HINDUSTANIUM-Tales And Talks

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दक्षिण में बीजेपी की मजबूती का मतलब दक्षिण के राज्यों में भाजपा की सीटों से ज्यादा उसके मत प्रतिशत बढने की उम्मीद है जिस...
12/04/2024

दक्षिण में बीजेपी की मजबूती का मतलब

दक्षिण के राज्यों में भाजपा की सीटों से ज्यादा उसके मत प्रतिशत बढने की उम्मीद है जिसका मतलब वह वहां जमीनी स्तर पर मजबूत हो रही है।
इसके चुनावों से परे भी गहरे निहितार्थ हैं। भाजपा कम्युनिस्ट और बहुजन प्रभाव वाले भारतीय राजनीति को निस्तेज करने के बाद अब द्रविड दबदबे वाली राजनीति के दमन की ओर बढने वाली है
संजय श्रीवास्तव
भाजपा को अपने नारे, “अबकी बार 400 पार” को चरितार्थ करना हो या दलगत लक्ष्य 370 सीटों के करीब पहुंचना हो अथवा दुर्भाग्यवश उत्तर से घटी सीटों की भरपाई करनी हो, हर हाल में भाजपा को दक्षिण भारत से सीटें चाहिये। उत्तर भारत के कई राज्यों पिछली बार वह इतनी सीटें जीत चुकी है कि बढत की गुंजाइश बहुत नहीं उलटे इनकैम्बेंसी के किंचित कम हुईं या अपनी कुल सीटों की संख्या बढानी है तो दक्षिण की ओर ही देखना होगा।

विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा को यदि उत्तर भारतीय दल की पहचान को राष्ट्रीय बनाना है तो भी उसे दक्षिण में अपने सांसद और जनाधार बढाना होगा। भाजपा ने विगत कुछ वर्षों से इस ओर प्रयास प्रारंभ कर दिया था। अब ये आम चुनावों के परिणाम बताएंगे कि उसकी कोशिशें कितना रंग लाई हैं। निस्संदेह राजनीति संख्याओं का खेल है परंतु मात्र सीटों की संख्या का नहीं है।
दक्षिण कितना देगा ?
प्राप्त मतप्रतिशत का भी, देखना होगा कि दक्षिण में भाजपा का मतप्रतिशत कितना बढा? चुनाव परिणामों में वह कितनी सीटों पर जीत के कितना करीब पहुंची, कितनी जीती है और आने वाले वर्षों में वहां होने वाली विधानसभा चुनावों में जीत की कितनी आस बंधती है। दक्षिण भारत के पाँच राज्यों, कर्नाटक, केरल, आंध्र, तमिलनाडु, तेलंगाना और एक केंद्र शासित प्रदेश पुदुचेरी में कुल मिलाकर 130 लोकसभा सीटें हैं।

तमिलनाडु में 39, कर्नाटक में 28, आंध्र प्रदेश में 25, केरल में 20 और तेलंगाना में 17 के अलावा पुड्डुचेरी में एक। फिलहाल सबसे मौजू सवाल यह तो है ही कि इस दक्षिण के राज्य भाजपा को कितनी सीटें देंगे साथ ही यह भी कि इस बढत के गैर चुनावी निहितार्थ क्या है?
प्रधानमंत्री कहते हैं कि भाजपा तमिलनाडु में सात सीटें ला रही है, तो राजनाथ आने वाली सीटों की संख्या नहीं बताते, कई सीटें जीतने का दावा करते हैं। उनको कर्नाटक की सभी 28 सीटें जीतने का भरोसा है तो केरल में भी वे भाजपा को बहुत सी सीटें दिला रहे हैं।

प्रधानमंत्री तो केरल में सीटों के दहाई पार करने के प्रति आश्वस्त हैं। तेलंगाना में भाजपा के पास 17 में से 4 सीट है। गृहमंत्री अमित शाह कह रहे हैं कि इस बार हम डबल डिजिट में पहुंचेंगे। भाजपा का मानना है कि ऐसा कोई राज्य नहीं है जहां पार्टी अपना खाता नहीं खोलेगी।
हम सभी राज्यों में बेहतर करेंगे। अतार्किक आत्मविश्वास राजनीति की आत्मा है। हर दिशा में बेहतर कर रही पार्टी की चुनावी माहौल में ऐसी सोच अतिशयोक्ति नहीं। भले ही विपक्षी दल भाजपा के पूर्व प्रदर्शन और इतिहास दिखा कर उसकी इन घोषणाओं को खुशफहमी माने क्योंकि दक्षिण के पाँच राज्यों की 129 सीटों में से भाजपा ने 2009 में 19 और 2014 में 21 जबकि 2019 में कुल 29 सीटें ही हासिल कीं।

आंध्रप्रदेश, केरल और तमिलनाडु से भाजपा का सांसदहीन है। कर्नाटक को छोड़ दें तो बाकी बचे कुल 101 सीटों में से उसे 2019 और 2014 में महज में 4 सीटें मिली थीं। कर्नाटक से आठ-दस सीटें कम हो जायें तो भाजपा के तमिलनाडु और केरल में खाता खुलने से भी क्या होने वाला, पुनर्मूषको भव वाली स्थिति हो जाएगी। पुराने आंकड़ों से बनी तस्वीर बहुत गुलाबी नहीं लेकिन भाजपा ने साल दर साल दक्षिण में जनाधार को मजबूत किया है। कार्यकर्ता, संगठन और सक्रियता बढाई है।
यदि भाजपा तमिलनाडु, केरल और आंध्र में अपनी मतसंख्या में आशातीत वृद्धि करती है तो उसकी यह उपलब्धि इसी के चलते होगी। केरल में शून्य से दहाई, कर्नाटक में शतप्रतिशत सीटों का दावा कुछ अतिरेकी लग सकता है लेकिन भाजपा के आत्मविश्वास के पीछे कुछ ठोस वजहें, तर्क, समीकरण और वाजिब कारण हैं।

प्रधानमंत्री 7 बार तमिलनाडु जा चुके। द्रविड राजनीति के दबदबे को खत्म करने और हिंदूवादी राजनीति को उभारने के प्रयास में भाजपा की तमिलनाडु में तीव्र सफलता बताती है कि वह यह बात समझाने में कुछ हद तक सफल रही है कि तमिल स्वाभिमान और संकृति की वही सच्ची संरक्षक है।
आबादी के 14 फीसद वन्नियारों के समर्थन वाली पीएमके से गठबंधन का भी उसे लाभ मिल रहा है। दोनों विपक्षी द्रमुक और कांग्रेस को भाजपा ने कच्चातिवू दांव से बुरी तरह घेर दिया। राजनीतिक पर्यवेक्षक तो कच्चातिवु के इस पत्ते को भाजपा का दक्षिण में प्रवेश पत्र मान रहे हैं। इस विवाद से प्रभावित तटवर्ती इलाके में रहने वाले लाखों मछुआरों का जिनका 15 सीटों पर गहरा असर है, भाजपा से जुड़ाव बढा है।

