अखिल भारतीय भोजपुरी लेखक संघ, दिल्ली

अखिल भारतीय भोजपुरी लेखक संघ, दिल्ली dedicated to bhojpuri literature and language.

---जनता सब बकलोल बा---------                 1-लिखि पढ़ि के तूँ का करबा, जब मालिक मिलल भकोल बा।।आपन हो के का करबा जब, गोस...
12/10/2023

---जनता सब बकलोल बा---------
1-
लिखि पढ़ि के तूँ का करबा,
जब मालिक मिलल भकोल बा।।
आपन हो के का करबा जब,
गोसयाँ ओढ़ले खोल बा।

2-
का पुछबा साहब से अपने,
उत्तर गोल-मटोल बा।
सगरो माल विदेशिआ चाँपे,
गोरखा पीटत ढोल बा।।

3-
भले हि गोरख भारी हउअन्
अन्हरा हाथे तोल बा।
ऊपर ऊपर चन्नन मन्नन,
भीतर गोल मटोल बा।

4-
गोरख! गोरखपूर में देखा,
भाॅंति भाॅंति कऽ खोल बा।
ऊपर-ऊपर सोना-छापर
भीतर से सब गोल बा।।

5-
ताइ-तोपि के का करबा जब,
मालुम सगरो पोल बा।
साहब अइसन मत समझीं,
कि जनता सब बकलोल बा।।

- राम बरन पटेल, गोरखपुर

घूघहो सबीतिरी बहिनाकब ले ई हमनी के घूघ रहीबूझात बा हमनी केएह दुनिया घूघे सेदेखत देखत मरि जाईबबाकिर ई हमनी के घूघ ना उठी।...
11/06/2023

घूघ

हो सबीतिरी बहिना
कब ले ई हमनी के घूघ रही
बूझात बा हमनी के
एह दुनिया घूघे से
देखत देखत मरि जाईब
बाकिर ई हमनी के घूघ ना उठी।

सांचों हो, कलावती बहिना
हमनी के जीनगी सिरा गइल
किशोरवा के बाबू कहत रहलें महेश से
कुछो कहा हो महेश भाई
हमार मेहरारु सती हिय
आजू ले परिवार के मरजाद ना तुडलस
आपन घूँघ कबो ना उठवस
पड़ गईल भलही लाख विपत
सुन के उनकर हमरा पर विश्वास
एही चलते हमहूँ ना उठावेनी घूघ।

बाकिर हो बहिना हम का कहीं
चंदवा आपन बेटी के कहनी
हे रे चंदवा बियाह होखी त
तुहो तान लिहे घूघ
ऊ साफ मना कर देलस
कहि के ई बात
कि तोहनी के रहा सन घूघ में
हम ई कुल तितिम्मा ना करब
दुनिया कहवाँ चहूप गइल
बाकिर माई रे
तू ओही समय में जीयत बाड़े।

सांचों कलावती बहिन !
कहली साबितरी कि
हमहूं कहब आपन बेटी रंभवा के
मत तनिहें घूघ चंदवा लेखा
ना त दुनिया अलोता हो जाई घूघ से।

संतोष पटेल।

भोजपुरी कविता में प्रकृति की सुंदरता को जितनी शिद्दत से विषय बनाया जाता है उसी प्रकार से मौसम के विभिन्न रूप रंग और उसकी...
05/06/2023

भोजपुरी कविता में प्रकृति की सुंदरता को जितनी शिद्दत से विषय बनाया जाता है उसी प्रकार से मौसम के विभिन्न रूप रंग और उसकी विशेषता का वर्णन देखने लायक होता है परंतु आज जब प्रकृति, वातावरण और पर्यावरण की चिंता मनुष्य के चिंतन के केंद्र में तो भला साहित्य अपने को कैसे दूर रख सकता है।आदिवासी साहित्य में प्रकृति निखर कर आती है लेकिन पारस्थितिक परिवर्तन से वातावरण में होने वाले बदलाव को सहज शब्दों में लोगों को संप्रेषित कर सेंसटाइज किया जा रहा है। इसी कड़ी में राकेश कबीर की भोजपुरी की कुछ कविताएं देखी जा सकती हैं। आज विश्व पर्यावरण दिवस पर कुछ कविताएं पेश हैं:
1
बदरी आ दूब

