अकर्मण्य नहीं हो जाएगा? मनुष्य को अपने जीवन के संघर्षों से अपने पुरुषार्थ के बल पर ही पार पाना होता है, और अंततः वह पार पा ही लेता है। यदि स्थितियां बिल्कुल ही विपरीत हो जाँय, धर्म बिल्कुल ही समाप्त होता दिखने लगे, जब संकट व्यक्ति पर नहीं पूरी सभ्यता पर आये, तब ही ईश्वर को अवतार लेना होता है।
- पर मनुष्य के जीवन मे सदैव सुख ही रहता तो कितना सुन्दर होता न? ऐसा नहीं हो सकता क्या?
-सुख जीवन का सौभाग्य है, पर जीवन सदैव सुखमय ही तो नहीं हो सकता न? सुख और शान्ति यदि विद्वतजन के जीवन में रहे तो वे जगत कल्याण की सोचते हैं, पर सामान्य मनुष्य अहंकार के वशीभूत हो कर दूसरों को पीड़ा देने लगता है। इसी लिए सभ्यता का संतुलन दुख और सुख दोनों के बने रहने में है।
- वाह! उत्तम प्रभु! तो प्रभु के अवतरित होने में कितना समय शेष है?
- अधिक नहीं देवी। देखिये अयोध्या की ओर, प्रकृति की समस्त शोभा उस दिव्य नगरी में उतर कर जैसे कह रही हो, विप्र धेनु सुर और संतों के हित के लिए प्रभु आने ही वाले हैं..."

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

ए रामा चइत महिनवा!    पता नहीं कब से, शायद जब से धरा धाम पर राम आये तभी से सभ्यता के लिए चैत्र मास का अर्थ ही 'राम' होता...
08/04/2024

ए रामा चइत महिनवा!

पता नहीं कब से, शायद जब से धरा धाम पर राम आये तभी से सभ्यता के लिए चैत्र मास का अर्थ ही 'राम' होता है। फगुआ की शाम को ढोलक पर पड़ती एक मदमाती थाप, और अनेक उल्लासित कंठों का सम्मिलित स्वर! "ए रामा चइत महिनवा, ए राम के जनमवा ए रामा..." यदि आपका माटी से तनिक भी जुड़ाव बचा है, तो यकीनन आप झूम उठेंगे। हाथ अपने आप ताली पीटने लगेंगे, कंठ में अपने आप राम उतर आएंगे।
भोर में गेहूं की कटनी करने खेतों में उतरे लोग हों या शाम के समय ढोलक झाल लेकर बैठते पुराने लोग, वे यदि गुनगुनाएं तो जो जिह्वा पर राम ही आते हैं। ए रामा... यह देश युग युगांतर से ऐसे ही जीता रहा है न! थोड़ा सा रङ्ग बदला है अब, पर बहुत अधिक नहीं। अब भी सब राममय ही तो है। सभ्यता वस्त्र बदलती है, देह नहीं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अबकी का चैत पिछले कुछ वर्षों ही नहीं, पाँच शताब्दियों का सबसे सुन्दर चैत है। इतना सुंदर कि इस महान समय में अपना होना ही सबसे बड़ा सुख लगता है।
सुख, आनन्द अनुभव करने का विषय है। इसका कोई स्पष्ट स्वरूप नहीं होता। यदि आप घटनाओं, परिस्थितियों को महसूस करेंगे तो ही सुख प्राप्त कर सकते हैं, अन्यथा समय हाथ से सरक जाएगा और आप जान भी नहीं सकेंगे। सोच कर देखिये, कि यह पिछली पाँच शताब्दियों का पहला चैत्र मास है, जब अयोध्याजी की अपनी जन्मभूमि में प्रभु श्रीराम विराज रहे हैं। हमारे आपके अनेक पूर्वज जो दिन भर राम-राम जपते रहे, उनके जीवन में भी यह क्षण नहीं आया। वे इस क्षण की राह तकते तकते स्वर्ग को प्रस्थान कर गए। यह दिन हमारे हिस्से में था। महसूस करिए इस बात को, एकाएक आपका मन आनन्द से भर जाएगा।
हम पौराणिक ग्रन्थों में पढ़ते हैं कि अमुक अमुक व्यक्तियों ने प्रभु के आने की युगों तक प्रतीक्षा की थी। जैसे माता अहिल्या, महर्षि शरभंग, माता सबरी आदि युगों से प्रभु की प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे महाराज मुचुकुन्द, जामवंत युगों से भगवान श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा कर रहे थे। पर यह कथाएं सतयुग द्वापर की हैं, तब मनुष्य की आयु बहुत अधिक होती होगी। मुझे लगता है कलियुग में किसी महान घटना की प्रतीक्षा व्यक्ति नहीं बल्कि उसका वंश करता है। अयोध्या में रामलला के विराजमान होने की प्रतीक्षा हर कुल की अनेक पीढियां करती रहीं। ठीक वैसे ही, जैसे इक्ष्वाकु के वंशज माता गङ्गा के अवतरण की प्रतीक्षा पीढ़ी दर पीढ़ी करते रहे थे। महाराज सगर से लेकर भगीरथ तक... जिसदिन महात्मा भगीरथ की प्रतीक्षा पूरी हुई, उस दिन वस्तुतः उनके सभी पूर्वजों की प्रतीक्षा पूरी हुई थी। अयोध्याजी में जन्मभूमि मन्दिर का बनना केवल हमारी प्रतीक्षा का अंत नहीं है, बल्कि हमारी अनेक पीढ़ी के पूर्वजों की प्रतीक्षा की सुखद समाप्ति है। इससे अधिक सुंदर और क्या ही होगा...
यह चैत्र अबतक का सुंदरतम चैत्र है। आधुनिक काल में अयोध्या इतनी सुन्दर कभी नहीं रही होगी, सरयू के तट पर इतना उल्लास कभी न रहा होगा, चइता की तान कभी भी इतनी प्यारी न लगी होगी। महसूस कीजिये प्रकृति के इस उत्सव को, यह आपको आनन्द से भर देगा।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

