30/05/2021
20 रुपये की लागत से बनी फ़िल्म "बबुआ सहयोगी" की कहानी।।
साल 2020 मार्च महीने की बात है , मैं पटना में था रंगश्री के ओर से 6ठवां भोजपुरी नाट्य महोत्सव में शामिल था । कालिदास रंगालय में हमारा 4 या 5 दिन का नाटक का आयोजन होना था ,पर अभी दो ही नाटको के मंचन हुये थे और बाकी नाटकों का मंचन रद्द करना पड़ा क्योंकि सरकार का आदेश था सारे पब्लिक संस्थानो को बंद करने का क्योंकि कोई कोरोना नाम की बीमारी बहुत तेज़ी से फैल रही थी ,जब तक हमें चीन में ही देखने और सुनने को मिल रहा था।। तो पटना से ही हमारे साथ के कुछ कलाकार दिल्ली चले गए और कुछ अपने अपने गाँव,
गाँव जाने वालो में मैं भी था।।
घर पे एक सुबह पापा मुझसे बोले कि सब्जी वाले खेत को रोज़ थोड़ा थोड़ा करके कुदाल से उसकी मिट्टी कुडाई कर दो, क्योंकि उस खेत मे काफी घास उग आए थे । मैने अगले सुबह से ही कुदाल उठा के काम पर लग गया और मेरे साथ मेरा छोटा भाई था ,तो मैंने उससे एक छोटी सी विडीओ बनवाली ताकि फ़ेसबुक पर कुछ पोस्ट अपडेट कर सकू।। वही से मेरे दिमाग मे एक विचार एक कहानी की उपज हुई जो आज आपके सामने "बबुआ सहयोगी" एक भोजपुरी लघु फ़िल्म के रूप में यूट्यूब पर मौजूद है।।
तो बबुआ सहयोगी का संघर्ष की कहानी ऐसे शुरू हुई। अब बात आई कागज़ पर उस कहानी को शब्दों में पिरो कर उतारने की हालांकि इससे पहले मैंने कोई कहानी वगैरह नही लिखा था पर अपनी कहानी को लिखा भी और उसकी स्क्रिप्ट भी तैयार किया। कागज़ी कार्यवाही होने के बाद अब उसे कैमरे में क़ैद करके एक फ़िल्म के रूप में लाना था और कैमरा तो था नही , नाही टीम थी या कोई ऐसा जो थोड़ा बहुत भी आईडिया दे सके की कैसे फ़िल्म बनती है , तो फैसला ये हुआ कि इसको मोबाईल फ़ोन से ही शूट करेंगे जितना समझ है सिनेमा को लेकर।
वहा तक तो ठीक था अब बात आई कलाकारो की। तो एक प्रमुख पात्र के रूप में मैंने ख़ुद को रखा , बाकी पात्रों को करने के लिए गाँव के कुछ लड़के और एक दो लोगों को मैने राज़ी कर लिया पर सबसे बड़ा समस्या ये सामने था कि उस कहानी में जो महिला पात्र माँ का है वो कौन निभायेगा , मर्दों तक तो बात ठीक है पर जैसे ही लड़की या औरत की बात आती है तो अभी भी गाँव के लोग नही तैयार होते चाहे वो नाटक की बात हो या सिनेमा का । ये बात मुझे पहले से ही पता था क्योंकि हर साल मैं अपने गाँव मे नाटक का भी मंचन करता हूँ और 3 - 4 सालो से लगातार कर रहा हूँ, नाटक में तो लड़को को ही लड़की बना कर काम हो जाता है पर यहाँ बात सिनेमा की थी। कुछ ना सूझने के बाद मैंने ये बात अपनी माँ को बताया और उनके सामने इस पात्र को निभाने का प्रस्ताव रखा और आप सब को पता होगा एक माँ का क्या जवाब होगा अपने बेटे के लिए और माँ को अभिनय करने में भी कोई परेशानी नही थी क्योंकि कैमेरे के सामने भी वास्तविक जीवन ही जीना था। इसमें बाबूजी का पात्र मेरे पापा ने ही निभाया है वो बात अलग है कि बिना उनकी जानकारी के ही मेन 2 4 शॉट कैमरे में क़ैद कर लिया गया और बात आयी सामने से कुछ शॉट शूट करने कि तो हिम्मत ही नही हो रही थी कि मैं पापा को कैसे कहू और उनको राज़ी करू , फिर मम्मी का सहारा लिया और वो राज़ी हुये पर उस स्तर तक भी नही की आप 2 3 टेक ले सको आये कैमरा ऑन हुआ और 4 5 सेकंड में ही निकल गए ये कहते हुए की अरे ये सब तुम करो हमसे ये सब क्या करवा रहे हो। ऐसे ही जैसे तैसे करके 15 20 दिनों में ये फ़िल्म बनी।