बदरी से भरल आसमान देखि
बिहंस उठेला दूब
महीनन से जरि- जरि के पियर
पड़ल बा दूब
बिना शिकायत कईले
मनावेली जश्न हरियाली के।

दूब के चद्दर पर
चिरई करेली सन अठखेली
बेहद खुश बाड़ी सन कुल चिरई
दूब के हरिहर चदरा से।

बरस जा हो बदरी
बदरी भरल आसमान
बरखा वाला आंगन देखे खातिर
बाया तरस गइल बा।

सूखल मौसम के लपट से
झुलस गइल बा आंखि

अब सुन ल भाई बादल
भले कम बरसा

बाकिर कुछ दिन ई तंबू
लगा के बैठल रहा एने
जब भूलाइल भटकल
आईये गईल बाड़ा।

2

नदी शांत बीया

बरखा बीत गईल
उफना के बहत नदी
अब शांत हो चुकल बाड़ी सन।

छोटकी छोटकी नदी होके सके त
बादल के बेटी हई सन
भा प्यारी प्रेमिका हई सन
जे उनकर प्यार, दुलार आ चुम्मा से
इतरा, इठलात, बलखात
बहत रहेली कल कल करत।

आ बादल के आसमान से
गायब होखते
धीमा, थिर,
गतिहीन होखे लागेली सन
छोटकी छोटकी नदी।

दरख्त के झुंड त
खामोश हरियाली ओढ़े ठाड बा
बाकिर ओकनी के निगहबानी में
' बकुलाही'* ले रहल बिया जल समाधि
गवे गवे गवे।
* प्रतापगढ़ (यूपी) के एगो नदी का नाम।

3
सई*

नद बह रहत रहे
गवे गवे गवे
गाछ के पहरेदारी में
छुप छुप के

सूरज गवाह बन के
आसमान में खड़ा रहे
कि कम कम बारिश में
नदी ना चढ़ सकल रहे
मंदिर के सीढ़ी प

मंदिर के देवतन के
अबहूं यकीन रहे कि
सई सीढ़ी पर चढ़ में उनका
दर्शन जरूर दीही।

4

* नदी के नाम
1

नदी के पत्थर

नदी माई हिय आ
पथल ओकरा गोदी के ललनवा
नदी पत्थर के काटि छांटि क
बना देले भगवान ले।

नदी माई हिय
ऊ पथल के नहाई- धोआई
हिला डोला के राख देली
शिशु लेखा दुलररुवा

2.
सुखल नदी के
छाती से निकालकर
देखले बानी हम
जंग खाइल बेजान पथल

नदी माई हिय
ओकर ममता के छतरी में
खेललें छोट बचवा लेखा
ई कठोर पथल।

5
इहां तितली अब ना आवेली

केतना समय भइल बीतल
बसन्त के?
बगिया में फूल अभियो लागल बा
डालियन पर

भऊरा के कुछहूं पते नईखे
साइत भूला गइल बा पराग चूसल
ह, मच्छर जरूर भिनभिना रहल बाड़े सन
फूलन के ईद गिर्द
जइसे इहें बना दिहे अब
नया किसिम के मध।

रंग बिरंगा पांख वाली तितली
ना जानी कहाँ चल गईंली सन
लागत बा मौसम कुछ
बदमिजाज जस हो चलल बा अब।
Rakesh Patel

28/01/2023

ओरहन
- डॉ. सन्तोष पटेल

सभे लगे आंख बा
सब कुछ साफ सोझा लऊकत रहेला
जईसे साफ पानी के पोखरा में
चलत मछरी देखाई देली सन।
बाकिर ओकरा दिने दुपहरिया में ध लेला रतौनी
जब लूगा लुटाला कवनो बेटी के
आबरू लुटाला कवनो बहिन के।

सभे पाले कान बा
सब कुछ साफ साफ सुनाई देत रहेला
जईसे झरना से गिरत पानी के कल कल के आवाज।
बाकिर ऊ कान से सुनाई ना देवेला
कवनो गरीब के कोंहरे के आवाज
ओकर सुसुकी, ओकर भोकसी पारल रोआई।

