25/03/2022
*फागु नेग और सेन्देरा की मुण्डारी लोककथा*
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प्राचीन काल यानि नंगपरिया में मुण्डा आदिवासियों का घुमंतु या खानाबदोश कबिला, होड़ो जाति या कोल-भील के रुप में बृहद भारत की धरती पर *बोलोकेन दर्रा* बोलन घाटी से प्रवेश करके *होड़ोराप्पा* हाड़प्पा में पहला कदम रखे थे। फिर काबिला का एक कुनबा खाना और आवास की तलाश में *सिंजुबुरु* बेलपर्वत गये। सिंजुबुरु में बेल वृक्ष के नीचे पूजा किए और कुछ दिन ठहर गये थे। जब बेल का फल खत्म हुआ तो *सिंजुगाड़ा* सिन्धुनदी के किनारे-किनारे कुछ लोग ठहरते और चलते-चलते *मोयोद जो दारु* मोहनजोदड़ो पहुँच गये थे। वहाँ पर फल से लदा एक विशाल आम का वृक्ष मिला। उस आम वृक्ष में कपास की कच्चा धागा को लपेट कर चिन्ह लगा दिए थे। जगह का नाम को तब मुण्डारी में *चिना दारु* चनहोदारु रखा गया था। उसी समय से बेल पता और आम पता और वृक्ष पर कपास धागा लपेट कर पूजा की प्रथा शुरू हुई।
सिंजुबुरु के पास मुण्डाओं की बड़ी आबादी मडुवा धान और उरद दाल के साथ-साथ कदसोम कपास की खेती भी सिंजुगाड़ा तट पर शुरू कर दिए थे। शिकार के साथ पशुपालन और लकड़ी का हल बनाकर ,अन्य कृषि उपकरण,और ताँबा, पीतल, काँसा लोहा के हथियार एवं वर्तन बनाना सीख गये थे। सिंजुगाड़ा में मानव सभ्यता की शुरुआत हो गयी थीं। रहने के लिए ईंटों का घर और वस्तु विनिमय के लिए बाजार की देसी व्यवस्था भी थीं।
सिन्धुघाटी में एक विकसित होड़ो सभ्यता की स्थापना हो चुकी थीं।
कालांतर में कुछ बाहरी आर्य लोग पुनः बोलनघाटी से सिन्धुघाटी पहूँचे और शरण लिए।
धीरे-धीरे बाहरी आर्य व्यापारी लोग आए और *होड़ो सभ्यता* के जो बाजार थे उस पर अपना दबदबा बनाये।
तब *होड़ो* और *आर्य* की लड़ाई शुरू हो गयी थीं।
मुण्डाओं के होड़ो पूरखों ने आर्यों को पहली लड़ाई में खदेड़ दिए थे। लेकिन दुसरी बार खास रणनीति बनाकर, तलवार, भल्ला ,फरसा जैसे हथियार बन्द, खतरनाक, घोड़सवार अक्रामणकारी बनकर लौटे और होड़ो समुदाय पर हमला बोल दिए।
अचानक हुए हमले से मुण्डाओं के होड़ो पूरखे तीन-चार दिशा में भागे या पलायन किए थे।
1.सिन्धुघाटी से *कदसोम बुरु* यानि जम्मू कश्मीर। फिर कश्मीर से *कड़कोमबुरु* काराकोरम दर्रा से चीन पहूंच गये।
2.सिन्धुघाटी से *कासी: बादी* काशी *बा: रासी बादी* बनारस और *राखीगढ़ी*। इस दल के कुछ लोग बिहार के दरभंगा, *नाला दा:* नालन्दा होते हूए। पारसनाथ पठार पर और कुछ लोग नेपाल, असम, *नागालैण्ड* और *मेघालय*, तक चले गये।
3.सिन्धुघाटी से अरब सागर के किनारे होते हुए। कोकण, मैसूर, तमिलनाडु, केरला तक चले गये।
4.*सिंजुबुरु और सिंजुगाड़ा* से पलायन करके *आरा उलिबुरु* यानि *अरावली पर्वत* पर प्रवेश किए। आराउलिबुरु में कुछ बर्षों तक निवास करने के बाद। *सासंगबेड़ा* हल्दीघाटी में खेतीबारी किए। वहां से फिर मैदानी भूमि और स्वच्छ जल की तलाश में गुजरात का *बड़ेदारु* यानि *बड़ोदरा* में बस गये।