जिस सीन में मैं नही होता था तो उस टाइम कैमरा मैन मैं होता था बाकी पूरे टाइम मेरे छोटे भाई ने मेरे कहे अनुसार कैमरामैन का भूमिका बख़ूबी निभाया।
पूरी फ़िल्म शूट हो गयी , अब मेरे दिमाग मे एक शॉट था जिसे किसी भी हाल में मुझे शूट करना था। और वो शॉट था मेरे गाँव का ड्रोन शॉट लेने का पर ये कैसे पॉसिबल था पर इसको करना था ड्रोन था नही और नाही मैं उड़ सकता था। बाकी हमने वो भी कर ही लिया अपने देसी अंदाज़ से गाँव मे रहने का वहा पैदा होने से बड़े होने तक का कर्ज़ अदा करना था तो हमने अपने गाँव को एक स्क्रीन पर लाकर हज़ारो लोगों को दिखाया कि ये है मेरा खूबसूरत गाँव। और ये सँभव हुआ ऐसे की एक लंबे बाँस(bamboo) में मोबाइल फ़ोन को सेल्लो टेप से बांध कर दो मंज़िले छत के ऊपर से ये सीन को फिल्माया और कामयाब भी रहा।। इस फ़िल्म की एडिटिंग (power director) मोबाईल फ़ोन app से किया। और डबिंग एअरफ़ोन से।
और अन्ततः ये फ़िल्म 3 मई को लोगों के सामने प्रदर्शित हुई। और लोगों का बहुत प्यार मिला मेरी बहुत तारीफ़ हुई फ़िल्म की कहानी लोगों को ख़ूब पसंद आयी ,बहुत लोगों को मेकिंग बहुत अच्छा लगा ।। और सबसे ज़्यादा तारीफ़ जिसका हुआ वो रही मेरी माँ और मेरे मम्मी पापा के आशीर्वाद से ही इस फ़िल्म को इतना आशीर्वाद मिला और ये फ़िल्म इस मुकाम तक पहुँची की नवादा और बेतिया अंतराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव में दूसरा और तीसरा स्थान प्राप्त हुआ, बेस्ट भोजपुरी फ़िल्म में पुरस्कृत हुई।। जहाँ हज़ारो फिल्मे अलग अलग देश से हज़ारो रुपये की लागत से बन कर आयी थी वहां ये फ़िल्म मात्र 20 रुपये में बन कर इस मुक़ाम तक पहुँची(इस फ़िल्म के एक समौसे की दुकान का सीन है तो वही 20 रुपये खर्च हुये है।)। उस समय ये फ़िल्म हरेक अख़बार में अपना नाम भी दर्ज करवायी। तो उन तमाम लोगों को मेरा दिल से प्रणाम और आभार है जिनके सहयोग से "बबुआ सहयोगी" को ये ऊँचाई प्राप्त हुई।
इस फ़िल्म के गीतकार रहे Nitin Kumar Tiwari जिनके गीत के एक एक शब्द दर्शको के दिल में छप गयी
और गाने को अपनी मधुर आवाज़ से दर्शकों को लुभाये Shubham Tiwari ने।
बाकी उन तमाम लोगों को आभार जिन्होंने इस फ़िल्म में अपना नाम दर्ज करवाया।।
और Kanhaya Prasad Tiwari Rasik बाबा को प्रणाम की इस फ़िल्म को इतना सुंदर नाम मिला।
Saurabh Tiwari जी का बहुत बहुत धन्यवाद
बाकी मुझे लगता है कि जिनको अपनी बोली भाष भोजपुरी से मोहब्बत है वो भोजपुरी में और भोजपुरी के लिये निस्वार्थ काम कर रहे है।। उन सबको मेरा सलाम है❣️
Film Link
👇👇👇
https://youtu.be/9DCX46EXbm0
https://youtu.be/9DCX46EXbm0
मिलेंगें आगे अगली फ़िल्म "ज़िंदगी One-Way की बनने की कहानी के साथ।
प्रणाम 🙏
Shubham Shandilya☺️