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वीरगति पाने से पहले भगतसिंह जी द्वारा अपने साथियों को लिखा गया अन्तिम पत्र :-साथियो,स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें...
04/09/2023

वीरगति पाने से पहले भगतसिंह जी द्वारा अपने साथियों को लिखा गया अन्तिम पत्र :-

साथियो,

स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। लेकिन एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ,कि मैं कैद होकर या पाबन्द होकर जीना नहीं चाहता।

मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है- इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज नहीं हो सकता।

आज मेरी कमजोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए। लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।

हाँ, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवाँ भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतन्त्र, जिंदा रह सकता तब शायद उन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता। इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फाँसी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक भाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इन्तजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाए।

आपका साथी

भगतसिंह

वो 7 दिन: उधार से शुरू हुई, मिथुन के ठुकराने पर अनिल कपूर को मिली पहली फिल्म, रातोंरात बने स्टारअनिल कपूर की पहली फिल्म ...
03/09/2023

वो 7 दिन: उधार से शुरू हुई, मिथुन के ठुकराने पर अनिल कपूर को मिली पहली फिल्म, रातोंरात बने स्टार

अनिल कपूर की पहली फिल्म भी कुछ ऐसी ही थी. उन्हें भी बस एक मौका चाहिए था और उन्हें ये मौका मिला फिल्म ‘वो 7 दिन’ में. ये उनकी पहली ही फिल्म थी जिसमें पद्मिनी कोल्हापुरे उनकी हीरोइन थीं. उनकी पहली ही फिल्म हिट हुई और वो रातोंरात स्टार बन गए. कमाल की बात ये है कि जिस फिल्म ने उन्हें रातोंरात स्टार बनाया वो फिल्म पहले उनके नसीब में थी ही नहीं. अनिल कपूर का इस फिल्म के साथ कोई नाम नहीं जुड़ा था. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार अनिल कपूर ने जिस किरदार को निभाया उसके लिए बोनी कपूर ने किसी अन्य स्टार को पसंद किया था.

लेकिन हालात ऐसे बन गए कि बोनी कपूर को ऐन मौके पर अनिल कपूर को लेकर फिल्म बनानी पड़ी. फिल्म में अनिल कपूर ने ‘प्रेम प्रताप पटियालेवाला’ का किरदार निभाया था, जो यादगार बन गया. उनकी पहली ही फिल्म मील का पत्थर साबित हुई. इस फिल्म के बाद अनिल कपूर ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.

अनिल नहीं थे इस फिल्म की पहली फिल्म
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, बोनी कपूर ‘वो 7 दिन’ में अनिल कपूर को नहीं बल्कि मिथुन चक्रवर्ती को कास्ट करना चाहते थे. उन्होंने मिथुन और पद्मिनी की जोड़ी को साथ लेकर फिल्म बनाने की पूरी तैयारी कर ली थी लेकिन उस समय तक मिथुन चक्रवर्ती स्टार बन चुके थे और उनके पास कई फिल्में के ऑफर पहले से ही थे, इसी व्यस्तता के करन उन्हें डेट्स की प्रॉब्लम आ रही थी और उन्होंने इस फिल्म को करने से इनकार कर दिया. अनिल कपूर के पास ये मौका केवाल मिथुन के हाथों से फिसल कर नहीं आया. मिथुन के बाद इस फिल्म के लिए संजीव कुमार और रणधीर कपूर को लेने की बात भी हुई लेकिन ऐसा नहीं हो सका.

दूसरी तरफ एक मौके के इंतजार में बैठे अनिल कपूर के पास उन दिनों कोई काम नहीं था. रिपोर्ट्स का कहना है कि अनिल पहले से ही इस किरदार को निभाने का मन बनाए हुए थे लेकिन उनकी कभी ये हिम्मत नहीं हो पाई कि अपने बड़े भाई से कह सकें कि मुझे हीरो बना दो. लेकिन मिथुन के ऑफर ठुकराने के बाद बोनी कपूर ने डायरेक्टर बापू से बात की और फिल्म में अनिल कपूर को कास्ट कर लिया. हालांकि, फिल्म के इस किरदार के लिए अनिल की उम्र और तजुर्बा दोनों ही कम थे लेकिन ये किस्मत की बात थी, इसी लिए अनिल कपूर ना केवाल फिल्म का अहम हिस्सा बने बल्कि फिल्म हिट भी हुई. इसी फिल्म ने अनिल कपूर भी रातोंरात स्टार बना दिया.
फिल्म के राइट्स खरीदने के लिए उधार पैसे लिए
बता दें कि फिल्म ‘वो 7 दिन’ साउथ के जाने माने डायरेक्टर के भाग्यराज की बनाई हुई एक तमिल फिल्म की हिंदी रीमेक है. के भाग्यराज खुद इस फिल्म के हीरो भी थे. बोनी कपूर इस फिल्म का हिंदी रीमेक बनाना चाहते थे और इसके लिए वह फिल्म के राइट्स लेने वो अपने छोटे भाई अनिल कपूर के साथ चेन्नई गए. हालांकि पहली बार में ये डील नहीं हो सकी क्योंकि बोनी के पास फिल्म के राइट्स खरीदने के लिए उस समय पर्याप्त पैसे नहीं थे लेकिन उनकी किस्मत अच्छी थी. उन्हीं दिनों संजीव कुमार अपनी एक फिल्म की शूटिंग के लिए चेन्नई में ही थे. बोनी कपूर ने तब राइट्स खरीदने के लिए संजीव कुमार से पैसे उधार लिए. इसके साथ ही उन्होंने शबाना आजमी से भी कुछ पैसे लिए थे.

01/09/2023

❤️❤️❤️❤️💯💯💯%%%%

पहली दफा माइकल जैक्सन नाम कब सुना था ये याद नहीं है। लेकिन किसी ने बताया था कि बहुत तगड़ा डांसर है। चूंकि उस वक्त घर में...
31/08/2023