आज जो *करम,फागु और सेन्देरा* करने की प्राचीन रुढ़ी प्रथा है। इसी चौथावीं *होड़ो सभ्यता* की देन है।
जब *बड़ेदारु* पहुंचे थे। पहलीबार एक ऐसा नदी मिली थीं। जिसका पानी *मृदुजल,नरम पानी* था। इसलिए मुण्डाओं ने नदी का नाम *नोरोम दा* रखा। आज वही नदी विकृत होकर, *नर्मदा नदी* है।
कुछ बर्षों बाद पुन: आर्य व्यापारी लोग बड़ेदारु/बड़ोदरा गुजरात तक आ गये। मुण्डाओं को लगा कि अब फिर से यहां भी आर्य आक्रमणकारी लोग आयेंगे।
इसलिए बड़ेदारा से फिर भागने की योजना बनाए। लेकिन बरसात का दिन था। नर्मदा नदी में पानी अधिक थी। संकीर्ण स्थल की तलाश करते हूए, *नोरोम दा* गांव पहुचे। जहां पर आज, *सरदार सरोवर, बांध* है। इसी जगह नदी की चौड़ाई बहुत कम थी। पूजापाठ करने के बाद एक करम वृक्ष को काट कर, नदी के आड़े गिरा दिए थे। बड़ेदारु से बिंगदेयाचल में प्रवेश किए। इस पूजापाठ और एक शुभ घटना के बाद, *करम बोंगा* की शुरुआत हूई।
आज हमलोग सिर्फ *फागु नेग और सेन्देरा* की लोककथा पर विस्तृत चर्चा करेंगे।
नोरोम दा यानी नर्मदा नदी को भादो एकदशी के दिन पार करके बिहाड़ *विंध्याचल पर्वत* के घनघोर जंगल में प्रवेश किए। विंध्याचल पर्वत क्षेत्र में नाना प्रकार के जंगली जानवरों और किस्म-किस्म के सांपों का बसेरा था। इसलिए बरसात और जाड़ा का दिन विंध्याचल पर्वत की तराई पर ही बिता दिये थे।
विंध्याचल पर्वत में प्रवेश के लिए जो दर्रा था या पहाड़ चढ़ने सुगम रास्ता। उसी रास्ते पर *एदेल दारु* सेमल पेड़ पर एक विशाल अजगर रहता था। पूरे इलाके में दहशत फैला हुआ था। उस दुर्गम मार्ग से किसी इंसान, मावेशी या जंगली जानवरों के गुजरने का मतलब मौत थी।
मुण्डारी में अजगर सांप को पहाड़ पर रहने के कारण *बुरुबिंग* कहते हैं। सामान्य अजगरों को *तुनिल बिंग* या *दुनिल बिंग* कहते हैं। लेकिन बुरुबिंग की विशालतम प्रजाति को *संगसुड़ी बिंग* कहते हैं। वैसा ही जलाशय में रहने वाले विशाल सांपों को *गाड़ा बिंग* या *रंगरुड़ी बिंग* कहते हैं।
इसके अलावे मंजला आकार के जो अजगर पहाड़ के तराई पर होते थे। उन्हे *जाड़ा बिंग* कहते हैं।
आदिम होड़ो या मुण्डा पूरखों ने तब पतझड़ तक इन्तजार करना ही एक बुद्धिमानी पूर्ण निर्णय मान लिए थे।
फागु चण्डू(फागुन मास) का नया चांद निकल चुका था और अधिकतम वृक्षों के पूराने ,बूढ़े और सूखे पत्तियां छड़ चुकी थीं।
आदिम मुण्डाओं का कबिला के बूढ़े बुजुर्ग आगे प्रस्थान के लिए रणनीति बनाने लगे।
सर्वसहमति से निर्णय लिया गया कि सबसे पहले मंझौले आकार के सापों को मारना है। उन्हें पता था कि सांपें रोज रात को विश्राम करने के लिए *रिसा जाड़ा* और *कुला जाड़ा* गाछों में चढ़ जाते थे। फिर सुबह को शिकार तलाशने के लिए जमीन पर लौट आते हैं।
