10/06/2021
क्या ब्राह्मण ग्रन्थ इत्यादि शाखाएं स्वयं वेद हैं ?
उत्तर - ब्राह्मण ग्रन्थ वेद नही हो सकते, क्यूंकि इनका नाम इतिहास, पुराण ,कल्प, गाथा, और नाराशंसी है| लौकिक इतिहास होने से ब्राह्मण ग्रन्थ वेद नही हो सकते | जैसे ब्राह्मण ग्रन्थों में मनुष्यों के नाम उल्लेखित हैं और थोडा बहोत लौकिक इतिहास भी है , वैसे मन्त्र भाग में नही है| मन्त्र भाग वेद है , ब्राह्मण भाग वेद नही है |किसी ऋषि ने ब्राह्मण ग्रन्थों को वेद नही कहा |
यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन् ।
सामानि यस्य लोमान्यथर्वांगिरसो मुखं स्कम्भन्तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ।।
(अथर्ववेद 10/7/20)
भावार्थ - ईश्वर ने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद को ऋषियों को प्रदान किया और अथर्ववेद को अंगीरा ऋषि को प्रदान किया|
जब वेद ईश्वर का ज्ञान हैं जिसमे ज्ञान, कर्म , उपासना और विज्ञान विषय हैं , उसमे मानवीय लौकिक इतिहास कहाँ से प्राप्त हो सकेगा क्युकी इतहास तब होता है जब वो घटना हो जाती है , जबकि ईश्वर ने आदि सृष्टि में ऋषियों को वेद दिया क्युकी बिना ज्ञान के मनुष्य कुछ भी व्यवहार इत्यादि ज्ञान नही सीख सकता| वहीँ ब्राह्मण ग्रन्थों को रचने वाले ऋषि थे एवं उनमे जो ब्राह्मण भाग है उसमे वेदों का व्याख्या एवं लौकिक इतिहास है |
छन्दोब्राह्मणानि च तद्विषयाणि ||(अष्टाध्यायी 4/2/66)
महर्षि पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी में वेद और ब्राह्मण ग्रन्थो को अलग अलग कहके बताया गया है | इससे स्पष्ट हो जाता है की वेद मन्त्रभाग और ब्राह्मण व्याख्या भाग है |
ईश्वर सगुण है या निर्गुण?
उत्तर - ईश्वर सगुण और निर्गुण दोनों है |
सगुण का अर्थ होता है जिसमे वह गुण हो , और निर्गुण का अर्थ होता है जिसमे वह गुण न हो | जैसे ईश्वर में सर्वज्ञता का गुण है और अल्पज्ञता का गुण नही है | संसार का हर तत्त्व सगुण और निर्गुण दोनों होता है |
स पर्य॑गाच्छु॒क्रम॑का॒यम॑व्र॒णम॑स्नावि॒रꣳ शु॒द्धमपा॑पविद्धम्। क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भूर्या॑थातथ्य॒तोऽर्था॒न् व्य᳖दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः ॥ (यजुर्वेद 40/8)
पदार्थ- जो ब्रह्म (शुक्रम्) शीघ्रकारी सर्वशक्तिमान् (अकायम्) स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीररहित (अव्रणम्) छिद्ररहित और नहीं छेद करने योग्य (अस्नाविरम्) नाड़ी आदि के साथ सम्बन्धरूप बन्धन से रहित (शुद्धम्) अविद्यादि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र और (अपापविद्धम्) जो पापयुक्त, पापकारी और पाप में प्रीति करनेवाला कभी नहीं होता (परि, अगात्) सब ओर से व्याप्त जो (कविः) सर्वत्र (मनीषी) सब जीवों के मनों की वृत्तियों को जाननेवाला (परिभूः) दुष्ट पापियों का तिरस्कार करनेवाला और (स्वयम्भूः) अनादि स्वरूप जिसकी संयोग से उत्पत्ति, वियोग से विनाश, माता, पिता, गर्भवास, जन्म, वृद्धि और मरण नहीं होते, वह परमात्मा (शाश्वतीभ्यः) सनातन अनादिस्वरूप अपने-अपने स्वरूप से उत्पत्ति और विनाशरहित (समाभ्यः) प्रजाओं के लिये (याथातथ्यतः) यथार्थ भाव से (अर्थान्) वेद द्वारा सब पदार्थों को (व्यदधात्) विशेष कर बनाता है, (सः) वही परमेश्वर तुम लोगों को उपासना करने के योग्य है ॥
अकायम का अर्थ होता है शरीर रहित |
अव्रणम् का अर्थ होता है छिद्ररहित|
अस्नाविरम् का अर्थ है नाड़ी रहित |
प्रश्न यह है की जब अकायम कहके शरीर रहित कह दिया गया तो अलग से छिद्ररहित और नाडीरहित कहने का क्या तात्पर्य है ?
