01/10/2022
आज नेपाल से प्रकाशित 'गोरखापत्र ' में हमार आलेख -
'भोजपुरी दलित साहित्य के अवधारणा' छपल बा।
दलित साहित्य का ह?
दलित-साहित्य ऊ साहित्य ह जवन सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, क्षेत्र में पिछडल, उत्पीड़ित, अपमानित, शोषित लोग क पीड़ा के व्यक्त करेला। दलित-साहित्य समाज में बनल जातीय व्यवस्था से उपजल भेदभाव के अनुभव का साहित्य ह। दलित-साहित्य में आक्रोश भा विद्रोह की भावना प्रमुखता रहेला बाकिर खाली आक्रोश या विद्रोह दलित-साहित्य ह अइसन बात नईखे।
दलित-साहित्य वर्णवाद, जातिवाद आ छुआछूत के आधार पर, समाज के एगो बड़का हिस्सा क अछूत भा अयोग्य माने जाने के विरोध करेला आ ओकरा खिलाफ संघर्ष करेला।
आजु दलित साहित्य के लेखन बहुत भासा में हो रहल बा जेकरा माध्यम से ओह भासा- समाज के दलितन क पीड़ा, तकलीफ, शोषण, उत्पीड़न, उनका संगे भइल अमानवीय बेवहार, अत्याचार, व्याभिचार क विरोध, वेदना और संघर्ष के भासा में अभिव्यक्त कइल जा रहल बा।
भोजपुरिया समाज में सदियन से चलल आ रहल जाति व्यवस्था, अछूतपन आदि की घृणित प्रवृति आजो मौजूद बा। भारत में 50 हज़ार वर्ग मील में फैलल भोजपुरी भासी क्षेत्र में आजो अछूत समाज, दलित समाज, पिछड़ी जाति के समाज पूरा तरह शिक्षित, सम्पन्न, स्वावलंबी आ संगठित नइखे बाकिर दलित जातियन के बड़का समूह में प्रतिरोध क साहित्य बिखरल बा है जवन जाति व्यवस्था भा वर्ण व्यवस्था पर चोट कर के मानवावादी समतामुलक समाज बनावल चाहत बा।
भोजपुरी दलित साहित्य के आधार
भोजपुरी साहित्य में दलित चेतना के मुखर स्वर कबीर आ रैदास (रविदास) के काल से मुखरित भइल। कहे के ना होई कि कबीर आ रैदास दुनू महापुरुष की जन्मस्थली भोजपुरी भाषी क्षेत्र ह आ संगे दलित चिन्तन के उद्गम बिंदु भगवान बुद्ध के विचार ह। उनकरो जन्मस्थली भोजपुरी भासी क्षेत्र ह। मूलतः बुद्ध के दर्शन दलित साहित्य के दार्शनिक आधार ह।
दलित सहित क विस्तार
दलित साहित्य भासा के नाम पर प्रचारित होखे वाला साहित्य ना ह। जे तरह मराठी, हिन्दी, गुजराती, पंजाबी, बंगला, तेलुगु, तमिल साहित्य बा, ओहि तरह के दलित साहित्य नइखे। हिन्दी साहित्य, बंगाली साहित्य, मराठी साहित्य, गुजराती साहित्य भा भोजपुरी साहित्य आदि नाम प्रस्थापित साहित्य के नाम ह जवन अधिकतर सनातनवादी, परम्परावादी स्वरूप में बा। हिन्दी साहित्य, बंगाली साहित्य आदि नाम, विचारधारा पर आधारित ना ह आ ऊ परम्परा के वाहक विचारधारा के ढोवे वाला नाम ह, मतलब सनातनी परम्परावाहक नाम ह।
जब हिन्दी साहित्य क बात होखी, बांग्ला साहित्य के बात होखी तब संत साहित्य के महत्व के बतावल जाई। भगवद्गीता, रामायण, महाभारत क विचारधारा क समर्थन कइल जाला। जे प्रकार देववाद, भाग्यवाद, ईश्वरवाद, आत्मवाद, वर्णवाद, जातिवाद आ जातिभेद क समर्थन किया जाला ओहि लेखा कर्मवाद, भोगवाद के समर्थन कइल जाला।बाकिर दलित साहित्य के मतलब समाज में परिवर्तनवादी विचारन के व्यक्त करे वाला साहित्य।
दलित शब्द, भाषा के सूचित करे वाला शब्द ना ह बाकिर परिवर्तन सूचित करने वाला शब्द ह।
प्रो. विमल कीर्ति ' दलित साहित्य में बौद्ध धम्म दर्शन और चिन्तन का प्रभाव' में लिखलें बाड़न-"आज भारत की अधिकांश भाषाओं में दलित साहित्य लिखा जा रहा है। भाषा की से भी दलित साहित्य संस्कृत भाषा का समर्थन नहीं करता है। दलित साहित्य लोकभाषा को समर्थन करता है। इसलिए दलित साहित्य में बहुत बड़ी मात्रा में भाषा की सहजता और सरलता दिखायी देती है। उसी प्रकार दलित साहित्य में परम्परागत हिन्दू मिथकों का प्रयाम कथाओं का भी कोई स्थान नहीं है।"