जय जय श्रीराम!    मानस में बाबा तुलसी राम जन्म से पहले रावण जन्म की कथा लिखते हैं! क्यों भला? विशुद्ध कलियुगी बात है, यद...
04/04/2024

जय जय श्रीराम!

मानस में बाबा तुलसी राम जन्म से पहले रावण जन्म की कथा लिखते हैं! क्यों भला? विशुद्ध कलियुगी बात है, यदि जीवन में बुराई का अनुभव न हुआ हो तो अच्छाई का मूल्य समझ मे नहीं आता। एक सामान्य व्यक्ति जिसने रावणत्व का अनुभव न किया हो, वह रामत्व को पूर्णरूपेण नहीं समझ पाता है।
रावण के पूर्वजन्म में प्रतापभानु नामक राजा होने की कथा आती है। उनकी प्रसिद्धि से जल कर एक कपटी ने ब्राह्मण वेश धर कर उनके साथ छल किया। उन्हें एक अनुष्ठान करने और उसके पश्चात ब्राह्मण भोजन का सुझाव दिया। भोजन बनाने की जिम्मेवारी उसने स्वयं ली। जब ब्राह्मण भोजन करने बैठे तो आकाशवाणी हुई कि "ठहरिए ब्राह्मणों! आपके साथ छल हुआ है, यह राजा आपको मांस खिला कर आपका धर्म भ्रष्ट कर रहा है।"
ब्राह्मणों ने प्रतापभानु को शाप दिया कि "अगले जन्म में महानीच राक्षस हो जाओ।" अब सोचिये! प्रतापभानु का तो कोई दोष नहीं दिखता, छल तो उनके साथ भी हुआ था। फिर नियति ने उन्हें किस अपराध का दंड दिया था?
प्रतापभानु को दंड मिला उनकी सहजता का। यदि हम अपने शत्रु का पहचान नहीं करते तो अनजाने में ही स्वयं के साथ साथ अनेकों का अहित करते हैं। फिर इसका दण्ड तो भुगतना होगा न?
यदि हनुमान जी ने कालनेमि को न पहचाना होता तो क्या केवल उनका अहित होता? नहीं! वे स्वयं के साथ साथ अपने प्रभु और समस्त बानर सेना के अहित का कारण बनते... सो मित्र वेश में छिपे अपने शत्रु को पहचानना भी हमारा परम कर्तव्य है।
कई बार हम समस्त जगत को ही अपना मित्र समझने लगते हैं। यह वैराग्य की अति है। जगतकल्याण के लिए तपस्या करते ऋषियों से भी राक्षस शत्रुता करते थे और उन्हें मार कर खा जाते थे, फिर गृहस्थ के जीवन में केवल मित्र ही कैसे हो सकते हैं? स्वयं को उदार सिद्ध करने के लोभ में शत्रु को भी मित्र बताने वाला व्यक्ति स्वयं के साथ साथ अपने पूरे समाज के लिए घातक होता है।
प्रतापभानु जब अगले जन्म में रावण के रूप में आये, तब भी वे अपना यह दुर्गुण साथ ले कर आये। मित्रभाव के साथ जिस जिस ने उन्हें सही राह दिखानी चाही, उसने उनका तिरस्कार किया। पहले पिता विश्रवा का, पत्नी मंदोदरी का, फिर भाई विभीषण का... और जिन राक्षसों ने सदैव अनाचार के लिए प्रेरित किया, उन्ही की सुनता रहा। इसी दुर्गुण के कारण रावण स्वयं के साथ साथ पूरे कुल और समस्त संस्कृति के विनाश का कारण बना। सबकुछ जानते हुए भी सभ्यता के शत्रुओं को मित्र बनाने वाला व्यक्ति अंततः रावण की तरह ही विनाश का कारण बनता है।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