सभ लगे नाको बा
सब कुछ सूंघ लेवे ले तुरंत
जब अपना खाए के बात होखे त
अपना बचे के होखे मौका त
ओकरा नीमन आ बाउर
खुसबू आ बदबू पकड़ में आ जाला
बाकिर अरुआइल, मरुआइल आ टटाईल खाना
देला केहू के खाये के त
ओकर नाक के थेप्पी बंद हो जाला।

सभे लगे बुद्धिमान बा
सब कुछ ओकरा बूझात रहेला
जवन ओकरा मतलब के बात होखे
ओकरा बादो जब ऊ पुछेला कि काहे कोई गुलाम बा
काहे मेहरारून पर। आत्याचार बा
काहे बा कोई दबाइल
काहे कोई अछूत बा
काहे बा कोई गरीबी के चक्की में पिसाइल
आ चलत बा कइसे
बिना मेहनत के केहू के ठूसाइल?

तब अइसन अतहत पर
ओरहन दिहल जरूरी ह
कि काहे रखने बानी
अईसन आंख
अईसन कान
अईसन नाक
अईसन बुद्धि ?

इको पोएट राकेश कबीर की कुछ भोजपुरी रचनाएं। उनका आज जन्मदिन है। सबसे पहले उनकी हार्दिक बधाई। भोजपुरी में नदियों, तालाब, च...
15/01/2023

इको पोएट राकेश कबीर की कुछ भोजपुरी रचनाएं। उनका आज जन्मदिन है। सबसे पहले उनकी हार्दिक बधाई।

भोजपुरी में नदियों, तालाब, चारागाह, ताल तलैया की खूबसूरती को कवियों ने अपने अपने ढंग से वर्णन किया है लेकिन राकेश कबीर के बारे में आलोचक रामजी यादव लिखते हैं - कवि राकेश कहते हैं कि सारी नदियाँ किसानों की हैं लेकिन कुछेक नदियों की पवित्रता में पुराण लिखने वालों ने देश की जनता के दिमाग पर जो पाखण्ड लिख दिया है, उससे केवल दावेदारी ही नहीं खत्म हो गई है बल्कि जिम्मेदारी भी खत्म हो गई है। हर नदी पवित्र है। नदी मात्र पवित्र है जीवनदायिनी है। किसानों ने इस पाठ को पढ़ा होता तो वे अपनी स्थानीय नदियों को पाटकर खेत न बनाते बल्कि उसे उफनने का रास्ता देते। तब भयानक सूखा न होता। फसलें न सूखतीं। बल्कि धरती की उर्वरा बढ़ती। इसके विपरीत हुआ यह कि ऊपर से चले आए लालच के जीवाणुओं ने दिल-दिमाग को काबू में कर लिया। किसान अपने दुःखों का कारण भूलता गया। उसने अपनी सामाजिकता और गोलबंदी का महत्व न समझा और लगातार पाखण्डियों को खाना खिलाकर शंकर की तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुलामी करता रहा। इसलिए मैं राकेश की कविताओं को खासतौर पर पढ़ते हुए उनमें अंतर्निहित ध्वनियों को पकड़ने की कोशिश करता हूँ। इन ध्वनियों में जो वेदना है वह वस्तुतः किसान की वेदना है। जो उल्लास है वह किसान का उल्लास है। जो आक्रोश है वह किसान का आक्रोश है।

1
ठगवा

ठगवा दावा ठोक देलें सन कि
नदी, जंगल, पोखरा आ चरनी
सब ओकनिये के बाप के रहे
ऊहो बिना कवनो सबूत के।

आ नकल नवीस खोजत रहेला
तमाम कागजात आ सबूत
ई साबित करे खातिर कि
नदी, किसान के ह
जंगल सभकर
पोखरा मछरी के
आ चरनी गाय भईस मवेसी के।

बाकी कुछओ साबित ना कर पावेला
बेचारा नवीस आ
ठगवा सगरी नगरिया लूट ले जाला।
2
नदी गीत

बदरी के छांव में
एगो पहाड़ी गांव में
बान्हीं घुंघरू पांव में
बहत रहले एगो नदी

गवे गवे उतरेली
लवे लवे ढुलकेली
हंसेली आ सवरेली
मचलत रहेली एगो नदी।

जंगल के पहरा में
धूप के सुनहरा में
हवा के पलना में
झूमत रहेली एगो नदी।

मछरी के पांव में
मांझी के नांव में
ननकी ननकी पांव में
ठुमकत रहेली एगो नदी

धाम कबो छांव में
गाछ के ठाव में
हां, उहे हमरो गांव में
बहत रहेली एगो नदी

पिया के तालाश में
मिलन के आस में
सिमट के एगो धार में
भटकत रहेली एगो नदी।
3
उलटी धार