विगत वर्षों की तैयारियों के चलते आज पार्टी मुख्य मुकाबले में है। 23 सीटों पर लड़ रही भाजपा की सीटें उसके 6 सीट के दावे से कम रहेंगी और मतप्रतिशत का 25 प्रतिशत तक पहुंचाना भीं संभव नहीं पर इसमें पहले की तुलना में चार गुने की बढोतरी के साथ 12 फीसदी से ऊपर पहुंचने की संभावना उसे 2026 में होने वाले विधान सभा चुनावों में सफलता के प्रति आश्वस्त करेगी जो कि उसके हालिया प्रयासों का मूल उद्देश्य है।

बीजेपी का दावा है कि केरल में कांग्रेस के कमजोर होने से अब उसकी सीपीएम से सीधी लड़ाई है। पिछली बार भले ही वह शून्य पर थी लेकिन इस बार उसका आंकड़ा दहाई पार करेगा। सच तो यह है कि हिंदू राष्ट्रवाद को केरल में बहुत कम समर्थन मिला और बहुत हद तक विकसित केरल पर विकास के नारे का भी असर नहीं पड़ा।

यहां किसी चीज ने असर डाला है तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के जमीनी काम काज ने जिसके तहत संगठन ने समाज के बड़े वर्ग में पैठ बनाई है और उनके साथ सामाजिक समरसता बनाई। पिछले चुनावों में बीजेपी तीन सीटों पर कम अंतर से हारी थे और दूसरे दो में उसका प्रदर्शन उल्लेखनीय था। इसे आधार पर कुछ भाजपा नेताओं का दावा है कि वे त्रिशूर, तिरुअनंतपुरम जैसी पाँच सीटें जीतेंगे। यह संभव भले न हो पर उसके केरल में पहली बार खाता खुल सकता है। जहां तक आंध्र का सवाल है। चंद्रबाबू नायडू के साथ के बावजूद बीजेपी बहुत मजबूत स्थिति में नहीं है।

नायडू घोटाले में गिरफ्तारी के डर से भाजपा के साथ आये हैं और भाजपा उनका सियासी सहारा लेने के लिये। लगता नहीं कि भाजपा को यह राज्य बहुत सहायता कर पायेगा। एक सर्वे तेलंगाना की 17 लोकसभा सीटों में से बीजेपी को 8 और कांग्रेस को 6 सीटें दे रहा है, तो दूसरा 5, एक दावा यह भी कि बीजेपी को 2 से ज्यादा सीटें नहीं मिलेंगी। कुछ भी हो करीमनगर, सिकंदराबाद निजामाबाद में भाजपा मजबूत है और उसका मतप्रतिशत भी बढेगा। प्रशांत किशोर जैसे विश्लेषक भी तेलंगाना में भाजपा भाजपा को पहले या दूसरे नंबर रख रहे हैं।

कर्नाटक में भाजपा ने जेडीएस के साथ गठबंधन में अपनी स्थिति सुधारी है। यहां से भाजपा 2019 में 25 सीटे पा चुकी है। मतलब साफ है कि कर्नाटक में बीजेपी को घाटा नहीं होने जा रहा है और तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पुडुचेरी और केरल में भी वह कुल मिलाकर 15 से बीस सीटें जीतती लग रही है।

ये जीत और बढी सीटें भाजपा के तात्कालिक उद्देश्य को पूरा करें न करें पर दक्षिण में उसका बढता प्रभाव द्रविड राजनीति के दबदबे के अंत का आरंभ बनेगा जैसे उसने कम्युनिस्ट खेमे तथा बहुजन प्रभाव को भारतीय राजनीति में धीरे धीरे निष्प्रभावी किया है।

आगे आगे देखिए होता है क्या
13/03/2024

आगे आगे देखिए होता है क्या

बाराबंकी से भाजपा का टिकट पाने के बाद उपेंद्र रावत ने लौटाते हुए कहा कि उनको जिस वीडियो में स्त्री के साथ दिखाया गया है ...
13/03/2024

बाराबंकी से भाजपा का टिकट पाने के बाद उपेंद्र रावत ने लौटाते हुए कहा कि उनको जिस वीडियो में स्त्री के साथ दिखाया गया है वह डीप फेक है, अब अगर उनका दावा सही है तो 2004 के चुनावों में वे एआई निर्मित डीप फेक के सर्व प्रथम शिकार होंगे. सिलसिला रुकेगा नहीं

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस में चुनावी प्रक्रिया को सरल, सुग्राह्य, कम खर्चीला, ज्यादा व्यापक और समय की बचत कराने के साथ सभी हितधारकों, उम्मीदवारों के लिए भेदभाव रहित समान अवसर प्रदान कर अधिक समानता लाने और उसे ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने की क्षमता है। लेकिन यह तब जब इसका सकारात्मक उपयोग किया जाए। चुनावी प्रक्रिया में इसके नकारात्मक इस्तेमाल की आशंका अधिक है। मेटा, ओपन एआई , चुनाव आयोग तथा आईटी मंत्रालय द्वारा इसपर लगाम लगाने के जुमलों के बावजूद हमें आम चुनावों के दौरान इसके दुरुपयोगों के प्रति सचेत रहना होगा

बीते साल 30 नवंबर को तेलंगना में विधानसभा चुनावों के मतदान शुरू ही हुए थे कि एक वीडियो वायरल हुआ। सात सेकेंड के उस वीडियो में सत्तारूढ दल भारत राष्ट्र समिति पार्टी के मुखिया केटी रामाराव मुख्य विपक्षी कांग्रेस पार्टी को वोट देने की बात कह रहे थे।

यह वीडियो कांग्रेस ने ही अपने एक अनाधिकृत स्रोत से प्रसारित किया था। असली लगने वाला नकली डीपफेक वायरल वीडियो 5 लाख से ज्यादा बार देखा गया। मतदान आरंभ हो जाने के बाद भारत राष्ट्र समिति के पास वीडियो से होने वाले नुकसान का बचाव करने की संभावनाएं सीमित थी।

वहां भारत राष्ट्र समिति के बीच कांटे की टक्कर के बावजूद कांग्रेस आसानी से जीत गई। 2024 सबसे बड़ा चुनावी वर्ष है जिसमें दुनिया के 63 संसदीय और राष्ट्रपति चुनाव तय है और संसार के कुल मतदाताओं की तकरीबन आधी संख्या इसमें भाग लेगी।

इन चुनावों के दौरान एआई अथवा कृत्रिम बुद्धिमत्ता प्रसूत डीपफेक का घातक इस्तेमाल की आशंका चहुंओर है। 63 चुनावों में से कुछ तो बरस के शुरुआती दो महीने में निबट गये और उनमें एआई का सार्थक इस्तेमाल दिखा। पाकिस्तान में इमरान खान इसी की मदद से सेना की रोक और जेल में बंद रहते हुए सभी प्रतिद्वंदी पार्टियों से ज्यादा सीटें जीतने में कामयाब हुए।