आईपीएल की शुरुआत से ही हार्दिक पांड्या दर्शकों की गाली सुन रहे हैं। रोहित शर्मा के साथ उनका व्यवहार देख कर लगता है, जैसे...
28/03/2024

आईपीएल की शुरुआत से ही हार्दिक पांड्या दर्शकों की गाली सुन रहे हैं। रोहित शर्मा के साथ उनका व्यवहार देख कर लगता है, जैसे वे दर्शकों की आलोचना के अधिकारी हैं भी! आप कोई भी हों, यदि अपने सीनियर्स का सम्मान नहीं करते तो समाज भी आपका सम्मान नहीं करेगा। दर्शक आपके गुलाम तो हैं नहीं...
महाभारत सीरियल में एक संवाद है, "सभ्यता धरोहर में नहीं मिलती!" यह बात बिल्कुल ही सच है। कई बार अच्छे परिवार में जन्मा व्यक्ति भी असभ्य निकल आता है। और किसी खेल का अच्छा खिलाड़ी होना इस बात की गारंटी नहीं कि वह एक व्यक्ति के रूप में भी बेहतर होगा। हार्दिक सिद्ध कर रहे हैं कि वे निहायत ही फूहड़ व्यक्ति हैं।
भारत के क्रिकेट प्रेमियों ने फील्ड में जूनियर्स द्वारा सीनियर्स का सम्मान खूब देखा है। गांगुली के अंतिम मैच के अंतिम ओवरों में कैसे धोनी ने उन्हें कप्तानी सौंप दी थी, हमने यह भी देखा। सचिन को कैसे पूरी टीम सम्मान देती थी, हमने यह भी देखा है। कुंबले आदि बड़े खिलाड़ियों को कैसे कंधे पर बैठा कर धोनी ने विदाई दी, वह भी हम सब ने देखा है। हार्दिक शायद यह सब नहीं जानते। या शायद यह उनके संस्कारों में नहीं!
वैसे क्रिकेट से इतर, सामान्य जीवन में भी देखें तो अधिकांश युवकों को लगता है कि उनके बुजुर्ग सही निर्णय नहीं लेते। "बाबूजी के चलते काम बिगड़ गया, नहीं तो हम होते तो गर्दा उड़ा देते..." जैसी बातें गाँव देहात में रोज ही सुनने को मिलती हैं। पर यह युवा उम्र की झक भर होती है। एक दिन लड़के को पता चलता ही है कि बाबूजी सही थे। बाबूजी का तरीका ही सही था। और वह भी स्वयं को बाबूजी की तरह ही बना लेता है। पर तबतक बाबूजी निकल गए होते हैं। सामने होता है उसका अपना बेटा, जो इतिहास को दुहराते हुए कहने लगता है, "बाबूजी के चलते काम बिगड़ रहा है, हम होते हो...." यही जीवन है शायद!
हार्दिक के कठिन परिश्रम और जुझारू कप्तानी के बल पर मुम्बई इंडियन्स अपने दोनों मैच हार कर अंक तालिका में नीचे से टॉपर बन गयी है, और अपने व्यवहार के कारण हार्दिक स्वयं सारे खिलाड़ियों में सबसे पीछे खड़े हो गए हैं। यदि उन्होंने स्वयं में सुधार नहीं किया तो इसी आईपीएल में विलेन बन जाएंगे। एक विजेता दल को फिसड्डी दल बनाने वाले कप्तान का तमगा लेना पड़े तो धिक्कार ही है।
और हाँ! रोहित को स्लिप में रखिये या बाउंड्री पर, वह स्टार है, स्टार ही रहेगा।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

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