जब खेत शहर बन जाला
आ ओकरा में सभ्य लोग बस जाला
तब फसल ना घर के फर्श सिंचल जाला
खेतन के सींचे खातिर कालहु के बनल नहर
गंदा - नाला बन जाले।

ओकर निर्मल पानी करिया हो जाला
'सभ्य लोगन क करिया सोच लेखा '
और करिया 'पानी क धार'
उलटा बहे लगेला
आ खोजेला एगो रास्ता
शहर से नदी तक जाये खातिर
नदी क गंदा करे खातिर
ओकर अस्तित्व मेटावे खातिर।

आज नेपाल से प्रकाशित 'गोरखापत्र ' में हमार आलेख -'भोजपुरी दलित साहित्य के अवधारणा' छपल बा।दलित साहित्य का ह?दलित-साहित्य...
01/10/2022

आज नेपाल से प्रकाशित 'गोरखापत्र ' में हमार आलेख -
'भोजपुरी दलित साहित्य के अवधारणा' छपल बा।

दलित साहित्य का ह?

दलित-साहित्य ऊ साहित्य ह जवन सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, क्षेत्र में पिछडल, उत्पीड़ित, अपमानित, शोषित लोग क पीड़ा के व्यक्त करेला। दलित-साहित्य समाज में बनल जातीय व्यवस्था से उपजल भेदभाव के अनुभव का साहित्य ह। दलित-साहित्य में आक्रोश भा विद्रोह की भावना प्रमुखता रहेला बाकिर खाली आक्रोश या विद्रोह दलित-साहित्य ह अइसन बात नईखे।

दलित-साहित्य वर्णवाद, जातिवाद आ छुआछूत के आधार पर, समाज के एगो बड़का हिस्सा क अछूत भा अयोग्य माने जाने के विरोध करेला आ ओकरा खिलाफ संघर्ष करेला।

आजु दलित साहित्य के लेखन बहुत भासा में हो रहल बा जेकरा माध्यम से ओह भासा- समाज के दलितन क पीड़ा, तकलीफ, शोषण, उत्पीड़न, उनका संगे भइल अमानवीय बेवहार, अत्याचार, व्याभिचार क विरोध, वेदना और संघर्ष के भासा में अभिव्यक्त कइल जा रहल बा।

भोजपुरिया समाज में सदियन से चलल आ रहल जाति व्यवस्था, अछूतपन आदि की घृणित प्रवृति आजो मौजूद बा। भारत में 50 हज़ार वर्ग मील में फैलल भोजपुरी भासी क्षेत्र में आजो अछूत समाज, दलित समाज, पिछड़ी जाति के समाज पूरा तरह शिक्षित, सम्पन्न, स्वावलंबी आ संगठित नइखे बाकिर दलित जातियन के बड़का समूह में प्रतिरोध क साहित्य बिखरल बा है जवन जाति व्यवस्था भा वर्ण व्यवस्था पर चोट कर के मानवावादी समतामुलक समाज बनावल चाहत बा।

भोजपुरी दलित साहित्य के आधार

भोजपुरी साहित्य में दलित चेतना के मुखर स्वर कबीर आ रैदास (रविदास) के काल से मुखरित भइल। कहे के ना होई कि कबीर आ रैदास दुनू महापुरुष की जन्मस्थली भोजपुरी भाषी क्षेत्र ह आ संगे दलित चिन्तन के उद्गम बिंदु भगवान बुद्ध के विचार ह। उनकरो जन्मस्थली भोजपुरी भासी क्षेत्र ह। मूलतः बुद्ध के दर्शन दलित साहित्य के दार्शनिक आधार ह।