बाकी बचे साल में न सिर्फ तमाम देशों के बहुत से दूसरे छोटे बड़े चुनाव बाकी है बल्कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में भी मतदान होना है। ऐसे में डीपफ़ेक्स किताब की लेखिका नीना शिक जो जनरेटिव आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की विशेषज्ञा भी हैं, उनका यह कहना महत्वपूर्ण है कि,” इस बार चुनावों में प्रचार का तरीका ही नहीं बल्कि उसके संदेश भी बदल जाएंगे।

एआई के इस्तेमाल के बिना जनमत को व्यापक तौर पर प्रभावित करने वाला चुनाव अभियान मुश्किल होगा”। एआई की सहायता से सबके लिए अलग और व्यक्तिगत संदेश। लाखों मतदाताओं तक उनकी जाति, धर्म, शैक्षिक योग्यता, आयु और आयवर्ग तथा राजनीतिक, वैचारिक रुझानों और अन्य प्राथमिकताओं के आधार पर तय प्रोफाइल के अनुसार पर्सनल मैसेज। सही के साथ गलत और फर्जी सूचना संदेशे।

बेशक़ फ़र्जी जानकारी फैलाने का काम विदेशी ताकतें भी कर सकती हैं। दूसरे देशों में ऐसी गतिविधियों के उदाहरण मौजूद हैं, देश के चुनावों में विदेशी ऐसी हरकत करें आशंका न्यून भले हो पर निरापद नहीं माना जा सकता। विशेषज्ञों आकलन है कि भारत के आम चुनावों में कृत्रिम बुद्धिमता से उपजे उपायों का इस्तेमाल दूसरे देशों से कहीं ज्यादा हो सकता है।

लोकतंत्र की जननी भारत में एआई की प्रगति भी प्रशंसनीय है। इंटरनेट और मोबाइल की पैठ आमजन तक गहरी है, राजनीतिक प्रचारकों के नैतिकताविहीन नीति के साथ ही उनके पास ढेरों अवैध धन और ऐसे स्रोत तथा मंच बहुतायत है जहां दायित्वविहीन भ्रष्टाचार बहुविधि प्रचलित है।

आम और बहुसंख्य मतदाता के पास भी तर्कशीलता का अभाव और सत्यान्वेषण के लिए समय तथा ऐसे रुझान की कमी है। सवाल और शंका की बजाए यहां मान लेने और अकर्मण्य आस्था की संस्कृति है। इसके अलावा भ्रम भंजन की भरोसेमंद व्यवस्थाएं भी बहुत कम हैं। तेजी से बदलते इस तकनीकी तरीके और परिदृश्य का चुनावी लाभ सभी उठाना चाहते हैं।

इसकी मारक क्षमता का इस्तेमाल चुनावी प्रचारों में करने के लिए सरकार, संगठन और विपक्ष सभी समान रूप से इच्छुक हैं। पर्सनलाइज्ड, डीपफेक दृश्य श्रव्य मैसेज बनाने और किसी विषय या मुद्दे पर जनमत बनाने के लिए उसे मिनटों में लाखों लक्षित प्रोफाइल वाले लोगों तक पहुंचाने की क्षमता इसे लोकतंत्र के लिए और घातक बनाती है।

भले ही ओपन एआई, चुनाव आयोग और संबंधित आईटी मंत्रालय इस मामले में बयान देते रहें कि वे आम चुनावों में एआई के दुरुपयोग से बचाने की भरपूर कोशिश करेंगे पर इसके बावजूद जैसे-जैसे हम आम चुनावों के करीब पहुंच रहे हैं, इस बावत चिंता और चर्चा तेज़ होती जा रही है कि बनावटी बुद्धिमत्ता या एआई सियासी मुद्दों और जनता के रुझान को गलत तरीके प्रभावित कर इस लोकतंत्र के उत्सव में बड़ा खेल करने की आशंका कितनी है और क्या इससे बचा जा सकता है।

राजनीतिक दल डिजिटल तकनीक और एआई का सकारात्मक प्रयोग भी कर सकती हैं। मतदाता का फोन घर दफ्तर हर जगह ऑन रहता है। अपने समर्थकों और संभावित मतदाताओं तक व्यापक और तेज पहुंच का यह बेहतर जरिया बन सकता है। भ्रमित या पहली बार मत देने वालों को अपनी विशेष सामग्री से उन्हें अपने पक्ष में प्रभावित कर आकर्षित कर सकती हैं। पक्के समर्थकों की सूची बना कर भारी चंदा उगाही कर सकती हैं।

प्रचार में तकनीक का समावेश कर चुनावी खर्च बचाएगा तो संभव है कि राजनीति में और ज्यादा लोग उतरे इस तरह से डिजिडटल तकनीक, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस में चुनावी प्रक्रिया में अधिक समानता लाने और उसे समान अवसर वाले लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाने की क्षमता भी है।

ओबामा ने 2007 में चुनावों से पहले डिजिटल तकनीक के इस्तेमाल से कम खर्च, अल्प समय में अधिकतम मतदाताओं तक पहुंचने में सफल रहे, 2012 में उनकी जीत में भी इसके व्यापक प्रयोग का सकारात्मक हाथ था लेकिन विगत डेढ दशकों के दौरान चुनावी अभियान में टेक्नोलॉजी की भूमिका बहुत बदल गई है।

जनरेटिव एआई के आने के बाद किसी के टेक्स्ट मैसेज, फ़ोटो, वीडियो या सटीक ऑडियो क्लोनिंग का इस्तेमाल कर फ़र्जी कंटेंट बनाना और संचारक्रांति के उपादानों के माध्यम से इसे व्याप्ति देना आसान हो गया है, खासतौर पर डार्क वेब में ऐसे सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करना जिस पर कोई नियंत्रण नहीं है। ये संदेश गुमराह करने वाला भ्रामक तथ्यों, अपुष्ट सत्यों से भरा हो सकता है। पाठ और चित्रों से सुसज्जित ऐसी सामग्री के बारे में मतदातओं के लिए यह पता लगाना मुश्किल होगा कि वह असली है या नकली।

फेक कंटेंट से मतदाताओं को बचाने का कोई तरीका नहीं है। इससे मतदाता तो गुमराह होंगे ही, लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी क्षतिग्रस्त होगी। किसी उम्मीदवार को उसकी छवि बिगाड़ने के फैलाई लिए गलत सूचनाएं रोकने में सोशल मीडिया मंचों के प्रयासों की असफलता देखते हुए एआई के दुरपयोग के दीर्घकालीन दुष्प्रभावों की बात तो दूर फिलहाल ‘भ्रामक सूचना’ के तात्कालिक खतरों पर निगाह रखना होगा।