पहली दफा माइकल जैक्सन नाम कब सुना था ये याद नहीं है। लेकिन किसी ने बताया था कि बहुत तगड़ा डांसर है। चूंकि उस वक्त घर में दूरदर्शन ही था और दूरदर्शन पर माइकल जैक्सन का कोई प्रोग्राम आता नहीं था तो काफी वक्त तक मैं माइकल जैक्सन का डांस देखने को तरसता रहा। उस वक्त डांस करने का भूत मुझ पर भी चढ़ा हुआ था। वक्त गुज़रा। डांस का भूत उतरा। माइकल जैक्सन को हम भूल गए। और फिर साल 2000 में ऋतिक की फिल्म 'कहो ना प्यार है' रिलीज़ हुई। ये फिल्म देखकर एक बार फिर से डांस का भूत सिर पर सवार हो गया। ऋतिक को जब 'एक पल का जीना' व 'सितारों की महफिल में गूंजेगा तराना' जैसे गीतों पर डांस करते देखा तो बड़ा मज़ा आया। वो हमारे लिए एकदम अलग टाइप का डांस था। क्योंकि उससे पहले हम गोविंदा स्टाइल डांस से वाकिफ थे। और उसी तरह नाचने की कोशिश करते थे। मुहल्ले के कुछ लड़के तो बाकायदा अपने घर पर ऋतिक की तरह डांस करने की प्रैक्टिस करने लगे। यूं तो मेरी भी उनसे दोस्ती थी। और मैं उनके पास जाकर उस प्रैक्टिस का हिस्सा बनना चाहता था। लेकिन मेरे पिता को मेरे वो दोस्त बिल्कुल भी पसंद नहीं थे। लिहाज़ा उन्होंने मेरे उन दोस्तों से मिलने व बात करने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था। ऐसे में उनके साथ डांस प्रैक्टिस करने का तो कोई सवाल ही नहीं था। मगर मैं फिर भी चोरी-छिपे उनके घर चले जाया करता था। और उन्हें जब डांस की प्रैक्टिस करते देखता था तो मन ही मन सोचता था कि काश मेरे पापा मुझे ना रोकते। काश मैं भी डांस सीख सकता। फिर साल 2003 के नवंबर में उन्हीं दोस्तों के घर मैंने एक दिन एक अंग्रेजी गाना सुना। गाने वाला क्या कह रहा था कुछ समझ नहीं आ रहा था। लेकिन फिर भी गाना सुनने में मज़ा आ रहा था। गाना खत्म हुआ तो मैंने मेरे दोस्त से पूछा, "ये कौन सा गाना है?" उसने बताया,"ये माइकल जैक्सन का गाना है। पीरेड।" (उस वक्त मुझे भी पीरेड ही सुनाई दे रहा था। लेकिन बाद में पता चला कि वो गीत बीट-इट था। ना की पीरेड। पर अमेरिकी एक्सेंट के चलते वो हमें पीरेड सुनाई दे रहा था।) माइकल जैक्सन का नाम सुनते ही मेरे शरीर में झुनझुनी सी उठ गई। जिसे अंग्रेजी में गूज़बम्प्स कहते हैं। मैंने उस लड़के से दोबारा वही गीत चलाने को कहा। वो लड़का तब तक सीडी प्लेयर खरीद चुका था। उसने अपने टीवी से सीडी प्लेयर कनेक्ट किया और मुझे बाकायदा माइकल जैक्सन के बीट-इट सॉन्ग का वीडियो दिखाया। क्या ही एक्सपीरियंस था वो। मुझे लगा जैसे एक अलग ही दुनिया को देख रहा हूं। उस वक्त तक वैसे भी मैंने किसी अंग्रेजी गीत का वीडियो देखा नहीं था। बीट इट के बाद मेरे दोस्त ने माइकल का ही बिली जीन चलाया। बिली जीन में डांस तो नहीं था। लेकिन उस गीत में एक स्टोरी चलती है जो आपको एंगेज रखने के लिए काफी है। भले ही आपको अंग्रेजी समझ में आती हो या नहीं। वो माइकल जैक्सन के गीतों का मेरा पहला तजुर्बा था। माइकल से जुड़ी अपनी हर याद लिखने बैठा तो बात बहुत लंबी हो जाएगी। इसलिए बस इतना कहकर ही बात खत्म करता हूं कि माइकल जैक्सन के गीत आगे कई बरस तक मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन गए थे। और जब माइकल जैक्सन की मौत की खबर टीवी पर आई थी मुझे लगा जैसे मेरा अपना कोई मर गया है। बहुत दुख पहुंचा था। आंखों में आंसू नहीं आए थे। लेकिन दिल रोया था। आज माइकल जैक्सन का जन्मदिवस है। आज ही के दिन यानि 29 अगस्त को सन 1958 में माइकल जैक्सन का जन्म हुआ था। किस्सा टीवी माइकल जैक्सन को सैल्यूट करता है। ゚viral

एक  #नजर इधर भी❤️❤️❤️
30/08/2023

एक #नजर इधर भी❤️❤️❤️

JAY HIND 🇮🇳🇮🇳🇮🇳
30/08/2023

JAY HIND 🇮🇳🇮🇳🇮🇳

आखिर कौन थे ?सम्राट पृथ्वीराज चौहान पुरा नाम :-          पृथ्वीराज चौहान अन्य नाम :-         राय पिथौरा माता/पिता :-    ...
29/08/2023

आखिर कौन थे ?
सम्राट पृथ्वीराज चौहान

पुरा नाम :- पृथ्वीराज चौहान
अन्य नाम :- राय पिथौरा
माता/पिता :- राजा सोमेश्वर चौहान/कमलादेवी
पत्नी :- संयोगिता
जन्म :- 1149 ई.
राज्याभिषेक :- 1169 ई.
मृत्यु :- 1192 ई.
राजधानी :- दिल्ली, अजमेर
वंश :- चौहान (राजपूत)

आज की पिढी इनकी वीर गाथाओ के बारे मे..
बहुत कम जानती है..!!
तो आइए जानते है.. #सम्राट #पृथ्वीराज #चौहान से जुडा इतिहास एवं रोचक तथ्य,,,

''(1) प्रथ्वीराज चौहान ने 12 वर्ष कि उम्र मे बिना किसी हथियार के खुंखार जंगली शेर का जबड़ा फाड़
ड़ाला था ।

(2) पृथ्वीराज चौहान ने 16 वर्ष की आयु मे ही
महाबली नाहरराय को युद्ध मे हराकर माड़वकर पर विजय प्राप्त की थी।

(3) पृथ्वीराज चौहान ने तलवार के एक वार से जंगली हाथी का सिर धड़ से अलग कर दिया था ।

(4) महान सम्राट प्रथ्वीराज चौहान कि तलवार का वजन 84 किलो था, और उसे एक हाथ से चलाते थे ..सुनने पर विश्वास नहीं हुआ होगा किंतु यह सत्य है..

(5) सम्राट पृथ्वीराज चौहान पशु-पक्षियो के साथ बाते करने की कला जानते थे।

(6) महान सम्राट पुर्ण रूप से मर्द थे ।
अर्थात उनकी छाती पर स्तंन नही थे ।

(8) प्रथ्वीराज चौहान 1166 ई. मे अजमेर की गद्दी पर बैठे और तीन वर्ष के बाद यानि 1169 मे दिल्ली के सिहासन पर बैठकर पुरे हिन्दुस्तान पर राज किया।

(9) सम्राट पृथ्वीराज चौहान की तेरह पत्निया थी।
इनमे संयोगिता सबसे प्रसिद्ध है..

