23/06/2022
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वर्ष 2004 की बात है। एक शाम अपने एन. जी. ओ.(AIM) ऑफिस के बन्द होने पर साथ के सभी कर्मचारीयों के साथ बाहर निकल रहा था.. सभी लोग उस दिन के काम की सामान्य चर्चा करते आपस मे बात करते हुए ऑफिस की सीढ़ियां उतर रहे थे .......लेकिन उस दिन मैं बहुत उदास था.....कारण था कि मेरा ट्रांसफर लखनऊ से लखीमपुर के लिए हो गया था।
मेरी उदासी के मूल में मेरा लखीमपुर ट्रांसफर नही था बल्कि दो-दो जगह के कमरे और खर्चों के व्ययभार का दबाव था,चुकी छोटे भाई नितेश (जो अब इस दुनिया मे नही रहे )वो भीे मेंरे साथ रहते थे और वहीं रहकर अभिनय की बारीकियों को थिएटर के माध्यम से सिख रहे थे।
अब ऐसे में उनको लखनऊ रहना पड़ता और काम के लिए मुझे लखीमपुर...उस समय जो तनख्वाह मिलती थी वो इतनी पर्याप्त नही थी कि दोनों जगहों का व्ययभार उठाया जा सके और अपने साथ नितेश को लखीमपुर ले जाने का कोई मतलब नही था....क्योंकि उससे उनका कोई उद्देश्य पूरा नही होता। इन्ही सब बातों के तनाव-दबाव में मैं था, मन मस्तिष्क में उधेड़बुन चल रही थी, तब तक "नसरीन फातिमा रिजवी" जो उस समय cry की प्रोजेक्ट हेड थी उनकी नज़र मेरे ऊपर पड़ी और उन्होंने मुझसे पूछ लिया .....क्या बात है रजनीश सब ठीक तो है बड़े उदास हो आज..?
बहुत खुश तो मैं कभी नही रहता.. लेकिन सामान्य जरूर रहता हूँ!
मेरी तकलीफ शायद किसी एक भावुक सवाल का इंतज़ार कर रही थी...उनका पूछना और मेरी भरी आंखों से जवाब दोनों एक साथ होने लगा...
थोड़ी देर तक सुनने के बाद उन्होंने मुझसे कुछ सवाल किए......! ये जानने के बाद कि अगले हप्ते से मुझे लखीमपुर जॉइन करना है और उसमे मेरी ये अड़चने हैं।
आगे इसी क्षेत्र में कैरियर बनाने का इरादा है..? मैंने कहा कि दीदी कोई प्रबंधकीय (मैनेजमेंट) या तकनीकी (टेक्निकल) शिक्षा तो ली नही है, घर से न सहयोग सम्भव है,न संसाधन और न ही किसी बड़ी सफलता के लिए मेरे पास समय है। ऐसे में बहुत विकल्प भी नही है मेरे पास ! चुकी लिखने पढ़ने की आदत शुरू से रही है तो ..हमेशा से लगता था कि इसी क्षेत्र में कुछ कर लिया जाएगा । एक सवाल के इतने सारे जवाब सुनकर थोड़ी देर के लिए खामोश होने के बाद उन्होंने मुझसे बोला कि कल बात करेंगे इस विषय पर...
उस दिन पूरी रात करवट बदलते हुए बीती..... मन मे अनेकों सवाल और किसी एक का भी कोई जवाब नही ....उस समय भी गांव से लेकर लखनऊ तक अनगिनत समस्याओं से घिरा था उन्ही सबको मैनेज नही कर पा रहा था तब तक एक और अनचाही समस्या ने घेर लिया । चुकी असमय जिम्मेदारियों ने समय से पहले परिपक्व बना दिया था ...बावजूद कुछ चीजों का हर हाल में समाधान जरूरी था ।इन सारी समस्याओं को एक तरफ करके सिर्फ इन दोनों जगह के खर्चों को कैसे मैनेज करूँगा,क्या ऐसा और किया जा सकता है या नितेश को ही लखीमपुर ले जाता हूँ तो क्या फायदा नुकसान हो सकता है..... इन्ही सब उधेड़बुन में रात गुजर गई ! अगले दिन आफिस गए तो नसरीन जी ने मुझे अपने पास बुलाया, बैठाया और पूछा कि ठीक हो..? कूछ बात कर सकते है हम लोग..?
मैंने उत्सुकता वश बोला कि जी दीदी...!
चुकी मुझे लग रहा था कि ये संजय भइया (जो उस ट्रस्ट के डायरेक्टर थे)से बात करेंगी और हो सकता है कि मेरा स्थानांतरण निरस्त हो जाये इसलिए कल ही कुछ बताने की बजाय आज के लिए इन्होंने मुझको समय दिया था।
नसरीन जी ने मुझसे पूछा कि रजनीश लखनऊ विश्वविद्यालय में एक एम. एस .डब्लू.का कोर्स चलता है जानते हो ..? बहुत अधिक तो नही जानता था उसके बारे में लेकिन बातचीत और सामान्य चर्चा में इस एक क्षेत्र के विशेसज्ञ कोर्स के रूप में उसकी मान्यता और उपयोगिता के बारे में जानकारी हो चुकी थी।
उनके सवालों का जानकारी भर का जवाब मैंने दिया..