कुछ अमेरिकी कंपनियां चुनावी अभियान में इस्तेमाल होने वाली तकनीक में निवेश करती हैं। अवसर देख यहां ऐसा प्रचलन होगा। ये निवेशक फायदे के लिए किस स्तर तक नीचे चले जाएं, राजनीतिक दबाव, प्रभाव, लोभ लालच और आतंक उन्हें कैसे समझौते करवाएगी क्या कहा जा सकता है, इसकी वीभत्स कथाएं भविष्य में पता लगेंगी।

हालांकि ओपन एआई ने कहा है कि वह अपने चैट जीपीटी में यह व्यव्स्था देगी सिसमें सूचना के सथ स्रोत अंकित होगा, ऐसा टूल विकसित करेगी कि एआई से बनी एनकोड की गई तस्वीर का समय स्रोत, उसके असली, नकली होने की पहचान हो जाएगी। मेटा ने भी वादा किया है कि वे ऐसा नियम लाएंगे जिसके तहत विज्ञापन, संदेश बनाने में एआई या दूसरी डिजिटल टेक्नोलॉजी का किस हिस्से में कितना इस्तेमाल हुआ है, राजनीतिक विज्ञापनदाताओं को बताना होगा।

चुनाव आयोग भी आईटी मंत्रालय के साथ गलत और फर्जी चुनावी सूचनाओं पर लगाम लगाने के लिए एआई के इस्तेमाल की बात कह चुका है लेकिन आयोग के सामने असली डीपफेक, फेक वॉयस है। असल बात यह है कि तकनीक विकास संसाधन और व्यय के मद्देनजर फिलहाल ये सब महज जुमले हैं।

हमको गूगल के पूर्व सीईओ एरिक श्मिट की बात ध्यान धरना चाहिए कि चुनावों के दौरान भ्रामक समाचारों, झूठी जानकारियों की बाढ़ आएगी। इसे रोकना कठिन है लेकिन ईमानदार कोशिश करनी होगी। एआई के हमले से एआई ही बचा सकता है।

जाकी रही भावना जै(सी. एक ही लेख, सामग्री पर अलग अलग शीर्षक. संपाद्लेच्छा बलवती. (नमूने और भी थे 😁😄😄)
03/03/2024

जाकी रही भावना जै(सी. एक ही लेख, सामग्री पर अलग अलग शीर्षक. संपाद्लेच्छा बलवती. (नमूने और भी थे 😁😄😄)

यदि किसान आंदोलन अनियंत्रित नहीं होता है, किसान अपनी कुछ मांगो पर समझौतापरक रुख अपनाते हैं तो आसन्न चुनावों को देखते हुए...
23/02/2024