(10) पृथ्वीराज चौहान ने महमुद गौरी को 16 बार युद्ध मे हराकर जीवन दान दिया था..
और 16 बार कुरान की कसम का खिलवाई थी ।

(11) गौरी ने 17 वी बार मे चौहान को धौके से बंदी बनाया और अपने देश ले जाकर चौहान की दोनो आँखे फोड दी थी ।
उसके बाद भी राजदरबार मे पृथ्वीराज चौहान ने अपना मस्तक नहीं झुकाया था।

(12) महमूद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को बंदी बनाकर अनेको प्रकार की पिड़ा दी थी और कई महिनो तक भुखा रखा था..
फिर भी सम्राट की मृत्यु न हुई थी ।

(13) सम्राट पृथ्वीराज चौहान की सबसे बड़ी विशेषता यह थी की...
जन्मसे शब्द भेदी बाण की कला ज्ञात थी।
जो की अयोध्या नरेश "राजा दशरथ" के बाद..
केवल उन्ही मे थी।

(14) पृथ्वीराज चौहान ने महमुद गौरी को उसी के भरे दरबार मे शब्द भेदी बाण से मारा था ।
गौरी को मारने के बाद भी वह दुश्मन के हाथो नहीं मरे..
अर्थार्त अपने मित्र चन्द्रबरदाई के हाथो मरे, दोनो ने एक दुसरे को कटार घोंप कर मार लिया.. क्योंकि और कोई विकल्प नहीं था ।

दुख होता है ये सोचकर कि वामपंथीयो ने इतिहास की पुस्तकों में टीपुसुल्तान, बाबर, औरँगजेब, अकबर जैसे हत्यारो के महिमामण्डन से भर दिया और पृथ्वीराज जैसे योद्धाओ को नई पीढ़ी को पढ़ने नही दिया बल्कि इतिहास छुपा दिया....
क्षत्रिय एकता 🏹



#राजपूत_सम्राट_पृथ्वीराज_चौहान

 #चितौड़गढ़ के पहले  #जौहर की वीरांगनाओं को याद करने के साथ साथ हमें  #मेवाड़ के 2 कोहीनूर  #गोरा  #बादल को भी याद करना चाह...
24/08/2023

#चितौड़गढ़ के पहले #जौहर की वीरांगनाओं को याद करने के साथ साथ हमें #मेवाड़ के 2 कोहीनूर #गोरा #बादल को भी याद करना चाहिए। ये वही महावीर योद्धा थे जिन्होंने दिल्ली जाकर ख़िलजी की हलक से रावल रत्न सिंह को आजाद किया था। इन्ही दो परमवीरो के ऊपर उस इतिहास को दर्शाती कुछ लाइनें जो मेवाड़ के राजकवि पंडित नरेंद्र मिश्र जी द्वारा लिखी गयी हैः

🙏
दोहराता हूँ सुनो रक्त से लिखी हुई कुर्बानी
जिसके कारण मिट्टी भी चन्दन है राजस्थानी

रावल रत्न सिंह को छल से कैद किया खिलजी ने
कालजई मित्रों से मिलकर दगा किया खिलजी ने
खिलजी का चित्तौड़दुर्ग में एक संदेशा आया
जिसको सुनकर शक्ति शौर्य पर फिर अँधियारा छाया

दस दिन के भीतर न पद्मिनी का डोला यदि आया
यदि ना रूप की रानी को तुमने दिल्ली पहुँचाया
तो फिर राणा रत्न सिंह का शीश कटा पाओगे
शाही शर्त ना मानी तो पीछे पछताओगे

यह दारुण संवाद लहर सा दौड़ गया रण भर में
यह बिजली की तरह क्षितिज से फैल गया अम्बर में
महारानी हिल गयीं शक्ति का सिंहासन डोला था
था सतित्व मजबूर जुल्म विजयी स्वर में बोला था

रुष्ट हुए बैठे थे सेनापति गोरा रणधीर
जिनसे रण में भय खाती थी खिलजी की शमशीर
अन्य अनेको मेवाड़ी योद्धा रण छोड़ गए थे
रत्न सिंह की संधि नीति से नाता तोड़ गए थे

पर रानी ने प्रथम वीर गोरा को खोज निकाला
वन वन भटक रहा था मन में तिरस्कार की ज्वाला
गोरा से पद्मिनी ने खिलजी का पैगाम सुनाया
मगर वीरता का अपमानित ज्वार नहीं मिट पाया

बोला मैं तो बहुत तुच्छ हू राजनीति क्या जानूँ
निर्वासित हूँ राज मुकुट की हठ कैसे पहचानूँ

बोली पद्मिनी, समय नहीं है वीर क्रोध करने का
अगर धरा की आन मिट गयी घाव नहीं भरने का
दिल्ली गयी पद्मिनी तो पीछे पछताओगे
जीते जी राजपूती कुल को दाग लगा जाओगे

राणा ने जो कहा किया वो माफ़ करो सेनानी
यह कह कर गोरा के क़दमों पर झुकी पद्मिनी रानी
यह क्या करती हो गोरा पीछे हट बोला
और राजपूती गरिमा का फिर धधक उठा था शोला

महारानी हो तुम सिसोदिया कुल की जगदम्बा हो
प्राण प्रतिष्ठा एक लिंग की ज्योति अग्निगंधा हो
जब तक गोरा के कंधे पर दुर्जय शीश रहेगा
महाकाल से भी राणा का मस्तक नहीँ कटेगा

तुम निश्चिन्त रहो महलो में देखो समर भवानी
और खिलजी देखेगा केसरिया तलवारो का पानी
राणा के सकुशल आने तक गोरा नहीँ मरेगा
एक पहर तक सर कटने पर धड़ युद्ध करेगा

एक लिंग की शपथ महाराणा वापस आएँगे
महा प्रलय के घोर प्रभंजन भी न रोक पाएँगे
शब्द शब्द मेवाड़ी सेनापति का था तूफानी
शंकर के डमरू में जैसे जाएगी वीर भवानी
जिसके कारन मिट्टी भी चन्दन है राजस्थानी
दोहराता हूँ सुनो रक्त से लिखी हुई कुर्बानी

खिलजी मचला था पानी में आग लगा देने को
पर पानी प्यास बैठा था ज्वाला पी लेने को
गोरा का आदेश हुआ सज गए सात सौ डोले
और बाँकुरे बदल से गोरा सेनापति बोले

खबर भेज दो खिलजी पर पद्मिनी स्वयं आती है
अन्य सात सौ सखियाँ भी वो साथ लिए आती है
स्वयं पद्मिनी ने बादल का कुमकुम तिलक किया था
दिल पर पत्थर रख कर भीगी आँखों से विदा किया था