भोजपुरी दलित साहित्य में, चेतना के उपलब्धि समता आ समानतावादी समाज की अपेक्षा बा जहाँ वर्णभेद ना होखे, जाति भेद ना होखे, छुआछूत ना होखे, कहे के मतलब सभ तरह के भेदभाव से अलग एक मानववादी समाज के स्थापना होखे।
कबीर के अमरदेसवा एगो अईसन भोजपुरी समाज बनावे क यूटोपिया बा जहवां ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आ शुद्र क भेद के खात्मा करे स्वर बा । कबीर साहेब कर्म व्यवस्था क 'अमरदेवसा' से बाहर करत बानी । ऊहां के कहनाम बा :
बाम्हन छत्री न सूद्र बैसवा, मुगल पठान न सैयद सेखवा।
आदि जोति नहिं गौर गनेसवा, ब्रह्मा बिस्नु महेस न सेसवा।।
"जहवाँ से आयो अमर वह देसवा। अमर रहे अमरदेसवा।"
आ अमरदेसवा क विराट परिकल्पना कारेवाला कवि कबीर, जेकर संदेश रहे:-
दास कबीर ले आए संदेसवा,
सार सबद गहि चलौ वहि देसवा।"
भोजपुरी दलित चेतना के स्वर मूलतः मानवतावादी बा आ संत शिरोमणि रविदास 14 वीं सदी में जनमल अइसन मानवतावादी आ कल्याणकारी राज्य के स्थापना क सपना देखले रहली । संत रैदास के पद के देखीं -
‘बेगमपुरा सहर को नाउ,दुखु-अंदोहु नहीं तिहि ठाउ’ में व्यक्त काल्पनिक समाजवाद की ‘बेगमपुरा’ अवधारणा की तुलना थामस मोर के उपन्यास ‘यूटोपिया’ से कइल जा सकेला।
रैदास के एह पद में कहल गइल बा कि आदर्श देश बेगमपुर ह जेकरा में ना कोई दुःख हो, ना रंगभेद हो, ना जाति भेद हो, ना वर्ण भेद हो, ऊँच नीच के भाव से मुक्त होई आ केहू गुलाम भा बेगार ना हो, ऊहे राज्य ह- बेगमपुरा, रविदास के अनुसार
बेगमपुरा वतन में हर प्राणी के सामाजिक समानता, राजनैतिक, सांस्कृतिक, मानवीय अधिकार होखी।
हीरा डोम के कविता अछूत के शिकायत महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पादकत्व में 'सरस्वती' पत्रिका में 1 सितम्बर 1914 (हीरक जयंती अंक) भाग -15, खंड 2 संख्या-3, पूर्ण संख्या 177 भाद्र पक्ष - 11, 1971, पृष्ठ 512-13 पर प्रकाशित भइल रहे। एकरा कवनो भारतीय साहित्य में प्रथम दलित कविता होखे के गौरव प्राप्त बा।
सुश्री डी पद्मारानी आपन शोध ' डिस्टिंटिव वायस ऑफ़ डिस्ट्रेस' में उल्लेखित कइले बाड़ी कि हीरा डोम के कविता अछूत के शिकायत पहिल दलित कविता ह। अछूत के शिकायत में हीरा डोम भोजपुरी समाज में व्याप्त जातिवाद के निकृष्टतम आ विद्रूप रूप के देखवले बाड़न।
उदाहरण देखि जा -
"हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी
हमनी के सहेबे से मिनती सुनाइबि।
हमनी के दुख भगवानओ ने देखता जे,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।"
समकालीन भोजपुरी दलित चेतना के कवियन में प्रो. शत्रुघ्न कुमार, अरुण भोजपुरी (रेदास के आठवें वंशज होने का दावा), रामपति रसिया, रामचन्द्र राही, शिव प्रसाद किरण, धनुषधारी कुशवाहा, डॉ सूबेदार सिंह अवनिज, पारस नाथ भ्रमर, विरोदय, डॉ गोरख प्रसाद मस्ताना, नवल किशोर निशांत, रामजीत राम, डॉ चंद्र भान राम, जय प्रकाश प्रकाश, डॉ सागर, हीरा प्रसाद ठाकुर, रामयश अविकल, डॉ. रामवचन यादव, डॉ मधुलिका बेन पटेल, संदीप पटेल, डॉ. संतोष पटेल के नाम लिहल जा सकेला।
- डॉ. संतोष पटेल, सहायक कुलसचिव, दिल्ली शिक्षक विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।