यदि किसान आंदोलन अनियंत्रित नहीं होता है, किसान अपनी कुछ मांगो पर समझौतापरक रुख अपनाते हैं तो आसन्न चुनावों को देखते हुए सरकार भी किंचित लचीला रुख अपना सकती है और किसानों का आंदोलन कुछ हल निकाल कर वापस होगा। पर किस स्तर तक किस स्वरूप में
किसानों का आंदोलन उस समय उभरा है जब लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। सरकार नहीं चाहेगी यह आंदोलन पिछले आंदोलन की तरह तूल पकड़े और लंबा खिंचे। किसान पिछली बार की ही तरह लंबी लड़ाई की तैयारी कर के आने की बात कह रहे हैं पर विगत से सीख लेने के बाद इस बार सरकार और मजबूती से तैयार है।
वह किसानों की मांगो के सामने कतई झुकते हुए नहीं दिखना चाहेगी। दिल्ली में प्रवेश के लिये संघर्षरत किसानों के आंदोलन के बीच ही कांग्रेस ने ऐलान कर दिया कि उनकी सरकार बनी तो वह समर्थन मूल्य संबंधित उनकी मुख्य मांग को मान लेगी, इस तरह इस आंदोलन का विपक्ष द्वारा राजनीतिक लाभ लेना आरंभ हो चुका है।
ऐसे में केंद्र सरकार भी राजनीतिक नुकसान से बचने के लिये इसे मुट्ठी भर क्षेत्रीय किसानों का अतार्किक मांगो लेकर किया गया आंदोलन साबित करने और देश को कमजोर करने के लिए राजनीति प्रेरित प्रयास कह कर तथा दूसरे प्रचारों के माध्यम से इसे कमजोर करने, खत्म करने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखेगी। किसानों की मांगो की फेहरिश्त खासी लंबी है और इस सूची में कई ऐसी मांगें हैं जो सरकार को स्वीकार्य नहीं होंगी, कुछ मांगो में आर्थिकी आड़े आयेगी तो कुछ में अन्य व्यवस्थागत दुश्वारियां हैं। महज कुछ पर समझौता संभव है।
यदि किसान अपनी सूची के आधी अधूरी मांगों पर सहमति तथा यह जानते हुए भी कि सरकारी आश्वासन पिछले वादों की तरह पूरे नहीं होने वाले, कोई समझौतापरक रुख अपनाते हैं अथवा उनके संगठन में तोड़ फोड़, मतभेद होती है। सरकार और किसान प्रतिनिधि एक मेज पर आते हैं और सरकार लचीला रुख दिखाती है तभी इस संघर्ष के शीघ्र निबटने के आसार हैं अन्यथा यह संघर्ष किंचित जटिल और लंबा हो सकता है।
सरकार का यह आकलन कि यह किसान आंदोलन पहले की तरह सशक्त, सुसंगठित और ताकतवर नहीं है, एक राज्य पंजाब से नियंत्रित हो रहा है, इसमें शामिल किसान संगठनों की कुछ राज्यों से बाहर कोई पकड़ नही6 है, कुछ हद तक सही है लेकिन यह तब भूल साबित हो सकती है कि जब यह आंदोलन लंबा खिंचे और इसमें कई राज्यों के किसान संगठन हिस्सा लेने लगें।
सरकार ऐसी स्थितियों से बचना चाहेगी और इसलिये भी वह इस आंदोलन को शीघ्र समाप्ति का रास्ता तलाशेगी, निस्संदेह आसन्न चुनावों के मद्देनजर वह दंड़, दमन की बहुत कठोर नीति अपनाने से थोड़ा बचना चाहेगी लेकिन साम, दान और भेद के हथकंडे अपनाने से उसे कोई गुरेज नहीं होगा।
किसानों का मुख्य मुद्दा है कि प्रधानमंत्री ने जो वादे 2021 में तीन कृषि कानूनों को वापस लेते हुए किए थे उन को तकरीबन दो साल बीतने के बावजूद पूरा क्यों नहीं कर रहे। बेशक यह वादा खिलाफी के तौर पर लिया जाएगा और उनकी यह मांग जायज है। पर इसके साथ किसानों की कुछ मांगें पूरा करना फिलहाल सरकार, उसकी कार्यप्रणाली तथा उसके राजनीति के तौर तरीके देखते हुए संभव नहीं दिखता।
किसान नेता इससे नावाकिफ होंगे ऐसा नहीं। ऐसे में वे यदि इन मांगो पर अड़े रहे तो संघर्ष से कुछ ठोस हासिल होगा इसमें संदेह है। किसानों पर दर्ज सभी मुकदमे वापस लेने, पिछले आंदोलन के शहीद किसानों के परिवार में किसी को नौकरी देने की बात पर सरकार सकारात्मक रुख अपना सकती है पर लखीमपुर खीरी कांड में कथित तौर पर शामिल कुछ नेताओं के गिरफ्तारी और उन्हें सजा दिए जाने की मांग पर महज आश्वासन ही मिल सकता है यह मामला न्यायिक दायरे का है इसमें सरकार सीधे दखल नहीं देना चाहेगी।
किसान खेती को मनरेगा से जोड़ कर उसकी रोजाना की मजदूरी न्यूनतम 700 करने और साल में कम से कम 200 दिन रोजगार देने का लिखित आश्वासन चाहते हैं, यह अव्यावहारिक है। खेती को मनरेगा में शामिल करेंगे तो उसके दूसरे कार्यों के लिये श्रमिक कहां से आयेंगे।
किसानों-खेतिहर मजदूरों को पेंशन की मांग पर सहमति बनना यों तो मुश्किल है, केंद्र सरकार पहले ही तकरीबन सवा आठ करोड़ किसानों को प्रतिवर्ष 6000 रुपये की आर्थिक सहायता दे रही है लेकिन सरकार चुनावी लाभ के लिये लचीला रुख अपनाते हुए पेंशन की राशि पर बातचीत कर सहमति बना सकती है।
किसान चाहते हैं कि सरकार विश्व व्यापार संगठन के कुछ समझौतों से पीछे हटे पर इस पर एक बार आगे बढ जाने के बाद अब केंद्र के लिए यह संभव नहीं है। देश के अनाज उत्पादन, विश्व बाजार में बेचने की व्यवस्था और आवश्यक फसलों की अंतरराष्ट्रीय खरीद पर किसानों इसका बुरा प्रभाव समझा कर और यह देशहित के विरुद्ध है यह बता कर वह इस पर समझौते की राह निकाल ले तो अलग बात है।
सबसे ज्यादा अटकने वाली मांगो में किसानों की कर्ज माफी, भूमि अधिग्रहण कानून को बदलना और सभी फसलों की न्यूनतम खरीद मूल्य की गारंटी है। किसानों का तर्क है कि उद्योगपतियों का लाखों करोड़ का कर्ज माफ हो सकता है, तो किसानों का क्यों नहीं।
पर पूरे देश के किसानों का कुल कर्ज इतना ज्यादा है कि सरकार इसे माफ कर अपनी समूची अर्थव्यवस्था को संकट में डालना कतई नहीं चाहेगी। इस रुख पर उसे जन समर्थन भी मिलेगा। किसानों के कर्ज का कुछ हिस्सा माफ कर आसान किश्तों का विकल्प सुझाया जा सकता है।
किसान भूमि अधिग्रहण कानून बदलकर भूमि लेने के लिए किसानों की सहमति अनिवार्य करने और बाजार मूल्य से चार गुना मूल्य निश्चित करने की मांग कर रहे हैं।
बाजार से चार गुना मूल्य की बात मानना सरकार के लिये संभव नहीं है। सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी के लिए एक कानून बनाकर डॉ। एम।एस। स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार फसल की कीमतों का निर्धारण करना और न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर फसल की खरीद को अपराध घोषित किया जाना भी असंभव दिखता है।
फिलहाल केंद्र सरकार कुल 23 फसलों पर एमएसपी या न्यूनतम समर्थन मूल्य देती है जिसका लाभ देश के महज सिर्फ 6 फीसद बड़े किसानों को ही मिलता है। केंद्र सरकार का दावा है कि वह उत्पादन मूल्य पर 50 फीसदी का लाभ देते हुए फसलों की खरीद कर रही है जबकि किसान इसमें खेत का किराया भी शामिल करने की बात कर रहे हैं।
किसानों की यह मांग उचित होते हुए भी कारपोरेट, बाजार, आर्थिकी और विश्व खाद्यान्न बाजार के तमाम समीकरणों तथा व्यवस्थाओं को देखते हुए सरकार को स्वीकारना कठिन है।
हालांकि न्यूनतम समर्थन मूल्य और भूमि अधिग्रहण पर किसानों की शंकाओं का तत्काल समाधान होना, इस पर सीधा जवाब मिलना आवश्यक है पर यह तय है कि सरकार इस पर गोलमोल जवाब ही देगी। जहां तक प्रधानमंत्री को दो साल पहले का वादा याद दिलाने की बात है वह उन्हें बखूबी याद होगा।
यदि यह आंदोलन अनियंत्रित नहीं होता है और सरकार उसको भलीभांति संभाल लेती है तो किसानों का आंदोलन कुछ हल निकाल कर वापस होगा। पर देखना होगा कि यह हल किस स्तर तक किस स्वरूप में निकलता है।

सौदा और सवाल  तकरीबन चार अरब डॉलर के हथियारबंद अमेरिकी ड्रोंन का सौदे में सफलता सर्वथा स्वागतयोग्य है। इससे सेना की ताकत...
08/02/2024

सौदा और सवाल

तकरीबन चार अरब डॉलर के हथियारबंद अमेरिकी ड्रोंन का सौदे में सफलता सर्वथा स्वागतयोग्य है। इससे सेना की ताकत और रुतबे में बढ़ोतरी होगी पर इसके साथ उठे कुछ प्रश्न आज तक अनुत्तरित हैं। जिन सूचनाओं को सार्वजनिक करने में कोई खतरा नहीं उन्हें सरकार को अवश्य सामने लाना चाहिये ताकि इन सौदों के प्रति विश्वसनीयता और पारदर्शिता बनी रहे, जनता भी इस उपलब्धि की महत्ता आंक सके

अमेरिकी विदेश मंत्रालय की मंजूरी के बाद अब यह मात्र सैद्धांतिक जुमला रह गया है कि इस अनुमति का मतलब यह नहीं है कि यह सौदा हो ही जाएगा। असल में व्यवहारगत तौर पर यह तय हो गया है कि भारतीय सेना को अब 31 एमक्यू-9बी मानव रहित लड़ाकू ड्रोन, उनमें लगने वाली मिसाइलें और दूसरे उपकरण जल्द ही मिल जाएंगे। यह पहला मौका होगा जब किसी गैर नाटो देश को ये ड्रोन मिलेंगे।