*फागुन पुर्णिमा* की रात थी। जैसे ही सभी *जाड़ा बिंग* यानि मंझौले अजगर *रिसा जाड़ा, कुला जाड़ा* में चढ़ गये। सभी गाछ के नीचे सूखी पत्तियां और झोरियों को जमा करके *सिङबोंगा, बुरुबोंगा, बिरबोंगा* को अरदास किए और सूखी पत्तियों पर आग लगा दिए। आग की तपन और धुंवा से कुछ सांप नीचे गिर कर जल गये और जिस गाछ के सांप नहीं गिरे, उन गाछों को काट कर गाछ के साथ, सांपों को गिरा दिए और टांगी, फारसा से टुकड़े करके फेंक दिए।
टुकड़ा करके फेंकनी की विधान को मुण्डारी में *डुण्डी हाटिंग* कहते हैं।
आदिकाल में एक भ्रम थी कि कुछ करिश्माई सांप फिर से जुड़ जाते हैं और जीवित होकर बदला चुकते हैं।
नेवलाओं की भी एक दंतकथा है। सांपों का मध्य भाग खाकर, विशिष्ट जड़ी बूटी से सांपों को फिर से जोड़ देते हैं। सभी नेवलों को बिष या जहर निवारक जड़ी की जानकारी होती है।
यही वजह था कि जले हुए और मृत सांपों को खंडित करके चारों दिशा में गांव का नाम लेकर, फेंकने की। यह विधान आज भी *डुण्डी हाटिंग* के नाम से अस्तित्व में है।
रिसा जाड़ा, कुला जाड़ा जैसे वृक्षों में वास करने के कारण ही, जो मंझौले प्राजाति के अजगर होते हैं। उसका नाम *जाड़ा बिंग* रखा गया है।
यही क्रिया *फागु जलाकर* फिर हाबा-हाबा करके *काटकर* उस इतिहासिक घटना को याद किए जाते हैं। एक ही झटका में काटने वाले युवाओं को *सांडी यानी मर्द* और दो तीन वार करने वालों को *एंगा* यानि *जानी* संज्ञा से शबासी देने और दुतकारने का रिवाज है।
अन्त में डाली और टहनियों को छोटा-छोटा टुकड़े करके, डुण्डी वितरण करते हैं।
होड़ो पूरखे लोग एक बाधा को पार करके, उत्साहित हो गये थे। अब दुसरे दिन विशाल *संसुड़ी बिंग* यानि सेमल वृक्ष का विशालकाय अजगर को मारने की चुनौती थीं।
मुण्डा पूरखों को खबर थीं कि वह अजगर सीधे *सिर पर ही हमला* करके, गोटा निगल जाता था।
बहुत बड़ी चुनौती थी। उस संसुड़ी बिंग को मारे बिना। वहां पर शांति से रहना या आगे बढ़ना भी कठिन था।
रणनीति के तहत, उबलते हूए गरम दुध से जलाकर मारने का था। लेकिन कोई महिलाएं तैयार नहीं हो रहीं थीं।
अन्त में एक *गुमि बुड़िया* नाम की वृद्ध महिला तैयार हो गयी।
वह सिर के ऊपर बिण्डा रखी। फिर बिण्डा के ऊपर एक चिप्टा पत्थर।
जब भैंसी दूध उबल गया तो। माटी का तावा(हांडी) को गुमि बुड़िया के सिर पर, पत्थर के ऊपर रख दिये गये थे। वह अपनी लाठी लेकर शीघ्रता से सीधे उस विशाल सेमल पेड़ की नीचे चली गयी।
अजगर ने *गुमि बुड़िया* की सर के बदले, गरम दुध वाला तावा में मुंह मारा। गरम दूध से जलकर अजगर दोनों आंखों से अंधा हो गया था और दर्द से छटपटाते हुए नीचे गिरा।
कबिला के सभी लोगों ने बड़ा-बड़ा पत्थर उठाकर *दुनिल* यानि कूच कर मार दिए। खूशी से *बिंग देया* यानि सांप के पीठ पर ,उछल कूद करते हूए, आगे बढ़े। अन्त में टांगी, फारसा से टुकड़े-टुकड़े कर दिए थे।