और सात सौ सैनिक जो यम से भी भीड़ सकते थे
हर सैनिक सेनापति था लाखो से लड़ सकते थे
एक एक कर बैठ गए सज गयी डोलियाँ पल में
मर मिटने की होड़ लग गयी थी मेवाड़ी दल में

हर डोली में एक वीर था चार उठाने वाले
पांचो ही शंकर के गण की तरह समर मतवाले
बजा कूच का शंख सैनिकों ने जयकार लगाई
हर हर महादेव की ध्वनि से दशों दिशा लहराई

गोरा बादल के अंतस में जगी जोत की रेखा
मातृ भूमि चित्तौड़दुर्ग को फिर जी भरकर देखा
कर अंतिम प्रणाम चढ़े घोड़ो पर सुभट अभिमानी
देश भक्ति की निकल पड़े लिखने वो अमर कहानी
जिसके कारन मिट्टी भी चन्दन है राजस्थानी
दोहराता हूँ सुनो रक्त से लिखी हुई कुर्बानी

जा पंहुची डोलियाँ एक दिन खिलजी के सरहद में
उधर दूत भी जा पहुँच खिलजी के रंग महल में
बोला शहंशाह पद्मिनी मल्लिका बनने आयी है
रानी अपने साथ हुस्न की कलियाँ भी लायी है

एक मगर फ़रियाद उसकी फकत पूरी करवा दो
राणा रत्न सिंह से एक बार मिलवा दो
खिलजी उछल पड़ा कह फ़ौरन यह हुक्म दिया था
बड़े शौक से मिलने का शाही फरमान दिया था

वह शाही फरमान दूत ने गोरा तक पहुँचाया
गोरा झूम उठे उस क्षण बादल को पास बुलाया
बोले बेटा वक़्त आ गया अब कट मरने का
मातृ भूमि मेवाड़ धरा का दूध सफल करने का

यह लोहार पद्मिनी भेष में बंदी गृह जायेगा
केवल दस डोलियाँ लिए गोरा पीछे धायेगा
यह बंधन काटेगा हम राणा को मुक्त करेंगे
घुड़सवार कुछ उधर आड़ में ही तैयार रहेंगे

जैसे ही राणा आएँ वो सब आँधी बन जाएँ
और उन्हें चित्तौड़दुर्ग पर वो सकुशल पहुँचाएँ
अगर भेद खुल जाये वीर तो पल की देर न करना
और शाही सेना आ पहुँचे तो फिर बढ़ कर रण करना

राणा जाएँ जिधर शत्रु को उधर न बढ़ने देना
और एक यवन को भी उस पथ पावँ ना धरने देना
मेरे लाल लाडले बादल आन न जाने पाए
तिल तिल कट मरना मेवाड़ी मान न जाने पाए

ऐसा ही होगा काका राजपूती अमर रहेगी
बादल की मिट्टी में भी गौरव की गंध रहेगी
तो फिर आ बेटा बादल सीने से तुझे लगा लूँ
हो ना सके शायद अब मिलन अंतिम लाड लड़ा लूँ

यह कह बाँहों में भर कर बादल को गले लगाया
धरती काँप गयी अम्बर का अंतस मन भर आया
सावधान कह पुनः पथ पर बढे गोरा सैनानी
पोंछ लिया झट से मुड़कर बूढी आँखों का पानी
जिसके कारन मिट्टी भी चन्दन है राजस्थानी
दोहराता हूँ सुनो रक्त से लिखी हुई कुर्बानी

गोरा की चातुरी चली राणा के बंधन काटे
छाँट छाँट कर शाही पहरेदारो के सर काटे
लिपट गए गोरा से राणा ग़लती पर पछताए
सेनापति की नमक हलाली देख नयन भर आये

पर खिलजी का सेनापति पहले से ही शंकित था
वह मेवाड़ी चट्टानी वीरो से आतंकित था
जब उसने लिया समझ पद्मिनी नहीं आयी है
मेवाड़ी सेना खिलजी की मौत साथ लायी है

पहले से तैयार सैन्य दल को उसने ललकारा
निकल पड़ा टिड्डी दल रण का बजने लगा नगाड़ा
दृष्टि फिरि गोरा की मानी राणा को समझाया
रण मतवाले को रोका जबरन चित्तौड़पठाया

राणा चले तभी शाही सेना लहरा कर आयी
खिलजी की लाखो नंगी तलवारें पड़ी दिखाई
खिलजी ललकारा दुश्मन को भाग न जाने देना
रत्न सिंह का शीश काट कर ही वीरों दम लेना

टूट पड़ों मेवाड़ी शेरों बादल सिंह ललकारा
हर हर महादेव का गरजा नभ भेदी जयकारा
निकल डोलियों से मेवाड़ी बिजली लगी चमकने
काली का खप्पर भरने तलवारें लगी खटकने

राणा के पथ पर शाही सेनापति तनिक बढ़ा था
पर उस पर तो गोरा हिमगिरि सा अड़ा खड़ा था
कहा ज़फर से एक कदम भी आगे बढ़ न सकोगे
यदि आदेश न माना तो कुत्ते की मौत मरोगे

रत्न सिंह तो दूर न उनकी छाया तुम्हें मिलेगी
दिल्ली की भीषण सेना की होली अभी जलेगी
यह कह के महाकाल बन गोरा रण में हुँकारा
लगा काटने शीश बही समर में रक्त की धारा

खिलजी की असंख्य सेना से गोरा घिरे हुए थे
लेकिन मानो वे रण में मृत्युंजय बने हुए थे
पुण्य प्रकाशित होता है जैसे अग्रित पापों से
फूल खिला रहता असंख्य काटों के संतापों से

वो मेवाड़ी शेर अकेला लाखों से लड़ता था
बढ़ा जिस तरफ वीर उधर ही विजय मंत्र पढता था
इस भीषण रण से दहली थी दिल्ली की दीवारें
गोरा से टकरा कर टूटी खिलजी की तलवारें

मगर क़यामत देख अंत में छल से काम लिया था
गोरा की जंघा पर अरि ने छिप कर वार किया था
वहीँ गिरे वीर वर गोरा जफ़र सामने आया
शीश उतार दिया, धोखा देकर मन में हर्षाया

मगर वाह रे मेवाड़ी गोरा का धड़ भी दौड़ा
किया जफ़र पर वार की जैसे सर पर गिरा हथौड़ा
एक वार में ही शाही सेना पति चीर दिया था
जफ़र मोहम्मद को केवल धड़ ने निर्जीव किया था
ज्यों ही जफ़र कटा शाही सेना का साहस लरज़ा
काका का धड़ देख बादल सिंह महारुद्र सा गरजा

अरे कायरो नीच बाँगड़ों छल से रण करते हो
किस बुते पर जवान मर्द बनने का दम भरते हो
यह कह बादल उस क्षण बिजली बन करके टुटा था
मानो धरती पर अम्बर से अग्नि शिरा छुटा था