यह तकरीबन आठ साल के प्रयासों का नतीजा है जिसमें भारत द्वारा 2016 में मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम पर दस्तख़त कर उसका आधिकारिक सदस्य बनने की भी भूमिका अहम है, जिसके बिना यह संभव हो पाना कठिन था। पिछले जून में प्रधानमंत्री की अमेरिकी यात्रा के दौरान बाइडेन से मुलाकात के बाद तयशुदा समझे जाने वाले इस सौदे को एक खालिस्तान समर्थक अलगाववादी नेता की हत्या में भारतीय हाथ का आरोप लगा कर संकट में डालने की दिखावटी कोशिश की गई, तुरंत ही इस बहाने के साथ कि भारत सरकार इसकी जांच करने और अमेरिकी न्याय विभाग की जांच में सहयोग के लिए प्रतिबद्ध है इस व्यावसायिक हितपूर्ति पर अमेरिका ने मुहार लगा दिया।

उसे कैसे भी हो हथियारों की बिक्री करनी ही होती है, फिर यह बेहद मोटे मुनाफे वाला चार अरब डॉलर का बड़ा सौदा है। इससे भारतीय नौसेना को एफ-18 हॉर्नेट बेचने की राह खुलेगी। वह जता सकेगा कि भारत को वह रणनीतिक तौर पर कितना महत्व देता है। इससे चीन के खिलाफ भी उसका हित सधता है। अमेरिका और उसके साथी देश चाहते हैं भारत नाटो का सदस्य बन जाए, बेशक, इस सौदे से अमेरिका मुंह नहीं मोड़ सकता था।

तकरीबन चार अरब डॉलर के सौदे के तहत मिलने वाले 31 हाई एल्टीट्यूड लॉग एंड्योरेंस यूएवी के दो संस्करण हैं, नौसेना को 15 समुद्री संस्करण सीगार्जियन ड्रोन मिलेंगे, जबकि सेना और भारतीय वायु सेना को आठ-आठ भूमि संस्करण स्काईगार्डियन ड्रोन दिये जायेंगे। भारतीय सेना की मानवरहित रक्षा क्षमताओं को मज़बूत करने की दिशा में यह सार्थक और प्रभावी कदम साबित होगा।

पिछले कुछ सालों में भारत ने अमेरिका से 10 सी-17 ग्लोबमास्टर, 3 ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट, 22 अपाचे अटैक हेलिकॉप्टर, पी8आई मेरीटाइम सर्विलांस एयरक्राफ्ट, 15 चिनूक हैवी-लिफ्ट हेलिकॉप्टर खरीदने के साथ लॉकहीड मार्टिन से नौसेना के लिए जिन 24 एमएच -60 रोमियो हेलीकॉप्टरों का सौदा किया था उनकी आपूर्ति शुरू हो गयी है। इसके अलावा हिंद महासागर क्षेत्र पर निगरानी के लिए अमेरिका से दो एमक्यू 9 ड्रोन लीज़ पर लेकर नौसैनिक हवाई स्टेशन आईएनएस रजाली पर तैनात किया गया था, पर इस साल उनकी लीज खत्म होने वाली है।

ऐसे में ये सौदा हमारे अहम है क्यों कि हेलफायर मिसाइलों से लैस ये हथियारबंद ड्रोन अपनी सामरिक और तकनीक सक्षमताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं जो किसी भी मौसम में 2155 किलो वज़न के साथ अधिकतम चार हजार फीट की ऊंचाई तक पहुंच कर तीस से पैंतीस घंटे तक उडान भर सकते हैं। मतलब हर ड्रोन में आठ लेजर गाइडेड मिसाइल आसानी से फिट की जा सकती हैं।

अपने आप टेकऑफ और लैंड कर सकने वाले ये सेंसरयुक्त विमान आधुनिक रडार सिस्टम, इन्फ्रारेड, लेजर, कैमरा से सज्जित होने के चलते सटीक निशाना लगाने और टोह लेने में सक्षम हैं। लेटेस्ट गाइडेड एम्युनिशन वाले इन ड्रोंस को उपग्रह की सहायता से नियंत्रित किया जा सकता है।

लंबी दूरी और ज्यादा ऊचाई तक उड़ान भरने की क्षमता इन्हें खुफ़िया जानकारी जुटाने, निगरानी रखने, इलेक्ट्रॉनिक युद्ध, एंटी-सरफेस वॉरफेयर और एंटी-सबमरीन वॉरफेयर में हमला करने के अलावा समुद्री डकैती से निपटने, आपदा की अग्रिम सूचना देने, खोज और सहायता, राहत पहुंचाने में भी मददगार बनाती है।

आइलैंड टेरिटरिज को मिला कर हमारी 7517 किलोमीटर तटरेखा की सुरक्षा के लिए मौजूदा वक्त में महज दो एयरक्राफ्ट कैरियर सक्रिय हैं, आईएनएस विक्रमादित्य, आईएनएस विक्रांत। इनको मजबूत सपोर्ट चाहिये। चीन सीमा पर कई अवसंरचानाएं निर्मित कर अपनी आक्रामकता लगातार बढ़ाते जाने के अलावा पाकिस्तान को लगातार विध्वंसक ड्रोन भी दे रहा है। वह और पाकिस्तान नाभिकीय संयंत्र रखते हैं। उनके आयुध निर्माण के कारखाने, एयर फील्ड या जंगी जहाज बेहद महत्वपूर्ण टार्गेट हैं।

समय पडने पर ये ड्रोंस इस तरह के हाई वैल्यू टारगेट भेदने उन्हें तबाह करने के काम आ सकते हैं। ये टारगेट एक्विजिशन में अत्यंत उपयोगी होंगे जो सेना की मारक क्षमता बढाने और नुकसान कम करने के लिये आवश्यक है। टारगेट एक्विजीशन में पहले दुश्मन के लक्ष्य का सटीक चयन करते हैं फिर फैसला लेते हैं कि इस पर किस तरह के कितने ताकतवर और खर्चीले हथियार का इस्तेमाल सही होगा।

अमेरिका इस तरह के ड्रोन का इस्तेमाल तालिबान और आईएसआईएस के खिलाफ कर चुका है और दुनिया में कई देश युद्ध से लेकर पर्यावरण और मानवीय अभियानों में इन्हें सफलतापूर्वक प्रयोग कर रहे हैं, सो ये ड्रोन आज़माए हुए भी हैं। इनके द्वारा ख़ुफ़िया सूचनाएं जुटाने, टोह लेने और संभावित खतरों की अधिक प्रभावी निगरानी करने, हमलावर होने जैसी हमारी सैनिक क्षमताओं को काफी बढ़ावा मिलेगा, सेना और सरकार अपनी ज़रूरत के हिसाब से इनका बेहतरीन इस्तेमाल कर सकती है।

अतएव यह सौदा सर्वथा स्वागतयोग्य है। पर इसके साथ उठे कुछ प्रश्न आज तक अनुत्तरित हैं। सैन्य सौदों में कई बार राष्ट्रहित के पर्दे के पीछे गोपनीयता बरती जाती है। लेकिन जिन सूचनाओं को सार्वजनिक करने में कोई खतरा नहीं उन्हें अवश्य सामने लाना चाहिये ताकि इन सौदों के प्रति विश्वसनीयता और पारदर्शिता बनी रहे जनता भी इस उपलब्धि की महत्ता आंक सके।

