24/12/2025
जाते हुए थोड़ा-सा जाना
वह अपने साथ ले गई।
बाक़ी अपना जाना
ले जाना वह भूल गई।
-विनोद कुमार शुक्ल
कला ही वह साधना है जो सृजनकर्ता को समय की नश्वरता से मुक्त कर देती है। इसी अर्थ में कलाकार अपनी उपस्थिति से नहीं, बल्कि अपने सृजन से कालजयी होता है। हिंदी साहित्य के मनीषी विनोद कुमार शुक्ल जी का दिनांक २३ दिसंबर २०२५ को देहांत हो गया, किंतु उनकी रचनात्मक चेतना समय की सीमाओं से परे सदैव जीवित रहेगी। शब्दों में सादगी और संवेदना का ऐसा अद्वितीय संसार रचने वाले विनोद जी, भौतिक उपस्थिति से विदा हो चुके हैं; पर साहित्य के माध्यम से वे हमारे बीच सदा उपस्थित रहेंगे।
१ जनवरी १९३७ को राजनांदगाँव (वर्तमान छत्तीसगढ़) में जन्मे विनोद कुमार शुक्ल जी का जीवन, उनके साहित्य की भाँति ही, शांत, संयत और आडंबर से मुक्त रहा। उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा कविता से आरंभ की, किंतु आगे चलकर उनके उपन्यास और कहानियाँ हिंदी गद्य को एक नई दृष्टि प्रदान करती रहीं। साधारण जन-जीवन को असाधारण संवेदना के साथ उकेरना उनकी लेखनी की प्रमुख पहचान रही। उनके शब्दों में निर्जीव वस्तुएँ भी सजीव हो उठती हैं और उनके गद्य में भी काव्यात्मक लय का स्पष्ट अनुभव होता है। इन्हीं विशेषताओं ने शुक्ल जी को ‘ज्ञानपीठ’ जैसे सर्वश्रेष्ठ सम्मान से अलंकृत किया।
हिंदी साहित्य को नए आयाम देने वाले विनोद कुमार शुक्ल जी को सर्जना परिवार की ओर से भावपूर्ण श्रद्धांजलि।