इस इतिहासिक घटना की दुसरे दिन की वीरता से निम्नलिखित अनुष्ठान एवं पारम्परा की शुरुआत हुई।
1. विशाल संसुड़ी बिंग का नया नाम *तुनिल और दुनिल* रखे गये।
2. अजगर सांप की पीठ पर नाचते हूए, बिहाड़ पहाड़ पर चढ़े थे। इसलिए पहाड़ का नाम मुण्डारी में *बिंगदेया चल बुरु* रखे जो आज विकृत होकर, विंध्याचल हो गया।
3.पुर्णिमा की रात को फागु काटकर, तीन दिनों तक *सेन्देरा करना* है। सेन्देरा मतलब जानवरों का शिकार ।
4.रोज शाम को शिकार से नाचते गाते हूए वापस गांव आना है। घर पहूंचने पर, सभी पूरषों को पैर धोना, पानी पिलाना और जोअर करके प्रेम से हाल-समाचार पूछना।
5. शिकारी कुत्तों को और तीर धनुषों अगले दिन के लिए तैयार करना।
*सेन्देरा यानि जंगली जानवरों को शिकार करने की रुढ़ी प्रथा*
जंगली जानवरों को मारना कहां तक उचित या अनुचित है। यह वैज्ञानिक विचारक ही समझ सकते हैं।
आज भी हमलोग Animal planet, Discovery ,Living in edge और National geographic में देखते हैं कि, जंगली जानवरों की आपसी लड़ाई या मारकर खाने की क्रिया में वैज्ञानिक दखल नहीं देते हैं। क्योंकि जंगली जानवर, प्राकृति से संचालित हैं। आदिवासी लोग आज भी स्वयं को प्राकृति संचालित समझते हैं।
इसलिए जो आदिवासी प्राकृति से जुड़े हैं। उसके लिए शायद आज भी उचित है।
लेकिन जो प्राकृति पर आस्था नहीं रखते हैं। वैसे इंसानों के लिए निरही जंगली जानवरों को मारना अपराध और महापाप है।
*मुण्डा समुदाय में शिकार करने के मूख्य तीन उदेश्य थे*
1.आत्म रक्षा के लिए, शेर जैसे बड़े और खतरनाक जानवरों का बड़ना मावेशी और मानव के लिए खतरा है। इसलिए एक दुसरे पर दोनों समय समय पर हमला करते हैं।
2. फसलों और जंगल की रक्षा के लिए। वरना सारे फसल जानवर और सारे फल, बन्दर-पक्षी खा जाए तो मानव को आहार मिलना कठिन है।
3. जंगली जानवरों की आबादी को नियंत्रित करना। ताकि संतुलन बना रहे और पौष्टिक एवं स्वादिष्ट आहार भी शुलभ हो जाए।
*मुण्डाओं की पौराणिक सेन्देरा की शर्तें एवं रुढ़ी विधान*
1.प्रजनन काल में जानवरों को मारना मना है। जून से नवम्बर तक।
2.गर्भवती मादा जानवरों शिकार न हों। इसके लिए पूजा की जाती हैं।
3. जंगली जानवरों के शवकों और शिशुओं को मारना पाप है।
4.जंगली हाथी और शेरों से खतरा की अशंका होने पर ही तीर भल्ला, हथियार चलाना है।
5.फसल और मावेशियों को क्षति पहूंचाने वाले जानवरों को अधिक शिकार करना है।
6.दुर्लभ जानवरों का शिकार कम करना या नहीं करना है।
7.सिर्फ फागु के समय, साल में एक बार शिकार करना है। चन्द फसल एवं मावेशियों को नुकसान पहूंचाने वाले जानवरों पर सख्ती से अमल नहीं होता है।
जैसे बराहा , सियार एवं हिरण।
🙏वन विभाग के निर्देशों का अनुपालन और विलुप्तप्राय एवं राष्ट्रीय पशु-पक्षियों का संरक्षण करना है।
*महादेव मुण्डा, खूंटी, झारखंड*