ज्वाला मुखी फटा हो जैसे दरिया हो तूफानी
सदियाँ दोहराएँगी बादल की रण रंग कहानी
अरि का भाला लगा पेट में आंते निकल पड़ी थीं
जख्मी बादल पर लाखो तलवारें खिंची खड़ी थी

कसकर बाँध लिया आँतों को केशरिया पगड़ी से
रंचक डिगा न वह प्रलयंकर सम्मुख मृत्यु खड़ी से
अब बादल तूफ़ान बन गया शक्ति बनी फौलादी
मानो खप्पर लेकर रण में लड़ती हो आजादी

उधर वीरवर गोरा का धड़ अरिदल काट रहा था
और इधर बादल लाशों से भूतल पाट रहा था
आगे पीछे दाएँ बाएँ जम कर लड़ी लड़ाई
उस दिन समर भूमि में लाखों बादल पड़े दिखाई

मगर हुआ परिणाम वही की जो होना था
उनको तो कण कण अरियों के शौन से धोना था
मेवाड़ी सीमा में राणा सकुशल पहुच गए थे
गारो बादल तिल तिल कर रण में खेत रहे थे

एक एक कर मिटे सभी मेवाड़ी वीर सिपाही
रत्न सिंह पर लेकिन रंचक आँच न आने पायी
गोरा बादल के शव पर भारत माता रोई थी
उसने अपनी दो प्यारी ज्वलंत मणियाँ खोयी थी

धन्य धरा मेवाड़ धन्य गोरा बादल बलिदानी
जिनके बल से रहा पद्मिनी का सतीत्व अभिमानी
जिसके कारन मिट्टी भी चन्दन है राजस्थानी
दोहराता हूँ सुनो रक्त से लिखी हुई कुर्बानी ●

24/08/2023

" #बाजीराव_पेशवा_जयंती पर सदर नमन" 🙏💐

"चीते की चाल.... बाज की नजर... और #बाजीराव की त!लवार पर संदेह नहीं करते" 🔥🔥🔥

जिस व्यक्ति ने अपनी आयु के 20 वे वर्ष में पेशवाई के सूत्र संभाले हों, 40 वर्ष तक के कार्यकाल में 42 युद्ध लड़े हों और सभी जीते हों यानि जो सदा "अपराजेय" रहा हो,

जिसके एक युद्ध को अमेरिका जैसा राष्ट्र अपने सैनिकों को पाठ्यक्रम के रूप में पढ़ा रहा हो ..ऐसे 'परमवीर' को आप क्या कहेंगे ...?

आप उसे नाम नहीं दे पाएंगे ..क्योंकि आपका उससे परिचय ही नहीं,सन 18 अगस्त सन् 1700 में जन्मे उस महान पराक्रमी पेशवा का नाम है -
" बाजीराव पेशवा "

"अगर मुझे पहुँचने में देर हो गई तो इतिहास लिखेगा कि एक राजपूत ने मदद मांगी और ब्राह्मण भोजन करता रहा"
ऐसा कहते हुए भोजन की थाली छोड़कर बाजीराव अपनी सेना के साथ राजा छत्रसाल की मदद को बिजली की गति से दौड़ पड़े,

धरती के महानतम योद्धाओं में से एक , अद्वितीय , अपराजेय और अनुपम योद्धा थे बाजीराव बल्लाल,

छत्रपति शिवाजी महाराज का हिन्दवी स्वराज का सपना जिसे पूरा कर दिखाया तो सिर्फ - बाजीराव बल्लाल भट्ट जी ने,

अटक से कटक तक , कन्याकुमारी से सागरमाथा तक केसरिया लहराने का और हिंदू स्वराज लाने के सपने को पूरा किया पेशवा 'बाजीराव प्रथम' ने,

इतिहास में शुमार अहम घटनाओं में एक यह भी है कि दस दिन की दूरी बाजीराव ने केवल पांच सौ घोड़ों के साथ 48 घंटे में पूरी की, बिना रुके, बिना थके,

देश के इतिहास में ये अब तक दो आक्रमण ही सबसे तेज माने गए हैं,
एक अकबर का फतेहपुर से गुजरात के विद्रोह को दबाने के लिए नौ दिन के अंदर वापस गुजरात जाकर हमला करना और दूसरा बाजीराव का दिल्ली पर हमला,

बाजीराव दिल्ली तक चढ़ आए थे,
आज जहां तालकटोरा स्टेडियम है, वहां बाजीराव ने डेरा डाल दिया,
उन्नीस-बीस साल के उस युवा ने मुगल ताकत को दिल्ली और उसके आसपास तक समेट दिया था,

तीन दिन तक दिल्ली को बंधक बनाकर रखा,
मुगल बादशाह की लाल किले से बाहर निकलने की हिम्मत ही नहीं हुई,
यहां तक कि 12वां मुगल बादशाह और औरंगजेब का नाती दिल्ली से बाहर भागने ही वाला था कि उसके लोगों ने बताया कि जान से मार दिए गए तो सल्तनत खत्म हो जाएगी,

वह लाल किले के अंदर ही किसी अति गुप्त तहखाने में छिप गया, बाजीराव मुगलों को अपनी ताकत दिखाकर वापस लौट गए,

हिंदुस्तान के इतिहास के बाजीराव बल्लाल अकेले ऐसे योद्धा थे जिन्होंने अपनी मात्र 40 वर्ष की आयु में 42 बड़े युद्ध लड़े और एक भी नहीं हारे,
अपराजेय , अद्वितीय,

बाजीराव बिजली की गति से तेज आक्रमण शैली की कला में निपुण थे जिसे देखकर दुश्मनों के हौसले पस्त हो जाते थे,

बाजीराव हर हिंदू राजा के लिए आधी रात मदद करने को भी सदैव तैयार रहते थे,पूरे देश का बादशाह एक हिंदू हो, ये उनके जीवन का लक्ष्य था,

आप लोग कभी वाराणसी जाएंगे तो उनके नाम का एक घाट पाएंगे, जो खुद बाजीराव ने सन 1735 में बनवाया था,
दिल्ली के बिरला मंदिर में जाएंगे तो उनकी एक मूर्ति पाएंगे,कच्छ में जाएंगे तो उनका बनाया 'आइना महल' पाएंगे", पूना में 'मस्तानी महल' और 'शनिवार बाड़ा' पाएंगे,

अगर बाजीराव बल्लाल , लू लगने के कारण कम उम्र में ना चल बसते , तो , ना तो अहमद शाह अब्दाली या नादिर शाह हावी हो पाते और ना ही अंग्रेज और पुर्तगालियों जैसी पश्चिमी ताकतें भारत पर राज कर पातीं,

