03/05/2020
प्रिय इरफ़ान साहब,
सुबह कुछ 11 बजे आपकी खबर मिली, माफ़ कीजियेगा देर से सो कर उठता हूँ इसलिए पहले तो यकीन नहीं हुआ, लगा कि शायद कोई बुरा सपना है। मैंने करवट ले कर अपनी चढ़ती साँसों को काबू करना चाहा। पर फिर फ़ोन बजने लगा, हर सेकंड; रह रह कर वो ही शब्द आँखों के सामने, 'इरफ़ान नहीं रहे'। भाषाएं अलग थीं, पर संवेदनाएं वो ही: दुःख, टीस, इंकार, झुंझलाहट और निराशा। खिड़की से आती धूप ने अपने पाँव सिकोड़ लिए। कुछ महसूस नहीं हो रहा था, सब सुन्न हो चुका था पर मन बेचैन था - वो मानने को तैयार नहीं था। ऐसा कैसे हो सकता है आखिर? अभी अभी तो आप ठीक हो कर लौटे थे, आवाज़ में वो ही रौब, अदाकारी में वो ही पहले वाली मदमस्ती, मोटी डबडबाई आँखों में वो ही सम्मोहन की बेशुमार ताक़त; मन मानने को तैयार नहीं था कि उन आँखों को पलकों ने हमेशा के लिए अपने आँचल में छुपा लिया। अपनी सारी ताक़त समेट कर मैं उठा, भागने के लिए। भाग जाना चाहता इन सबसे दूर। भाग जाना चाहता था इस चीरते सन्नाटे से दूर उस दुनिया में जहाँ आपकी खिलखिलाती हँसी सुन सकूँ, जहाँ आपका, "क्या भैय्या?" एक बार फिर चेहरे पर मुस्कान ला सके। पर सिर्फ कुछ कदम ही चल पाया। लग रहा था जैसे किसी ने सीने पे पत्थर रख दिया हो; दिल बैठ सा गया, उम्मीद की लौ बुझ सी गयी और मानो या न मानो, न चाहते हुए भी मैंने हकीकत से समझौता कर लिया।
सोचा खुद को व्यस्त रखूँगा तो दुःख महसूस नहीं होगा, पर गहरे कुएँ छिछले पानी से कहाँ भरा करते हैं। बहुत कोशिश की मैंने कि मन लगा रहे, काम करता गया, बिना कुछ कहे, बिना किसी से अपने काम में बहस किये, पर शाम होते होते अँधेरा रौशनी को काटने लगा। इसलिए, लिख रहा हूँ ताकि ये अँधेरा मुझे निगल न जाए, इसलिए भी लिख रहा हूँ कि किसी अक्षय के लिए उसके इरफ़ान के प्रति अलफ़ाज़ काम न पड़ जाएँ।
बहुत कच्ची उम्र से आपके काम को देखा, उस उम्र में जहाँ सिनेमा और आर्ट तो छोड़ो दुनियादारी की समझ नहीं थी। रविवार की हर सुबह 9 बजे, चाय के साथ चंद्रकांता की कहानी, माना थी ज़रा पुरानी पर आपकी अपने किरदारों में झोंकी गयी शिद्दत उन चाय की चुस्कियों में ऐसी घुली कि वो ज़ायका जुबां से होता ज़हन में उतर गया। उसी दौर में ‘बनेगी अपनी बात’ भी देखा और ये सोच के काफी अचंभित भी हुआ कि ये चंद्रकांता वाला लड़का इस सीरियल में कितना अलग दिखता है, कितना अलग बर्ताव करता है। उस समय वेर्सिटैलिटी की समझ नहीं थी, इसलिए अचंभित हुआ। आगे चल कर ‘हासिल’ देखी और फिर सही मायनों में अचंभित हुआ। ‘मक़बूल’ तक आते - आते मैं ये समझ चुका था कि ये इंसान किसी अलग मिट्टी का बना है, जो किरदारों में ढलता नहीं बल्कि उनकी रूह में उतर जाता है। और साहब, ऐसा उतरता है की दिलो - दमाग उसके किरदार के ग़ुलाम हो जाते हैं। जब लगा कि आप सिर्फ सीरियस किस्म के किरदारों में रुचि रखते हैं तभी आपने ‘लाइफ़ इन अ... मेट्रो’ में मोंटी की कॉमिक टाइमिंग से मेरा भ्रम ज़मीन पर पटक के चकनाचूर कर डाला। 2000 का दशक ख़त्म होने तक मैंने अभी भी इरफ़ान खान को सिर्फ सतही तौर पर देखा था। फिर 2012 में आपको ‘पान सिंह तोमर’ में देखा, लगा जैसे आपने एक झटके से पैरों के नीचे की ज़मीन खींच ली हो। तिग्मांशु धुलिया के साथ आपकी केमिस्ट्री ‘हासिल’ के बाद एक बार फिर निखर कर आई। "बीहड़ में बाघी होते हैं, डकैत तो पार्लियामेंट में होते हैं", डॉल्बी साउंड में ये लाइन सुन के मेरे रोंगटे खड़े हो गए, बहुत कम ऐसा हुआ है कि मैं कोई भी फिल्म देख के रोया हूँ, उस दिन आपका