उसके बाद उन्होंने मुझे इस कोर्स को करने की योग्यता, समय अवधि और सबसे महत्वपूर्ण उसका खर्चा बताया....! चुकी उस समय की जो मेरी समझ थी उसके हिसाब से मैं उनके इस तरह के सवाल और जवाब से संतुष्ट तो नही ही था बल्कि परेशान हो रहा था (जैसे कि आज कल के बच्चे....हालाकिं हम लोगों के पास बात को छोड़कर जाने का विकल्प नही होता था आज कल के बच्चों के साथ ऐसा नही है) क्योंकि उनके इन सवालों और इस तरह के जवाबों से मेरी समस्या समाधान की कोई बात समझ मे नही आ रही थी।
उनकी बात बिना मेरी समस्या समाधान के खत्म हो गई।
मैंने निराशा में आकर रिजाइन कर दिया और अन्यत्र जॉब की तलाश करने लगा।
करते करते पुनः एक ngo जो नेत्रहीनों के लिए काम कर रही थी उसमे मुझे एक बड़ी जिम्मेदारी के साथ अवसर मिल गया।
वहां पर सब कुछ मनोनुकूल होने लगा।
अंततः एक दिन उस ngo के माध्यम से एक वर्क शॉप रखी गई जिसमें विश्वविद्यालय के एम.एस.डब्लू.के सभी छात्र छात्राएं भी शामिल हुई जो द्वितीय वर्ष में थी,और उसी में मुझे प्रजेंटेशन देना पड़ा।
उस कार्यक्रम (कार्यशाला) के बाद छात्र छात्राओं समेत उपस्थित जनों के रेस्पॉन्स,एम एस डब्लू कर रहे छात्राओं द्वारा मेरे साथ बैठ कर इस क्षेत्र में किये गए कार्यों और अनुभवों को साझा करने के लिए अनुरोध और साथ ही उस कार्यक्रम में आये कुछ खबरनवीसों द्वारा उनकी पत्र पत्रिकाओं में लिखने-पढ़ने के लिए मिले प्रस्ताव से होने लगा था। हालाकिं aim छोड़ने के बाद स्वतंत्र रूप से कुछ पत्र पत्रिकाओं के लिए लेखन और ग़ैर सरकारी संगठनों की रिपोर्ट से ही आजीविका चल रही थी और उस दौर में आने वाली लगभग सभी पत्रिकाओं में मेरे द्वारा लिखे गए आर्टिकल छपते भी रहे थे।
बलिया से लखनऊ जाने के बाद वर्तमान में मनरेगा के लिए मिली ऑपर्चुनिटी के पूरा होने के बाद मेरे द्वारा किये जाने वाले कामों में अंतर या एक बड़ा बदलाव उस कार्यक्रम के बाद कुछ ज्यादा महसूस हुआ। बलिया से जाकर बेहद विपरित परिस्थितियों में 20-20 km की पैदल और अनचाही यात्रा और भूखी यात्रा क्योंकि ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में जाने के लिए उस समय साधन नही होते थे,चलते चलते कोई साइकिल वाला मिल गया तो उससे अनुनय करके इस शर्त पर की मैं चला कर ले चलूंगा ...गंतव्य तक पहुंचना होता था और ऐसा करके स्वयं में बड़ी संतुष्टि हो जाती थी कि चलो आज पैदल नही चलना पड़ा। घने जंगलों बुंदेलखंड की पहाड़ियों पत्थरों के बीच से गुजरते हुए क्या कुछ अनुभव किया उसकी आज की पीढ़ी कल्पना भी नही कर पायेगी... किंतु इन प्रयासों और संघर्षों ने कितना बड़ा और उपयोगी अंतर पैदा कर दिया है.. इसका ठीक से एहसास अब होने लगा था।....और साथ साथ नसरीन जी द्वारा मेरे परेशान रहने के दौरान कही गई एक-एक बात याद आने लगी....उन्होंने उस दिन मुझसे कहा था कि रजनीश उस कोर्स को करने की योग्यता, समय और खर्चा सब जान गए हो उसके विपरीत तुम क्या कर रहे हो जानते हो..?तुम वही चीज पैसा लेकर सिख रहे हो जिसके लिए तीन साल का समय, और 2 लाख रुपया खर्च करना पड़ता है। उसके बाद भी वो अनुभव उनको कभी हासिल नही हो पायेगा जो तुमने ले लिया और एक दिन ऐसा आएगा कि इस समय को किसी तरह काट लोगे तो यही लोग तुम्हारे साथ बैठना तुम्हारे अनुभव साझा करना चाहेंगे। चुकी उस समय मेरी समस्या का भौतिक समाधान चाहिए था इसलिए उनकी बात मेरे समझ मे नही आई लेकिन आज उनके द्वारा कही गई एक -एक बात मेरे जेहन में सुरक्षित है और व्यवहार में है।आज भी किसी फोरम पर अपनी बात रखने के क्रम में ये अनुभव जब एक बड़ा अंतर पैदा करता तब समझ मे आता है कि अनजाने अनचाहे तौर पर किया गया वो श्रम और संघर्स आज किस कदर जीवन ,व्यवहार और व्यक्तित्व पर प्रभावी है और यकीनन जीवन मे कुछ भी हासिल होगा ..उस पर बहुत दावे के साथ कह सकता हूँ कि बिते समय के इन संघर्षों से प्राप्त व्यवहारिक अनुभवों के सिवाय कुछ भी ऐसा नही है जो उन उपलब्धियों पर अपना दावा कर सके। इसलिए युवा पीढ़ी को बस इतना ही कहूंगा कि हर एक वर्तमान को भविष्य की योजना का हिस्सा मत बनाइये ..हो सके तो कुछ को जीवन की सीख के रूप में लीजिये और उसके अनुभवों को संचित करिये और उसके उपयोग से भविष्य निर्माण की तैयारी करिये।
अगर ऐसे कर पाएं तो कोई कारण नही की घर परिवार के साथ साथ समाज के लिए भी आप बेहद उपयोगी ही नही बल्कि एक उपलब्धि भी बन सकते हैं।
अग्निपथ योजना से भी आप लोग इसको जोड़कर देख सकते हैं।