28अप्रैल सन् 1740 को उस पराक्रमी "अपराजेय" योद्धा ने मध्यप्रदेश में सनावद के पास रावेरखेड़ी में प्राणोत्सर्ग किया उन्हें शत शत नमन,🙏🚩

ऐसी ही ना जाने कितने ही सुनेहरा इतिहास वामपंथीयों ने छिपा दिया है या बदल दिया है,

जय भवानी जय शिवाजी🙏❤❤

24/08/2023
**************गब्बर सिंह***************क्या राजस्थान में भी था एक डाकू गब्बर सिंह?राजस्थान में भी एक डाकू गब्बर सिंह था!...
24/08/2023

**************गब्बर सिंह***************
क्या राजस्थान में भी था एक डाकू गब्बर सिंह?
राजस्थान में भी एक डाकू गब्बर सिंह था! उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के वो गांव जो चंबल के बीहड़ से सटे हुए हैं उन गांवों में आज भी एक नाम का खौफ रहता है। डाकू गब्बर सिंह। फिल्म शोले में अमजद खान ने डाकू गब्बर सिंह के रोल को अमर कर दिया। शोले भारतीय सिनेमा की सबसे हिट फिल्मों से एक रही और डाकू गब्बर सिंह का रोल सुपर हिट। फिल्म में गब्बर सिंह दहशत को बखूबी दिखाया गया, लेकिन चंबल के आसपास के लोग अपने पिता और दादा से सुनी बातों को आज भी नहीं भूल पाते। वो बताते हैं कि रियल जिंदगी का गब्बर कहीं ज्यादा खतरनाक था। इतना कि वो लोग आज भी उसका नाम सुनकर घबराने लगते हैं। जो भी गब्बर की मुखबिरी करता था वो उसे मार डालता था। साल 1926 में मध्य प्रदेश के भिंड जिले के डांग इलाके में हुआ था गब्बर सिंह का जन्म। मात-पिता ने नाम दिया प्रीतम सिंह, लेकिन शुरू से ही वो मोटा-तगड़ा था तो घरवाले गबरा बोलने लगे। तब ये कोई नहीं जानता था कि वो एक दिन डाकू गब्बर सिंह बन जाएगा जिसके नाम का खौफ सदियों तक रहेगा। पिता गरीब थे और खेती करते। गांव के जमींदारों ने उनके ऊपर अत्याचार करने शुरू किए। इस बात ने गबरा के मन में नफरत भर दी। उसने गांव के दो लोगों की हत्या कर दी और फिर सीधा चंबल के बीहड़ों में पनाह ले ली। उस वक्त डाकू कल्याण सिंह चंबल में राज करता था। गबरा कल्याण सिंह के गिरोह में शामिल हो गया और बन गया डाकू गब्बर सिंह।

धीरे-धीरे गब्बर सिंह ने अपना अलग गैंग बना लिया। वो इतना खूंखार था कि जो भी उसके खिलाफ आवाज उठाता था वो उसे मौत की नींद सुला देता था। आसपास के गांवों में लूटपाट, किडैपिंग और फिरौती इसकी आय का जरिया बन गया था। बता दें कि भारत के चंबल के गांवों में ही नहीं बल्कि पूरे देश में गब्बर के नाम का खौफ फैला दिया। बच्चों की मां डरने लगीं। 21 बच्चों को गोलियों से भूनने की घटना ने राजनीतिक गलियारों में भी हलचल मचाई। खुद उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू इस बात से बेहद परेशान हो उठे और डाकू गब्बर सिंह को जिंदा मुर्दा पकड़ने के आदेश दे डाले। इसका आतंक इतना ज्यादा था कि कोई इसके खिलाफ पुलिस में जाने की हिम्मत भी नहीं करता था और जो जाता था ये उसे मार गिराता था। यहां तक कि जो पुलिस वाले इसको पकड़ने की कोशिश करते ये उनकी भी हत्या कर देता।

गब्बर सिंह का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। कहते हैं एक तांत्रिक को ये डाकू काफी ज्यादा मानता था। उस तांत्रिक ने इसे बताया था कि अगर वो अपनी कुलदेवी के चरणों में 116 लोगों के नाक और कान भेंट करेगा तो वो अमर हो जाएगा। खुद के अजर अमर बनाने के लिए डाकू गब्बर ने और ज्यादा हत्या करनी शुरू कर दी। ये जिसकी हत्या करता उसके नाक और कान काट लेता। गांव-गांव में बिना नाक-कान की लाशें मिलने लगी।

हद तो तब हो गई जब इसने एक ही गावं के 21 बच्चों को मुखबिरी के शक में गोलियों से भून डाला। इस घटना ने चंबल के गांवों में ही नहीं बल्कि पूरे देश में गब्बर के नाम का खौफ फैला दिया। बच्चों की मां डरने लगीं। 21 बच्चों को गोलियों से भूनने की घटना ने राजनीतिक गलियारों में भी हलचल मचाई। खुद उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू इस बात से बेहद परेशान हो उठे और डाकू गब्बर सिंह को जिंदा मुर्दा पकड़ने के आदेश दे डाले।

पुलिस की स्पेशल टीम ने चंबल के बीहड़ में डेरा डाल दिया। टीम को लीड कर रहे थे राजेन्द्र प्रसाद मोदी। दिन गुजरने लगे, महीने गुजरने लगे यहां तक की साल भी बीत गए, लेकिन टीम को कोई कामयाबी हासिल नहीं हो रही थी। गांव वालों में डाकू गब्बर सिंह का इतना खौफ था कि कोई उसके बारे में कुछ भी नहीं बताता था। करीब तीन साल बाद 13 नवम्बर 1959 को पुलिस को एक दिन खबर मिली की वो हाईवे पर आने वाला है। बस फिर क्या था आईजी के एफ रुस्तम, डीएसपी राजेन्द्र प्रसाद मोदी समेत पुलिसवालों की एक बड़ी टीम हाईवे पर छुपकर बैठ गई। जैसे ही डाकू गब्बर सिंह अपने दूसरे साथियों के साथ वहां से गुजरा पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। डाकू गब्बर की टीम पर बम बरसाए गए और आखिरकार उसकी मौत हुई। गब्बर के साथ उसके 9 और डाकू भी मारे गए।

******** चन्द्र शेखर आजाद**********************“ अरे बुढिया तू यहाँ न आया कर , तेरा बेटा तो चोर-डाकू था . इसलिए गोरों ने...
20/08/2023

******** चन्द्र शेखर आजाद**********************
“ अरे बुढिया तू यहाँ न आया कर , तेरा बेटा तो चोर-डाकू था . इसलिए गोरों ने उसे मार दिया“
जंगल में लकड़ी बिन रही एक मैली सी धोती में लिपटी बुजुर्ग महिला से वहां खड़ें भील ने हंसते हुए कहा ...