दलित सहित क विस्तार

दलित साहित्य भासा के नाम पर प्रचारित होखे वाला साहित्य ना ह। जे तरह मराठी, हिन्दी, गुजराती, पंजाबी, बंगला, तेलुगु, तमिल साहित्य बा, ओहि तरह के दलित साहित्य नइखे। हिन्दी साहित्य, बंगाली साहित्य, मराठी साहित्य, गुजराती साहित्य भा भोजपुरी साहित्य आदि नाम प्रस्थापित साहित्य के नाम ह जवन अधिकतर सनातनवादी, परम्परावादी स्वरूप में बा। हिन्दी साहित्य, बंगाली साहित्य आदि नाम, विचारधारा पर आधारित ना ह आ ऊ परम्परा के वाहक विचारधारा के ढोवे वाला नाम ह, मतलब सनातनी परम्परावाहक नाम ह।

जब हिन्दी साहित्य क बात होखी, बांग्ला साहित्य के बात होखी तब संत साहित्य के महत्व के बतावल जाई। भगवद्गीता, रामायण, महाभारत क विचारधारा क समर्थन कइल जाला। जे प्रकार देववाद, भाग्यवाद, ईश्वरवाद, आत्मवाद, वर्णवाद, जातिवाद आ जातिभेद क समर्थन किया जाला ओहि लेखा कर्मवाद, भोगवाद के समर्थन कइल जाला।बाकिर दलित साहित्य के मतलब समाज में परिवर्तनवादी विचारन के व्यक्त करे वाला साहित्य।
दलित शब्द, भाषा के सूचित करे वाला शब्द ना ह बाकिर परिवर्तन सूचित करने वाला शब्द ह।

प्रो. विमल कीर्ति ' दलित साहित्य में बौद्ध धम्म दर्शन और चिन्तन का प्रभाव' में लिखलें बाड़न-"आज भारत की अधिकांश भाषाओं में दलित साहित्य लिखा जा रहा है। भाषा की से भी दलित साहित्य संस्कृत भाषा का समर्थन नहीं करता है। दलित साहित्य लोकभाषा को समर्थन करता है। इसलिए दलित साहित्य में बहुत बड़ी मात्रा में भाषा की सहजता और सरलता दिखायी देती है। उसी प्रकार दलित साहित्य में परम्परागत हिन्दू मिथकों का प्रयाम कथाओं का भी कोई स्थान नहीं है।"

भोजपुरी दलित साहित्य में, चेतना के उपलब्धि समता आ समानतावादी समाज की अपेक्षा बा जहाँ वर्णभेद ना होखे, जाति भेद ना होखे, छुआछूत ना होखे, कहे के मतलब सभ तरह के भेदभाव से अलग एक मानववादी समाज के स्थापना होखे।

कबीर के अमरदेसवा एगो अईसन भोजपुरी समाज बनावे क यूटोपिया बा जहवां ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आ शुद्र क भेद के खात्मा करे स्वर बा । कबीर साहेब कर्म व्यवस्था क 'अमरदेवसा' से बाहर करत बानी । ऊहां के कहनाम बा :

बाम्हन छत्री न सूद्र बैसवा, मुगल पठान न सैयद सेखवा।
आदि जोति नहिं गौर गनेसवा, ब्रह्मा बिस्नु महेस न सेसवा।।
"जहवाँ से आयो अमर वह देसवा। अमर रहे अमरदेसवा।"

आ अमरदेसवा क विराट परिकल्पना कारेवाला कवि कबीर, जेकर संदेश रहे:-

दास कबीर ले आए संदेसवा,
सार सबद गहि चलौ वहि देसवा।"

भोजपुरी दलित चेतना के स्वर मूलतः मानवतावादी बा आ संत शिरोमणि रविदास 14 वीं सदी में जनमल अइसन मानवतावादी आ कल्याणकारी राज्य के स्थापना क सपना देखले रहली । संत रैदास के पद के देखीं -

‘बेगमपुरा सहर को नाउ,दुखु-अंदोहु नहीं तिहि ठाउ’ में व्यक्त काल्पनिक समाजवाद की ‘बेगमपुरा’ अवधारणा की तुलना थामस मोर के उपन्यास ‘यूटोपिया’ से कइल जा सकेला।

रैदास के एह पद में कहल गइल बा कि आदर्श देश बेगमपुर ह जेकरा में ना कोई दुःख हो, ना रंगभेद हो, ना जाति भेद हो, ना वर्ण भेद हो, ऊँच नीच के भाव से मुक्त होई आ केहू गुलाम भा बेगार ना हो, ऊहे राज्य ह- बेगमपुरा, रविदास के अनुसार