सौदे को कहीं तकरीबन तीन अरब डॉलर, कहीं तीन अरब से ज्यादा तो कहीं चार अरब डॉलर का बताया जा रहा है, सरकार को आधिकारिक तौर पर बताने में क्या हिचक या आपत्ति है कि यह सौदा कुल कितने का है। ड्रोन बनाने वाली कंपनी जनरल एटॉमिक्स एरोनॉटिकल सिस्टम अमेरिका को यह किस दाम बेचती है, अमेरिका ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम जैसे देशों से इस किस भाव सौदा करता है यह उसका मामला है। पर दस्तावेजों के अनुसार एक ही ड्रोन की 26 मिलियन डॉलर से लेकर 133 मिलियन डॉलर तक कई कीमतें हमारे सामने हैं।

आखिर हम इसे किस भाव खरीद रहे हैं। भारत बाकी देशों की तुलना में प्रति ड्रोन 110 मिलियन डॉलर दे कर इन्हें बहुत ज्यादा कीमत पर खरीद रहा है। इस आरोप की सचाई क्या है? सौदा महंगा है तो क्या हम मय साजो सामान के साथ तकनीक हस्तातांतरण भी कर रहे हैं।

क्या इसकी पूरी असेम्बलिंग देश में होगी? 25 हजार 203 करोड़ रुपए की इस लागत में रखरखाव, ओवरहॉल और मरम्मत भी शामिल होंगे? इस सम्बंध में स्पष्टीकरण जरूरी है। इनके साथ यह भी कि क्या मेक इन इंडिया के तहत इसके कुछ पुर्जे यहां बनेंगे क्योंकि अमेरिकी उपकरणों में इसका समावेशन एक कठिन प्रक्रिया है। भले ही सरकार या सेना यह न बताये कि इन हथियारबंद ड्रोन का निगरानी के अलावा कितना और कैसे इस्तेमाल होगा।

क्योंकि बेहद महंगे होने के अलावा इन ड्रोन को चलाना काफी महंगा पड़ता है। इनके हर मिशन की लागत बहुत ज़्यादा है। चार अरब डॉलर खर्च के इन ड्रोन का इस्तेमाल पाकिस्तान से भारत में घुसपैठ कर रहे मुठ्ठीभर आतंवादियों को मारने के लिए करना असंभव की हद खर्चीला होगा। पर सौदे के बारे में उठते बाकी सवालों पर सरकार को चुप्पी सार्वजनिक पर तोड़नी ही चाहिये।

निराश करेगा पाकिस्तान का आम चुनावपाकिस्तान में होने वाले आम चुनाव का नतीजा वहां की सेना, सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग ने ...
08/02/2024

निराश करेगा पाकिस्तान का आम चुनाव

पाकिस्तान में होने वाले आम चुनाव का नतीजा वहां की सेना, सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग ने पहले से तय कर रखा है। वहां नई सरकार के ज़रूरत महज इसलिये है कि दूसरे देशों से कर्ज मांगने के लिये एक लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई वैधानिक सरकार मौजूद हो।

यह बात न सिर्फ विश्व बिरादरी को उजागर हो चुकी है बल्कि पाकिस्तान का बड़ा वर्ग भी इस सचाई को जान चुका है। नई सरकार उसकी उम्मीदों पर खरी उतरने वाली नहीं होगी

पाकिस्तान में 18 से 22 फरवरी तक नई सरकार सक्रिय हो जाएगी। निस्संदेह आवाम की उम्मीदें उफान पर होनी चाहिये पर जनता का एक बड़े हिस्सा नाउम्मीद है।

यह वर्ग जानता है जम्हूरियत के इस जश्न में उसकी कोई खास जरूरत नहीं। सब कुछ तयशुदा है, नतीजे नियत हैं। और ये नतीजे उनके हालात में कोई बड़ा बदलाव नहीं लाएंगे। पाकिस्तान स्थित विदेशी दूतावास अपने देशों को जो ब्रीफिंग में बेशक यहां के अहवाल लिख रहे होंगे और उनको यहां के उच्चतम न्यायालय, सेना और चुनाव आयोग की करतूतें जाहिर हो चुकी होंगी, लोकतांत्रिक और निष्पक्ष चुनाव की हकीकत मालूम होगी।

उधर विदेशी मीडिया में इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ ने अलग अभियान छेड‌ रखा है, पाकिस्तान के चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश काजी फ़ैज़ ईसा और पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर सहित पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों के मंसूबों की पोल खोलते लेख द इकॉनमिस्ट, बीबीसी उर्दू, अल जजीरा और तमाम ब्लॉग और अन्य माध्यमों पर आम हैं।

कोई भी संबंधित संस्था इस प्रचार के खिलाफ अपने बचाव में कुछ खास नहीं कह पा रही ऐसे में पाकिस्तानी चुनाव कवर करने आने वाले 500 से अधिक विदेशी पत्रकारों और पर्यवेक्षकों के बीच एक पूर्वनियत धारणा बलवती हो चुकी है कि पाकिस्तानी चुनाव सेना द्वारा पहले से नियत तथा धांधलीपूर्ण होने वाले हैं। यह भी तय है कि इस चुनाव समय से कराने में अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका का हाथ है।

पाकिस्तान चुनावों के नतीजों पर सेना के प्रभाव संबंधी लेख पाकिस्तानी मीडिया में भी आने से वहां के जनमानस यह धारणा बनना स्वाभाविक है कि आने वाली सरकार भी सेना के इशारों पर चलेगी जो उनकी बजाये सेना के हितों की पोषक होगी।

उसे तो बस इतनी सी उम्मीद है कि सब कुछ शांतिपूर्वक निबट जाये, सेना की पिट्ठू सही पर एक चुनी सरकार आए, आर्थिक बदहाली से निजात मिले, शांति और स्थिरता कायम हो। पर अफसोस पाकिस्तानी आवाम की यह उम्मीद भी रहने वाली है।

पाकिस्तानी चुनाव में तीन चेहरे प्रमुख हैं। इमरान खान, बिलावल भुट्टो और नवाज़ शरीफ इसके अलावा मौलाना फजलुर रहमान। इमरान खान चुनाव लड़ नहीं सकते, उनकी पार्टी तितर बितर है और सेना, सुप्रीम कोर्ट तथा पाकिस्तानी चुनाव आयोग ने मिल कर उसकी ऐसी गत बना रखी है कि पार्टी चुनावों में होने के बावजूद बिन चुनाव चिन्ह के निर्दल और अप्रासांगिक है, तय है पीटीआई की सरकार नहीं बननी।