“ नही चंदू ने आजादी के लिए कुर्बानी दी हैं “
बुजुर्ग औरत ने गर्व से कहा .उस बुजुर्ग औरत का नाम जगरानी देवी था और इन्होने पांच बेटों को जन्म दिया था , जिसमे आखरी बेटा कुछ दिन पहले ही शहीद हुआ था ...

उस बेटे को ये माँ प्यार से चंदू कहती थी और दुनियां उसे "आजाद " चंद्रशेखर आजाद तिवारी के नाम से जानती है ...!

हिंदुस्तान आजाद हो चुका था , आजाद के मित्र सदाशिव राव एक दिन आजाद के माँ-पिता जी की खोज करतें हुए उनके गाँव पहुंचे ...

आजादी तो मिल गयी थी लेकिन बहुत कुछ खत्म हो चुका था ...

चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत के कुछ वर्षों बाद उनके पिता जी की भी मृत्यु हो गयी थी ...

आज़ाद के भाई की मृत्यु भी इससे पहले ही हो चुकी थी . अत्यंत निर्धनावस्था में हुई उनके पिता की मृत्यु के पश्चात आज़ाद की निर्धन निराश्रित वृद्ध माताश्री उस वृद्धावस्था में भी किसी के आगे हाथ फ़ैलाने के बजाय जंगलों में जाकर लकड़ी और गोबर बीनकर लाती थी तथा कंडे और लकड़ी बेचकर अपना पेट पालती रहीं ...

लेकिन वृद्ध होने के कारण इतना काम नहीं कर पाती थीं कि भरपेट भोजन का प्रबंध कर सकें .
कभी ज्वार कभी बाज़रा खरीद कर उसका घोल बनाकर पीती थीं क्योंकि दाल चावल गेंहू और उसे पकाने का ईंधन खरीदने लायक धन कमाने की शारीरिक सामर्थ्य उनमे शेष ही नहीं थी ...

शर्मनाक बात तो यह कि उनकी यह स्थिति देश को आज़ादी मिलने के 2 वर्ष बाद (1949 ) तक जारी रही ...

चंद्रशेखर आज़ाद जी को दिए गए अपने एक वचन का वास्ता देकर सदाशिव जी उन्हें अपने साथ अपने घर झाँसी लेकर आये थे, क्योंकि उनकी स्वयं की स्थिति अत्यंत जर्जर होने के कारण उनका घर बहुत छोटा था अतः उन्होंने आज़ाद के ही एक अन्य मित्र भगवान दास माहौर के घर पर आज़ाद की माताश्री के रहने का प्रबंध किया था और उनके अंतिम क्षणों तक उनकी सेवा की ...

मार्च 1951 में जब आजाद की माँ जगरानी देवी का झांसी में निधन हुआ तब सदाशिव जी ने उनका सम्मान अपनी माँ के समान करते हुए उनका अंतिम संस्कार स्वयं अपने हाथों से ही किया था ...

आज़ाद की माताश्री के देहांत के पश्चात झाँसी की जनता ने उनकी स्मृति में उनके नाम से एक सार्वजनिक स्थान पर पीठ का निर्माण किया . प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने इस निर्माण को झाँसी की जनता द्वारा किया हुआ अवैध और गैरकानूनी कार्य घोषित कर दिया ...

किन्तु झाँसी के नागरिकों ने तत्कालीन सरकार के उस शासनादेश को महत्व न देते हुए चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापित करने का फैसला कर लिया ...

मूर्ति बनाने का कार्य चंद्रशेखर आजाद के ख़ास सहयोगी कुशल शिल्पकार रूद्र नारायण सिंह जी को सौपा गया ...

उन्होंने फोटो को देखकर आज़ाद की माताश्री के चेहरे की प्रतिमा तैयार कर दी ...

जब केंद्र की सरकार और उत्तर प्रदेश की सरकारों को यह पता चला कि आजाद की माँ की मूर्ति तैयार की जा चुकी है और सदाशिव राव, रूपनारायण, भगवान् दास माहौर समेत कई क्रांतिकारी झांसी की जनता के सहयोग से मूर्ति को स्थापित करने जा रहे हैं तो इन दोनों सरकारों ने अमर बलिदानी शहीद पंडित चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापना को देश, समाज और झाँसी की कानून व्यवस्था के लिए खतरा घोषित कर उनकी मूर्ति स्थापना के कार्यक्रम को प्रतिबंधित कर पूरे झाँसी शहर में कर्फ्यू लगा दिया ...

चप्पे चप्पे पर पुलिस तैनात कर दी गई ताकि अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति की स्थापना न की जा सके ...!

जनता और क्रन्तिकारी आजाद की माता की प्रतिमा लगाने के लिए निकल पड़े ...

अपने आदेश की झाँसी की सडकों पर बुरी तरह उड़ती धज्जियों से तिलमिलाई तत्कालीन सरकारों ने पुलिस को गोली मार देने का आदेश दे डाला ...

आज़ाद की माताश्री की प्रतिमा को अपने सिर पर रखकर पीठ की तरफ बढ़ रहे सदाशिव को जनता ने चारों तरफ से अपने घेरे में ले लिया ...

जुलूस पर पुलिस ने लाठी चार्ज कर दिया ...

सैकड़ों लोग घायल हुए, दर्जनों लोग जीवन भर के लिए अपंग हुए और कुछ लोग की मौत भी हुईं . (मौत की आधिकारिक पुष्टि कभी नही की गयी)...

इस घटना के कारण चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापित नहीं हो सकी ll

यह तस्वीर 1947 की है... लाहौर रेलवे स्टेशन. देखिए स्टेशन का नाम हिंदी (देवनागरी) और पंजाबी (गुरमुखी) में भी लिखा है. तब ...
16/08/2023

यह तस्वीर 1947 की है... लाहौर रेलवे स्टेशन. देखिए स्टेशन का नाम हिंदी (देवनागरी) और पंजाबी (गुरमुखी) में भी लिखा है. तब यह शहर भारत का एक मुख्य शहर था, और हिन्दू , सिख बहुल था.

परसों एक सुहृदय भारतीय वरिष्ठ मित्र ने एक पाकिस्तानी सहकर्मी से कहा - सी यू नेक्स्ट वीक...14th को हम पाकिस्तान की जश्न-ए-आज़ादी मनाएंगे...उसके अगले दिन भारत का स्वतंत्रता दिवस मनाएंगे...दोनों हँसे, और फिर मेरी ओर देखा प्रतिक्रिया के लिए...

कुछ सेकंड का एक awkward pause आया...दोनों मेरी ओर देखते रहे, उन्हें लगा कि मैं कुछ कहना चाहता हूँ...मैं भी कुछ क्षणों तक उन दोनों को देखता रहा. मन में इतनी सारी बातें गुजरीं कि कुछ भी नहीं कह पाया. मैं अपनी बात को एक छिछली बहस में बदलते देखने को तैयार नहीं था.