बेगमपुरा वतन में हर प्राणी के सामाजिक समानता, राजनैतिक, सांस्कृतिक, मानवीय अधिकार होखी।

हीरा डोम के कविता अछूत के शिकायत महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पादकत्व में 'सरस्वती' पत्रिका में 1 सितम्बर 1914 (हीरक जयंती अंक) भाग -15, खंड 2 संख्या-3, पूर्ण संख्या 177 भाद्र पक्ष - 11, 1971, पृष्ठ 512-13 पर प्रकाशित भइल रहे। एकरा कवनो भारतीय साहित्य में प्रथम दलित कविता होखे के गौरव प्राप्त बा।

सुश्री डी पद्मारानी आपन शोध ' डिस्टिंटिव वायस ऑफ़ डिस्ट्रेस' में उल्लेखित कइले बाड़ी कि हीरा डोम के कविता अछूत के शिकायत पहिल दलित कविता ह। अछूत के शिकायत में हीरा डोम भोजपुरी समाज में व्याप्त जातिवाद के निकृष्टतम आ विद्रूप रूप के देखवले बाड़न।

उदाहरण देखि जा -

"हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी
हमनी के सहेबे से मिनती सुनाइबि।
हमनी के दुख भगवानओ ने देखता जे,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।"

समकालीन भोजपुरी दलित चेतना के कवियन में प्रो. शत्रुघ्न कुमार, अरुण भोजपुरी (रेदास के आठवें वंशज होने का दावा), रामपति रसिया, रामचन्द्र राही, शिव प्रसाद किरण, धनुषधारी कुशवाहा, डॉ सूबेदार सिंह अवनिज, पारस नाथ भ्रमर, विरोदय, डॉ गोरख प्रसाद मस्ताना, नवल किशोर निशांत, रामजीत राम, डॉ चंद्र भान राम, जय प्रकाश प्रकाश, डॉ सागर, हीरा प्रसाद ठाकुर, रामयश अविकल, डॉ. रामवचन यादव, डॉ मधुलिका बेन पटेल, संदीप पटेल, डॉ. संतोष पटेल के नाम लिहल जा सकेला।

- डॉ. संतोष पटेल, सहायक कुलसचिव, दिल्ली शिक्षक विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।

परजा के सोहर -----------------चाहे गोरहर हो कि चाहे करिया कि रजवा त रजवे न बाचाहे घरवा में हो कि चाहे जेलिया में सजवा त ...
30/09/2022

परजा के सोहर
-----------------
चाहे गोरहर हो कि चाहे करिया
कि रजवा त रजवे न बा
चाहे घरवा में हो कि चाहे जेलिया में
सजवा त सजवे न बा !

राजा जी के हथिया हेराले त खोजहट पड़ेले मड़इया में हो
जेकर लठिया ब तेही के इज्जतियो
गरिबवा गरिबवे न बा !

राजा के महलिया में सोने के पिंजरवा
सुगुनवा नहिन बोले हो
चाहे पितरी के हो कि चाहे सोनवा
पिंजरवा पिंजरवे न बा !

रहि रही पखिया पसारे सिकोड़े अकसवा में फुर फुर हो
चिरई बोले मैं रानी हूं मन की
अजदिया अजदिए न बा !

सोने के टिकुलिया लगइबों कि ललना खेलइबों
अंगनवा में हो
बहिना पिपरे के पूजत बुढ़ैलीं
सपनवा सपनवे न बा !

रहि रहि चिहुंके निहारे कि रहि रहि चोंचिया से मारे ले हो
भइल लोहू लुहान चिरइया
अइनवा अइनवे न बा !

घुटना ले घुंघटा से बोले बहुरिया त बोलिया बबूरे ले हो
बहुरी केतनो लुकइबू छिपइबू
कि बोलिया त बोलिए न बा !

मइया के छतिया झुरान
सनेहिया के बिरवा अंगनवा में हो
नाहीं नेहिया के नीर नयनवा कजरवा कजरवे न बा !

बाबू के पढ़इया लिखइया में घरहू के मसुरी बयाने भइल
बाबू सतुआ पिसान ले खोजें
नोकरिया नोकरिए न बा !