बिलावल की पार्टी देश के कई हिस्सों में निष्प्रभावी है। उनके भी सरकार बनाने के आसार नहीं है। खैबर पख्तूनख्वा में प्रभावी मौलाना डीजल या फजल उर रहमान इतनी सीटें नही ला सकते कि सरकार बनाने के लिये काफी हों। जिस तरह नवाज को हर अपराध, सभी कदाचार, भ्रष्टाचार मामलों में क्लीन चिट दिया गया है, सेना और न्यायालय परोक्ष समर्थन उन्हें मिल रहा है उसे देखते हुये यह तय लगता है कि सेना नवाज़ शरीफ की सरकार बनवाएगी।

हालांकि वह पूर्ण बहुमत वाली सरकार बने ऐसा होते देखना नहीं चाहेगी, उसकी अपेक्षा एक विकलांग सरकार की होगी जो जमीयत उलेमा ए इस्लाम के फजल उर रहमान और बिलावल के बैसाखियों पर टिकी सदैव अपने अंतरविरोधों में फंसी रहे ताकि सेना उसे डगमगा कर हमेशा अपना हित साधती रहे। ऐसी सरकार से यह उम्मीद बेमानी है कि वह जनहित में कोई ठोस काम कर पायेगी, क्रांतिकारी, लीक से अलग हट कर फैसले लेगी।

महंगाई, राजनीतिक दिशाहीनता और अव्यवस्था से त्रस्त जनता की आने वाली सरकार से आर्थिक स्थिति सुधारने की उम्मीद बेमानी है। आर्थिक व्यवस्था की चूलें इमरान खान के समय से हिलनी शुरू हुई थीं, फिलहाल सहानुभूति और अमेरिकी चाहत के बावजूद वे सत्ता में नहीं आएंगे। न पाकिस्तान को इस आर्थिक स्थिति से उबार सकने की उनमें कूव्वत है। बिलावल भुट्टो की राजनीतिक परिपक्वता को सभी संदेह से देखते हैं उनसे भी कोई ऐसी उम्मीद नहीं पाल सकता। नई सरकार में शामिल होने के बावजूद आर्थिक मामले की डोर उनके हाथ में हो यह मुमकिन नहीं लगता।

धार्मिक नेता फजल उर रहमान का आर्थिक विषयों में चंदा छोड़ किसी और से नाता नहीं। नवाज शरीफ आज कल गरीबी, बेरोजगारी से निपटने और आर्थिक स्थिति में सुधार का सब्जबाग दिखाते घूम रहे हैं कि वे कैसे पाकिस्तान को आर्थिक तबाही से उबार लेंगे। लेकिन सफल उद्द्यमी, उद्योगपति नवाज शरीफ इसका कोई रोडमैप उजागर नहीं करते वैसे भी वे उद्योगपति हैं, आर्थिक विशेषज्ञ नहीं। वे आर्थिक घपलों के माहिर हैं पर आर्थिक रणनीति के नहीं।

भले वे खुद के लिए पैसा बनाना जानते हों पर देश और जनता के लिए नहीं। अभी जिस बेहिसाब महंगाई और बुरी आर्थिक हालात के चलते पाकिस्तान की जनता बागी हो रही है उसकी जड़ में नवाज़ की पार्टी को ही माना जा रहा है जो कार्यवाहक प्रधानमंत्री के आने से ठीक पहले शासन का हिस्सा थी। ऐसे में आर्थिक बेहतरी को बस विदेशी कर्ज का आसरा है। और यही पाकिस्तान के चुनाव की सचाई तथा एक मात्र उद्देश्य है।

पाकिस्तान में दिखावे के लिये एक लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार चाहिये जो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संस्थानों और सऊदी अरब, चीन, अमेरिका जैसे देशों से कर्ज लाने के लिये अधिकृत हो जिसे दूसरे देश वैधानिक तौर पर आधिकारिक स्तर पर कर्ज दे सकें। नई सरकार विदेशों से कर्ज लाने सफल होगी लेकिन मुख्यतया और मूलत: अपने और सेना के लिये।

जनता और प्रशासन की भलाई प्राथमिकता में सबसे नीचे होगी। ऐसे में एक अव्यवस्थागत परेशानियों से निकल कर व्यवस्थित मुश्किलों में फंसी जनता उग्र और हिंसक विद्रोह कर सकती है। इसे देखते हुए चुनाव के बाद पाकिस्तान में आर्थिक बेहतरी और अमन दूर की ही कौड़ी लगती है।

पडोसी होने के नाते पाकिस्तान की स्थिरता, अस्थिरता, उसकी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति का असर परोक्ष तौर पर हम पर पड़ता है। कश्मीर, पाक अधिकृत कश्मीर, आतंकवाद और रक्षा सुरक्षा तथा कई वैदेशिक मुद्दे मसले पाकिस्तान से जुड़े हैं।
पाकिस्तान के चुनावों का क्या नतीजा निकलेगा नई सरकार किसकी और कैसी होगी, भारत के प्रति उसका रुख क्या हो सकता है आकलन आवश्यक है।
फिलहाल पाकिस्तान अपने घरेलू मुद्दों मसलों, विकराल हो चुकी समस्याओं इस कदर फंसा हुआ है, कि वह भारत के खिलाफ किसी आतंकी या सैन्य साजिश को अंज़ाम दे इसकी गुंजाइश नहीं है।

पाकिस्तान की आवाम अब यह समझ चुकी है कि कश्मीर के नाम पर उसे बहुत बहकाया गया है, कश्मीर भारत भारत का ही रहेगा और उसके हुक्मरान गाल बजाने के सिवा कुछ न कर पायेंगे। इसलिये अब पाकिस्तान में कश्मीर मुद्दा बहुत प्रभावी नहीं है और न ही इस दौरान जम्मू कश्मीर घाटी या पाक अधिकृत कश्मीर में सियासी लाभ के लिए कोई खेल खेलना किसी को कोई बड़ा फायदा दिला सकता है।

पाकिस्तान के आम चुनावों के बाद अगर नवाज़ शरीफ आते हैं तो अफगानिस्तान, ईरान, चीन जैसे पडोसियों को वे साध कर रखेंगे ऐसा माना जा सकता है। इधर अमेरिका एक बार फिर पाकिस्तान में गहरी रुचि लेने लगा है, उनको चीन और अमेरिका के बीच संतुलन बिठाना होगा।

जहां तक भारत का सवाल है नवाज़ के आने से उम्मीद की जा सकती है कि व्यापारिक, व्यावसायिक रिश्तों में थोड़ी तेजी आये। लेकिन पाकिस्तान में चुनाव के बाद वहां स्थिरता आ जायेगी। एक चुनी लोकतांत्रिक सरकार वहां की आर्थिक स्थिति सुधार देगी, अमन कायम होगा, पाकिस्तान के मौजूदा हालात देख इस तरह की अपेक्षाएं आकाश कुसुम सरीखी हैं।

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