पाकिस्तान के जश्न-ए-आज़ादी की मुबारकबाद मैं दूँ? क्यों भला? पाकिस्तान के होने का हमारे लिए क्या मतलब है, कभी सोचा है? पाकिस्तान के होने का मतलब है हमारी मातृभूमि का विभाजन...करोड़ों हिंदुओं ,सिख का अपने पितरों की भूमि से विस्थापन...लाखों का कत्ल, हज़ारों नहीं शायद लाखों माताओं बहनों का बलात्कार...ट्रेनों में कटी लाशें, जिसके डब्बों पर लिखा था आज़ादी का तोहफा...बर्छियों पर बिंधे बच्चे...इसका जश्न मनाऊँ?

चलो, मरने वाले मर गए...उनके लिए रोने वाले भी मर गए...मान लिया, ये घाव भर जाने दें...

पर पाकिस्तान के बनने से जो मरे वो सिर्फ कुछ इंसानी ज़िन्दगियाँ ही नहीं थीं. पाकिस्तान के पैदा होने से जो सबसे बड़ी मौत हुई वह एक सभ्यता की मौत थी. जहाँ दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता पैदा हुई थी, वह उस जगह से उजड़ गई...जिस सिंधु नदी के किनारे हमारे वेद लिखे गए, वह सिंध पराया हो गया. बप्पा रावल की रावलपिंडी अपनी नहीं रही, महाराजा रणजीत सिंह का, भगत सिंह का लाहौर अपना नहीं रहा...

विभाजन का दर्द आपका अपना दर्द क्यों नहीं है? 10 लाख हिंदुओं, सिख का खून बहा, वह आपका अपना खून क्यों नहीं है? इंसान मरते हैं, दूसरे पैदा हो जाते हैं...पर जो असली ट्रेजेडी है, वह है एक सभ्यता का मरना. अब फिर सिन्धु तट पर कभी वेद ऋचाएं गूंजेंगी क्या? फिर किसी तक्षशिला में कोई चाणक्य खड़ा होगा क्या?

हम पाकिस्तान की जश्न-ए-आज़ादी में शरीक हों? अमन की आशा के गीत गाये? क्यों? किसी नौशाद, किसी साज़िद, किसी यास्मीन और फारूक की दोस्ती मुझे बहुत प्यारी हो सकती है...पर इतनी नहीं कि इसकी यह कीमत चुकाऊँ...इस दर्द को भूल जाऊँ. विभाजन का दर्द मेरा अपना है...मैं हर पंद्रह अगस्त को इसे जिंदा रखने की शपथ लेता हूँ...अखंड भारत के स्वप्न के गीत गाता हूँ...अमन की आशा के नहीं...

सन 1680 में औरंगजेब को समझ आ चुका था कि शिवाजी को रोकने उसे स्वयं ही दक्खन जाना होगा। पांच लाख की विशाल फौज लेकर वह दक्ख...
12/08/2023

सन 1680 में औरंगजेब को समझ आ चुका था कि शिवाजी को रोकने उसे स्वयं ही दक्खन जाना होगा। पांच लाख की विशाल फौज लेकर वह दक्खन की ओर निकला और उसके वहां पहुंचने के पहले ही छत्रपति की मृत्यु हो गई।

औरंगजेब को लगा अब तो मराठों को पराजित करना अत्यंत आसान होगा।

परन्तु छत्रपति सम्भाजी ने 1689 तक उसे जीतने नहीं दिया। अपने सगे साले की दगाबाजी की वजह से छत्रपति सम्भाजी पकड़े गए और औरंगजेब ने अत्यन्त क्रूर और वीभत्स तरीके से उनकी हत्या करवा दी।

अब छत्रपति बने राजाराम मात्र 20 वर्ष के थे और औरंगजेब के अनुभव के सामने कच्चे थे। एकबार फिर उसे दक्खन अपनी मुट्ठी में नज़र आने लगा था।

यहीं से इतिहास यह बताता है कि छत्रपति शिवाजी ने किस आक्रामक संस्कृति की नींव डाली थी। हताश हो कर हथियार डालने के बजाय संताजी घोरपड़े और धनाजी जाधव के नेतृत्व में राजाराम को छत्रपति बना कर संघर्ष जारी रहा।

सन 1700 में छत्रपति राजाराम भी मारे गए।

अब उनके दो साल के पुत्र को छत्रपति मान कर उनकी विधवा ताराबाई, जो कि छत्रपति शिवाजी के सेनापति हंबीराव मोहिते की बेटी थी, आगे आई और प्रखर संघर्ष जारी रहा। समय पड़ने पर ताराबाई स्वयं भी युद्ध के मैदान में उतरी।

संताजी और धनाजी ने मुगल सम्राट की नींद हराम कर दी।
कभी सेना के पिछले हिस्से पर, कभी उनकी रसद पर तो कभी उनके साथ चलने वाले तोपखाने के गोला बारूद पर हमले कर मराठों ने मुगलों को बेजार कर दिया। सब लोग इस खौफ में ही रहते थे कि कब मराठे किस दिशा से आएंगे और कितना नुकसान कर जायेंगे।

एक बार संताजी और उनके दो हजार सैनिकों ने सर्जिकल स्ट्राइक की तर्ज पर रात में औरंगजेब की छावनी पर हमला बोल दिया और औरंगजेब के निजी तंबू की रस्सियां काट दी। तंबू के अंदर के सभी लोग मारे गए। परन्तु संयोग से उस रात औरंगजेब अपने तंबू में नहीं था इसलिए बच गया।

27 साल मुगलों का सम्राट, महाराष्ट्र के जंगलों में छावनियां लगा कर भटकता रहा। रोज यह भय लेकर सोना पड़ता था कि मराठों का आक्रमण न हो जाए।

27 साल कुछ हजार मराठे लाखों मुगलों से लोहा भी ले रहे थे और उन्हें नाकों चने भी चबवा रहे थे। 27 वर्ष सम्राट अपनी राजधानी से दूर था। लाखों रुपए सेना के इस अभियान पर खर्च हो रहे थे। मुगलिया राज दिवालिया हो रहा था। अन्तत: सन 1707 में औरंगजेब की मृत्यु हो गई। 27 वर्षों के सतत युद्ध और संघर्ष के बाद भी मराठों ने घुटने नहीं टेके। छत्रपति के दिए लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हजारों मराठे कट गए।

यह इतिहास भी कहां पढ़ाया जाता है?

कितने लोग है जिन्हें ताराबाई, संताजी और धनाजी के नाम भी मालूम है, पराक्रम तो छोड़ ही दीजिए?

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