10/11/2022
सब पूजा पाठ ख़तम हो गया.. दोस्तों के साथ बिताए हुए पल..इन सभी चीजों को जेहन में समेटकर वापस काम पर दूसरे प्रदेश लौट आया हूं...सुबह 8 बजे से रात के 8 बजे का ड्यूटी..कभी कभी नाइट शिफ्ट..कभी मैनेजर की डांट तो कभी ठिकेदार की धमकी..कभी कभी मन करता है काम छोड़ दूं लेकिन फिर करूंगा भी क्या??दूसरे फैक्ट्री में भी यही कहानी होगी..मां बाप ने बड़ी मुश्किल से इंटर तक पढ़ाया लिखाया फिर कोई भी काम कर मैने अपना खर्चा निकालते हुए डिफेंस के तरफ धियान लगाया साथ ही जेनरल कंपटीशन की तैयारी की।लेकिन जेनरल कंपीटीशन सिर्फ नाम का ही जेनरल है कंपटीशन तो भगवान को ढूंढने के बराबर है।डिफेंस मे दोड़ने के लिए कभी बरौनी तो गया तो पूर्णिया भी गए लेकिन परिणाम के नाम पर सिर्फ घरवालों के ताने,गांव के चार लोगों का उपहास बनकर ही रह गया।घर के खर्चे प्रेसर...अपने भविष्य का प्रेशर..इन सब टेंशनबाजी में कहां कुछ हो पता है...एक उम्र तक कुछ ना हो पाए तो गांव भी काटने को दौड़ता है।ऊपर से गांव में रहकर कुछ नही करने वाले को गांव के लोग लफूआ अलग कहते हैं।हमसे पहले जो पढ़ाई छोड़ चुके थे उसमे से कोई दिल्ली,कोई मुंबई,कोई बंगलोर में रहकर अच्छा पैसा कमा रहा था। दीपावली छठ या अन्य मौके पर जब वह घर आता था तो अपने परिवार के लोगों के लिए अच्छे-अच्छे कपड़े,मिठाइयां इत्यादि लाता था।फैशन की तो बात ही अलग है नए नए जींस,नए नए जूते,नए-नए टीशर्ट।और इन चीजों को देखकर जलन के साथ-साथ खुद को भी कोसते थे कि हमसे कम पढ़ा लिखा अच्छा पैसा कमा रहा है एक हम हैं जो इतनी मेहनत के बावजूद भी हमारी स्थिति एकदम बेकार है।सरकारी व्यवस्था में कुछ नहीं मिलने के बाद मैने तय कर लिया कि अब प्राइवेट जॉब ही सहारा है।लेकिन प्राइवेट जॉब भी कहां??अपने घर से 38 किलोमीटर दूर वोडाफोन मै 7500 की सैलरी.. भाड़ा जेब खर्च काट कर मुश्किल से 2500 रुपए ही बचते थे।बाहर रहने वाले लोग जब गांव आते थे तो सुना कर अलग चले जाते थे.. भाई मैं ये कर रहा हूं...वो कर रहा हूं..15000 सैलरी है..ओवरटाइम अलग..8 लोग हमारे नीचे काम करता है...बिंदास रहता हूं महीने का 12000/– बचा लेता हूं.... तू मेरे साथ चल । सुन सुन कर पक गया था फिर वही जलन.. कि जो दसवीं पास इतना कमा सकता है तो मैं तो ग्रेजुएशन किया हुआ हूं कुछ ना कुछ तो अच्छा कर ही लूंगा।मैने उसी लड़के से सिफारिश की और ओड़िशा आ गया..कुछ दिन उसके साथ उसके रूम पर रहा इधर उधर हाथ पैर–मारा...लेकिन बड़े बड़े शहरों में फ्रेशर लोगों को ऑफिशियल काम मिलना बहुत मुश्किल होता है।थक हार कर रूम से 5 किलोमीटर दूर एक फैक्ट्री में काम मिला..पहले वहां डाई चलाने में ऑपरेटर की हेल्प करता था अब किसी तरह जुगार बना कर सुपरवाइजर बन गया हूं..दिन भर लेबर कु से काम करे यही देखता रहता हुँ और यह सोचता हूं कि जब यही काम करना था तो अपने लाइफ के कई साल पढ़ाई,नौकरी में क्यों बर्बाद कर दिया...?
एक बिहारी का दर्द