इसका उत्तर यह है की शरीर तीन प्रकार के होते हैं - सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर और स्थूल शरीर |
अकाय, अव्रण और अस्नावि का अर्थ आदि शंकराचार्य क्या करते है वह देखेंगे | उपरोक्त यजुर्वेद मन्त्र ईशोपनिषद् के मन्त्र 8 पर भी है | यह प्रमाण गीताप्रेस से छपा ईशोपनिषद् शांकरभाष्य का है |
शंकराचार्य यहां लिखते हैं:-
स यथोक्त आत्मा पर्यगात्परि समन्तादगाद्गतवानाकाशवद्व्यापी इत्यर्थः।
वह पूर्वोक्त आत्मा(यानी परमात्मा)सब ओर गया हुआ है अर्थात् आकाश के समान सर्वव्यापक है।
अकायमशरीरे लिंगशरीरवर्जित इत्यर्थः। अवर्ण अक्षतम्। अस्नाविरं स्नावाः शिरा यस्मिन्न विद्यन्त इत्यस्नाविरम्। अव्रणमस्नाविरमित्याभ्यां स्थूलशरीरप्रतिषेधः। शुद्धं निर्मलमविद्यामलरहितमिति कारणशरीरप्रतिषेधतः।
अकाय- अशरीरी अर्थात् लिंग शरीर से रहित है; अव्रण अर्थात अक्षत है; अस्नाविर है, जिसमें स्नायु अर्थात् शिरायें न हों उसे अस्नाविर कहते हैं। अवर्ण और अस्नाविर इन दो विशेषणों से स्थूल शरीर का प्रतिषेध किया गया है तथा शुद्ध, निर्मल यानी अविद्यारूप मल से रहित है- इससे कारण शरीर का प्रतिषेध किया गया है।"
लीजिये, शंकराचार्य ने स्पष्ट रूप से कहा है कि ईश्वर स्थूल,सूक्ष्म, कारण हर तरह के शरीर से मुक्त व निराकार है। तब साकार कैसे कहा जा सकता है ?
प्र॒जाप॑तिश्च॒रति॒ गर्भे॑ऽअ॒न्तरजा॑यमानो बहु॒धा वि जा॑यते।
तस्य॒ योनिं॒ परि॑ पश्यन्ति॒ धीरा॒स्तस्मि॑न् ह तस्थु॒र्भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥ (यजुर्वेद 31/19)
पदार्थ - हे मनुष्यो ! जो (अजायमानः) अपने स्वरूप से उत्पन्न नहीं होनेवाला (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक जगदीश्वर (गर्भे) गर्भस्थ जीवात्मा और (अन्तः) सबके हृदय में (चरति) विचरता है और (बहुधा) बहुत प्रकारों से (वि, जायते) विशेषकर प्रकट होता (तस्य) उस प्रजापति के जिस (योनिम्) स्वरूप को (धीराः) ध्यानशील विद्वान् जन (परि, पश्यन्ति) सब ओर से देखते हैं (तस्मिन्) उसमें (ह) प्रसिद्ध (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक-लोकान्तर (तस्थुः) स्थित हैं ॥
इस मन्त्र में यही बताया गया है की वह ईश्वर उत्पन्न होने वाला नही है , गर्भ में जीवात्मा में भी वो है और सबके ह्रदय में भी वो है |
इस मन्त्र में "बहुधा वि, जायते" का यह अर्थ है की वह बहुत प्रकारों से विशेषकर प्रसिद्ध होता है |
प्र तद्विष्णु॑: स्तवते वी॒र्ये॑ण मृ॒गो न भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः।
यस्यो॒रुषु॑ त्रि॒षु वि॒क्रम॑णेष्वधिक्षि॒यन्ति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥( यजुर्वेद 1/154/2)
पदार्थ - हे मनुष्यो ! (यस्य) जिस जगदीश्वर के निर्माण किये हुए (उरुषु) विस्तीर्ण (त्रिषु) जन्म, नाम और स्थान इन तीन (विक्रमणेषु) विविध प्रकार के सृष्टि-क्रमों में (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोक-लोकान्तर (अधिक्षियन्ति) आधाररूप से निवास करते हैं (तत्) वह (विष्णुः) सर्वव्यापी परमात्मा अपने (वीर्येण) पराक्रम से (कुचरः) कुटिलगामी अर्थात् ऊँचे-नीचे नाना प्रकार विषम स्थलों में चलने और (गिरिष्ठाः) पर्वत कन्दराओ में स्थिर होनेवाले (मृगः) हरिण के (न) समान (भीमः) भयङ्कर है और समस्त लोक-लोकान्तरों को (प्रस्तवते) प्रशंसित करता है ॥
यहाँ कही ईश्वर का अवतार होना नही लिखा | वेद में किसी भी तरह सिद्ध नही हो पाया पोप पंडितों से की ईश्वर साकार है |
उ॒त नोऽहि॑र्बु॒ध्न्यः᳖ शृणोत्व॒जऽएक॑पात् पृथि॒वी स॑मु॒द्रः।
विश्वे॑ दे॒वाऽऋ॑ता॒वृधो॑ हुवा॒नाः स्तु॒ता मन्त्राः॑ कविश॒स्ताऽअ॑वन्तु ॥(यजुर्वेद 34/53)
इस मन्त्र का देवता "अज एकपात" नही बल्कि " लिङ्गोक्ता देवता" है |
और वेदों मन्त्रों पे लिखे देवताओं का अर्थ क्या है वह निरुक्त बतलाता है-
अथातो दैवतम् । तद्यानि नामानि प्राधान्यस्तुतीनां देवतानां तद्दैवतमित्याचक्षते । (निरुक्त 7/1)
अर्थात - दैवत उनको कहते हैं की जिनके गुणों का कथन किया जाए, अर्थात जो जो संज्ञा जिन जिन मन्त्रों में जिस जिस अर्थ की होती है , उन उन मन्त्रों का नाम वही देवता है |
शास्त्रों ने वेदों को प्रमाण सबसे पहले माना है, इसलिए गीता से पहले प्रमाण वेदों का माना जायेगा |
अणोरणीयान् महतो महीयानात्मा (श्वेताश्वतर उपनिषद् 3/20)
अर्थात - ईश्वर अणु से भी सूक्ष्म और महान से भी महान है |
तात्पर्य ये है की ईश्वर अतिसूक्ष्म होते हुवे भी सर्वव्यापक है| इस श्लोक से ये बिलकुल सिद्ध नही होता की ईश्वर का स्वयं से भी विपरीत स्वाभाव है |