देस के महलिया में जनता रखइल
कि खाए पीए टहल करे
कइसन सेनुरा तिजोरिया के हकवा रखइल रखइले न बा !

कहूं डूबे बाढ़ में फसलिया
कि कोढ़िया निहारे बदरवा कहूं
होई जहां होत होई विकसवा मड़इया मड़इए न बा !

● देवेन्द्र आर्य

राकेश कबीर के पांच गो भोजपुरी में लिखल इको पोएट्री।- आलेख आ अनुवाद  डॉ.संतोष पटेलइको पोएट्री में कवि जंगल, नदी, जल आ पहा...
22/09/2022

राकेश कबीर के पांच गो भोजपुरी में लिखल इको पोएट्री।

- आलेख आ अनुवाद डॉ.संतोष पटेल

इको पोएट्री में कवि जंगल, नदी, जल आ पहाड़ के आवाज, दर्द के हमनी के सोझा ले के आवेलन। इको पोएट्री साहित्य में विमर्श के दौर में नया विषय बा बाकिर अदमी आ आदमीयत के बचावे के विषय के भरल बा।

पूरा पर्यावरण के बचाव के चिन्ता राखे वाला कविता कहल जा सकेला। साहित्य में प्रकृति के बड़ा महातम बा। इको पोएट्री नया बेशक लागत होेखे बाकिर 1857 में इकोलॉजी शब्द के उत्पत्ति भइल जेकर पहिल प्रयोग ऑर्नेस्ट हैकिल कईले रहे।

इकोलॉजी के बारे में चिंता शुरू से रहल। बाकिर जवना के विकास या डेवलपमेट कहल गइल ऊ आखिर में इंसान खातिर ओकर अस्तित्व खातिर घातक सिद्ध भइल आ उहें से इको पोएट्री के शुरुआत भइल।

भोजपुरी कविता के खाली वेदर रिपोर्ट कहल केतना जाइज बा? आज जब इको क्रिटिसिजम के स्थापना चेरिल ग्लोटफेल्टी (Cheryll Glotfelty) के मार्फत भइल त साहित्य में पर्यावरण के चिंता के प्रमुखता से जगह दिहल गइल। भोजपुरी में इको पोएट्री पर चिंता करत हम पीटर म्यूलहासलर के ईयाद करब जे मानत रहले कि प्रांतीय व स्थानीय भाषाओं के क्षरण को रोकना चाहिए। उसका संरक्षण करना चाहिए।

राकेश कबीर एह कविता में खाली प्राकृतिक संपदा के नाश होखे से जनमल संकट के खाली शब्द नईखन देत बलुक इंसानियत क खिलाफ हो रहल नास के खिलाफ आपन अस्तित्व से भरल तर्क दे रहल बाड़न।

देखीं कुल कवितन के।

1
उलटा धार

जब खेत शहर बन जाला
आ ओकरा में सभ्य लोग बस जाला
तब ऊहां फसल ना घर के फर्श सिंचाला
खेतो के सींचे आईल काल्हू के नहर
गंदा नाला बन जाला।

ओकर निरइठ पानी करिया हो जाला
'सभ्य लोगन के करिया सोच लेखा '
आ करिया 'पानी के धार' उलटा बहे लागेला
आ खोजेला एगो रास्ता
शहर से नदी तक जाये खातिर
नदी के गंदा करे खातिर
ओकर नामोनिशान मेटावे खातिर।

2

डुगडुगी

बादल के गोल में खड़िआ के
हवा पीट रहल बा डुगडुगी
ए जमीन तनिका धीरज धरीं
अबही त हमनी बेहिसाब बरसब।

पियासल रहली जवन बहुत दिन से नदी
उनकर छाती के
अमरीत से भरे के बा लबालब।

तनी धीरज राखा ए जमीन
अबही त हमनी बेहिसाब बरसब।

3

बेचारी नदी

कल-कल बहत गंदा नाला
नदी सूखत जात बाड़ी सन
सूख रहल बा झील केतना
दरिया के साँस टूट जात बा
भर दिहल गइल इनार कुल्ह
पोखरा कुल भइल जात बा बेपानी।