काम देख के मैं अवाक रह गया। कॉलेज जाना बंद कर दिया, आपकी सारी फिल्में खंगालने बैठा। ‘एक डाक्टर की मौत’ से लेकर ‘द नेमसेक’, ‘चॉक्लट’, ‘क्रेज़ी ४’, ‘दिल कबड्डी’, ‘7 खून माफ़’; मैंने सब देखा। फिल्म कैसी भी हो, इरफ़ान को अपने काम की बदौलत स्क्रीन पर जादू बिखेरते मैंने हर बार देखा। कितनी ही फिल्में हैं जिनमे उनका औसत काम भी मेडिओक्रीटी से कहीं ऊपर है। आने वाले वर्षों में ‘द लंचबोक्स’, ‘हैदर’, ‘पिकू’, ‘मदारी’ और ‘तलवार’ जैसी फिल्मों ने ये साबित कर दिया कि भारतीय सिनेमा के पास एक ऐसा असीम फनकार है जिसकी पूरी दुनिया कायल है और उसके काम का लोहा मानती है।
‘द लंचबोक्स’ में साजन फर्नांडेज़ जैसा रिजर्व्ड किरदार आपने इतनी subtlety के साथ निभाया और इतनी सहजता से आपने करैक्टर का आर्क बदला कि मुझे एहसास भी नहीं हुआ कि कब मेरे चेहरे पे एक मुस्कान आ कर बैठ गयी। सच कहूं तो सिनेमा की समझ मुझे आपके काम से आयी है। कैमरे के सामने एक एक्टर के लिए सबसे कठिन काम होता है मूड और इमोशन की नब्ज़ पकड़ना और सही मौके पर चोट करना, वो रिदम लाने में अच्छे - अच्छे एक्टरों की ज़िंदगियाँ तमाम हो जाती हैं पर इरफ़ान खान के लिए ये रिदम उनकी उँगलियों पर होती थी। आज 29 अप्रैल की इस तारीख के बाद कुछ कहानियां हमेशा के लिए अधूरी रह जाएंगी, कुछ किरदार हमेशा के लिए मौन हो जाएंगे।
वो देश जहाँ छोटे - छोटे मतभेद दुश्मनी में बदल जाते हैं, आज वहां सभी शोक के इस माहौल में साथ थे, चुप - चाप एक दुसरे को निहारते हुए, एक दुसरे की व्यथा समझते हुए। इन चेहरों को देख के इनके किसी अपने के जाने का दुःख साफ़ दिख रहा है। उस कलाकार की सबसे बड़ी कमाई क्या होगी जो अपना जीवन त्याग कर लोगों को अपने दुःख में एक कर गया? तिग्मांशु धुलिया किस हाल में होंगे पता नहीं, अपना प्रेरणा स्त्रोत, अपना पुराना दोस्त, अपना यार खो देना इंसान को अंदर से तोड़ देता है। अपने परिवार का कोई सदस्य खो देना ज़िंदगीभर के घाव दे जाता है। मैं उम्मीद करूँगा कि आपका परिवार और आपसे से जुड़े सभी लोग धैर्य रखें और इस दुःख से जल्द से जल्द उबर सकें।
इरफ़ान साहब, आपके साथ काम करने का मौका नहीं मिला, आपसे मिला तो कुछ कह भी न पाया, मंत्रमुग्ध हो गया था, इंडस्ट्री स्टैण्डर्ड, "I really admire your work" भी न फूट सका मुँह से। कलाकारी में आपका कद इतना ऊंचा था कि मेरी हैसियत बजाये ऊपर देखने के आपके पैरों में नतमस्तक हो बैठी। और फिर यूँ ही "साजन" का वो गाना दिमाग में दौड़ने लगा, "मेरा दिल भी कितना पागल है, ये प्यार तो तुमसे करता है, पर सामने जब तुम आते हो , कुछ भी कहने से डरता है"।
जिस चीज़ में मेरा कुछ योगदान न हो मैं उस पर कभी गर्व नहीं करता पर आज मुझे गर्व महसूस होता है कि मैं उस युग में जीया हूँ जहाँ मैंने आपका काम देखा। असर छोड़ जाना आपकी फितरत में शामिल था चाहे वो पर्दे पर हो या फिर फिर असल ज़िन्दगी में।
आँखें सूनी रह गयीं, एक पीढ़ी बदनसीब रह गयी जो जाते जाते आपको विदा भी न कर सकी। इतना बड़ा फनकार, ज़िन्दगी का सफर ख़त्म कर के अकेला ही चल पड़ा। मलाल और कसक - ये दोनों ही बेहद खतरनाक शब्द हैं, और इनके पीछे का अर्थ पूरी ज़िन्दगी मेरी आँखों को रुआंसा करता रहेगा। इरफ़ान साहब, धन्यवाद, मुझे और मुझ जैसों को अपने जादू से रूबरू करवाने के लिए। धन्यवाद उन सभी बातों के लिए जो मैंने जाने अनजाने आपसे सीखीं और अपनी आदतों में शुमार कर लीं। काश आप इस तरह नहीं जाते, काश हमे कभी ये दिन न देखना पड़ता।
~ अक्षय आचार्य।
29/04/2020