अब त शहर के गंदा नाला से
बचल बा नदियन में मामूली हरकत

ना त पहाड़ वाला त पानी के सप्लाई
ना जाने ओकरा में कब से बंद कर देलें
कहवां जइहें पियास बुझावे बेजुबान चिरईन
इंसान त आपन दुर्गति ख़ुद टनले बा।

4

रोवत पहाड़

धरती के सीना बेध के
भर द ओकरा में बेहिसाब पत्थल
दूर दराज ले बना द
लमहर चाकर सुन्नर सड़क।

तेज रफ्तार, दऊरत भागत सड़क
बेशक लागेला निक
बाकिर एह मासूम बेजुबान पहाड़न के काटि के
माटी में मिला देवे के हमनी क सनक
कहवां ले जायी हमनी?

बाची खाली बिना पहाड़ के धरती
जहवां से शुरू होई जिनगी के ओरा जाये के कथा।

5

हवा, पानी आ तूफान

जब हवा आ पानी
करें ले साजिश
रच के बवरेड़ा
उखाड़ देलें
हजारन गाछ बिरिछ


एह कुल्हि दहशत गर्दी के
आसमान बेचारा
देखत रहेला बेबस

तूफान आपन बदमासी के
एगो चक्कर पूरा करि के
तमाम जिनगीयन के तबाह कर के
बन जाला चक्रवात।

19/08/2022
स्वागत बा। ओपन मंच बा। जुड़े के बा अपने सभ ने।
11/06/2022

स्वागत बा। ओपन मंच बा। जुड़े के बा अपने सभ ने।

चैत के दिन हचैत क दिन हभोरहरिये कटिया  खातिरनिकल पड़ल बाड़न किसानउनकर सूरज उहें खेतन में उगेलेंदिन चढ़ेला जब चिलकेला घाम...
06/04/2022

चैत के दिन ह

चैत क दिन ह
भोरहरिये कटिया खातिर
निकल पड़ल बाड़न किसान
उनकर सूरज उहें खेतन में उगेलें

दिन चढ़ेला जब चिलकेला घाम
लौटलें घरे चना चबैना खातिर
प्याज के गांठ टेंट में बन्हले
फेर फेर लौटलें खेतन में
जहवां सोना के मनका जईसन फईलल बा करपी

चैत क दिन ह
जब सांस लेवे के संवास नईखे
कटनी, दवनी के बाद भूसा क गोहरा
पशु धन के पेट क फिकिर हरमेसा

ताल तलैया में घट गइल पानी
गील माटी मिट्टी ढोवे लगली मेहरारू लो
कोठिला, कोठार रचे क धुन में
माटी नहाई जुटल बाड़ी ऊ मन प्राण से

चैत के दिन ह जब कई बेर
मगुर गढ़वा चमकेला सांझ में
त धुकधुकी धर लेला किसान क
खून पसेना क कमाई खलिहान में बा
आ बरखा क डर मन में बैठल ह

महुआई गंध के किरिया
चैत मरहूं तक के फुर्सत ना देला
गांव के गांव सिवान में उमड़ल बा
एने कोईल बिया कि कूहकि कूहकि के
पागल हो रहल बिया गाछ में ।

सुशीला पुरी जी कलम हिंदी रचना के भोजपुरी अनुवाद संतोष पटेल।

06/04/2022

चइता
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आइ गइल चइत महिनवा हो रामा
पिंहके परनवा।

चिठिया लिखवलीं , सनेसवा पढवलीं
आधी आधी रतिया ले रहिया रखवलीं
नाहीं अइलें हमरो सजनवां हो रामा
पिंहके परनवा।

बेलिया फुलाले , चमेलिया फुलाले
केतनो जतन करीं बात छितराले
पिया बिन सून मोर दियना हो रामा
चइत महिनवा।

गेहुआं के बलिया से डोले मोरा जियरा
अंखिया पर हमरे पिरितिया के पहरा
कब सच होइहें सपनवा हो रमा
पिंहके परनवा।

जस जस छिटकेले चइत अंजोरिया
मन अकुलाय , बाढ़े बिरह उमिरिया
नाहीं अइलें कउने करनवा हो रामा
हमरो सजनवां।

देवेन्द्र आर्य जी के कलम से।

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25 , रंजित सिंह ब्लाक, खेल गाँव
नई दिल्ली
110048

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